उपनिषद् हिन्दू धर्म के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ हैं। ये वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं। ये संस्कृत में लिखे गये हैं। इनकी संख्या लगभग १०८ है, किन्तु मुख्य उपनिषद १३ हैं। हर एक उपनिषद किसी न किसी वेद से जुड़ा हुआ है। इनमें परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन दिया गया है।
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उपनिषदों में कर्मकाण्ड को 'अवर' कहकर ज्ञान को इसलिए महत्त्व दिया गया कि ज्ञान स्थूल (जगत और पदार्थ) से सूक्ष्म (मन और आत्मा) की ओर ले जाता है। ब्रह्म, जीव और जगत् का ज्ञान पाना उपनिषदों की मूल शिक्षा है। भगवद्गीता तथा ब्रह्मसूत्र, उपनिषदों के साथ मिलकर वेदान्त की 'प्रस्थानत्रयी' कहलाते हैं। ब्रह्मसूत्र और गीता कुछ सीमा तक उपनिषदों पर आधारित हैं। भारत की समग्र दार्शनिक चिन्तनधारा का मूल स्रोत उपनिषद-साहित्य ही है। इनसे दर्शन की जो विभिन्न धाराएं निकली हैं, उनमें 'वेदान्त दर्शन' का अद्वैत सम्प्रदाय प्रमुख है। उपनिषदों के तत्त्वज्ञान और कर्तव्यशास्त्र का प्रभाव भारतीय दर्शन के अतिरिक्त धर्म और संस्कृति पर भी परिलक्षित होता है। उपनिषदों का महत्त्व उनकी रोचक प्रतिपादन शैली के कारण भी है। कई सुन्दर आख्यान और रूपक, उपनिषदों में मिलते हैं।
उपनिषद् भारतीय सभ्यता की अमूल्य धरोहर है। उपनिषद ही समस्त भारतीय दर्शनों के मूल स्रोत हैं, चाहे वो वेदान्त हो या सांख्य। उपनिषदों को स्वयं भी 'वेदान्त' कहा गया है। १७वीं सदी में दारा शिकोह ने अनेक उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया। 19वीं सदी में जर्मन तत्त्ववेता शोपेनहावर ने इन ग्रन्थों में जो रुचि दिखलाकर इनके अनुवाद किए वह सर्वविदित हैं और माननीय हैं। विश्व के कई दार्शनिक उपनिषदों को सबसे बेहतरीन ज्ञानकोश मानते हैं।
उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक चिन्तन के मूल आधार हैं, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के स्रोत हैं। वे ब्रह्मविद्या हैं। जिज्ञासाओं के ऋषियों द्वारा खोजे हुए उत्तर हैं। वे चिन्तनशील ऋषियों की ज्ञानचर्चाओं का सार हैं। वे कवि-हृदय ऋषियों की काव्यमय आध्यात्मिक रचनाएँ हैं, अज्ञात की खोज के प्रयास हैं, वर्णनातीत परमशक्ति को शब्दों में प्रस्तुत करनेकि की कोशिशें हैं और उस निराकार, निर्विकार, असीम, अपार को अन्तरदृष्टि से समझने और परिभाषित करने की अदम्य आकांक्षा के लेखबद्ध विवरण हैं।
उपनिषद् शब्द का साधारण अर्थ है - ‘समीप उपवेशन’ या 'समीप बैठना (ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना)। यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से निष्पन्न हुआ है। सद् धातु के तीन अर्थ हैं : विवरण-नाश होना; गति-पाना या जानना तथा अवसादन-शिथिल होना। उपनिषद् में ऋषि और शिष्य के बीच बहुत सुन्दर और गूढ संवाद है जो पाठक को वेद के मर्म तक पहुंचाता है।
प्रारंभिक उपनिषदों की रचना का सामान्य क्षेत्र उत्तरी भारत माना जाता है। यह क्षेत्र पश्चिम में ऊपरी सिंधु घाटी, पूर्व में निचले गंगा क्षेत्र, उत्तर में हिमालय की तलहटी और दक्षिण में विंध्य पर्वत श्रृंखला से घिरा है।
विद्वानों को यथोचित यकीन है कि प्रारंभिक उपनिषदों का निर्माण प्राचीन ब्राह्मणवाद के भौगोलिक केंद्र, कुरु - पंचाल और कोसल - विदेह, जो ब्राह्मणवाद का एक "सीमांत क्षेत्र" था, इसी के साथ-साथ इनके ठीक दक्षिण और पश्चिम के क्षेत्रों में हुआ था। इस क्षेत्र में आधुनिक बिहार, नेपाल, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, पूर्वी राजस्थान और उत्तरी मध्य प्रदेश शामिल हैं।
हालाँकि व्यक्तिगत उपनिषदों के सटीक स्थानों की पहचान करने के लिए हाल ही में महत्वपूर्ण प्रयास किए गए हैं, लेकिन परिणाम अस्थायी हैं। विट्जेल बृहदारण्यक उपनिषद में गतिविधि के केंद्र की पहचान विदेह के क्षेत्र के रूप में करते हैं, जिसके राजा जनक का उल्लेख उपनिषद में प्रमुखता से है। छांदोग्य उपनिषद की रचना संभवतः भारतीय उपमहाद्वीप में पूर्वी से अधिक पश्चिमी स्थान पर की गई थी, संभवतः कुरु-पांचाल देश के पश्चिमी क्षेत्र में कहीं। प्रमुख उपनिषदों की तुलना में, Muktikā मुक्तिका में दर्ज नए उपनिषद पूरी तरह से अलग क्षेत्र, शायद दक्षिणी भारत से संबंधित हैं, और अपेक्षाकृत हाल के हैं। कौशीतकी उपनिषद के चौथे अध्याय में काशी (आधुनिक बनारस) नामक स्थान का उल्लेख है।
उपनिषदों में मुख्य रूप से 'आत्मविद्या' का प्रतिपादन है, जिसके अन्तर्गत ब्रह्म और आत्मा के स्वरूप, उसकी प्राप्ति के साधन और आवश्यकता की समीक्षा की गयी है। आत्मज्ञानी के स्वरूप, मोक्ष के स्वरूप आदि अवान्तर विषयों के साथ ही विद्या, अविद्या, श्रेयस, प्रेयस, आचार्य आदि तत्सम्बद्ध विषयों पर भी भरपूर चिन्तन उपनिषदों में उपलब्ध होता है। वैदिक ग्रन्थों में जो दार्शनिक और आध्यात्मिक चिन्तन यत्र-तत्र दिखार्इ देता है, वही परिपक्व रूप में उपनिषदों में निबद्ध हुआ है।
उपनिषदों में सर्वत्र समन्वय की भावना है। दोनों पक्षों में जो ग्राह्य है, उसे ले लेना चाहिए। दृष्टि से ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग, विद्या और अविद्या, संभूति और असंभूति के समन्वय का उपदेश है। उपनिषदों में कभी-कभी ब्रह्मविद्या की तुलना में कर्मकाण्ड को बहुत हीन बताया गया है। र्इश आदि कर्इ उपनिषदें एकात्मवाद का प्रबल समर्थन करती हैं।
उपनिषद् ब्रह्मविद्या का द्योतक है। कहते हैं इस विद्या के अभ्यास से मुमुक्षुजन की अविद्या नष्ट हो जाती है (विवरण); वह ब्रह्म की प्राप्ति करा देती है (गति); जिससे मनुष्यों के गर्भवास आदि सांसारिक दुःख सर्वथा शिथिल हो जाते हैं (अवसादन)। फलतः उपनिषद् वे ‘तत्त्व’ प्रतिपादक ग्रन्थ माने जाते हैं जिनके अभ्यास से मनुष्य को ब्रह्म अथवा परमात्मा का साक्षात्कार होता है।
उपनिषदों में देवता-दानव, ऋषि-मुनि, पशु-पक्षी, पृथ्वी, प्रकृति, चर-अचर, सभी को माध्यम बना कर रोचक और प्रेरणादायक कथाओं की रचना की गयी है। इन कथाओं की रचना वेदों की व्याख्या के उद्देश्य से की गई। जो बातें वेदों में जटिलता से कही गयी है उन्हें उपनिषदों में सरल ढंग से समझाया गया है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, अग्नि, सूर्य, इन्द्र आदि देवताओं से लेकर नदी, समुद्र, पर्वत, वृक्ष तक उपनिषद के कथापात्र है।
उपनिषद् गुरु-शिष्य परम्परा के आदर्श उदाहरण हैं। प्रश्नोत्तर के माध्यम से सृष्टि के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन उपनिषदों में सहज ढंग से किया गया है। विभिन्न दृष्टान्तों, उदाहरणों, रूपकों, संकेतों और युक्तियों द्वारा आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म आदि का स्पष्टीकरण इतनी सफलता से उपनिषद् ही कर सके हैं।
रजि की कथा, कार्तवीर्य की कथा, नचिकेता की कथा, उद्दालक और श्वेतकेतु की कथा, सत्यकाम जाबाल की कथा आदि।
उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक चिंतन के मूलाधार है, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन स्रोत हैं। वे ब्रह्मविद्या हैं। जिज्ञासाओं के ऋषियों द्वारा खोजे हुए उत्तर हैं। वे चिंतनशील ऋषियों की ज्ञानचर्चाओं का सार हैं। वे कवि-हृदय ऋषियों की काव्यमय आध्यात्मिक रचनाएँ हैं, अज्ञात की खोज के प्रयास हैं, वर्णनातीत परमशक्ति को शब्दों में बाँधने का प्रयत्न हैं और उस निराकार, निर्विकार, असीम, अपार को अंतर्दृष्टि से समझने और परिभाषित करने की अदम्य आकांक्षा के लेखबद्ध विवरण हैं।
वैदिक युग सांसारिक आनन्द एवं उपभोग का युग था। मानव मन की निश्चिंतता, पवित्रता, भावुकता, भोलेपन व निष्पापता का युग था। जीवन को संपूर्ण अल्हड़पन से जीना ही उस काल के लोगों का प्रेय व श्रेय था। प्रकृति के विभिन्न मनोहारी स्वरूपों को देखकर उस समय के लोगों के भावुक मनों में जो उद्गार स्वयंस्फूर्त आलोकित तरंगों के रूप में उभरे उन मनोभावों को उन्होंने प्रशस्तियों, स्तुतियों, दिव्यगानों व काव्य रचनाओं के रूप में शब्दबद्ध किया और वे वैदिक ऋचाएँ या मंत्र बन गए। उन लोगों के मन सांसारिक आनंद से भरे थे, संपन्नता से संतुष्ट थे, प्राकृतिक दिव्यताओं से भाव-विभोर हो उठते थे। अत: उनके गीतों में यह कामना है कि यह आनंद सदा बना रहे, बढ़ता रहे और कभी समाप्त न हो। उन्होंने कामना की कि इस आनंद को हम पूर्ण आयु सौ वर्षों तक भोगें और हमारे बाद की पीढियाँ भी इसी प्रकार तृप्त रहें। यही नहीं कामना यह भी की गई कि इस जीवन के समाप्त होने पर हम स्वर्ग में जाएँ और इस सुख व आनंद की निरंतरता वहाँ भी बनी रहे। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न अनुष्ठान भी किए गए और देवताओं को प्रसन्न करने के आयोजन करके उनसे ये वरदान भी माँगे गए। जब प्रकृति करवट लेती थी तो प्राकृतिक विपदाओं का सामना होता था। तब उन विपत्तियों केकाल्पनिक नियंत्रक देवताओं यथा मरुत, अग्नि, रुद्र आदि को तुष्ट व प्रसन्न करने के अनुष्ठान किए जाते थे और उनसे प्रार्थना की जाती थी कि ऐसी विपत्तियों को आने न दें और उनके आने पर प्रजा की रक्षा करें। कुल मिलाकर वैदिक काल के लोगों का जीवन प्रफुल्लित, आह्लादमय, सुखाकांक्षी, आशावादी और जिजीविषापूर्ण था। उनमें विषाद, पाप या कष्टमय जीवन के विचार की छाया नहीं थी। नरक व उसमें मिलने वाली यातनाओं की कल्पना तक नहीं की गई थी। कर्म को यज्ञ और यज्ञ को ही कर्म माना गया था और उसी के सभी सुखों की प्राप्ति तथा संकटों का निवारण हो जाने की अवधारणा थी। यह जीवनशैली दीर्घकाल तक चली। पर ऐसा कब तक चलता। एक न एक दिन तो मनुष्य के अनंत जिज्ञासु मस्तिष्क में और वर्तमान से कभी संतुष्ट न होने वाले मन में यह जिज्ञासा, यह प्रश्न उठना ही था कि प्रकृति की इस विशाल रंगभूमि के पीछे सूत्रधार कौन है, इसका सृष्टा/निर्माता कौन है, इसका उद्गम कहाँ है, हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं, यह सृष्टि अंतत: कहाँ जाएगी। हमारा क्या होगा? शनै:-शनै: ये प्रश्न अंकुरित हुए। और फिर शुरू हुई इन सबके उत्तर खोजने की ललक तथा जिज्ञासु मन-मस्तिष्क की अनंत खोज यात्रा। कुछ लोगों की जीवन देखने की क्षमता गहरी होने लगी, जिसकी वजह से उनको जीवन चक्र दिखने लगा। जीवन में सुख और दुःख दोनों है ये दिखने लगा। कुछ लोगों को ये लगने लगा कि जीवन क्या सिर्फ यही है। उन्होंने 'ना' कहना शुरू किया पेट केंद्रित जीवन को। इसी "ना" से उपनिषद का आरम्भ हुआ।
ऐसा नहीं है कि आत्मा, पुनर्जन्म और कर्मफलवाद के विषय में वैदिक ऋषियों ने कभी सोचा ही नहीं था। ऐसा भी नहीं था कि इस जीवन के बारे में उनका कोई ध्यान न था। ऋषियों ने यदा-कदा इस विषय पर विचार किया भी था। इसके बीज वेदों में यत्र-तत्र मिलते हैं, परंतु यह केवल विचार मात्र था। कोई चिंता या भय नहीं। आत्मा शरीर से भिन्न तत्त्व है और इस जीवन की समाप्ति के बाद वह परलोक को जाती है इस सिद्धांत का आभास वैदिक ऋचाओं में मिलता अवश्य है परंतु संसार में आत्मा का आवागमन क्यों होता है, इसकी खोज में वैदिक ऋषि प्रवृत्त नहीं हुए। अपनी समस्त सीमाओं के साथ सांसारिक जीवन वैदिक ऋषियों का प्रेय था। प्रेय को छोड़कर श्रेय की ओर बढ़ने की आतुरता उपनिषदों के समय जगी, तब मोक्ष के सामने ग्रहस्थ जीवन निस्सार हो गया एवं जब लोग जीवन से आनंद लेने के बजाय उससे पीठ फेरकर संन्यास लेने लगे। हाँ, यह भी हुआ कि वैदिक ऋषि जहाँ यह पूछ कर शांत हो जाते थे कि 'यह सृष्टि किसने बनाई है?' और 'कौन देवता है जिसकी हम उपासना करें'? वहाँ उपनिषदों के ऋषियों ने सृष्टि बनाने वाले के संबंध में कुछ सिद्धांतों का निश्चय कर दिया और उस 'सत' का भी पता पा लिया जो पूजा और उपासना का वस्तुत: अधिकार है। वैदिक धर्म का पुराना आख्यान वेद और नवीन आख्यान उपनिषद हैं।'वेदों में यज्ञ-धर्म का प्रतिपादन किया गया और लोगों को यह सीख दी गई कि इस जीवन में सुखी, संपन्न तथा सर्वत्र सफल व विजयी रहने के लिए आवश्यक है कि देवताओं की तुष्टि व प्रसन्नता के लिए यज्ञ किए जाएँ। 'विश्व की उत्पत्ति का स्थान यज्ञ है। सभी कर्मों में श्रेष्ठ कर्म यज्ञ है। यज्ञ के कर्मफल से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।' ये ही सूत्र चारों ओर गुँजित थे। दूसरे, जब ब्राह्मण ग्रंथों ने यज्ञ को बहुत अधिक महत्त्व दे दिया और पुरोहितवाद तथा पुरोहितों की मनमानी अत्यधिक बढ़ गई तब इस व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई और विरोध की भावना का सूत्रपात हुआ। लोग सोचने लगे कि 'यज्ञों का वास्तविक अर्थ क्या है?' 'उनके भीतर कौन सा रहस्य है?' 'वे धर्म के किस रूप के प्रतीक हैं?' 'क्या वे हमें जीवन के चरम लक्ष्य तक पहुँचा देंगे?' इस प्रकार, कर्मकाण्ड पर बहुत अधिक जोर तथा कर्मकाण्डों को ही जीवन की सभी समस्याओं के हल के रूप में प्रतिपादित किए जाने की प्रवृत्ति ने विचारवान लोगों को उनके बारे में पुनर्विचार करने को प्रेरित किया। प्रकृति के प्रत्येक रूप में एक नियंत्रक देवता की कल्पना करते-करते वैदिक आर्य बहुदेववादी हो गए थे। उनके देवताओं में उल्लेखनीय हैं- इंद्र, वरुण, अग्नि, सविता, सोम, अश्विनीकुमार, मरुत, पूषन, मित्र, पितर, यम आदि। तब एक बौद्धिक व्यग्रता प्रारंभ हुई उस एक परमशक्ति के दर्शन करने या उसके वास्तविक स्वरूप को समझने की कि जो संपूर्ण सृष्टि का रचयिता और इन देवताओं के ऊपर की सत्ता है। इस व्यग्रता ने उपनिषद के चिंतनों का मार्ग प्रशस्त किया।
उपनिषद चिंतनशील एवं कल्पाशील मनीषियों की दार्शनिक काव्य रचनाएँ हैं। जहाँ गद्य लिख गए हैं वे भी पद्यमय गद्य-रचनाओं में ऐसी शब्द-शक्ति, ध्वन्यात्मकता, लव एवं अर्थगर्भिता है कि वे किसी दैवी शक्ति की रचनाओं का आभास देते हैं। यह सचमुच अत्युक्ति नहीं है कि उन्हें 'मंत्र' या 'ऋचा' कहा गया। वास्तव में मंत्र या ऋचा का संबंध वेद से है परंतु उपनिषदों की हमत्ता दर्शाने के लिए इन संज्ञाओं का उपयोग यहाँ भी कतिपय विद्वानों द्वारा किया जाता है। उपनिषद अपने आसपास के दृश्य संसार के पीछे झाँकने के प्रयत्न हैं। इसके लिए न कोई उपकरण उपलब्ध हैं और न किसी प्रकार की प्रयोग-अनुसंधान सुविधाएँ संभव है। अपनी मनश्चेतना, मानसिक अनुभूति या अंतर्दृष्टि के आधार पर हुए आध्यात्मिक स्फुरण या दिव्य प्रकाश को ही वर्णन का आधार बनाया गया है। उपनिषद अध्यात्मविद्या के विविध अध्याय हैं जो विभिन्न अंत:प्रेरित ऋषियों द्वारा लिखे गए हैं। इनमें विश्व की परमसत्ता के स्वरूप, उसके अवस्थान, विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों के साथ उसके संबंध, मानवीय आत्मा में उसकी एक किरण की झलक या सूक्ष्म प्रतिबिंब की उपस्थिति आदि को विभिन्न रूपकों और प्रतीकों के रूप में वर्णित किया गया है। सृष्टि के उद्गम एवं उसकी रचना के संबंध में गहन चिंतन तथा स्वयंफूर्त कल्पना से उपजे रूपांकन को विविध बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। अंत में कहा यह गया कि हमारी श्रेष्ठ परिकल्पना के आधार पर जो कुछ हम समझ सके, वह यह है। इसके आगे इस रहस्य को शायद परमात्मा ही जानता हो और 'शायद वह भी नहीं जानता हो।'
संक्षेप में, वेदों में इस संसार में दृश्यमान एवं प्रकट प्राकृतिक शक्तियों के स्वरूप को समझने, उन्हें अपनी कल्पनानुसार विभिन्न देवताओं का जामा पहनाकर उनकी आराधना करने, उन्हें तुष्ट करने तथा उनसे सांसारिक सफलता व संपन्नता एवं सुरक्षा पाने के प्रयत्न किए गए थे। उन तक अपनी श्रद्धा को पहुँचाने का माध्यम यज्ञों को बनाया गया था। उपनिषदों में उन अनेक प्रयत्नों का विवरण है जो इन प्राकृतिक शक्तियों के पीछे की परमशक्ति या सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता से साक्षात्कार करने की मनोकामना के साथ किए गए। मानवीय कल्पना, चिंतन-क्षमता, अंतर्दृष्टि की क्षमता जहाँ तक उस समय के दार्शनिकों, मनीषियों या ऋषियों को पहुँचा सकीं उन्होंने पहुँचने का भरसक प्रयत्न किया। यही उनका तप था।
१०८ उपनिषदों को अनेक प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है।
वैदिक संहिताओं के अनन्तर वेद के तीन प्रकार के ग्रन्थ हैं- ब्राह्राण, आरण्यक और उपनिषद। इन ग्रन्थों का सीधा सम्बन्ध अपने वेद से होता है, जैसे ऋग्वेद के ब्राह्राण, ऋग्वेद के आरण्यक और ऋग्वेद के उपनिषदों के साथ ऋग्वेद का संहिता ग्रन्थ मिलकर भारतीय परम्परा के अनुसार 'ऋग्वेद' कहलाता है।
किसी उपनिषद का सम्बन्ध किस वेद से है, इस आधार पर उपनिषदों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जाता है-
(१) ऋग्वेदीय -- १० उपनिषद्
(२) शुक्ल यजुर्वेदीय -- १९ उपनिषद्
(३) कृष्ण यजुर्वेदीय -- ३२ उपनिषद्
(४) सामवेदीय -- १६ उपनिषद्
(५) अथर्ववेदीय -- ३१ उपनिषद्
कुल -- १०८ उपनिषद्
इनके अतिरिक्त नारायण, नृसिंह, रामतापनी तथा गोपाल चार उपनिषद् और हैं।
विषय की गम्भीरता तथा विवेचन की विशदता के कारण १३ उपनिषद् विशेष मान्य तथा प्राचीन माने जाते हैं।
जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने १० पर अपना भाष्य दिया है-
(१) ईश, (२) ऐतरेय (३) कठ (४) केन (५) छान्दोग्य (६) प्रश्न (७) तैत्तिरीय (८) बृहदारण्यक (९) मांडूक्य और (१०) मुण्डक।
उन्होने निम्न तीन को प्रमाण कोटि में रखा है-
(१) श्वेताश्वतर (२) कौषीतकि तथा (३) मैत्रायणी।
अन्य उपनिषद् तत्तद् देवता विषयक होने के कारण 'तांत्रिक' माने जाते हैं। ऐसे उपनिषदों में शैव, शाक्त, वैष्णव तथा योग विषयक उपनिषदों की प्रधान गणना है।
डॉ॰ ड्यूसेन, डॉ॰ बेल्वेकर तथा रानडे ने उपनिषदों का विभाजन प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से इस प्रकार किया है:
१. ऐतरेय, २. केन, ३. छान्दोग्य, ४. तैत्तिरीय, ५. बृहदारण्यक तथा ६. कौषीतकि;
इनका गद्य ब्राह्मणों के गद्य के समान सरल, लघुकाय तथा प्राचीन है।
१.ईश, २.कठ, ३. श्वेताश्वतर तथा नारायण
इनका पद्य वैदिक मंत्रों के अनुरूप सरल, प्राचीन तथा सुबोध है।
१.प्रश्न, २.मैत्री (मैत्रायणी) तथा ३.माण्डूक्य
अन्य अवांतरकालीन उपनिषदों की गणना इस श्रेणी में की जाती है।
भाषा तथा उपनिषदों के विकास क्रम की दृष्टि से डॉ॰ डासन ने उनका विभाजन चार स्तर में किया है:
१. ईश, २. ऐतरेय, ३. छान्दोग्य, ४. प्रश्न, ५. तैत्तिरीय, ६. बृहदारण्यक, ७. माण्डूक्य और ८. मुण्डक
१. कठ, २. केन
१. कौषीतकि, २. मैत्री (मैत्राणयी) तथा ३. श्वेताश्वतर
उपनिषदों की भौगोलिक स्थिति मध्यदेश के कुरुपांचाल से लेकर विदेह (मिथिला) तक फैली हुई है। उपनिषदों के काल के विषय में निश्चित मत नहीं है पर उपनिषदो का काल ३००० ईसा पूर्व से ३५०० ई पू माना गया है। वेदो का रचना काल भी यही समय माना गया है। उपनिषद् काल का आरम्भ बुद्ध से पर्याप्त पूर्व है। "ग्रेट एजेज ऑफ मैन" के सम्पादक इसे लगभग ८०० ई.पू. बतलाते हैं।
उपनिषदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। कुछ उपनिषदों को वेदों की मूल संहिताओं का अंश माना गया है। ये सर्वाधिक प्राचीन हैं। कुछ उपनिषद ‘ब्राह्मण’ और ‘आरण्यक’ ग्रन्थों के अंश माने गये हैं। इनका रचनाकाल संहिताओं के बाद का है। उपनिषदों के काल के विषय में निश्चित मत नहीं है समान्यत उपनिषदो का काल रचनाकाल ३००० ईसा पूर्व से ५०० ईसा पूर्व माना गया है। उपनिषदों के काल-निर्णय के लिए निम्न मुख्य तथ्यों को आधार माना गया है—
निम्न विद्वानों द्वारा विभिन्न उपनिषदों का रचना काल निम्न क्रम में माना गया है-
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