कोई भी उपकरण जिसका प्रयोग अपने शत्रु को चोट पहुँचाने, वश में करने या हत्या करने के लिये किया जाता है, शस्त्र या आयुध (weapon) कहलाता है। शस्त्र का प्रयोग आक्रमण करने, बचाव करने अथवा डराने-धमकाने के लिये किया जा सकता है। शस्त्र एक तरफ लाठी जितना सरल हो सकता है तो दूसरी तरफ बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्र जितना जटिल भी।
आयुध उन यंत्रों को कहते हैं जिनका प्रयोग युद्ध में होता है। इस प्रकार तीर, तलवार से लेकर बड़ी-बड़ी तोपों तक सभी यंत्र आयुध हैं। आयुध के विकास का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव जाति के विकास का। मानव जीवन आदिकाल से संघर्षपूर्ण रहा है। जीवनरक्षा के लिए उसे भयानक और शक्तिशाली जीवजंतुओं से लड़ना पड़ा होगा। मनुष्य के पास न तो उन जीवजंतुओं के बराबर बल था, न उतना मोटा और कठोर चर्म और न तीव्र तथा घातक दाँत तथा नख ही थे। अपने अनुभवों तथा बुद्धि से मनुष्य ने प्रथम शस्त्रों का आविष्कार किया होगा। एँडे या लाठी का विकास बरछा, गदा, तलवार, बल्लभ और आधुनिक संगीन में हुआ। इसी प्रकार फेंककर मारनेवाले साधारण पत्थर का विकास भाला, धनुष-बाण या धनुर्विद्या, गुलेल, गोला, गोली तथा आधुनिक परमाणु बम में हुआ।
आयुधों के विकास और बढ़ती शक्ति के साथ-साथ प्रतिरक्षा के उपकरणों की आवश्यकता हुई और उनका आविष्कार हुआ। संभवत: चर्म को लकड़ी के डंडों में फँसाकर ढाल बनाने की कला बहुत पुरानी होगी। कालांतर में कवच और आधुनिक युग में आकर कवचयान (टैंक) का आविष्कार हुआ। यह देखा गया हे कि मनुष्य ने जब-जब संहार के साधनों का निर्माण किया, उसके साथ-साथ प्रतिरक्षा के साधनों का भी विकास हुआ।
आयुधों का वर्गीकरण साधारणत: उनके प्रयोग, विधि ओर विशेषताओं के आधार पर किया जाता है। इनके अनुसार पाषाणयुग से बारूद के आविष्कार तक के आयुधों का वर्गीकरण इस प्रकार है :
शस्त्र वे हथियार है जो फेंके नहीं जाते। इनके उपवर्गीकरण के अंतर्गत निम्नलिखित शस्त्र हैं :
(अ) काटनेवाले शस्त्र; जैसे तलवार, परशु आदि;
(आ) फेंकनेवाले शस्त्र, जैसे बरछा, त्रिशूल आदि;
(इ) कुंद शस्त्र, जैसे गदा।
अस्त्र वे हथियार हैं जो फेंके जाते हैं। इनके अंतर्गत ये अस्त्र हैं :
पुरातत्ववेत्ताओं के मतानुसार समय के साथ-साथ मनुष्य का ज्ञान बढ़ा और वह सोच समझकर इच्छानुसार पत्थर और लकड़ी के शस्त्र बनाने लगा। फिर इन्हीं शस्त्रों को घिसकर सपाट, सुडौल, तीव्र और चमकीला बनाना आरंभ किया। इस काल के मुख्य शस्त्र पत्थर के कुल्हाड़े, गदाएँ और छुरे थे। सहस्रों वर्ष बाद उसने धनुष और भाले का भी निर्माण किया।
लगभग 4,000 वर्ष ई.पू. तक मनुष्य धातु का पता पा चुका था। ताँबे और राँगे को मिलाकर उसने काँसा बनाना जाना ओर तब धीरे-धीरे पत्थर के शस्त्रों का स्थान काँसे के शस्त्रों ने ले लिया। इस काल के शस्त्रों में विशेषत: धनुषबाण, बरछी, छुरी, भाला, कुल्हाड़ा और गदा के तथा रक्षात्मक साधनों में केवल काँसे की ढाल के प्रमाण मिले हैं। कांसे का स्थान प्राय: 1000 ई.पू. में लोहे ने लिया।
वैदिक काल में अस्त्रशस्त्रों का वर्गीकरण इस प्रकार था :
(1) अमुक्ता - वे शस्त्र जो फेंके नहीं जाते थे।
(2) मुक्ता - वे शस्त्र जो फेंके जाते थे। इनके भी दो प्रकार थे-
(3) मुक्तामुक्त - वह शस्त्र जो फेंककर या बिना फेंके दोनों प्रकार से प्रयोग किए जाते थे।
(4) मुक्तसंनिवृत्ती - वे शस्त्र जो फेंककर लौटाए जा सकते थे।
आग्नेयास्त्र (फ़ायर-आर्म्स) का भी उल्लेख मिलता है, पर अधिक स्पष्ट नहीं।
शस्त्रों का वर्गीकरण कई तरह से कर सकते हैं।
कुछ विद्वानों ने हथियारों के निम्नलिखित ३ लक्षण बताये हैं-
प्रसिद्ध सैन्य विचारक जे एफ सी फुलर ने हथियारों में निम्नलिखित विशेषताओं का होना अनिवार्य बताया है-
उपर्युक्त गुणों के साथ-साथ उत्तम हथियारों में निम्नलिखित गुणों का होना भी अत्यन्त आवश्यक होता है-
शरीर के विभिन्न अंगों की रक्षा का उल्लेख किया गया है। उदाहरणार्थ शरीर के लिए चर्म तथा कवच का, सिर के लिए शिरस्त्राण और गले के लिए कंठत्राण इत्यादि का।
यूरोप में भी इसी प्रकार के शस्त्र बनते थे। 12वीं सदी का कवच लोहे की छोटी-छोटी कड़ियों को गूँथकर बनता था। जिरहबख्तर (जालिका, चेने मेल) सुंदर और सुविधाजनक अवश्य था, पर भारी शस्त्रों की चोट से पूर्णतया रक्षा नहीं कर सकता था। इसलिए 13वीं सदी ई. से यूरोप में लोहे की चादर के आवरण बनने लगे और उन्हें जालिका के ऊपर पहना जाने लगा। योद्धा अब सिर से पाँव तक पट्टकवच (प्लेट आरमर) से ढका रहता था। शरीर के अवयवों के सरल आंदोलन के लिए इन कवचों में जोड़ बने रहते थे। पीछे अश्व के लिए भी लिए भी ऐसा ही कवच बनने लगा।
जालिका भी अश्व तथा मनुष्य दोनों के लिए बनती थी। सवार और अश्व के कवच का भार 200 से 300 पाउंड तक होता था।
13वीं शताब्दी में शस्त्रों की शक्ति में भी उन्नति हुई। अंग्रेजों का लंबा धनुष (लांग बो) इतना शक्तिशाली होता था कि उससे चलाया बाण साधारण कवचों को भेद देता था। यह धनुष छह फुट लंबा होता था और इसका छह फुट का बाण 250 गज तक सुगमता से मार कर सकता था। इसी प्रकार स्विट्ज़रलैंड का 'हैलबर्ड कुल्हाड़ा' था। इसका दस्ता आठ फुट का था और कुल्हाड़े के साथ-साथ इसमें बरछी और सवार को खींचकर गिराने के काम का एक टेढ़ा काँटा भी होता था। दक्ष लड़ाका इसकी चोट से अच्छे कवच को भी काट सकता था।
बारूद के आविष्कार ने (1294 ई. में) मनुष्य के हाथ में एक ऐसी शक्ति दे दी जिसने युद्ध की रूपरेखा ही बदल दी। यह निश्चित है कि 14वीं शताब्दी के आरंभ में आग्नेयास्त्र बन चुके थे। प्रथम आग्नेयास्त्र तोप थी। यह मुख्यत: दो प्रकार की बनाई गई - एक छोटी नालवाली (मॉरटर) और दूसरी लंबी नालीवाली (बंबार्ड)।
ये तोपें पहले ताँबे और काँसे की बनीं और फिर लोहे की बनने लगीं। 15वीं शताब्दी में तोपें 30 इंच परिधि की होती थीं और 1,200 से 1,500 पाउंड भार के पत्थर के गोले चलाती थीं। आधुनिक हाविट्ज़र और भारी फ़ील्डगन मॉरटर और बंबार्ड के ही विकसित रूप हैं। इसी शताब्दी के अंत तक छोटी हाथ की तोपें बनीं। इनका स्थान 15वीं शताब्दी के आरंभ में हाथ की बंदूक ने लिया।
इसी का विकास धीरे-धीरे मस्केट, मैचलॉक, फ्लिंटलॉक और आधुनिक राइफल में हुआ। तीव्र गति से लगातार गोली चलानेवाली बंदूक बनाने की चेष्टा और इस संबंध के प्रयोग 16वीं शताब्दी से होने लगे थे और इसी के फलस्वरूप 1884 में प्रथम सफल मशीनगन बनी। आज की मशीनगन एक मिनट में कई सौ गोलियाँ तक चला सकती है। अन्य महत्वपूर्ण शस्त्रों का भी आविष्कार 14वीं से 16वीं शताब्दी में हुआ, जैसे हाथ का बम (1382 ई.), कांसे के विस्फोटक गोले, पिस्तौल (1483 ई.), दाहक गोले (1487 ई.), इत्यादि। शस्त्रों का अधिक विकास आधुनिक काल में हुआ। 16वीं शताब्दी तक आग्नेयास्त्र इतने प्रभावशाली बन चुके थे कि मनुष्य के स्वरक्षात्मक कवच व्यर्थ थे। सन् 1915 का मनुष्य आग्नेयास्त्र के सामने असहाय रहा, परंतु इसी वर्ष प्रथम कवचयान (टेंक) का निर्माण हुआ। मनुष्य अब इस्पात की मोटी-मोटी चादरों से बनी इस गाड़ी में बैठकर हल्के आग्नेयास्त्र के प्रहार से बच सकता था।
बंदूक, राइफल और तोपों के कार्यकरण का सिद्धांत एक ही है। किसी तीन ओर दृढ़ता से बंद पात्र में बारूद रखी जाती है और इसके बाद छर्रा, गोली या गोला रखकर चौथी ओर से पात्र को अस्थायी रूप से बंद कर दिया जाता है। फिर बारूद में किसी युक्ति से आग लगा दी जाती है। तब बारूद तुरंत जलकर गैसों में परिवर्तित हो जाती है। अत्यंत कम स्थान में उत्पन्न होने के कारण ये गैसें बहुत संपीडित (दबी हुई) रहती हैं। इसलिए छरें, गोली या गोले को वे बहुत बलपूर्वक दबाती हैं। गोला जब तक यंत्र के नाल में चलता रहता है तब तक उसपर दाब पड़ती रहती है और उसका वेग बढ़ता रहता है। इस प्रकार उसमें बहुत अधिक वेग उत्पन्न हो जाता है। नाल के कारण उसकी दिशा भी निर्धारित हो जाती है; इसलिए नाल को घुमा फिराकर गोले को इच्छानुसार लक्ष्य पर मारा जा सकता है।
सन् 1313 ई. से यूरोप में तोप के प्रयोग का पक्का प्रमाण मिलता है। भारत में बाबर ने पानीपत की लड़ाई (सन् 1526 ई.) में तोपों का पहले-पहले प्रयोग किया।
पहले तोपें काँसे की बनती थीं और उनको ढाला जाता था। परंतु ऐसी तोपें पर्याप्त पुष्ट नहीं होती थीं। उनमें अधिक बारूद डालने से वे फट जाती थीं। इस दोष को दूर करने के लिए उनके ऊपर लोहे के छल्ले तप्त करके खूब कसकर चढ़ा दिए जाते थे। ठंढा होने पर ऐसे छल्ले सिकुड़कर बड़ी दृढ़ता से भीतरी नाल को दबाए रहते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे बैलगाड़ी के पहिए के ऊपर चढ़ी हाल पहिए को दबाए रहती है। अधिक पुष्टता के लिए छल्ले चढ़ाने के पहले नाल पर लंबाई के अनुदिश भी लोहे की छड़ें एक दूसरी से सटाकर रख दी जाती थीं। इस समय की एक प्रसिद्ध तोप मॉन्स मेग है, जो अब एडिनबरा के दुर्ग पर शोभा के लिए रखी है। इसके बाद लगभग 200 वर्षों तक तोप बनाने में कोई विशेष उन्नति नहीं हुई। इस युग में नालों का संछिद्र (बोर) चिकना होता था। परंतु लगभग सन् 1520 में जर्मनी के एक तोप बनानेवाले ने संछिद्र में सर्पिलाकार खाँचे बनाना आरंभ किया। इस तोप में गोलाकार गोले के बदले लंबोतर "गोले" प्रयुक्त होते थे। संछिद्र में सर्पिलाकार खाँचों के कारण प्रक्षिप्त पिंड वेग से नाचने लगता है। इस प्रकार नाचता (घूर्णन करता) पिंड वायु के प्रतिरोध से बहुत कम विचलित होता है और परिणामस्वरूप लक्ष्य पर अधिक सच्चाई से पड़ता है।
1855 ई. में लार्ड आर्मस्ट्रांग ने पिटवाँ लोहे की तोप का निर्माण किया, जिसमें पहले की तोपों की तरह मुंह की ओर से बारूद आदि भरी जाने के बदले पीछे की ओर से ढक्कन हटाकर यह सब सामग्री भरी जाती थी। इसमें 40 पाउंड के प्रक्षिप्त भरे जाते थे।
साधारण तोपों में प्रक्षिप्त बड़े वेग से निकलता है और तोप की नाल को बहुत ऊँची दिशा में नहीं लाया जा सकता है। दूसरी ओर छोटी नाल की तोपें हल्की बनती हैं और उनसे निकले प्रक्षिप्त में बहुत वेग नहीं होता, परंतु इनमें यह गुण होता है कि प्रक्षिप्त बहुत ऊपर उठकर नीचे गिरता है और इसलिए इससे दीवार, पहाड़ी आदि के पीछे छिपे शत्रु को भी मार सकते हैं। इन्हें मॉर्टर कहते हैं। मझोली नाप की नालवाली तोप को हाउविट्ज़र कहते हैं। जैसे-जैसे तोपों के बनाने में उन्नति हुई वैसे-वैसे मॉर्टरों और हाउविट्ज़रों के बनाने में भी उन्नति हुई।
प्राय: सभी देशों में एक ही प्रकार से तोपों के निर्माण में उन्नति हुई, क्योंकि बराबर होड़ लगी रहती थी। जब कोई एक देश आधिक भारी, अधिक शक्तिशाली या अधिक फुर्ती से गोला दागनेवाली तोप बनाता तो बात बहुत दिनों तक छिपी न रहती और प्रतिद्वंद्वी देशों की चेष्टा होती कि उससे भी अच्छी तोप बनाई जाय। 1898 ई. में फ्रांसवालों ने एक ऐसी तोप बनाई जो उसके बाद बननेवाली तोपों की पथप्रदर्शक हुई। उससे निकले प्रक्षिप्त का वेग अधिक था; उसका आरोपण सराहनीय था; दागने पर पूर्णतया स्थिर रहता था, क्योंकि आरोपण में ऐसे डैने लगे थे जो भूमि में धँसकर तोप को किसी दिश में हिलने न देते थे। सभी तोपें दागने पर पीछे हटती हैं। इस धक्के (रि-कॉयल) के वेग को घटाने के लिए द्रवों का प्रयोग किया गया था। इसके प्रक्षिप्त पतली दीवार के बनाए थे। इनमें से प्रत्येक की तौल लगभग 12 पाउंड थी और उसमें लगभग साढ़े तीन पाउंड उच्च विस्फोटी बारूद रहती थी। प्रक्षिप्त में विशेष रसायनों से युक्त एक टोपी भी रहती थी, जिससे लक्ष्य पर पहुँचकर प्रक्षिप्त फट जाता था और टुकड़े बड़े वेग से इधर-उधर शत्रु को दूर तक घायल करते थे। यह दीवार के पीछे छिपे सैनिकों को भी मार सकती है।
प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) में जर्मनों ने 'बिग बर्था' नामक तोप बनाई, जिससे उन्होंने पेरिस पर 75 मील की दूरी से गोले बरसाना आरंभ किया। इस तोप में कोई नया सिद्धांत नहीं था। तोप केवल पर्याप्त बड़ी और पुष्ट थी। परंतु हवाई जहाजों तथा अन्य नवीन यंत्रों के आविष्कार से ऐसी तोपें अब लुप्तप्राय हो गई हैं।
अग्निबाण उसी सिद्धांत पर चलते हैं जिसपर दीपावली पर छोड़े जानेवाले बारूद भरे बाण। द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम वर्ष में अग्निबाण बहुत कार्यकारी सिद्ध हुए। अग्निबाणप्रेक्षेपक में 30 अग्निबाण तीन-तीन इंच व्यास के लगे रहते थे और प्रत्येक में कॉर्डाइट नामक विस्फोटक भरा रहता था। प्रत्येक के सिर का भार 29 पाउंड था। दागने पर प्रत्येक अग्निबाण 3,900 से 8,000 गज तक जा सकता था। प्रत्येक बिजली के स्विच से दागा जाता था। इन स्विचों को या तो इस प्रकार व्यवस्थित किया जा सकता था कि अग्निबाण आध-आध सेकेंड पर अपने आप छूटते रहें या इच्छानुसार कई अग्निबाण या कुल अग्निबाण एक साथ ही छूटें। उच्च विस्फोटक के इस एकाएक धमाके से शत्रु की सेना को भारी क्षति पहुँचती थी और वह अत्यंत भयभीत हो जाया करती थी।
द्वितीय महायुद्ध के अंत में जर्मनी ने बिना मानवी संचालक के और बहुत दूर तक पहुँचनेवाले अग्निबाण बनाए, जिनका नाम वी-एस और वी-दो पड़ा। देखने में वी-एक वायुयान के समान होता था। इसमें 130 गैलन पेट्रोल आता था और मशीन का भार लगभग एक टन रहता था। उड़ते समय इसका वेग 350 मील प्रति घंटा हो जाता था और चलने में यह भयानक ध्वनि उत्पन्न करता था। साथ में वी-दो का चित्र दिखाया गया है। इसमें ऐल्कोहल और द्रव ऑक्सीजन का प्रयोग होता था। प्रत्येक बाण में लगभग तीन टन ऐल्कोहल और पाँच टन द्रव ऑक्सीजन भरा रहता था। इसका महत्तम वेग लगभग 3,000 मील प्रति घंटा था। यंत्र की आकृति सिगार की तरह होती थी और बिना ईंधन भार लगभग एक टन।
वायुयान इतने वेग से चलते रहते हैं कि उनको तोप से मार गिराना कठिन ही होता था, परंतु अमरीकी वैज्ञानिकों ने राडार और वायुयानघातक तोपों का ऐसा संबंध जोड़ा कि तोप अपने आप वायुयान पर सधी रहती थी। सन् 1944 के उड़न बमों पर विजय इसी से मिली, क्योंकि ये राडारयुक्त तोपें लगभग 70 प्रतिशत ऐसे बमों को मार गिराती थीं।
ये कई प्रकार के होते हैं। कुछ प्रमुख बम जो आजकल के युद्ध में प्रयुक्त किए जाते हैं, निम्नलिखित हैं :
1. विखंडक बम 2. विध्वंसक बम 3. अग्निबम 4. रासायनिक बम 5. जीवाणु बम 6. विकिरण बम
विखंडक बम - इसमें विशेष प्रकार के धातु के खोखले पात्र के भीतर विस्फोटक पदार्थ भरा होता है। जब यह वायुयान अथवा रॉकेट से गिराने पर पृथ्वी से टकराता है तो धमाके के साथ फट जाता है और इसके टुकड़ों से लोग घायल होते हैं। कभी-कभी यह वायुयान से गिराने पर पृथ्वी से कुछ ऊँचाई पर हवा में ही फूट जाता है। इन बमों का कुल भार 2 कि.ग्रा. से लेकर 50 कि.ग्रा. तक होता है। साधारणतया ये बम बड़े क्षेत्रों में गिराए जाते हैं।
विध्वंसक बम - इसका भार 50 कि.ग्रा. से लेकर 1,000 कि.ग्रा. तक होता है। इसमें साधारण विस्फोटक भरा रहता है।
अग्नि बम - ये घनी आबादीवाले शहरों तथा बड़े-बड़े कारखानों पर गिराए जाते हैं जिनसे वे जलकर नष्ट हो जाते हैं। इसमें आग लगानेवाला पदार्थ एक विशेष प्रकार के प्रज्वालक पलीते के साथ भरा होता है। आग लगाने के लिए फासफोरस, नेपाम और थर्माइट इलेक्ट्रान जैसे रासायनिक यौगिक प्रयुक्त किए जाते हैं और तब इनके नाम प्रयुक्त पदार्थ के अनुसार भी हो जाते हैं।
'रासायनिक बम - यह एक प्रकार का बैलून होता है जिसकी दीवार पतली होती है। यह विषैली वस्तुओं से भरा हुआ होता है। यह बम जमीन अथवा जमीन से कुछ ऊपर हवा में विस्फोट करता है तो विषैली वस्तुएँ, गैस, तरल या ठोस जो भी होती हैं, खोल से बाहर निकलकर जमीन अथवा हवा में बिखर जाती हैं और कुछ ही क्षणों में उस विस्फोट स्थल के आसपास बादल का रूप धारण कर लेती हैं।
जीवाणु बम - इसका भार लगभग 75 क्रि.ग्रा. तक होता है। इसमें कई कक्ष होते हैं। प्रत्येक कक्ष में जीवाणु, रोगग्रस्त कीड़े अथवा जुएँ भरे होते हैं। बम गिराने पर इसमें लगा फ्यूज जल उठता है और इसी समय इसके कक्षों का ढक्क्न, जो कब्जेदार होता है, झटके के साथ खुल जाता है और रोग फैलानेवाले जीवाणु हवा में बिखरकर फैल जाते हैं। यदि इस बम के खोल का ढक्कन जमीन से 30 फुट पर खुल जाता है तो ये जीवाणु लगभग 400 वर्ग मीटर में फैल जाते हैं। जिस क्षेत्र में जीवाणु बम गिराए जाते हैं उसमें मनुष्य, जीव जंतु और पेड़ पौधे आदि सभी रोग के शिकार हो सकते हैं क्योंकि सारा वातावरण दूषित हो जाता है।
विकिरण बम - यह रासायनिक बम की तरह होता है लेकिन इसका खोल कुछ पतला रहता है। इसके भीतर रेडियमधर्मी पदार्थ विस्फोटक पदार्थ के साथ भरा होता है। विस्फोट होने पर ये पदार्थ धूल की तरह हवा में मिल जाते हैं जिससे वहाँ की हवा रेडियमधर्मी पदार्थों से संदूषित हो जाती है। इस प्रकार वहाँ के लोग रेडियमधर्मी विकिरणजन्य रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं।
ये परमाणु बम एवं हाइड्रोजन बम से भी अधिक भयानक सिद्ध हुए हैं। ये ऐसे अस्त्र हैं जिन्हें छोड़ने पर किसी प्रकार का धमाका नहीं होता है। जीवाणु अस्त्र में रोग फैलानेवाले जीवाणु होते हैं और जिस युद्ध में ये इस्तेमाल किए जाते हैं वह बहुत बीभत्स एवं संहारक होता है। प्रथम विश्वयुद्ध में युद्धभूमि में 51,259 अमरीकी सैनिक मरे थे, पर उसके बाद जीवाणुओं से फैली बीमारी से मरनेवालों की संख्या 51,447 थी। प्राचीन काल में लोग रोगी के शव को दुश्मनों के घेरे में डाल देते थे ताकि उनकी मृत्यु जीवाणुओं के माध्यम से होने लगे।
ये युद्ध में अस्त्रों के रूप में प्रयुक्त किए जाते हैं और कई प्रकार के होते हैं। ये मनुष्यों, पशुओं तथा पौधों में संक्रामक रोग फैलाते हैं। इनका प्रयोग दुश्मन की युद्ध करने की क्षमता घटाने के लिए होता है। ये जीवाणु उचित वातावरण पाने पर बहुत कम समय में लाखों सैनिकों को रोगग्रस्त कर देते हैं।
युद्धास्त्र के रूप में नाना प्रकार के जीवाणु प्रयोग में लाए जाते हैं और प्रत्येक प्रकार के जीवाणु अलग-अलग प्रकार के संक्रामक रोग फैलाते हैं। रोग फैलानेवाले जीवाणुओं के लिए जिन विभिन्न साधनों का उपयोग संभव है उनमें से कुछ साधनों के नाम निम्नलिखित हैं :
एक बार छोड़ दिए जाने पर ये सूक्ष्मजीवी हवा में बिखर जाते हैं और वायु के साथ-साथ हजारों मील के क्षेत्र में फैल जाते हैं। उदाहरणार्थ बैसिलाई (बैक्टीरिया) को एयरोसोल के द्वारा समुद्रतट से 240 कि॰मी॰ की लंबाई में छोड़ दिया जाए तो ये अपने आप 1,30,800 वर्ग कि॰मी॰ भूभाग में फैल जाएँगे। इस प्रकार उस भूभाग में ये जीवाणु रोग फैलाते हैं। ऐसा पाया गया है कि अस्त्रों के हमले से मरनेवाले सैनिकों की अपेक्षा इन रोगाणुओं के संक्रमण से मरनेवाले सैनिकों की संख्या अधिक होती है। जीवाणुओं के प्रजनन की जो असीम क्षमता है वह जीवाणु अस्त्रों को और अधिक घातक बना देती है। यदि ये जीवाणु एक बार जाते हैं तो इन्हें नष्ट करना आसान नहीं होता। इन जीवाणुओं का कोई विशेष रंग, स्वाद और गंध नहीं होता। इन विशेषताओं के कारण जीवाणु अस्त्रों का महत्त्व दिन-प्रति-दिन बढ़ता जा रहा है।
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