सातवाहन राजवंश या सातवाहन साम्राज्य, जिसे प्राचीन भारतीय साहित्य में आंध्र राजवंश और आंध्र-सातवाहन राजवंश भी कहा गया हैं। यह प्राचीन भारत का हिन्दू राजवंश था। सातवाहन राजाओं ने 150 वर्षों तक शासन किया। सातवाहन वंश की स्थापना 230 से 60 ईसा पूर्व के बीच राजा ने की थी। सातवाहन राजवंंश के सीमुक, शातकर्णी प्रथम, गौतमी पुत्र शातकर्णी, वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी, यज्ञश्री शातकारणी प्रमुख राजा थे। प्रतिष्ठान सातवाहन वंश की राजधानी रही , यह महाराष्ट्र के छत्रपति संभाजीनगर जिले में है। सातवाहन साम्राज्य की राजकीय भाषा संस्कृत और मराठी प्राकृत थी, जो ब्राह्मी लिपि मे लिखि जाती थी। इस समय अमरावती कला का विकास हुआ था। सातवाहन राजवंश के समय समाज मातृसत्तात्म था, अर्थात राजाओं के नाम उनकी माता के नाम पर (जैसे, गौतमीपुत्र शातकारणी) रखने की प्रथा थी, लेकिन सातवाहन राजकुल पितृसत्तात्मक था, क्योंकि राजसिंहासन का उत्तराधिकारी वंशानुगत ही होता था।
सातवाहन साम्राज्य आंध्र-सातवाहन राजवंश | |||||||||||||||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
ल. 00 से 60 ई.पू – ल. 220 इस्वी | |||||||||||||||||||
सातवाहन साम्राज्य का अधिकतम विस्तार | |||||||||||||||||||
राजधानी | पैठण | ||||||||||||||||||
प्रचलित भाषाएँ | संस्कृत महाराष्ट्री प्राकृत | ||||||||||||||||||
धर्म | हिंदू धर्म | ||||||||||||||||||
सरकार | राजतंत्र | ||||||||||||||||||
सम्राट | |||||||||||||||||||
• ल. 230–207 ई.पू. | सीमुक (प्रथम) | ||||||||||||||||||
• ल. 194–185 ई.पू. | शातकर्णी प्रथम | ||||||||||||||||||
• ल. 106–130 इस्वी | गौतमी पुत्र शातकर्णी | ||||||||||||||||||
• ल. 210–220 इस्वी | यज्ञश्री शातकर्णी (अन्तिम) | ||||||||||||||||||
ऐतिहासिक युग | प्राचीन भारत | ||||||||||||||||||
• स्थापित | ल. 228 से 60 ई.पू. के बीच | ||||||||||||||||||
• अंत | ल. 220 इस्वी | ||||||||||||||||||
मुद्रा | पण | ||||||||||||||||||
| |||||||||||||||||||
अब जिस देश का हिस्सा है | भारत पाकिस्तान |
सातवाहन राजवंश के द्वारा अजन्ता एवं एलोरा की गुफाओं का निर्माण किया गया था। सातवाहन राजाओं ने चांदी, तांबे, सीसे, पोटीन और कांसे के सिक्कों का प्रचलन किया। ब्राह्मणों को 'भूमि दान' करने की प्रथा का आरम्भ सर्वप्रथम सातवाहन राजाओं ने किया था, जिसका उल्लेख नानाघाट अभिले ख में है।
सातवाहनों का इतिहास शिसुक (शिमुक अथवा सिन्धुक) के समय से प्रारम्भ होता है । वायुपुराण का कथन है कि- ”आन्ध्रजातीय सिन्धुक (शिमुक) कण्व वंश के अन्तिम शासक सुशर्मा की हत्या कर तथा शुंगों की बची हुयी शक्ति को समाप्त कर पृथ्वी पर शासन करेगा ।”
इससे ऐसा लगता है कि उसने शुंगो तथा कण्वों से विदिशा के आस-पास का क्षेत्र जीत लिया होगा । पुराणों के अनुसार शिमुक ने 23 वर्षों तक शासन किया । उसके नाम का उल्लेख नानाघाट चित्र-फलक-अभिलेख में मिलता है । अजयमित्र शास्त्री को अभी हाल ही में उसके सात सिक्के प्राप्त हुए हैं । नानाघाट के लेख में उसे ‘राजा शिमुक सातवाहन’ कहा गया है । जैन गाथाओं के अनुसार उसने जैन तथा बौद्ध मन्दिरों का निर्माण करवाया था । अपने शासन के अन्तिम दिनों में वह दुराचारी हो गया तथा मार डाला गया । शिमुक की तिथि के विषय में विवाद है । संभवतः उसने प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के द्वितीयार्ध में शासन किया और उसका राज्यकाल सामान्यतः 60 ईसा पूर्व से 37 ईसा पूर्व तक माना जा सकता है । शिमुक के बाद उसका छोटा भाई कन्ह (कृष्ण) राजा बना क्योंकि शिमुक पुत्र शातकर्णि अवयस्क था । कृष्ण ने अपना साम्राज्य नासिक तक बढ़ाया । उसके श्रमण नामक एक महामात्र ने नासिक में एक गुहा का भी निर्माण करवाया था । यहां से प्राप्त एक लेख में कृष्ण के नाम का उल्लेख मिलता है । उसने 18 वर्षों तक राज्य किया । कृष्ण की मृत्यु के पश्चात् श्रीशातकर्णि, जो शिमुक का पुत्र था, सातवाहन वंश की गद्दी पर बैठा ।
वह प्रथम शातकर्णि के नाम विख्यात है क्योंकि अपने वंश में शातकर्णि की उपाधि धारण करने वाला वह पहला राजा था । शातकर्णि प्रथम प्रारम्भिक सातवाहन नरेशों में सबसे महान् था । उसने अंगीय कुल के महारठी त्रनकयिरों की पुत्री नायानिका (नागनिका) के साथ विवाह कर अपना प्रभाव बढ़ाया । महारठियों के कुछ सिक्के उत्तरी मैसूर से मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि वे काफी शक्तिशाली थे तथा नाममात्र के लिये शातकर्णि की अधीनता स्वीकार करते थे । उनके साथ वैवाहिक सम्बन्ध ये शातकर्णि को राजनैतिक प्रभाव के विस्तार में अवश्यमेव सहायता प्रदान किया होगा । नायानिका के नानाघाट अभिलेख से शातकर्णि प्रथम के शासन-काल के विषय में महत्वपूर्ण सूचनायें मिलती है । शातकर्णि प्रथम ने पश्चिमी मालवा, अनूप (नर्मदा घाटी) तथा विदर्भ के प्रदेशों की विजय की । विदर्भ उसने शुंगों से छीना तथा दृढ़ समय के लिये उसे अपने नियंत्रण में रखा ।
इसी समय वासिष्ठिपुत्र आनन्द, जो शातकर्णि के कारीगरों का मुखिया था, ने साँची स्तूप के तोरण पर अपना लेख खुदवाया था । यह लेख पूर्वी मालवा क्षेत्र पर उसका अधिकार प्रमाणित करता है । पश्चिमी मालवा पर उसके अधिकार की पुष्टि ‘श्रीसात’ नामधारी सिक्कों से हो जाती है जो क्षेत्र से प्राप्त किये गये हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण मालवा क्षेत्र उसके अधिकार में था तथा पूर्व की ओर उसका राज्य कलिंग की सीमा को स्पर्श करता था । उत्तरी कोंकण तथा गुजरात के कुछ भागों को जीतकर उसने अपने राज्य में मिला लिया था । शातकर्णि को कलिंग नरेश खारवेल के आक्रमण का भी सामना करना पड़ा । हाथीगुम्फा लेख से पता चलता है कि अपने राज्यारोहण के दूसरे वर्ष खारवेल ने शातकर्णि की परवाह न करते हुए पश्चिम की ओर अपनी सेना भेजी । यह सेना कण्णवेणा (वैनगंगा) नदी तक आई तथा असिक नगर में आतंक फैल गया ।यह स्थान शातकर्णि के ही अधिकार में था । यहाँ की खुदाई से हाल ही में शातकर्णि का सिक्का मिला है । ऐसा प्रतीत होता है कि शातकर्णि ने खारवेल का प्रबल प्रतिरोध किया जिसके फलस्वरूप कलिंग नरेश को वापस लौटना पड़ा होगा । यदि खारवेल विजित होता तो इस घटना का उल्लेख महत्वपूर्ण ढंग से उसने अपने लेख में किया होता । खारवेल का आक्रमण एक धावा मात्र था जिसे टालने में शातकर्णि सफल रहा । इस प्रकार शातकर्णि एक सार्वभौम राजा बन गया ।
उसने दो अश्वमेध तथा राजसूय यज्ञों का अनुष्ठान किया । प्रथम अश्वमेध यज्ञ राजा बनने में तत्काल बाद तथा द्वितीय अपने शासनकाल के अन्त में किया होगा । अश्वमेध यज्ञ के बाद उसने अपनी पत्नी के नाम पर रजत मुद्रायें उत्कीर्ण करवायीं । इनके ऊपर अश्व की आकृति मिलती है । उसने ‘दक्षिणापथपति’ तथा ‘अप्रतिहतचक्र’ जैसी महान् उपाधियाँ धारण कीं । उसका शासन-काल भौतिक दृष्टि से समृद्धि एवं सम्पन्नता का काल था । शातकर्णि प्रथम पहला शासक था जिसने सातवाहनों को सार्वभौम स्थिति में ला दिया । उसकी विजयों के फलस्वरूप गोदावरी घाटी में प्रथम विशाल साम्राज्य का उदय हुआ जो शक्ति तथा विस्तार में गंगा घाटी में शुंग तथा पंजाब में यवन-साम्राज्य की बराबरी कर सकता था । पेरीप्लस से पता चलता है कि एल्डर सैरागोनस एक शक्तिशाली राजा था जिसके समय में सुप्पर तथा कलीन (सोपारा तथा कल्यान) के बन्दरगाह अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार-वाणिज्य के लिये पूर्णरूपेण सुरक्षित हो गये थे. इस शासक से तात्पर्य शातकर्णि प्रथम से ही है । प्रतिष्ठान को अपनी राजधानी बनाकर उसने शासन किया । मालवा के ‘सात’ नामधारी कुछ सिक्के मिलते हैं । इनका प्रचलनकर्ता शातकर्णि प्रथम को ही माना जाता है । शातकर्णि की मृत्यु के पश्चात् सातवाहनों की शक्ति निर्बल पड़ने लगी । नानाघाट के लेख में उसके दो पुत्रों का उल्लेख हुआ है- वेदश्री तथा शक्तिश्री । ये दोनों ही अवयस्क थे । अत: शातकर्णि प्रथम की पत्नी नायानिका ने संरक्षिका के रूप में शासन का संचालन किया । उसके बाद का सातवाहनों का इतिहास अन्धकारपूर्ण है ।
सातवाहनों की उत्पत्ति तथा मूल निवास स्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है । पुराणों ने इस वंश के संस्थापक सिमुक को ‘आन्ध्र-भृत्य’ तथा ‘आन्ध्रजातीय’ कहा गया है, जबकि अपने अभिलेखों में इस वंश के राजाओं ने अपने को सातवाहन ही कहा है ।प्राचीन काल में कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के बीच का तेलगुभाषी प्रदेश आन्द्रप्रदेश कहा जाता था । ऐतरेय ब्राह्मण में यहाँ के निवासियों को ‘अनार्य’ कहा गया है । उसके अनुसार विश्वामित्र के पुत्रों ने गोदावरी तथा कृष्णा के मध्य स्थित प्रदेश में जाकर आर्येतर जातियों के साध विवाह किया । इस संबंध के फलस्वरूप ‘आन्ध्र’ उत्पन्न हुए । महाभारत में आन्ध्रों को म्लेच्छ तथा मनुस्मृति में वर्णसंकर एवं अंत्यज कहा गया है । इस आधार पर कुछ विद्वान सातवाहनों को अनार्य अर्थात् निम्नवर्ण का बताते हैं । किन्तु लेखों में उसके विपरीत सातवाहनों को सर्वत्र उच्चवर्ण का ही बताया गया है ।
अत: केवल पुराणों के आधार पर ही सातवाहनों को हम आन्ध्र जाति का नहीं मान सकते । कुछ विद्वानों का अनुमान है कि ‘सातवाहन’ कुल का नाम है जबकि ‘आन्ध्र’ जाति का बोधक है । जी. वेंकटराव का विचार है कि उस काल में अभिलेखों में केवल कुलनाम लिखने की ही प्रथा थी जैसा कि शालंकायनों, बृहत्फलायनों, विष्णुकुण्डिनों, पल्लवों, गंगों, कदम्बों, चालुक्यों, वाकाटकों आदि के अभिलेखों से स्पष्ट होता है ।
यह प्रथा इतनी प्रबल थी कि सातवाहनों के अन्तिम लेखों में भी जो आन्ध्र क्षेत्र से मिले हैं उन्हें आन्ध्र नहीं कहा गया है । सातवाहन नामक व्यक्ति इसका संस्थापक था, अत: इस वंश को सातवाहन कहा गया । हेमचन्द्र रायचौधरी के अनुसार सातवाहन वस्तुतः ब्राह्मण ही थे जिनमें नागों के रक्त का कुछ सम्मिश्रण था । इस वंश के शासक गौतमीपुत्र शातकर्णि को नासिक प्रशस्ति में ‘एकबह्मन्’ (अद्वितीय ब्राह्मण) कहा गया है जिसमें क्षत्रियों के दर्प को चूर्ण (खतियदपमानमदनस) कर दिया था ।
यदि ‘एकबह्मन्’ को ‘खतियदपमानमदनस’ के साथ संयुक्त कर दिया जाये तो इससे यह नि:सन्देह सिद्ध हो जाता है कि गौतमीपुत्र न केवल एक ब्राह्मण था, अपितु वह परशुराम की प्रकृति का ब्राह्मण था जिन्होंने क्षत्रियों के अभिमान को चूर्ण किया था ।
ऐसा लगता है कि शकों द्वारा परास्त होने पर सातवाहन लोग अपना मूल स्थान छोड़कर आन्ध्र प्रदेश में जाकर बस गये और इसी कारण पुराणों में उन्हें ‘आन्ध्र’ कहा गया । अतः ‘आन्ध्र जातीय’ विरुद को प्रादेशिक संज्ञा मानना उचित प्रतीत होता है ।
मूलतः सातवाहन ब्राह्मण जाति के ही थे । उनका ब्राह्मण धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के लिये शस्त्र ग्रहण करना तत्कालीन परिस्थितियों में सर्वथा उपयुक्त था । मौर्य युग में वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा गिर गयी थी तथा क्षत्रिय बड़ी संख्या में बौद्ध बन गये थे ।
ऐसी स्थिति में ब्राह्मण धर्म की रक्षा के लिये ब्राह्मणों का आगे आना आवश्यक था । इसी प्रकार की परिस्थितियों में मगध में शुंग तथा कण्व राजवंशों ने सत्ता सम्हाली थी । यही कार्य दक्षिणापथ में सातवाहनों ने किया । उत्पत्ति के ही समान सातवाहनों के मूल निवास-स्थान के विषय में भी पर्याप्त विवाद है ।
रैप्सन, स्मिथ तथा भण्डारकर जैसे कुछ विद्वान आन्ध्र प्रदेश में ही उनका मूल निवास-स्थान निर्धारित करते हैं । स्मिथ ने श्रीकाकुलम् तथा भण्डारकर ने धात्रकटक में उनका मूल निवास स्थान माना है । सुक्थंकर सातवाहनों का आदि स्थान वेलारी (मैसूर) बताते हैं ।
परन्तु इन मतों के विरुद्ध सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि उपर्युक्त स्थानों में कहीं से भी सातवाहनों का कोई अभिलेख अथवा सिक्का नहीं प्राप्त हुआ है । यह एक महत्वपूर्ण बात है कि सातवाहन राजाओं के बहुसंख्यक अभिलेख तथा सिक्के महाराष्ट्र के प्रतिष्ठान (पैठन) के समीपवर्ती भाग से प्राप्त हुए हैं । सातवाहन वंश के संस्थापक का एक रिलीफ चित्र तथा शातकर्णि प्रथम की महारानी नागनिका का लेख नानाघाट से मिला है, जो प्रतिष्ठान से करीब 100 मील की दूरी पर स्थित है ।
नासिक से दो और लेख मिले हैं । पहले में सातवाहन कुल के दूसरे राजा कन्ह (कृष्ण) तथा दूसरे में इस वंश के तीसरे राजा शातकर्णि प्रथम की प्रपौत्री का उल्लेख मिलता है । सातवाहनों का महारठी वंश के साथ घनिष्ठ संबंध था । इससे भी सातवाहनों का महाराष्ट्र से आदि सम्बन्ध सूचित होता है ।
अभिलेखों के अतिरिक्त सातवाहनों के सिक्के भी महाराष्ट्र से ही पाये गये है । इस प्रकार अभिलेखीय तथा मुद्रा सम्बन्धी प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सातवाहनों का मूल निवास-स्थान पश्चिमी भारत के किसी भाग में ही था । बहुत संभव है यह स्थान प्रतिष्ठान ही रहा हो ।
सातवाहन वंश के इतिहास का अध्ययन हम साहित्य, विदेशी विवरण तथा पुरातत्व, इन तीनों की सहायता से करते हैं । साहित्य के अन्तर्गत सर्वप्रथम उल्लेख पुराणों का किया जा सकता है । सातवाहन इतिहास के लिये मत्स्य तथा वायुपुराण विशेष रूप से उपयोगी हैं । पुराण सातवाहनों को ‘आन्ध्रभृत्य’ तथा ‘आन्ध्रजातीय’ कहते हैं । यह इस बात का सूचक है कि जिस समय पुराणों का संकलन हो रहा था, सातवाहनों का शासन आन्ध्रप्रदेश में ही सीमित था । पुराणों में सातवाहन वंश के कुल तीस राजाओं के नाम मिलते हैं जिन्होंने लगभग चार शताब्दियों तक शासन किया था । कुछ नामों का उल्लेख तत्कालीन लेखों में भी प्राप्त होता है । पुराणों में इस वंश के संस्थापक का नाम सिन्धुक, सिसुक अथवा शिप्रक दिया गया है जिसने कण्व वंश के राजा सुशर्मा को मारकर तथा शुंगों की अवशिष्ट शक्ति का अन्त कर पृथ्वी पर अपना शासन स्थापित किया था । सातवाहन इतिहास के प्रामाणिक साधन अभिलेख, सिक्के तथा स्मारक हैं ।
सातवाहन कालीन लेखों में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं:
उपर्युक्त लेख ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्व के हैं । नागनिका के नासिक लेख से शातकर्णि प्रथम की उपलब्धियों का ज्ञान होता है । उसी प्रकार गौतमीपुत्र शातकर्णि के लेख उसके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सुन्दर प्रकाश डालते हैं । लेखों के साथ-साथ विभिन्न स्थानों से सातवाहन राजाओं के बहुसंख्यक सिक्के भी प्राप्त किये गये हैं ।
इसके अध्ययन से उनके राज्य-विस्तार, धर्म तथा व्यापार-वाणिज्य की प्रगति के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सूचनायें उपलब्ध होती हैं । नासिक के जोगलथम्बी नामक स्थान से क्षहरात शासक नहपान के सिक्कों का ढेर मिलता है । इसमें अनेक सिक्के गौतमीपुत्र शातकर्णि द्वारा दुबारा अंकित कराये गये हैं ।
यह नहपान के ऊपर उसकी विजय का पुष्ट प्रमाण है । यज्ञश्री शातकर्णि के एक सिक्के पर जलपोत के चिह्न उत्कीर्ण हैं । इससे समुद्र के ऊपर उनका अधिकार प्रमाणित होता है । सातवाहन सिक्के सीसा, तांबा तथा प्रोटीन (तांबा, जिंक, सीसा तथा टिन मिश्रित धातु) में ढलवाये गये हैं ।
इन पर मुख्यतः वृष, गज, सिंह, अश्व, पर्वत, जहाज, चक्र स्वस्तिक, कमल, त्रिरत्न, उज्जैन चिन्ह (क्रॉस से जुड़े चार बाल) आदि का अंकन मिलता है । क्लासिकल लेखकों के विवरण भी सातवाहन इतिहास पर कुछ प्रकाश डालते हैं । इनमें प्लिनी, टालमी तथा पेरीप्लस के लेखक के विवरण महत्वपूर्ण हैं । प्रथम दो ने तो अपनी जानकारी दूसरों से प्राप्त किया था लेकिन पेरीप्लस के अज्ञात-नामा लेखक ने पश्चिमी भारत के बन्दरगाहों का स्वयं निरीक्षण किया था तथा वहाँ के व्यापार-वाणिज्य का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया था । इन लेखकों के विवरण सातवाहनकालीन पश्चिमी भारत के व्यापार-वाणिज्य तथा शकों के साथ उनके संघर्ष का बोध कराते हैं । क्लासिकल लेखकों के विवरण से पता चलता है कि सातवाहनों का पाश्चात्य विश्व के साथ घनिष्ठ व्यापारिक संबंध था जो समुद्र के माध्यम से होता था । यूरोपीय देशों से मालवाहक जहाज भूमध्य सागर, नील सागर, फारस की खाड़ी तथा अरब सागर से होकर बराबर भारत पहुँचते थे । पश्चिमी तट पर भड़ौस इस काल का सबसे प्रसिद्ध बन्दरगाह था जिसे यूनानी लेखक बेरीगाजा कहते हैं । सातवाहनकाल के अनेक चैत्य एवं विहार नासिक, कार्ले, भाजा आदि स्थानों से प्राप्त किये गये हैं । इनसे तत्कालीन कला एवं स्थापत्य के विषय में जानकारी प्राप्त होती है ।
लगभग आधी शताब्दी की उठापटक तथा शक शासकों के हाथों मानमर्दन के बाद गौतमी पुत्र श्री शातकर्णी के नेतृत्व में अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुर्नस्थापित कर लिया। गौतमी पुत्र श्री शातकर्णी सातवाहन वंश का सबसे महान शासक था राजा शालीवाहन ने ईश्वर की तपस्या के फलस्वरूप कई वरदान प्राप्त किए और वर्दिय(वरदान प्राप्त करने वाला)कहलाए और लगभग 25 वर्षों तक शासन करते हुए न केवल अपने साम्राज्य की खोई प्रतिष्ठा को पुर्नस्थापित किया अपितु एक विशाल साम्राज्य की भी स्थापना की। गौतमी पुत्र के समय तथा उसकी विजयों के बारें में हमें उसकी माता गौतमी बालश्री के नासिक शिलालेखों से सम्पूर्ण जानकारी मिलती है। कुछ विशेषज्ञों द्वारा गौतमिपुत्र सत्कर्णी को राजा शालीवाहन भी माना जाता है। उन्होंने पूरे भारत को एकजुट कर दिया और विदेशी हमलावरों के खिलाफ बचाया।
उसके सन्दर्भ में हमें इस लेख से यह जानकारी मिलती है कि उसने क्षत्रियों के अहंकार का मान-मर्दन किया। उसका वर्णन शक, यवन तथा पल्लव शासकों के विनाश कर्ता के रूप में हुआ है। उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि क्षहरात वंश के शक शासक नहपान तथा उसके वंशजों की उसके हाथों हुई पराजय थी। जोगलथम्बी (नासिक) समुह से प्राप्त नहपान के चान्दी के सिक्कें जिन्हे कि गौतमी पुत्र शातकर्णी ने दुबारा ढ़लवाया तथा अपने शासन काल के अठारहवें वर्ष में गौतमी पुत्र द्वारा नासिक के निकट पांडु-लेण में गुहादान करना- ये कुछ ऐसे तथ्य है जों यह प्रमाणित करतें है कि उसने शक शासकों द्वारा छीने गए प्रदेशों को पुर्नविजित कर लिया। नहपान के साथ उनका युद्ध उसके शासन काल के 17वें और 18वें वर्ष में हुआ तथा इस युद्ध में जीत कर र्गातमी पुत्र ने अपरान्त, अनूप, सौराष्ट्र, कुकर, अकर तथा अवन्ति को नहपान से छीन लिया। इन क्षेत्रों के अतिरिक्त गौतमी पुत्र का ऋशिक (कृष्णा नदी के तट पर स्थित ऋशिक नगर), अयमक (प्राचीन हैदराबाद राज्य का हिस्सा), मूलक (गोदावरी के निकट एक प्रदेश जिसकी राजधानी प्रतिष्ठान थी) तथा विदर्भ (आधुनिक बरार क्षेत्र) आदि प्रदेशों पर भी अधिपत्य था। उसके प्रत्यक्ष प्रभाव में रहने वाला क्षेत्र उत्तर में मालवा तथा काठियावाड़ से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक तथा पूवै में बरार से लेकर पश्चिम में कोंकण तक फैला हुआ था। उसने 'त्रि-समुंद्र-तोय-पीत-वाहन' उपाधि धारण की जिससे यह पता चलता है कि उसका प्रभाव पूर्वी, पश्चिमी तथा दक्षिणी सागर अर्थात बंगाल की खाड़ी, अरब सागर एवं हिन्द महासागर तक था। ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी मृत्यु के कुछ समय पहले गौतमी पुत्र शातकर्णी द्वारा नहपान को हराकर जीते गए क्षेत्र उसके हाथ से निकल गए। गौतमी पुत्र से इन प्रदेशों को छीनने वाले संभवतः सीथियन जाति के ही करदामक वंश के शक शासक थे। इसका प्रमाण हमें टलमी द्वारा भूगोल का वर्णन करती उसकी पुस्तक से मिलता है। ऐसा ही निष्कर्ष 150 ई0 के प्रसिद्ध रूद्रदमन के जूनागढ़ के शिलालेख से भी निकाला जा सकता है। यह शिलालेख दर्शाता है कि नहपान से विजित गौतमीपुत्र शातकर्णी के सभी प्रदेशों को उससे रूद्रदमन ने हथिया लिया। ऐसा प्रतीत होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णी ने करदामक शकों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर रूद्रदमन द्वारा हथियाए गए अपने क्षेत्रों को सुरक्षित करने का प्रयास किया।
पुराणों में शातकर्णि प्रथम तथा गौतमीपुत्र शातकर्णि के बीच शासन करने वाले राजाओं की संख्या 10 से 19 तक बताई गयी है ।
इनमें केवल तीन राजाओं के विषय में हम दूसरे स्रोतों से भी जानते है:
आपीलक का एक तांबे का सिक्का मध्य प्रदेश से प्राप्त है । कुन्तल शातकर्णि संभवतः कुन्तल प्रदेश का शासक था जिसका उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र में हुआ है । हाल के विषय में हमें भारतीय साहित्य से भी सूचना मिलती है । यदि प्रारम्भिक सातवाहन राजाओं के युद्ध में शातकर्णि प्रथम सबसे महान् था, तो शान्ति में हाल महानतम था । वह स्वयं बहुत बड़ा कवि तथा कवियों एवं विद्वानों का आश्रयदाता था ।
‘गाथासप्तशती’ नामक प्राकृत भाषा में उसने एक मुक्तक काव्य-ग्रन्थ की रचना की थी । उसकी राज्य सभा में ‘बृहत्कथा’ के रचयिता गुणाढ्य तथा कातन्त्र नामक संस्कृत व्याकरण के लेखक शर्ववर्मन् निवास करते थे । कुछ विद्वानों का विचार है कि उपर्युक्त तीनों नरेश सातवाहनों की मूल शाखा से सम्बन्धित नहीं थे ।
ऐसा प्रतीत होता है कि इसी समय (प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य में) पश्चिमी भारत पर शकों का आक्रमण हुआ । शकों ने महाराष्ट्र, मालवा, काठियावाड़ आदि प्रदेशों को सातवाहनों से जीत लिया । पश्चिमी भारत में शकों की क्षहरात शाखा की स्थापना हुई ।
शकों की विजयी के फलस्वरूप सातवाहनों का महाराष्ट्र तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में अधिकार समाप्त हो गया और उन्हें अपना मूलस्थान छोड़कर दक्षिण की ओर खिसकना पड़ा । संभव है इस समय सातवाहनों ने शकों की अधीनता भी स्वीकार कर ली हो । इस प्रकार शातकर्णि प्रथम से लेकर गौतमीपुत्र शातकर्णि के उदय के पूर्व तक का लगभग एक शताब्दी का काल सातवाहनों के ह्रास का काल है ।
सातवाहन शासन की शुरुआत 30 ईसा पूर्व से 200ई तक विभिन्न समयों में की गई है। सातवाहन प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी ईस्वी तक दक्खन क्षेत्र पर प्रभावी थे। यह तीसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व तक चला। निम्नलिखित सातवाहन राजाओं को ऐतिहासिक रूप से एपिग्राफिक रिकॉर्ड द्वारा सत्यापित किया जाता है, हालांकि पुराणों में कई और राजाओं के नाम हैं (देखें सातवाहन वंश # शासकों की सूची ):
यज्ञश्री की मृत्यु के पश्चात् सातवाहन साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया आरम्भ हुई । यह अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया । पुराणों में यज्ञश्री के पश्चात् शासन करने वाले विजय, चन्द्रश्री तथा पुलोमा के नाम मिलते हैं, परन्तु उनमें से कोई इतना योग्य नहीं था कि वह विघटन की शक्तियों को रोक सके । दक्षिण-पश्चिम में सातवाहनों के बाद आभीर, आन्ध्रप्रदेश में ईक्ष्वाकु तथा कुन्तल में चुटुशातकर्णि वंशों ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली ।
इनका विवरण प्रकार है:
इस वंश का संस्थापक ईश्वरसेन था जिसने 248-49 ईस्वी के लगभग कलचुरिचेदि संवत् की स्थापना की । उसके पिता का नाम शिवदत्त मिलता है । नासिक में, उसके शासनकाल के नवें वर्ष का एक लेख प्राप्त हुआ है ।
यह इस बात का सूचक है कि नासिक क्षेत्र के ऊपर उसका अधिकार था । अपरान्त तथा लाट प्रदेश पर भी उसका प्रभाव था क्योंकि यहाँ कलचुरि-चेदि संवत् का प्रचलन मिलता है । आभीरों का शासन चौथी शती तक चलता रहा ।
इस वंश के लोग कृष्णा-गुण्टूर क्षेत्र में शासन करते थे । पुराण में उन्हें ‘श्रीपर्वतीय’ (श्रीपर्वत का शासक) तथा ‘आन्ध्रभृत्य’ (आन्ध्रों का नौकर) कहा गया है । पहले वे सातवाहनों सामन्त थे किन्तु उनके पतन के बाद उन्होंने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी ।
इस वंश का संस्थापक श्रीशान्तमूल था । अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करने के उपलक्ष में उसने अश्वमेध यज्ञ किया । वह वैदिक धर्म का अनुयायी था । उसका पुत्र तथा उत्तराधिकारी माठरीपुत्र वीरपुरुषदत्त हुआ जिसने 20 वर्षों तक राज्य किया ।
अमरावती तथा नागार्जुनीकोंड से उसके लेख मिलते हैं । इनमें बौद्ध संस्थाओं को दिये जाने वाले दान का विवरण है । वीरपुरुषदत्त का पुत्र तथा उत्तराधिकारी शान्तमूल द्वितीय हुआ जिसने लगभग ग्यारह वर्षों तक राज्य किया ।
उसके बाद ईक्ष्वाकु वंश की स्वतन्त्र सत्ता का क्रमशः लोप हुआ । इस वंश के राजाओं ने आन्ध्र की निचली कृष्णा घाटी में तृतीय शताब्दी के अन्त तक शासन किया । तत्पश्चात् उनका राज्य काञ्ची के पल्लवों के अधिकार में चला गया । ईक्ष्वाकु लोग बौद्ध मत के पोषक थे ।
महाराष्ट्र तथा कुन्तल प्रदेश के ऊपर तीसरी शती में चुटुशातकर्णि वंश का शासन स्थापित हुआ । कुछ इतिहासकार उन्हें सातवाहनों की ही एक शाखा मानते हैं जबकि कुछ लोग उनको नागकुल से सम्बन्धित करते है । उनके शासन का अन्त कदम्बों द्वारा किया गया ।
इन वंशों के साथ-साथ अन्य कई छोटे-छोटे राजवंश भी दक्षिण भारत की राजनीति में सक्रिय थे । कृष्णा तथा मसूलीपट्टम् के बीच बृहत्फलायन तथा कृष्णा और गोदावरी के बीच शालंकायन वंशों, जो पहले ईक्ष्वाकुओं के अधीन थे, ने कुछ समय के लिये स्वतन्त्रता स्थापित कर ली थी ।बृहत्फलायनों की राजधानी पिथुन्ड तथा शालंकायनों की वेंगी में थी । बाद में दोनों वंश पल्लवों के अधीन हो गये । इस चतुर्दिक उथल-पुथल के वातावरण में लगभग तीसरी शताब्दी ईस्वी के मध्य सातवाहन साम्राज्य पूर्णरूपेण छिन्न-भिन्न हो गया ।
तीसरी शताब्दी तक सातवाहन वंश की शक्ति बहुत कमजोर हो चुका था । लगभग 225 ई. में यह राजवंश समाप्त हो गया था । इनके पतन में कई शक्तियों ने योगदान दिया । पश्चिम में नासिक के आसपास के क्षेत्र पर अमीरों ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया । पूर्वी प्रदेश में इक्षावाकुओं ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर दिया था । दक्षिण पूर्वी प्रदेश का क्षेत्र पल्लवों ने अपने अधिकार में कर लिया।
This article uses material from the Wikipedia हिन्दी article सातवाहन, which is released under the Creative Commons Attribution-ShareAlike 3.0 license ("CC BY-SA 3.0"); additional terms may apply (view authors). उपलब्ध सामग्री CC BY-SA 4.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। Images, videos and audio are available under their respective licenses.
®Wikipedia is a registered trademark of the Wiki Foundation, Inc. Wiki हिन्दी (DUHOCTRUNGQUOC.VN) is an independent company and has no affiliation with Wiki Foundation.