यजुर्वेद हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ और चार वेदों में से एक है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिये गद्य और पद्य मन्त्र हैं। ये हिन्दू धर्म के चार पवित्रतम प्रमुख ग्रन्थों में से एक है और अक्सर ऋग्वेद के बाद दूसरा वेद माना जाता है - इसमें ऋग्वेद के ६६३ मंत्र पाए जाते हैं। फिर भी इसे ऋग्वेद से अलग माना जाता है क्योंकि यजुर्वेद मुख्य रूप से एक गद्यात्मक ग्रन्थ है। यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को ‘'यजुस’' कहा जाता है। यजुर्वेद के पद्यात्मक मन्त्र ऋग्वेद या अथर्ववेद से लिये गये है। इनमें स्वतन्त्र पद्यात्मक मन्त्र बहुत कम हैं। यजुर्वेद में दो शाखा हैं : दक्षिण भारत में प्रचलित कृष्ण यजुर्वेद और उत्तर भारत में प्रचलित शुक्ल यजुर्वेद शाखा।
यजुर्वेद | |
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वेदों की १९वी शताब्दी की पाण्डुलिपि | |
ग्रंथ का परिमाण | |
श्लोक संख्या(लम्बाई) | ३९८८ ऋचाएँ |
रचना काल | ७००० - १५०० ईसा पूर्व |
जहां ऋग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई थी वहीं यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र के प्रदेश में हुई। कुछ लोगों के मतानुसार इसका रचनाकाल १४०० से १००० ई.पू. का माना जाता है।
यजुष् के नाम पर ही वेद का नाम यजुष्+वेद(=यजुर्वेद) शब्दों की संधि से बना है। यज् का अर्थ समर्पण से होता है। पदार्थ (जैसे ईंधन, घी, आदि), कर्म (सेवा, तर्पण ), श्राद्ध, योग, इंद्रिय निग्रह इत्यादि के हवन को यजन यानि समर्पण की क्रिया कहा गया है।
इस वेद में अधिकांशतः यज्ञों और हवनों के नियम और विधान हैं, अतःयह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है। यजुर्वेद की संहिताएं लगभग अंतिम रची गई संहिताएं थीं, जो ईसा पूर्व द्वितीय सहस्राब्दि से प्रथम सहस्राब्दी के आरंभिक सदियों में लिखी गईं थी। इस ग्रन्थ से आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। उनके समय की वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम की झाँकी भी इसमें है। यजुर्वेद संहिता में वैदिक काल के धर्म के कर्मकाण्ड आयोजन हेतु यज्ञ करने के लिये मंत्रों का संग्रह है। इनमे कर्मकाण्ड के कई यज्ञों का विवरण हैः
ऋग्वेद के लगभग ६६३ मंत्र यथावत् यजुर्वेद में मिलते हैं। यजुर्वेद वेद का एक ऐसा प्रभाग है, जो आज भी जन-जीवन में अपना स्थान किसी न किसी रूप में बनाये हुऐ है। संस्कारों एवं यज्ञीय कर्मकाण्डों के अधिकांश मन्त्र यजुर्वेद के ही हैं।
यजुर्वेदाध्यायी परम्परा में दो सम्प्रदाय- ब्रह्म सम्प्रदाय अथवा कृष्ण यजुर्वेद और आदित्य सम्प्रदाय अथवा शुक्ल यजुर्वेद ही प्रमुख हैं।
वर्तमान में कृष्ण यजुर्वेद की शाखा में ४ संहिताएँ -तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल कठ ही उपलब्ध हैं। कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ 'तन्त्रियोजक ब्राह्मणों' का भी सम्मिश्रण है। वास्तव में मंत्र तथा ब्राह्मण का एकत्र मिश्रण ही 'कृष्ण यजुः' के कृष्णत्व का कारण है तथा मंत्रों का विशुद्ध एवं अमिश्रित रूप ही 'शुक्ल यजुष्' के शुक्लत्व का कारण है। तैत्तरीय संहिता (कृष्ण यजुर्वेद की शाखा) को 'आपस्तम्ब संहिता' भी कहते हैं। महर्षि पंतजलि द्वारा उल्लिखित यजुर्वेद की 101 शाखाओं में इस समय केवल उपरोक्त पाँच वाजसनेय, तैत्तिरीय, कठ, कपिष्ठल और मैत्रायणी ही उपलब्ध हैं। यजुर्वेद से उत्तरवैदिक युग की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन की जानकारी मिलती है। इन दोनों शाखाओं में अंतर यह है कि शुक्ल यजुर्वेद पद्य (संहिताओं) को विवेचनात्मक सामग्री (ब्राह्मण) से अलग करता है, जबकि कृष्ण यजुर्वेद में दोनों ही उपस्थित हैं। यजुर्वेद में वैदिक अनुष्ठान की प्रकृति पर विस्तृत चिंतन है और इसमें यज्ञ संपन्न कराने वाले प्राथमिक ब्राह्मण व आहुति देने के दौरान प्रयुक्त मंत्रों पर गीति पुस्तिका भी शामिल है। इस प्रकार यजुर्वेद यज्ञों के आधारभूत तत्त्वों से सर्वाधिक निकटता रखने वाला वेद है। यजुर्वेद संहिताएँ संभवतः अंतिम रचित संहिताएँ थीं, जो ई. पू. दूसरी सहस्त्राब्दी के अंत से लेकर पहली सहस्त्राब्दी की आरंभिक शताब्दियों के बीच की हैं।
शुक्ल यजुर्वेद की शाखाओं में दो प्रधान संहिताएँ- १. मध्यदिन संहिता और २. काण्व संहिता ही वर्तमान में उपलब्ध हैं। आजकल प्रायः उपलब्ध होने वाला यजुर्वेद मध्यदिन संहिता ही है। इसमें ४० अध्याय, १९७५ कण्डिकाएँ (एक कण्डिका कई भागों में यागादि अनुष्ठान कर्मों में प्रयुक्त होनें से कई मन्त्रों वाली होती है।) तथा ३९८८ मन्त्र हैं। विश्वविख्यात गायत्री मंत्र (३६.३) तथा महामृत्युंजय मन्त्र (३.६०) इसमें भी है।
यजुर्वेद कर्मकाण्ड से जुडा हुआ है। इसमें विभिन्न यज्ञों (जैसे अश्वमेध) का वर्णन है। यजुर्वेद पाठ अध्वुर्य द्वारा किया जाता है। यजुर्वेद ५ शाखाओ मे विभक्त् है-
कहा जाता है कि वेद व्यास के शिष्य वैशंपायन के २७ शिष्य थे, इनमें सबसे प्रतिभाशाली थे याज्ञवल्क्य। इन्होंने एक बार यज्ञ में अपने साथियो की अज्ञानता से क्षुब्ध हो गए। इस विवाद के देखकर वैशंपायन ने याज्ञवल्क्य से अपनी सिखाई हुई विद्या वापस मांगी। इस पर क्रुद्ध याज्ञवल्क्य ने यजुर्वेद का वमन कर दिया - ज्ञान के कण कृष्ण वर्ण के रक्त से सने हुए थे। इससे कृष्ण यजुर्वेद का जन्म हुआ। यह देखकर दूसरे शिष्यों ने तीतर बनकर उन दानों को चुग लिया और इससे तैत्तरीय संहिता का जन्म हुआ।
यजुर्वेद के भाष्यकारों में उवट (१०४० ईस्वी) और महीधर (१५८८) के भाष्य उल्लेखनीय हैं। इनके भाष्य यज्ञीय कर्मों से संबंध दर्शाते हैं। शृंगेरी के शंकराचार्यों में भी यजुर्वेद भाष्यों की विद्वत्ता की परंपरा रही है।
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