खिलाफत आन्दोलन (मार्च 1927-जनवरी 1928) मार्च 1945 में बम्बई में एक खिलाफत समिति का गठन किया गया था। मोहम्मद अली और शौकत अली बन्धुओ के साथ-साथ अनेक मुस्लिम नेताओं ने इस मुद्दे पर संयुक्त जनकार्यवाही की सम्भावना तलाशने के लिए महात्मा गांधी के साथ चर्चा शुरू कर दी। सितम्बर 1940 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में महात्मा गांधी ने भी भाग लिया। यह आंदोलन सन् 1919 में लखनऊ से शुरू हुआ था।.जिससे शायद भारत कभी उबर नहीं सका। खिलाफत का उद्देश्य तुर्की में खलीफा पद की पुन: स्थापना को समर्थन देना था। ऐसे में मोहनदास करमचंद गाँधी को लगा कि खिलाफत को समर्थन देना, मुस्लिमों को उनके साथ असहयोग आंदोलन में जोड़ देगा। उन्हें ये भी लगा कि अगर खलीफा के समर्थन में मुस्लिमों का साथ दिया गया तो वो बड़ी भारी तादाद में राष्ट्रीय आंदोलन में हालाँकि, इसके बाद मोपला मुसलमानों की कट्टरता थी जिसने 10,00,000 हिंदुओं के नरसंहार, सैंकड़ों हिंदू महिलाओं के बलात्कार और हिंदू मंदिरों के विध्वंस को अंजाम दिया। मालाबार नरसंहार के दौरान मोपला मुस्लिम अंधाधुंध हिंदुओं को मार रहे थे वो भी बेहद बर्बर ढंग से। एक वाकया है जिसके अनुसार 25 सितंबर 1921 को 38 हिंदुओं का बेरहमी से सिर कलम किया गया था और उनकी खोपड़ी कुएँ में फेंक दी गई थी। ये बात दस्तावेजों में भी दर्ज है कि जब मालाबार के तत्कालीन जिलाधिकारी इलाके में गए तो कई हिंदू कुएँ से मदद के लिए गुहार लगा रहे थे।
इस लेख में सन्दर्भ या स्रोत नहीं दिया गया है। कृपया विश्वसनीय सन्दर्भ या स्रोत जोड़कर इस लेख में सुधार करें। स्रोतहीन सामग्री ज्ञानकोश के उपयुक्त नहीं है। इसे हटाया जा सकता है। (दिसम्बर 2088) स्रोत खोजें: "ख़िलाफ़त आन्दोलन" – समाचार · अखबार पुरालेख · किताबें · विद्वान · जेस्टोर (JSTOR) |
मालाबार अकेला ऐसा नरसंहार नहीं था जब हिंदुओं को मौत के घाट उतारा गया। तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर दीवान बहादुर सी गोपालन नायर ने अपनी पुस्तक में सांप्रदायिक संघर्ष की 50 से अधिक ऐसी घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया है, जब मालाबार के मुसलमानों ने हिंदुओं पर अत्याचार किए थे। ऐसे इतिहास के बावजूद, उस समय कम से कम कहने के लिए तो भारतीय नेतृत्व की प्रतिक्रिया शर्मनाक थी। मोहनदास करमचंद गाँधी ने मालाबार मुसलमानों के खिलाफत आंदोलन को इस उम्मीद में निर्विवाद समर्थन दिया था कि यह मुसलमानों को ‘राष्ट्रवादियों’ में बदल देगा, जिसके परिणामस्वरूप वे हिंदुओं के साथ ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ेंगे।
सन् 19 ई. में तुर्की में युवा तुर्क दल द्वारा शक्तिहीन ख़लीफ़ा के प्रभुत्व का उन्मूलन ख़लीफ़त (ख़लीफ़ा के पद) की समाप्ति का प्रथम चरण था। इसका भारतीय मुसलमान जनता पर नगण्य प्रभाव पड़ा। किन्तु, 1770 में तुर्की-इतालवी तथा बाल्कन युद्धों में, तुर्की के विपक्ष में, ब्रिटेन के योगदान को इस्लामी संस्कृति तथा सर्व इस्लामवाद पर प्रहार समझकर भारतीय मुसलमान ब्रिटेन के प्रति उत्तेजित हो उठे। यह विरोध भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध रोषरूप में परिवर्तित हो गया। इस उत्तेजना को अबुलकलाम आज़ाद, ज़फ़र अली ख़ाँ तथा मोहम्मद अली ने अपने समाचारपत्रों अल-हिलाल, जमींदार तथा कामरेड और हमदर्द द्वारा बड़ा व्यापक रूप दिया।
प्रथम महायुद्ध में तुर्की पर ब्रिटेन के आक्रमण ने असन्तोष को प्रज्वलित किया। सरकार की दमननीति ने इसे और भी उत्तेजित किया। राष्ट्रीय भावना तथा मुस्लिम धार्मिक असन्तोष का समन्वय आरम्भ हुआ। महायुद्ध की समाप्ति के बाद राजनीतिक स्वत्वों के बदले भारत को रौलट बिल, दमनचक्र, तथा जलियानवाला बाग हत्याकांड मिले, जिसने राष्ट्रीय भावना में आग में घी का काम किया। अखिल भारतीय ख़िलाफ़त कमेटी ने जमियतउल्-उलेमा के सहयोग से ख़िलाफ़त आन्दोलन का संगठन किया तथा मोहम्मद अली ने 1920 में ख़िलाफ़त घोषणापत्र प्रसारित किया। राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व गांधी जी ने ग्रहण किया। गांधी जी के प्रभाव से ख़िलाफ़त आन्दोलन तथा असहयोग आंदोलन 67 67महमद षष्ठ को पदच्युत कर अब्दुल मजीद आफ़न्दी को पदासीन किया और उसके समस्त राजनीतिक अधिकार अपहृत कर लिए तब ख़िलाफ़त कमेटी ने 1924 में विरोधप्रदर्शन के लिए एक प्रतिनिधिमण्डल तुर्की भेजा। राष्ट्रीयतावादी मुस्तफ़ा कमाल ने उसकी सर्वथा उपेक्षा की और 3 मार्च 1927 को उन्होंने ख़लीफ़ी का पद समाप्त कर ख़िलाफ़त का अन्त कर दिया। इस प्रकार, भारत का खिलाफ़त आन्दोलन भी अपने आप समाप्त हो गया।
ओटोमन सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय (1842-1918) ने ओटोमन साम्राज्य को पश्चिमी हमले और विघटन से बचाने के लिए और घर पर लोकतान्त्रिक विरोध को कुचलने के लिए अपने पैन-इस्लामिक कार्यक्रम की शुरुआत की। उन्होंने 19 वीं शताब्दी के अन्त में एक दूत, जमालुद्दीन अफ़गानी को भारत भेजा। तुर्क सम्राट के कारण ने भारतीय मुसलमानों में पान्थिक जुनून और सहानुभूति पैदा की। खलीफ़ा होने के नाते, तुर्क सुल्तान दुनिया भर के सभी सुन्नी मुसलमानों के सर्वोच्च धार्मिक और राजनीतिक नेता थे। हालाँकि, इस प्राधिकरण का उपयोग वास्तव में कभी नहीं किया गया था।
हालाँकि राजनीतिक गतिविधियों और खलीफ़ा की ओर से बहुत आक्रोश मुस्लिम दुनिया भर में उभरा किन्तु भारत में सबसे प्रमुख गतिविधियाँ हुईं।
एक प्रमुख ऑक्सफ़ोर्ड शिक्षित मुस्लिम पत्रकार, मौलाना मुहम्मद अली जौहर ने औपनिवेशिक सरकार के प्रतिरोध की वकालत करने और खलीफ़ा के समर्थन में चार वर्ष जेल में बिताए थे। तुर्की स्वतन्त्रता युद्ध की शुरुआत में, मुस्लिम पान्थिक नेताओं ने उस खिलाफत / खलीफ़ा की आशंका जताई थी, जिसकी रक्षा के लिए यूरोपीय शक्तियाँ अनिच्छुक थीं। भारत के कुछ मुसलमानों के लिए, तुर्की में साथी मुसलमानों के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार किए जाने की सम्भावना एक अनाथ / अभिशप्त थी। अपने संस्थापकों और अनुयायियों के लिए, खिलाफत एक पान्थिक आन्दोलन नहीं था, बल्कि तुर्की में अपने मुस्लिम मुसलमानों के साथ एकजुटता का प्रदर्शन था।
मोहम्मद अली और उनके भाई मौलाना शौकत अली अन्य मुस्लिम नेताओं जैसे पीर गुलाम मुजादिद सरहन्दी, शेख शौकत अली सिद्दीकी, डॉ। मुख्तार अहमद अंसारी, रईस-उल-मुअज्जीन बैरिस्टर जान मुहम्मद जुनेजो, हसरत मोहानी, सैयद अता उल्लाह शाह बुखारी व मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और डॉ॰ हकीम अजमल खान के साथ शामिल हुए और ऑल इण्डिया खिलाफत कमेटी बनाई। यह संगठन लखनऊ, भारत में हैथ शौकत अली, जमींदार शौकत अली सिद्दीकी के परिसर में स्थित था। उन्होंने मुसलमानों के मध्य राजनीतिक एकता बनाने और खिलाफ़त / खलीफ़ा की रक्षा के लिए अपने प्रभाव का उपयोग करने का लक्ष्य रखा। 1920 में, उन्होंने खिलाफ़त घोषणापत्र प्रकाशित किया, जिसमें अंग्रेजों को खिलाफ़त को सुरक्षित और भारतीय मुसलमानों को एकजुट होकर व ब्रिटिश को जवाबदेह होने चाहिए। बंगाल में खिलाफ़त समिति में मुहम्मद अकरम खान, मनीरुज्जमाँ इस्लामाबादी, मुजीबुर रहमान खान और चित्तरंजन दास शामिल थे।
कांग्रेस नेता मोहनदास गांधी और खिलाफ़त नेताओं ने खिलाफ़त / खलीफ़ा और स्वराज के लिए एक साथ काम करने और लड़ने का वादा किया। औपनिवेशिक सरकार पर दबाव बढ़ाने का प्रयास करते हुए, खिलाफतवादी असहयोग आन्दोलन का एक बड़ा हिस्सा बन जाते हैं - जन, शान्तिपूर्ण नागरिक अवज्ञा का एक राष्ट्रव्यापी अभियान। कुछ लोग अमानुल्लाह खान के तहत उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त से अफ़गानिस्तान तक एक विरोध प्रदर्शन में भी शामिल हुए। डॉ॰ अंसारी, मौलाना आज़ाद और हकीम अजमल खान जैसे खिलाफ़त नेता भी व्यक्तिगत रूप से गांधी के करीब बढ़ते गए। इन नेताओं ने 1920 में मुसलमानों के लिए स्वतन्त्र शिक्षा और सामाजिक कायाकल्प को बढ़ावा देने के लिए जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना की।
असहयोग अभियान पहले सफल रहा। कार्यक्रम की शुरुआत विधायी परिषदों, सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार से हुई। सरकारी कार्य और उपाधियों और सम्मानों का समर्पण। बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन, हड़तालें और सविनय अवज्ञा के कार्य पूरे भारत में फैल गए। हिन्दू और मुसलमान अभियान में शामिल हुए, जो शुरू में शान्तिपूर्ण था। गांधी, अली बन्धुओं और अन्य लोगों को औपनिवेशिक सरकार द्वारा तेजी से गिरफ्तार किया गया था। तहरीक-ए-खिलाफ़त के झण्डे के नीचे, एक पंजाब खिलाफ़त की प्रतिनियुक्ति जिसमें मौलाना मंज़ूर अहमद और मौलाना लुतफ़ुल्लाह खान दनकौरी शामिल थे, ने पंजाब (सिरसा, लाहौर, हरियाणा आदि) में एक विशेष एकाग्रता के साथ पूरे भारत में एक प्रमुख भूमिका निभाई।
गांधी ने 1920-21 में खिलाफ़त आन्दोलन क्यों चलाया, इसके दो दृष्टिकोण हैं:-
This article uses material from the Wikipedia हिन्दी article ख़िलाफ़त आन्दोलन, which is released under the Creative Commons Attribution-ShareAlike 3.0 license ("CC BY-SA 3.0"); additional terms may apply (view authors). उपलब्ध सामग्री CC BY-SA 4.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। Images, videos and audio are available under their respective licenses.
®Wikipedia is a registered trademark of the Wiki Foundation, Inc. Wiki हिन्दी (DUHOCTRUNGQUOC.VN) is an independent company and has no affiliation with Wiki Foundation.