पृथ्वी पर किसी समय जीवित रहने वाले अति प्राचीन सजीवों के परिरक्षित अवशेषों या उनके द्वारा चट्टानों में छोड़ी गई छापों को जो पृथ्वी की सतहों या चट्टानों की परतों में सुरक्षित पाये जाते हैं उन्हें जीवाश्म (जीव + अश्म = जीवाश्म) कहते हैं। जीवाश्म से कार्बनिक विकास का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है। इनके अध्ययन को जीवाश्म विज्ञान या पैलेन्टोलॉजी कहते हैं। विभिन्न प्रकार के जीवाश्मों के निरीक्षण से पता चलता है कि पृथ्वी पर अलग-अलग कालों में भिन्न-भिन्न प्रकार के जन्तु हुए हैं। प्राचीनतम जीवाश्म निक्षेपों में केवल सरलतम जीवों के अवशेष उपस्थित हैं किन्तु अभिनव निक्षेपों में क्रमशः अधिक जटिल जीवों के अवशेष प्राप्त होते हैं। ज्यों-ज्यों हम प्राचीन से नूतन कालों का अध्ययन करते हैं, जीवाश्म जीवित सजीवों से बहुत अधिक मिलते-जुलते प्रतीत होते हैं। अनेक मध्यवर्ती लक्षणों वाले जीव बताते हैं कि सरल रचना वाले जीवों से जटिल रचना वाले जीवों का विकास हुआ है। अधिकांश जीवाश्म अभिलेखपूर्ण नहीं है परन्तु घोड़ा, ऊँट, हाथी, मनुष्य आदि के जीवाश्मों की लगभग पूरी श्रृंखलाओं का पता लगाया जा चुका है जिससे कार्बनिक विकास के ठोस प्रमाण प्राप्त होते हैं।
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जीवाश्म को अंग्रेजी में फ़ॉसिल कहते हैं। इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द "फ़ॉसिलस" से है, जिसका अर्थ "खोदकर प्राप्त की गई वस्तु" होता है। सामान्य: जीवाश्म शब्द से अतीत काल के भौमिकीय युगों के उन जैव अवशेषों से तात्पर्य है जो भूपर्पटी के अवसादी शैलों में पाए जाते हैं। ये जीवाश्म यह बतलाते हैं कि वे जैव उद्गम के हैं तथा अपने में जैविक प्रमाण रखते हैं।
जीवाश्मों का आकार एक-माइक्रोमीटर (1 माइक्रोमीटर) बैक्टीरिया से लेकर डायनासोर और पेड़ों तक, कई मीटर लंबे और कई टन वजनी होता है। एक जीवाश्म आम तौर पर मृत जीव के केवल एक हिस्से को संरक्षित करता है, आमतौर पर वह हिस्सा जो जीवन के दौरान आंशिक रूप से खनिजयुक्त होता है, जैसे कशेरुकियों की हड्डियां और दांत, या अकशेरुकी जीवों के चिटिनस या कैलकेरियस एक्सोस्केलेटन। जीवाश्मों में जीवित रहने के दौरान जीव द्वारा छोड़े गए निशान भी शामिल हो सकते हैं, जैसे जानवरों के निशान या मल (कोप्रोलाइट्स)। शरीर के जीवाश्मों के विपरीत, इस प्रकार के जीवाश्मों को ट्रेस जीवाश्म या इचनोफॉसिल्स कहा जाता है। कुछ जीवाश्म जैव रासायनिक होते हैं और उन्हें कीमोफॉसिल्स या बायोसिग्नेचर कहा जाता है।
प्राणियों और पादपों के जीवाश्म बनने के लिए दो बातों की आवश्यकता होती है। पहली आवश्यक बात यह है कि उनमें कंकाल, अथवा किसी प्रकार के कठोर अंग, का होना अति आवश्यक है, जो जीवाश्म के रूप में शैलों में परिरक्षित रह सकें। जीवों के कोमलांग अति शीघ्र विघटित हो जाने के कारण जीवाश्म दशा में परिरक्षित नहीं रह सकते। भौमिकीय युगों में पृथ्वी पर ऐसे अनेक जीवों के समुदाय रहते थे जिनके शरीर में कोई कठोर अंग अथवा कंकाल नहीं था अत: फ़ॉसिल विज्ञानी ऐसे जीवों के समूहों के अध्ययन से वंचित रह जाते हैं, क्योंकि उनका कोई अंग जीवाश्म स्वरूप परिरक्षित नहीं पाया जाता, जिसका अध्ययन किया जा सके। अत: जीवाश्म विज्ञान क्षेत्र उन्हीं प्राणियों तथा पादपों के वर्गों तक सीमित है जो फ़ॉसिल बनने के योग्य थे। दूसरी आवश्यक बात यह है कि कंकालों अथवा कठोर अंगों को क्षय और विघटन से बचने के लिए अवसादों से तुंरत ढक जाना चाहिए। थलवासी जीवों के स्थायी समाधिस्थ होने की संभावना अति विरल होती है, क्योंकि स्थल पर ऐसे बहुत कम स्थान होते हैं जहाँ पर अवसाद सतत बहुत बड़ी मात्रा में संचित होते रहते हों। बहुत ही कम परिस्थितियों में थलवासी जीवों के कठोर भाग बालूगिरि के बालू में दबने से अथवा भूस्खलन में दबने के कारण परिरक्षित पाए गए हों। जलवासी जीवों के फ़ॉसिल होने की संभावना अत्यधिक अनुकूल इसलिए होती है कि अवसादन स्थल की अपेक्षा जल में ही बहुत अधिक होता है। इन जलीय अवसादों में भी, ऐसे जलीय अवसादों में जिनका निर्माण समुद्र के गर्भ में होता है, बहुत बड़ी संख्या में जीव अवशेष पाए जाते हैं, क्योंकि समुद्र ही ऐसा स्थल है जहाँ पर अवसादन सबसे अधिक मात्रा में सतत होता रहता है।
विभिन्न वर्गों के जीवों और पादपों के कठोर भागों के आकार और रचना में बहुत भेद होता है। कीटों तथा हाइड्रा (hydra) वर्गों में कठोर भाग ऐसे पदार्थ के होते हैं जिसे काइटिन कहते हैं, अनेक स्पंज और डायटम (diatom) बालू के बने होते हैं, कशेरुकी की अस्थियों में मुख्यत: कैल्सियम कार्बोनेट और फ़ॉस्फेट होते हैं, प्रवालों (coral), एकाइनोडर्माटा (Echinodermata), मोलस्का (mollusca) और अनेक अन्य प्राणियों में तथा कुछ पादपों में कैल्सियम कार्बोनेट होता है और अन्य पादपों में अधिकांशत: काष्ठ ऊतक होते हैं। इन सब पदार्थों में से काइटिन बड़ी कठिनाई से घुलाया जा सकता है। बालू, जब उसे प्राणी उत्सर्जिंत करते हैं, तब बड़ा शीघ्र घुल जाता है। यही कारण है कि बालू के बने कंकाल बड़े शीघ्र घुल जाते हैं। कैल्सियमी कंकालों में चूने का कार्बोनेट ऐसे जल में, जिसमें कार्बोनिक अम्ल होता है, अति शीघ्र घुल जाता है, परंतु विलेयता की मात्रा चूने के कार्बोनेट की मात्रा के अनुसार भिन्न भिन्न होती है। चूर्णीय कंकाल कैल्साइट (calcite) अथवा ऐरेगोनाइट (aragonite) के बने होते हैं। इनमें से कैल्साइट के कवच ऐरेगोनाइट के कवचों की अपेक्षा अधिक दृढ़ और टिकाऊ होते हैं। अधिकांश प्राणियों के कवच कैल्साइट अथवा ऐरेगोनाइट के बने होते हैं।
अवसादी शैलों में परिरक्षित जीवाश्म निम्न प्रकार के होते हैं :
(1) संपूर्ण परिरक्षित प्राणी - ऐसा बहुत विरल होता है कि बिना किसी प्रकार के विघटन के किसी प्राणी का जीवाश्म प्राप्त हो, किंतु ऐसे परिरक्षित जीवाश्म के उदाहरण मैमथ और राइनोसिरस के जीवाश्म हैं, जो टुंड्रा के हिम में जमे हुए पाए गए हैं।
(2) प्राय: अपरिवर्तित दशा में परिरक्षित पाए जानेवाले कंकाल - कभी-कभी जब शैलों में केवल कंकाल ही परिरक्षित पाया जाता है तब यह देखा गया है कि वह अपनी पहले जैसी, तब की अवस्था में है जब वह समाधिस्थ हुआ था। परिवर्तन केवल इतना होता है कि फ़ॉसिल दशा में कंकाल से कार्बनिक द्रव्यों का लोप हो जाता है।
(3) कार्बनीकरण - कुछ पादपों और कुछ प्राणियों में, जैसे ग्रैप्टोलाइट (graptolite), जिनमें कंकाल काइटिन का बना होता है, मूल द्रव्य कार्बनीकृत हो जाता है। जीव में अघटन होता है, जिसके फलस्वरूप ऑक्सीजन और नाइट्रोजन का लोप हो जाता है और कार्बन रह जाता है।
(4) कंकालों का साँचा - कभी-कभी कंकाल या कवच विलीन हो जाते हैं और उनके स्थान पर उनका केवल साँचा रह जाता है। यह इस प्रकार होता है कि कवच के अवसाद से ढक जाने के उपरांत, कवच का आंतरिक भाग भी अवसादवाले द्रव्य से भर जाता है। इसके उपरांत कार्बोनिक अम्ल मिश्रित जल, शैल में रिसता हुआ उस स्थान तक पहुँच जाता है जहाँ पर कवच गड़ा हुआ रहता है और उसे कैल्सियम के बाइकाबोनेट के रूप में पूर्णत: विलीन कर देता है। इसके परिणामस्वरूप कवच के स्थान पर कवच के आंतरिक और बाह्य आकार का केवल एक साँचा देखने को मिलता है। इन दोनों के बीच के स्थान में मूलत: कवच था और यदि यह स्थान मोम से भर दिया जाए तो कवच का यथार्थ साँचा मिल जाता है।
(5) अश्मीभवन (Petrification) - कभी कभी फॉसिलों में उन जीवों के, जिनके ये फॉसिल हो गए हैं, सूक्ष्म आकार तक देखने को मिलते हैं। अंतर केवल इतना होता है कि कंकालों का मूल द्रव्य किसी खनिज द्वारा प्रतिस्थापित हो जाता है। इस क्रिया को अश्मीभवन कहते हैं। अश्मीभवन का अति उत्तम उदाहरण अश्मीभूत काष्ठ हैं जो देखने में बिल्कुल वैसे ही दिखलाई पड़ते हैं जैसा जीवित पादपों का काष्ठ होता है। यह परिवर्तन इस प्रकार होता है कि जब आदिकाष्ठ का एक कण हटता है तब उसके स्थान पर तुरंत बालू अथवा अन्य किसी खनिज का एक कण आ जाता है, जिससे काष्ठ का आदि आकार ज्यों का त्यों बना रहता है।
इस विधि से मूल द्रव्य को हटानेवाले मुख्य खनिज ये हैं : (1) कैल्सियम का कार्बोनेट, (2) बालू, (3) लोहमाक्षिक, (4) लोह ऑक्साइड और (5) कभी कभी कैल्सियम का सल्फेट आदि।
(6) चिह्न - कभी-कभी जीव जंतुओं के पादचिह्न बिल, छिद्र आदि शैलों में पाए जाते हैं। यद्यपि ये जीवजंतुओं के कठोर अंगों के कोई भाग नहीं हैं और इसलिए इनको फॉसिल नहीं कहा जा सकता, फिर भी ये उतने ही महत्व के समझे जाते हैं जितने फॉसिल।
जीवाश्मों के उपयोग निम्नलिखित हैं :
(1) शैलों के सहसंबंध (correlation) में जीवाश्मों का उपयोग - वे जीव जो आज हमें जीवाश्म के रूप में मिलते हैं, किसी भौमकीय युग के किसी निश्चित काल में अवश्य ही रहे होंगे। अत: वे हमारे लए बड़े महत्व के हैं। विलियम स्मिथ और क्यूव्ये महोदय के, जो स्तरित भौमिकी के जन्मदाता हैं, समय से ही यह बात भली भाँति विदित है कि अवसादी शैलों में पाए जानेवाले जीवाश्मों और उनके भौमिकीय स्तंभ (column) के स्थान में एक निश्चित संबंध है। यह भली भाँति पता लग चुका है कि शैलें जितनी अल्पायु होंगी उतना ही उनमें प्राप्त प्राणी विभिन्न प्रकार के और पादपसमुदाय जटिल होगा और वे जितनी दीर्घायु होंगी उतना ही सरल और साधारण उनका जीवाश्मसमुदाय होगा। अत: शैलों का स्तरीय स्थान निश्चय करने में जीवाश्मों का प्रमुख स्थान है और वे बड़े महत्व के सिद्ध हुए हैं।
कैंब्रियनपूर्व के प्राचीन शैलों में जीवाश्म नहीं पाए जाते। अत: जीवाश्मों के अभाव में जीवाश्मों की सहायता से इन शैलों का सहसंबंध नहीं स्थापित किया जाता है। कैंब्रियन से लेकर आज तक के भौमिकीय स्तंभ के समस्त भागों के प्राणी और पादपों का पता लगा लिया गया है। अत: पृथ्वी के किसी भी भाग में इन भागों के सम भागों का पता लगाना अब अपेक्षया सरल है।
(2) जीवाश्म प्राचीन काल के भूगोल के सूचक - पुराभूगोल के अंतर्गत, प्राचीन काल के स्थल और समुद्र का विस्तरण, उस काल की सरिताएँ, झील, मैदान, पर्वत आदि आते हैं। किसी विशेष वातावरण के अनुसार ही जीव अपने को स्थित के अनुकूल कर लेते हैं, यह बात जितनी सच्ची आधनिक समय में है उतनी ही सच्ची अतीत के भौमिकीय युगों में भी थी। अत: जीवाश्मों की सहायता से हम यह पता लगा सकते हैं कि किस स्थान पर डेल्टा, पर्वत, नदी, समुद्रतट, छिछले अथवा गहरे समुद्र थे, क्योंकि स्थल में रहनेवाले जीव, जलवाले जीवों से और जल में रहनेवाले जीवों में अलवण जलवासी जीव लवण जलवासी जीवों से सर्वथा भिन्न होते हैं।
(3) जीवाश्म पुराजलवायु के सूचक - जीवाश्मों की सहायता से भौमिकीय युगों की जलवायु के विषय में भी किसी सीमा तक अनुमान लगाया जा सकता है। इस दिशा में स्थल पादपों द्वारा प्रदान किए गए प्रमाण विशेष महत्व के होते हैं, क्योंकि उनका विस्तरण समुद्री जीवों की अपेक्षा अधिकांशत: ताप के अनुसार होता है और वे सरलतापूर्वक जलवायु के अनुसार भिन्न भिन्न भागों में पृथक् किए जा सकते हैं। समुद्री जीवों में कुछ का विस्तरण जलवायु की दशाओं के अनुसार होता है, जैसे प्रवाल, जो गरम जलवायु में रहते हैं।
(4) जीवाश्म जीवविकास के सूचक - जीवाश्मों ने जीवविकास के सिद्धांत पर बहुत प्रकाश डाला है और बिना जीवाश्मों की सहायता के जीवविकास का अनुरेखण करना असंभव सा है।
जीवाश्मों का संग्रह जीवाश्मीय तथा स्तरित शैल विज्ञान दोनों की दृष्टि से किया जाता है। जीवाश्मों के संग्रह के समय निम्नलिखित बातों का सदैव ध्यान रखना चाहिए :
(1) यदि भौमिकीय रचना का अल्पजीवाश्मीय हो तो सब जीवाश्मों का संग्रह करना चाहिए, चाहे वे पूर्ण हों अथवा खंडमय।
(2) यदि जीवाश्मों का निकालना असंभव न हो तो कभी भी पूर्ण जीवाश्मों को छोड़ न देना चाहिए। उन्हें सुगमता से निकाल लेना चाहिए।
(3) ऐसा खंडमय जीवाश्म, जिसमें सविस्तार आकारकीय लक्षण मिलते हों उन अनेक पूर्ण जीवाश्मों से कहीं अधिक महत्व का है, जिनमें आकारकीय लक्षणों का अभाव हो।
(4) कभी भी क्षेत्र में जीवाश्मों को पहचानने का प्रयत्न न करना चाहिए।
(5) यदि जीवाश्मों का संग्रह स्तरित-शैल-विज्ञान की दृष्टि से किया गया हो तो अलग अलग प्रत्येक रचना से जीवाश्मों का संग्रह आवश्यक है।
यह निश्चय करना बड़ा महत्वपूर्ण है कि जीवाश्म किस स्तर से संग्रहीत किए गए हैं, क्योंकि बिना यह मालूम किए जीवाश्मों का संग्रह प्राय: अर्थहीन सा हो जाता है। इसका निश्चय सुगमता के साथ जीवाश्मसंग्रह के समय किया जा सकता है। जीवाश्मों के संग्रह के साथ साथ शैलीय रचनाओं के मुख्य मुख्य और विशिष्ट लक्षणों को भी लिख लेना चाहिए।
जीवाश्मसंग्रह में जीवाश्म विज्ञानी के लिए एक हल्का हथौड़ा, छेनी, छोटी-छोटी थैलियाँ और रद्दी कागज बड़े उपयोगी होते हैं।
यदि बड़े-बड़े जीवाश्मों की खोज हो, तो सबसे पहले ऋतुक्षरित स्तरों की ओर ध्यान देना चाहिए। यदि जीवाश्म यहाँ नहीं दिखाई पड़ते, तो हाल ही में भंग हुए आधार में पाए जाने की संभावना रहती है। यदि कोई जीवाश्म कठोर शैल में लगा हुआ दिखाई पड़े, तो एकाएक निकालने का प्रयास न करना चाहिए बल्कि उसके आसपास के स्थान में दरारों का पता लगा लेना चाहिए। इन दरारों से शैल के वह भाग आसानी से तोड़े जा सकते हैं जिनमें जीवाश्म लगे हुए हैं। इस प्रकार से जीवाश्मों के निकालते समय इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहए कि शैल पर हथौड़ा, जीवाश्म से जितनी दूर संभव हो, चलाना चाहिए। ऐसा करने से जीवाश्म के टूटने की संभावना कम हो जाती है और शैल सहित जीवाश्म अलग हो जाता है।
यदि फोरैमिनीफेरा (Foraminifera) जैसे छोटे जीवाश्मों का संग्रह करना है, तो इनका एक एक करके संग्रह करना स्पष्टत: असंभव सा है। ऐसी दशा में आबद्ध शैलों, अथवा शैल नमूनों का ही संग्रह करना उचित होगा। इस प्रकार से लाई गई सामग्री बाद में प्रयोगशाला में संकलन की जाती है और उसको एक हस्त लेंस से देखने पर उसमें अनेक लघु जीवाश्म दिखाई पड़ते हैं, जिनको चलनियों की सहायता से आधार से अलग कर सकते हैं।
क्षेत्र में जीवाश्मों के संग्रह के उपरांत प्रत्येक जीवाश्म के साथ एक लेब (label) लगा देना चाहिए, जिसमें दो बातों का उल्लेख बड़ा आवश्यक होता है : (1) वह यथार्थ स्तर, जिससे जीवाश्म लिया गया है और (2) स्थान का नाम, जहाँ से जीवाश्म का संग्रह किया गया है। ऐसा करने के उपरांत जीवाश्म को रद्दी कागज में लपेटकर और डोरे से बाँधकर प्रयोगशाला में लाना चाहिए।
शैल आधार से जीवाश्म निकालने की विधि एक प्रकार की कला है। इस वषय में कोई पक्के नियम नहीं बतलाए जा सकते, क्योंकि भिन्न भिन्न प्रकार की समस्याएँ सामने आती हैं। किस विधि से और कैसे जीवाश्म को प्रस्तर से अलग किया जा सकता है, इसको एक अनुभवी जीवाश्म विज्ञानी जीवाश्म को देखकर समझ लेता है। जिन शैल आधारों में जीवाश्म खचित रहते हैं वे मृदु मृदा से लेकर सघन शैल तक होते हैं, जिनकी कठोरता इस्पात के बराबर हो सकती है। जीवाश्म की कठोरता की सीमा में इतना अधिक अंतर नहीं होता। जीवाश्म निकालते समय जीवाश्म विज्ञानी का यह ध्येय होता है कि जीवाश्म को बिना किसी प्रकार क्षति पहुँचाए शैल से पृथक् कर दे।
यदि आधार जीवाश्म की अपेक्षा मृदु प्रकृति का है, तो उसे सुगमतापूर्वक एक ब्रुश की सहायता से हटा सकते हैं। यदि जीवाश्म अबद्ध चूनापत्थर में खचित पाए जाते हैं, तो उसे भी हम दाँत साफ करनेवाले ब्रुश की सहायता से अलग कर सकते हैं। यदि शैल आधार चाक प्रकृति का है तो दंत उपकरण में भ्रमित ब्रुश की सहायता से उसे अलग कर सकते हैं।
अन्य अवसरों पर जब जीवाश्म भंगुर हो और बड़ी दृढ़ता के साथ शैल के आधार में जुड़े हों तब हथौड़े मार मारकर जीवाश्मों का अलग करना कठिन होता है। ऐसी दशा में प्रस्तर को कई बार गरम करके तुंरत पानी में डाल देने से, जीवाश्मों का प्रस्तर से अलगाव सरलता से हो जाता है। बालू और अन्य चूनेदार शैलों स फोरैमिनीफेरा जैसे जीवाश्मों के निकालने में, शैल को पहले तोड़ लेते हैं और फिर उसको कई प्रकार की चलनियों में छान लेते हैं। इसमें जीवाश्म शैल भाग से अलग हो जाते हैं। जब शैल कठोर होते हैं तब दूसरा ढंग उपयोग में लाया जाता है। शैल को छोटे छोटे टुकड़ों में तोड़ लेते हैं और फिर उनको इतना गर्म करते हैं कि वे पूर्णत: सूख जाएँ और फिर उनको इसी गर्म अवस्था में ही ठंडे पानी में डाल देते हैं। इस प्रकार से कठोर मृदा कीच में अपविघटित हो जाती है और फिर अंत में जीवाश्मों को प्रस्तर भाग से धो करके अलग कर लेते हैं।
जब यांत्रिक रीतियों से जीवाश्मों का पृथक्करण संभव नहीं होता तब रासायनिक विधियाँ प्रयोग में लाई जाती हैं। इनमें सबसे सरलतम ऋतुक्षरण की विधि है, जो बहुत सी दशाओं में बिना जीवाश्मों को किसी प्रकार हानि पहुँचाए हुए शैल आधार को अपघटत कर देता है। बहुत ही तनु अम्ल के उपयोग में लाने से यह क्रिया शीघ हो जाती है। यहाँ यह बतला देना ठीक होगा कि अम्ल का प्रयोग बड़ी सावधानी के साथ करना चाहिए, क्योंकि अधिकांश जीवाश्मों के पंजर चूनेदार होते हैं और उनपर अम्ल का प्रभाव तुरंत होता है।
साधारणत: कॉस्टिक पोटाश ठीक प्रकार का अभिकारक है, जिसका बिना किसी भय के उपयोग कर सकते हैं। इसके छोटे छोटे कणों को सूखी अवस्था में उस सारे शैल आधार पर डाल देते हैं जिसे हटाना होता है। चूँक कॉस्टिक पोटाश प्रस्वेद्य (deliquescent) प्रकृति का होता है। अत: यह आधार के अंदर प्रविष्ट कर जाता है और उसको अपघटित कर देता है। यह एकिनोडर्मा (Echinoderma), अथवा मोलस्क, को कोई क्षति नहीं पहुँचाता। ब्रैकियोपोडा (Brachiopoda) में इसका उपयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह इनके परतदार पंजरों में सुगमतापूर्वक प्रविष्ट कर जाता है, जिसके कारण इनकी परतें अलग हो जाती हैं। अंत में जीवाश्मों को अच्छी प्रकार जल से धो डालना चाहिए।
शेल (shale) जैस शैलों में परिरक्षित ग्रैप्टोलाइट (graptolite) और पादप जीवाश्म का पृथक्करण "स्थानांतरण विधि" से किया जाता है। इस पृथक्करण की मुख्य मुख्य बातें निम्नलिखित हैं :
(1) नमूने क वह तल, जिसमें जीवाश्म है, नीचे करके कैनाडा बालसम की सहायता से काच की स्लाइड में चिपका देते हैं।
(2) शेल का जितना भाग सुगमता से काटा या घिसा जा सकता हो उसे काट अथवा घिस लेते हैं।
(3) शेल तल को भिगो लेते हैं और फिर उसको पिघले हुए मोम में डुबा देते हैं। मोम आर्द्र तल से सुगमता से पृथक् हो जाता है और काच पर कोई रासायनिक क्रिया नहीं होने देता।
(4) शेल युक्त संपूर्ण जीवाश्म को हाइड्रोफ्लोरिक अम्ल के अम्लतापक (acid bath) में रख देते हैं। यह जीवाश्म को तनिक भी क्षति पहुँचाए बिना शेल भाग को गला देता है।
(5) धोने के उपरांत पादप अथवा ग्रैप्टोलाइट जीवाश्म को कवर ग्लास से ढँक देना चाहिए।
इस प्रकार से निकाले गए ग्रैप्टोलाइट और कुछ पादप जैसे कोमल जीवाश्मों के आधुनिक जीवों की भाँति सूक्ष्मदर्शी की सहायता से परिच्छेद बनाए जा सकते हैं। कठोर जीवाश्मों के भी परिच्छेद घिस करके बनाए जा सकते हैं। इसमें घिसते समय नियमित अवधियों पर फोटों लेना पड़ता है। इस विधि में सबसे बड़ा दोष यह है कि जिस जीवाश्म का परीक्षण इस विधि से किया जाता है वह नष्ट हो जाता है।
जीवाश्मों के पृथक्करण की उपर्युक्त विधियों के अतिरिक्त ब्रैकियोपोडा के बाहुकुंतलों (brachial spiral) के अनुरेखन के लिए कुछ विशेष विधियाँ होती हैं। इन विधियों से ट्राइलोबाइटीज़ (Trilobites), ऐमोनाइटीज़ (Ammonites) और एकाइनोडरमीज़ में सीवनरेखा का अनुरेखन भी अति महत्व का कार्य है। यह किसी प्रकार के अभिरजंन की सहयता से विशिष्ट बनाया जा सकता है। भारतीय मसि इस कार्य के लिए उत्तम है।
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