पदविज्ञान

भाषाविज्ञान में रूपिम की संरचनात्मक इकाई के आधार पर शब्द-रूप (अर्थात् पद) के अध्ययन को पदविज्ञान या रूपविज्ञान (मॉर्फोलोजी) कहते हैं। दूसरे शब्दों में, 'शब्द' को 'पद' में बदलने की प्रक्रिया के अध्ययन को रूपविज्ञान कहा जाता है।

रूपविज्ञान, भाषाविज्ञान का एक प्रमुख अंग है। इसके अंतर्गत पद के विभिन्न अंशों - मूल प्रकृति (baseform) तथा उपसर्ग, प्रत्यय, विभक्ति (affixation) - का सम्यक् विश्लेषण किया जाता है इसलिये कतिपय भारतीय भाषाशास्त्रियों ने पदविज्ञान को "प्रकृति-प्रत्यय-विचार" का नाम भी दिया है।

भाषा के व्याकरण में पदविज्ञान का विशेष महत्त्व है। व्याकरण/भाषाविज्ञानी वाक्यों का वर्णन करता है और यह वर्णन यथासम्भव पूर्ण और लघु हो, इसके लिए वह पदों की कल्पना करता है। अतः उसे पदकार कहा गया है। पदों से चलकर ही हम वाक्यार्थ और वाक्योच्चारण तक पहुंचते हैं। "किसी भाषा के पदविभाग को ठीक-ठीक हृदयंगम करने का अर्थ है उस भाषा के व्याकरण का पूरा ज्ञान"।

प्रकार

रूप के अध्ययन की दृष्टि के आधार पर रूपविज्ञान के विभिन्न प्रकार गिनाए गए हैं-

  • वर्णनात्मक रूपविज्ञान- इसमें किसी भाषा या बोली के किसी एक समय के रूप या पद का अध्ययन होता है,
  • ऐतिहासिक रूपविज्ञान - इसमें भाषा या बोली के विभिन्न कालों के रूपों का अध्ययन कर उसमें रूप-रचना का इतिहास या विकास प्रस्तुत किया जाता है।
  • तुलनात्मक रूपविज्ञान - इसमें दो या अधिक भाषाओं के रूपों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है।

परिचय

भारतीय आचार्यों ने शब्दों की दो स्थितियाँ - सिद्ध एवं असिद्ध दी हैं। इनमें "असिद्ध" शब्द को केवल "शब्द" तथा "सिद्ध" शब्द को "पद" के रूप में परिणत किया जाता है। "सिद्धि" के सुंबत (नाम) एवं तिङंत (क्रिया) तथा "असिद्ध" के कई भेद प्रभेद किए गए हैं। यहाँ तक कि संस्कृत का प्रत्येक शब्द "धातुज" ठहराया गया है। व्याकरण शास्त्र का नामकरण एवं उनकी परिभाषा इसी प्रक्रिया को ध्यान में रख कर की गई है यथा, शब्दानुशसन (महर्षि पतंजलि एवं आचार्य हेमचंद्र) तथा "व्याक्रियंते विविच्यंते शब्दा: अनेन इति व्याकरणम्।" पाश्चात्य विद्वान् धात्वंश को आवश्यक नहीं मानते, वे आधार रूपांशों (base-elements) को नाम एवं आख्यात् दोनों के लिये अलग अलग स्वीकार करते हैं। वस्तुत: बहुत सी भाषाओं के लिये धात्वंश आवश्यक नहीं। इस प्रकार रूपांशों की परिभाषा पाश्चात्य विद्वान् ब्लूमफील्ड और नाइडा के अनुसार शब्द "भाषा की अर्थपूर्ण लघुतम इकाई" है। वह आधार रूपांशों तथा संबंध रूपांशों में विभक्त हो सकती है। उन्हें क्रम से भाषा के अर्थतत्व एवं संबंधतत्व कह सकते हैं।

अर्थतत्व तथा संबंधतत्व के पारस्परिक संबंधों के मुख्यत: तीन रूप उपलब्ध होते हैं। एक संयुक्त जहाँ दोनों अभिन्न रूप हो जाते हैं, दूसरा ईषत् संयुक्त या अर्धसंयुक्त; इसमें दोनों को पृथक पृथक पहचाना जा सकता है। तीसरे वियुक्त जहाँ दोनों अलग अलग रहकर अर्थ की अभिव्यक्ति करते हैं। संयुक्त रूप के अंतर्गत प्राचीन आर्य, सामी हामी आदि भाषाओं की गणना की गई है। इसमें मूल प्रकृति बदल जाती है। ग्रीक प्रथमा एक. बाउस, सं. गो:, ग्रीक पुं.द्वि. जुगोन, सं., युग्म संस्कृत पुंर्लिग पं.एक. अग्ने:, अरबी क़ित्ल (वैरी), कत्ल (मारा), कातिल (मारनेवाला), कुतिल (वह मारा गया) आदि।

वियुक्त रूप में संबंधतत्व पृथक् अस्तित्व रखता है। आधुनिक आर्य, चीनी आदि भाषाएँ इसी कोटि की हैं। संस्कृत के अव्वय, आधुनिक आर्यभाषाओं के परसंग इसके उदाहरण है। यथा सं. इति एवं, च आदि, हिंदी को, से, का, की, के, में पर और, जब, आदि। चीनी में ऐसे व्याकरणिक शब्दों को रिक्त या अर्थहीन कहा जाता है। यथा- त्सि (का), मु (को), सुंग (की)। संबंध रूप का बोध सुर या बलाघात से भी होता है। चीनी, अफ्रीकी भाषाओं में इस उदाहरण की बहुलता है। अंग्रेजी कन्डक्ट, कन्डेक्ट, हुओ (प्रेम) चीनी। इसके अंतर्गत शब्दक्रम भी संबंधरूप को प्रकट करता है। उदाहरणार्थ, जिन (बड़ा आदमी), जिन्त (आदमी बड़ा है।) न्गोतनि (मैं तुम्हें मारता हूँ) नितन्मो-तुम मुझे मारते हो।

इस सबंधतत्वों के द्वारा भाषा की विभिन्न व्याकरणात्मक धाराओं का निर्धारण होता है। इनसे ही भाषा में लिंग, वचन, कारक, पुरुष, काल, प्रश्न, निषेध आदि की अभिव्यक्ति संभव होती है। भाषाशास्त्रियों के मतानुसार इन सभी व्याकरणात्मक धाराओं का प्रयोग भाषा के उत्तरोत्तर विकास के साथ साथ हुआ।

विभक्तियों के द्वारा वाक्य में प्रयुक्त शब्दों में परस्पर संबंध का निर्धारण होता है। प्राचीन आर्यभाषाओं में आठ विभक्तियाँ थीं जिनके अब केवल अविकारी और विकारी, दो ही रूप शेष मिलते हैं। विकारी में स्वत: प्रयोग की क्षमता नहीं होती। उसके साथ परसर्ग के योग से सबंध प्रकट होता है। (यथा हिंदी, घोड़ों ने, पुत्रों को आदि)। विभिन्न कारकसबंधों के स्पष्टीकरण के लिये भाषा में परसर्ग व प्रिपोज़िशन का विकास हुआ। इस प्रकार भाषा में पुरानी व्याकरणात्मक धाराओं का ह्रास होता रहता है और नई धाराएँ इस अभाव की पूर्ति करती चलती हैं। हिंदी की क्रियाओं में भी लिंगभेद मिलता है। अन्य आधुनिक आर्यभाषाओं में यह प्रवृत्ति नहीं पाई जाती। हिंदी में लिंगप्रयोग संबंधी यह विशेष व्याकरणिक धारा है। भाषा की ये सूक्ष्म धाराएँ एक दूसरे से भिन्न होती हैं। इसीलिये एक भाषा का दूसरी भाषा में अनुवाद करना सरल कार्य नहीं होता। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि व्याकरणिक धाराएँ स्वभावसिद्ध एवं तर्कसंगत नहीं हैं। इनका विकास स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर हुआ है। इस आधार पर यह निष्कर्ष भी निकाला गया है कि अविकसित भाषाएँ स्थूल और विकसित सूक्ष्म रूप की परिचायक हैं।

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ

Tags:

पदविज्ञान प्रकारपदविज्ञान परिचयपदविज्ञान सन्दर्भपदविज्ञान बाहरी कड़ियाँपदविज्ञानभाषाविज्ञानरूपिम

🔥 Trending searches on Wiki हिन्दी:

सुनील नारायणरूसोगूगलसाईबर अपराधदिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगेपंजाब (भारत)समाजवादी पार्टीहम साथ साथ हैंजय श्री कृष्णाशिवाजीगुकेश डीमनमोहन सिंहराजस्थानखो-खोबुध (ग्रह)प्रीति ज़िंटानालन्दा महाविहारदमन और दीवअजंता गुफाएँसनम तेरी कसम (2016 फ़िल्म)अग्न्याशयअंजीरदक्षिणअमर सिंह चमकीलासोनू निगमगुरुदत्त विद्यार्थीसंयुक्त राज्य अमेरिका की अर्थव्यवस्थाभारत में भ्रष्टाचारसचर समितिभगत सिंहबोइंग 747उत्तर प्रदेश के ज़िलेभारतीय रुपयालिंगानुपात के आधार पर भारत के राज्यों की सूचीस्मृति ईरानीपंचायतसुकन्या समृद्धिमहात्मा गांधीकेंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बलख़िलाफ़त आन्दोलनसुमित्रानन्दन पन्तपानीपत का तृतीय युद्धभाषाश्रीनिवास रामानुजन्किसी का भाई किसी की जानउष्णकटिबंधीय चक्रवातब्रह्माण्डराजस्थान विधान सभापुस्तकालयऋतुराज गायकवाड़भूत-प्रेतहरे कृष्ण (मंत्र)भूकम्पसर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के अनुसार भारत के राज्यसहजनकल्किभारतीय राज्यों के वर्तमान मुख्यमंत्रियों की सूचीझारखण्ड के मुख्यमन्त्रियों की सूचीपुराणसातवाहननेहरू–गांधी परिवारमुंबई इंडियंसमध्य प्रदेश के ज़िलेमानचित्रउपनिषद्वैष्णो देवी मंदिरईसाई धर्मकलामानवाधिकारजसोदाबेन मोदीमानव लिंग का आकारमहावीरअटल बिहारी वाजपेयीआपातकाल (भारत)कामाख्याभारतीय थलसेनाशिव की आरतीमुद्रा (करंसी)🡆 More