भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भागों में उत्पन्न वैदिक सभ्यता, महान प्रगति और सांस्कृतिक समृद्धि का काल था। इस काल के दौरान,वेदों की रचना की गई, जो उस समय के जीवन के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।, जिसमे ऋग्वेद सर्वप्राचीन और बृहत होने के कारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वैदिक सभ्यता विश्व की सर्वप्रथम शाब्दिक सभ्यता थी और इसी सभ्यता से साहित्य की खोज हुई। इसी काल से ही सही मायनों में भारतीय संस्कृति का जन्म हुआ। वैदिक काल को ऋग्वैदिक या पूर्व वैदिक काल तथा उत्तर वैदिक काल में बांटा गया है। वैदिक काल या वैदिक युग की उत्पत्ति अभी भी एक विवाद का मुद्दा है।
भौगोलिक विस्तार | भारतीय उपमहाद्वीप |
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काल | कांस्य युग भारत |
पूर्ववर्ती | संभवतः सिंधु घाटी सभ्यता (विवादास्पद) |
परवर्ती | उत्तर वैदिक काल, कुरु साम्राज्य, पाञ्चाल राजवंश, कोशल राजवंश, विदेह राजवंश |
भौगोलिक विस्तार | भारतीय उपमहाद्वीप |
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काल | विवादास्पद |
पूर्ववर्ती | प्रारंभिक वैदिक काल, जनपद |
परवर्ती | हर्यक वंश, महाजनपद |
वैदिक साहित्य जो इस अवधि के दौरान लिखे गए, समकालीन जीवन का विवरण देने वाले प्रख्यात ग्रंथ हैं और साथ ही विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ भी है। जिन्हें ऐतिहासिक माना गया है और अवधि को समझने के लिए प्राथमिक स्रोतों का गठन किया गया है। संबंधित पुरातात्विक अभिलेखों के साथ ये दस्तावेज वैदिक संस्कृति के विकास का पता लगाने और उस काल का अनुमान लगाने की अनुमति देते हैं।
वेदों की रचना और मौखिक रूप से एक पुरानी हिन्द-आर्य भाषाएँ बोलने वालों द्वारा सटीक रूप से प्रेषित की गई थी, जो इस अवधि के शुरू में भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में चले गए थे। वैदिक समाज "पितृसत्तात्मक" था। आरंभिक वैदिक आर्य पंजाब में केंद्रित एक कांस्य युग के समाज से थे, जो कि राज्यों के बजाय जनजातियों में संगठित थे। इनका मुख्य रूप से जीवन देहाती था। ल. 1500–1300 ई.पू., वैदिक आर्य पूर्व में उपजाऊ पश्चिमी गंगा के मैदान में फैल गए और उन्होंने लोहे के उपकरण अपना लिए, जो जंगल को साफ करने और अधिक व्यवस्थित, कृषि जीवन के लिए उपयोगी थे।
वैदिक काल के उत्तरार्ध में भारत राजवंश, यदुवंश और कुरु साम्राज्य मुख्य शक्ति के रूप में उबरे। वैदिक समाज यज्ञ परक था और यज्ञ सामाजिक व्यवस्था का एक अंग था। इस काल की वर्ण व्यवस्था "कार्यानुसार" थी ना की जन्मनुसार थी।
वैदिक काल के अंत में (ल. 700 से 500 ई.पू मे) महानगरो और बड़े राज्यों महाजनपद का उदय हुआ। इसके साथ-साथ श्रमण परम्परा (जैन धर्म और बौद्ध धर्म सहित) में वृद्धि हुई, जिसने वैदिक परंपराओं को चुनौती दी।
वैदिक संस्कृति के चरणों से पहचानी जाने वाली पुरातात्विक संस्कृतियों में चार मुख्य है–
वेदों के अतिरिक्त अन्य कई ग्रंथो की रचना भी 9वी शताब्दी से 5वी शताब्दी ई.पू काल में हुई थी। वेदांगसूत्रौं की रचना मन्त्र, ब्राह्मणग्रंथ और उपनिषद इन वैदिकग्रन्थौं को व्यवस्थित करने मे हुआ है। रामायण, महाभारत और पुराणौं की रचना हुआ जो इस काल के ज्ञानप्रदायी स्रोत माना गया हैं। अनन्तर चार्वाक, तान्त्रिकौं, बौद्ध और जैन धर्म का उदय भी हुआ।
इतिहासकारों का मानना है कि आर्य मुख्यतः उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों में रहते थे इस कारण आर्य सभ्यता का केन्द्र मुख्यत उत्तरी भारत था। इस काल में उत्तरी भारत (आधुनिक पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा नेपाल समेत) कई महाजनपदों में बंटा था।
वैदिक सभ्यता का नाम ऐसा इस लिए पड़ा कि वेद उस काल की जानकारी का प्रमुख स्रोत हैं। वेद चार है - ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद। इनमें से ऋग्वेद की रचना सबसे पहले हुई थी। '
ऋग्वेद के काल निर्धारण में विद्वान एकमत नहीं है। सबसे पहले मैक्स मूलर ने वेदों के काल निर्धारण का प्रयास किया। उसने बौद्ध धर्म (550 ईसा पूर्व) से पीछे की ओर चलते हुए वैदिक साहित्य के तीन ग्रंथों की रचना को मनमाने ढंग से 200-200 वर्षों का समय दिया और इस तरह ऋग्वेद के रचना काल को 1200 ईसा पूर्व के करीब मान लिया पर निश्चित रूप से उसके आंकलन का कोई आधार नहीं था।
ऋग्वेद की आधुनिक तिथियाँ आमतौर पर 1500 ईसा पूर्व से भी पुरानी हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि ऋग्वेद में ऋषियों की 3 से 5 पीढ़ियों का उल्लेख है और कई बार प्राचीन ऋषियों के बारे में भी बताया गया है। इसलिए, हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि ऋग्वेद की रचना कई सदियों के अंतराल में हुई होगी।
ऋग्वेद में उल्लेखित तारों की स्थिति को देखकर सबसे प्राचीनतम तिथि ७००० ईसा पूर्व निकाली गई है। परंतु इन सभी तिथियों में मतभेद हैं।
ज्योतिष वेदांग के ग्रंथ को उपनेवैशिक काल में ८०० ईसा पूर्व में लिखा माना गया था। लेकिन कंप्यूटर की सहायता से इसकी तिथि को १३७० ईसा पूर्व घोषित कर दिया गया है वो भी बिना किसी मतभेद के।
ज्योतिष वेदांग की 1370 ईसा पूर्व वाली तिथि वैदिक अध्ययन के क्षेत्र में महत्व रखती है। इस तिथि को कई विद्वानों द्वारा व्यापक रूप से स्वीकार किया गया है और इसे प्राचीन भारतीय ग्रंथों के कालक्रम को समझने में एक महत्वपूर्ण संदर्भ बिंदु माना जाता है। ज्योतिष वेदांग, वेदों से जुड़े सहायक विषयों में से एक, खगोल विज्ञान और समय निर्धारण से संबंधित है।
यह तथ्य कि यह तिथि बाद के वैदिक संस्कृत ग्रंथों में दर्ज है, उस अवधि के दौरान खगोल विज्ञान में परिष्कार और ज्ञान के स्तर को इंगित करता है। खगोलीय गणनाओं और अवलोकनों के लिए आवश्यक सटीकता आकाशीय गतिविधियों और सांसारिक घटनाओं पर उनके प्रभाव की एक उन्नत समझ का सुझाव देती है।
1370 ईसा पूर्व की तारीख को एक विश्वसनीय संदर्भ बिंदु के रूप में स्वीकार करके, विद्वान यह अनुमान लगाते हैं कि वैदिक काल इस समय सीमा से पहले का है। ज्योतिष वेदांग में अंतर्निहित जटिल खगोलीय ज्ञान वैदिक संस्कृति के भीतर ब्रह्मांड का अध्ययन करने की एक दीर्घकालिक परंपरा को दर्शाता है। यह वैदिक ज्ञान की प्राचीनता और गहराई को रेखांकित करता है, एक ऐसी सभ्यता की ओर इशारा करता है जिसने पहले से ही विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण ज्ञान और विशेषज्ञता जमा कर ली है।
निष्कर्षतः, कई विद्वानों द्वारा ज्योतिष वेदांग में 1370 ईसा पूर्व की तारीख की स्वीकृति प्राचीन भारतीय ग्रंथों को समझने में एक महत्वपूर्ण मील के पत्थर के रूप में इसके महत्व को रेखांकित करती है। यह तिथि एक मूल्यवान सुराग के रूप में कार्य करती है जो दर्शाती है कि वैदिक काल संभवतः बहुत पीछे तक फैला हुआ है, जो प्रारंभिक भारतीय सभ्यता के भीतर बौद्धिक खोज और वैज्ञानिक जांच की समृद्ध विरासत को प्रदर्शित करता है।
वैदिक काल को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है- ऋग्वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल। ऋग्वैदिक काल आर्यों के आगमन के तुरंत बाद का काल था जिसमें कर्मकांड गौण थे पर उत्तरवैदिक काल में हिन्दू धर्म में कर्मकांडों की प्रमुखता बढ़ गई।
इस काल की तिथि निर्धारण जितनी विवादास्पद रही है उतनी ही इस काल के लोगों के बारे में सटीक जानकारी। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि इस समय तक केवल इसी ग्रंथ (ऋग्वेद) की रचना हुई थी। मैक्स मूलर के अनुसार आर्य का मूल निवास मध्य ऐशिया है।आर्यो द्वारा निर्मित सभ्यता वैदिक काल कहलाई। आर्यो द्वारा विकसित सभ्य्ता ग्रामीण सभ्यता कहलायी।
मैक्स मूलर ने जब अटकलबाजी करते हुए इसे 1200 ईसा पूर्व से आरंभ होता बताया था (लेख का आरंभ देखें) उसके समकालीन विद्वान डब्ल्यू. डी. ह्विटनी ने इसकी आलोचना की थी। उसके बाद मैक्स मूलर ने स्वीकार किया था कि " पृथ्वी पर कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो निश्चित रूप से बता सके कि वैदिक मंत्रों की रचना 1000 ईसा पूर्व में हुई थी या कि 1500 ईसापूर्व में या 2000 या 3000 "।
ऐसा माना जाता है कि आर्यों का एक समूह ईरान (फ़ारस) से आया और यूरोप की तरफ़ भी गया था। ईरानी भाषा के प्राचीनतम ग्रंथ अवेस्ता की सूक्तियां ऋग्वेद से मिलती जुलती हैं। अगर इस भाषिक समरूपता को देखें तो ऋग्वेद का रचनाकाल 1000 ईसापूर्व आता है। लेकिन बोगाज-कोई (एशिया माईनर) में पाए गए 1400 ईसा पूर्व के अभिलेख में इंद, मित्रावरुण, नासत्य इत्यादि को देखते हुए इसका काल और पीछे माना जा सकता है।
हरमौन जैकोबी ने जहाँ इसे 4500 ईसापूर्व से 2500 ईसापूर्व के बीच आंका था वहीं सुप्रसिद्ध संस्कृत विद्वान विंटरनित्ज़ ने इसे 3000 ईसापूर्व का बताया था।
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कुल थी। एक कुल में एक घर में एक छत के नीचे रहने वाले लोग शामिल थे। परिवार के मुखिया को कुलुप कहा जाता था। एक ग्राम कई कुलों से मिलकर बना होता था। ग्रामों का संगठन विश् कहलाता था और विशों का संगठन जन। कई जन मिलकर राष्ट्र बनाते थे। ग्राम के मुखिया को ग्रामिणी, विश का प्रधान विशपति ,
जन का शासक राजन् (राजा) तथा राष्ट्र के प्रधान को सम्राट कहते थे। आर्यों की प्रशासनिक संस्थाएं काफी सशक्त अवस्था में थी। प्रारंभ में राजा का चुनाव जनता के द्वारा किया जाता था बाद में उसका पद धीरे-धीरे पैतृक होता चला गया परंतु राजा निरंकुश नहीं होता था वह जनता की सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी लेता था इस सुरक्षा व्यवस्था के बदले में लोग राजा को स्वैच्छिक कर देते थे जिसे बलि कहा जाता था। ऋग्वैदिक आर्यों की दो महत्वपूर्ण राजनैतिक संस्थाएं थीं जिन्हें सभा और समिति कहा जाता था-
१."सभा-" इसे उच्च सदन भी कहा जा सकता है यह समाज से आए हुए बुद्धिमान और अनुभवी व्यक्तियों की संस्था थी। सभा के सदस्यों को सभेय अथवा सभासद कहा जाता था और सभा का अध्यक्ष सभापति कहा जाता था सभा के सदस्यों को पितर कहा जाता था जिससे पता लगता है कि ये बुजुर्ग और अनुभवी लोग थे।
२. "समिति-" समिति आम जनमानस की संस्था थी उसके सदस्य समस्त नागरिक होते थे इसमें सामान्य विषयों पर चर्चा होती थी । उसके अध्यक्ष को ईशान कहा जाता था। प्रारंभ में समिति में स्त्रियां भी आती थी और उसमें आकर ऋक नामक गान किया करती थी। आर्यों की सबसे प्राचीन संस्था को जनसभा थी उसे "विदथ" कहा जाता था।
ऋग्वैदिक काल में प्राकृतिक शक्तियों की ही पूजा की जाती थी और कर्मकांडों की प्रमुखता नहीं थी। ऋग्वैदिक काल धर्म की॑ अन्य विशेषताएं • क्रत्या, निऋति, यातुधान, ससरपरी आदि के रूप मे अपकरी शक्तियो अर्थात, राछसों, पिशाच एवं अप्सराओ का जिक्र दिखाई पडता है। इस समय में मूर्ति पूजन नहीं होता था और ना ही मंत्रोचार किया जाता था। कर्मकांड जैसे पूजा-पाठ, व्रत,यज्ञ आदि इस काल में नहीं होते थे।।
ऋग्वैदिक काल में आर्यों का निवास स्थान सिंधु तथा सरस्वती नदियों के बीच में था। बाद में वे सम्पूर्ण उत्तर भारत में फ़ैल चुके थे। सभ्यता का मुख्य क्षेत्र गंगा और उसकी सहायक नदियों का मैदान हो गया था। गंगा को आज भारत की सबसे पवित्र नदी माना जाता है। इस काल में विश् का विस्तार होता गया और कई जन विलुप्त हो गए। भरत, त्रित्सु और तुर्वस जैसे जन् राजनीतिक हलकों से ग़ायब हो गए जबकि पुरू पहले से अधिक शक्तिशाली हो गए। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में कुछ नए राज्यों का विकास हो गया था, जैसे - काशी, कोसल, विदेह (मिथिला), मगध और अंग।
ऋग्वैदिक काल में सरस्वती नदी को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। ग॓गा का एक बार और यमुना नदी का उल्लेख तीन बार हुआ है। इस काल मे कौसाम्बी नगर मे॓ पहली बार पक्की ईटो का प्रयोग किया गया। इस काल मे वर्ण व्यवसाय के बजाय जन्म के आधार पे निर्धारित होने लगे।
1. ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से सम्बंधित रचनाओं का संग्रह है।
2. यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमे 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम अष्टम, नवम एवं दशम मंडल बाद में जोड़े गए हैं। इसमें 1028 (1017 साकल मे+11 बालखिल्य मे)सूक्त हैं।
3. इसकी भाषा पद्यात्मक है।
4. ऋग्वेद में 33 प्रकार के देवों (दिव्य गुणो से युक्त पदार्थो) का उल्लेख मिलता है।
5. प्रसिद्ध गायत्री मंत्र जो सूर्य से सम्बंधित देवी गायत्री को संबोधित है, ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्राप्त होता है।
6. ' असतो मा सद्गमय ' वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है।
7. ऋग्वेद में मंत्र को कंठस्त करने में स्त्रियों के नाम भी मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृती आदि।
8. इसके पुरोहित के नाम होत्री है।
9. गौत्र, शूद्र, वर्ण शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख है।
10. 9 वां मंडल के सभी 114 सूक्त सोम को समर्पित हैं।
11. इसमे लगभग 11000 श्लोक हैं।
12. इसके प्रथम श्लोक मे अग्नि का उल्लेख है।
13. इसमे कई स्थानो पर ऋषभदेव का उल्लेख मिलता है।
सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने हेतु की गयी थी।
वैदिक मन्त्रों तथा संहिताओं को ब्रह्म कहा गया है। वहीं ब्रह्म के विस्तारित रुप को ब्राह्मण कहा गया है। पुरातन ब्राह्मण में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैतरीय आदि विशेष महत्वपूर्ण हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने मन्त्र सहित ब्राह्मण ग्रंथों की उपदेश आदित्य से प्राप्त किया है। संहिताओं के अन्तर्गत कर्मकांड की जो विधि उपदिष्ट है, ब्राह्मण मे उसी की सप्रमाण व्याख्या देखने को मिलता है। प्राचीन परम्परा में आश्रमानुरुप वेदों का पाठ करने की विधि थी अतः ब्रह्मचारी ऋचाओं ही पाठ करते थे ,गृहस्थ ब्राह्मणों का, वानप्रस्थ आरण्यकों और संन्यासी उपनिषदों का। गार्हस्थ्यधर्म का मननीय वेदभाग ही ब्राह्मण है।
आरण्यक वेदों का वह भाग है जो गृहस्थाश्रम त्याग उपरान्त वानप्रस्थ लोग जंगल में पाठ किया करते थे | इसी कारण आरण्यक नामकरण किया गया।
उपनिषद प्राचीनतम दार्शनिक विचारों का संग्रह है। उपनिषदों में ‘वृहदारण्यक’ तथा ‘छान्दोन्य’, सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। इन ग्रन्थों से बिम्बिसार के पूर्व के भारत की अवस्था जानी जा सकती है। परीक्षित, उनके पुत्र जनमेजय तथा पश्चात कालीन राजाओं का उल्लेख इन्हीं उपनिषदों में किया गया है। इन्हीं उपनिषदों से यह स्पष्ट होता है कि आर्यों का दर्शन विश्व के अन्य सभ्य देशों के दर्शन से सर्वोत्तम तथा अधिक आगे था। आर्यों के आध्यात्मिक विकास, प्राचीनतम धार्मिक अवस्था और चिन्तन के जीते-जागते जीवन्त उदाहरण इन्हीं उपनिषदों में मिलते हैं। उपनिषदों की रचना संभवतः बुद्ध के काल में हुई, क्योंकि भौतिक इच्छाओं पर सर्वप्रथम आध्यात्मिक उन्नति की महत्ता स्थापित करने का प्रयास बौद्ध और जैन धर्मों के विकास की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुआ।
युगान्तर में वैदिक अध्ययन के लिए छः विधाओं (शाखाओं) का जन्म हुआ जिन्हें ‘वेदांग’ कहते हैं। वेदांग का शाब्दिक अर्थ है वेदों का अंग, तथापि इस साहित्य के पौरूषेय होने के कारण श्रुति साहित्य से पृथक ही गिना जाता है। वेदांग को स्मृति भी कहा जाता है, क्योंकि यह मनुष्यों की कृति मानी जाती है। वेदांग सूत्र के रूप में हैं इसमें कम शब्दों में अधिक तथ्य रखने का प्रयास किया गया है।
वेदांग की संख्या 6 है
सूत्र साहित्य वैदिक साहित्य का अंग है तथा यह उसे समझने में सहायक भी है।
ब्रह्म सूत्र-श्री वेद व्यास ने वेदांत पर यह परमगूढ़ ग्रंथ लिखा है जिसमें परमसत्ता, परमात्मा, परमसत्य, ब्रह्मस्वरूप ईश्वर तथा उनके द्वारा सृष्टि और ब्रह्मतत्त्व वर गूढ़ विवेचना की गई है। इसका भाष्य श्रीमद् आदिशंकराचार्य जी ने भगवान व्यास जी के कहने पर लिखा था।
कल्प सूत्र- ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण। वेदों का हस्त स्थानीय वेदांग।
श्रोत सूत्र- महायज्ञ से सम्बंधित विस्तृत विधि-विधानों की व्याख्या। वेदांग कल्पसूत्र का पहला भाग।
स्मार्तसूत्र - षोडश संस्कारों का विधान करने वाला कल्प का दूसरा भाग।
शुल्बसूत्र- यज्ञ स्थल तथा अग्निवेदी के निर्माण तथा माप से सम्बंधित नियम इसमें हैं। इसमें भारतीय ज्यामिति का प्रारम्भिक रूप दिखाई देता है। कल्प का तीसरा भाग।
धर्म सूत्र- इसमें सामाजिक धार्मिक कानून तथा आचार संहिता है। कल्प का चौथा भाग
गृह्य सूत्र- परुवारिक संस्कारों, उत्सवों तथा वैयक्तिक यज्ञों से सम्बंधित विधि-विधानों की चर्चा है।
ऋग्वैदिक काल मुख्यतः एक कबीलाई व्यवस्था वाला शासन था जिसमें सैनिक भावना प्रमुख थी। राजा को गोमत भी कहा जाता था।
पुरोहित- राजा का प्रमुख परामर्शदाता,
सेनानी- सेना का प्रमुख,
ग्रामीण- ग्राम का सैनिक पदाधिकारी,
महिषी- राजा की पत्नी,
सूत- राजा का सारथी,
क्षत्रि- प्रतिहार,
संग्रहित- कोषाध्यक्ष,
भागदुध- कर एकत्र करने वाला अधिकारी,
अक्षवाप- लेखाधिकारी,
गोविकृत- वन का अधिकारी,
पालागल- राजा का मित्र।
होत्र- ऋग्वेद का पाठ करने वाला।
उदगाता- सामवेद की रचनाओं का गान करने वाला।
अध्वर्यु- यजुर्वेद का पाठ करने वाला
ब्रह्मा- संपूर्ण यज्ञों की देख रेख करने वाला।
पशुओं का चारण ही उनकी आजीविका का प्रमुख साधन था। गाय ही विनिमय का प्रमुख साधन थी। ऋग्वैदिक काल में भूमिदान या व्यक्तिगत भू-स्वामित्व की धारणा विकसित नही हुई थी।
आरम्भ में अत्यन्त सीमित व्यापार प्रथा का प्रचलन था। व्यापार विनिमय पद्धति पर आधारित था। समाज का एक वर्ग 'पाणी' व्यापार किया करते थे। राजा को नियमित कर देने या भू-राजस्व देने की प्रथा नहीं थी। राजा को स्वेच्छा से भाग या नजराना दिया जाता था। पराजित कबीला भी विजयी राजा को भेंट देता था। अपने धन को राजा अपने अन्य साथियों के बीच बांटता था।
धातु एवं सिक्के : ऋग्वेद में उल्लेखित धातुओं में सर्वप्रथम धातू, अयस (ताँबा या कांसा) था। वे सोना (हिरव्य या स्वर्ण) एवं चांदी से भी परिचित थे। लेकिन ऋग्वेद में लोहे का उल्लेख नहीं है। ' निष्क ' संभवतः सोने का आभूषण या मुद्रा था जो विनिमय के काम में भी आता था।
उद्योग : ऋग्वैदिक काल के उद्योग घरेलु जरूरतों के पूर्ति हेतु थे। बढ़ई एवं धूकर का कार्य अत्यन्त महत्वपूर्व था। अन्य प्रमुख उद्योग वस्त्र, बर्तन, लकड़ी एवं चर्म कार्य था। स्त्रियाँ भी चटाई बनने का कार्य करतीं थीं।
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