श्वसन के दो पथ हैं- एक सही और दूसरा गलत। नाक द्वारा श्वसन सही रास्ता है किन्तु मुख द्वारा श्वसन गलत है। हमेशा नाक से ही श्वास लेनी चाहिए क्योंकि नाक के अन्दर छोटे-छोटे बाल होते हैं। ये बाल हवा में मिली धूल को बाहर ही रोक लेते हैं, अन्दर नहीं जाने देते। मुख से श्वास कभी नहीं लेनी चाहिए क्योंकि ऐसा करने से वायु (श्वास) के साथ धूल और हानिकारक कीटाणु भी अन्दर चले जाlते हैं।
मानव श्वसन तंत्र | |
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यह प्राय: साढ़े चार इंच लम्बी, बीच में खोखली एक नली होती है, जो गले में टटोली जा सकती है। यह भोजन की नली (अन्न नाल) के साथ गले से नीचे वक्षगहर में चली जाती है। वक्षगहर में, नीचे के सिरे पर चलकर इसकी दो शाखाएं हो गई हैं। इसकी एक शाखा दाएं फुप्फुस में और दूसरी बाएं फुप्फुस में चली गई है। ये ही दोनों शाखाएं वायु नली कहलाती हैं। श्वास नली और वायु नली फुप्फुस में जाने के प्रधान वायु पथ हैं।
जिह्वामूल के पीछे, कण्ठिकास्थि के नीचे और कण्ठ के सामने स्वरयंत्र होता है। नाक से ली हुई हवा कण्ठ से होती हुई इसी में आती है। इसके सिरे पर एक ढक्कन-सा होता है। जिसे ‘स्वर यंत्रच्छद’ कहते हैं। यह ढकन हर समय खुला रहता है किन्तु खाना खाते समय यह ढक्कन बन्द हो जाता है जिससे भोजन स्वरयंत्र में न गिरकर, पीछे अन्नप्रणाली में गिर पड़ता है। कभी-कभी रोगों के कारण या असावधानी से जब भोजन या जल का कुछ अंश स्वरयंत्र में गिर पड़ता है तो बड़े जोर से खांसी आती है। इस खांसी आने का मतलब यह है कि जल या भोजन का जो अंश इसमें (स्वरयंत्र में) गिर पड़ा है, यह बाहर निकल जाए।
भोजन को हम निगलते हैं तो उस समय स्वरयंत्र ऊपर को उठता और फिर गिरता हुआ दिखाई देता है। इसमें जब वायु प्रविष्ठ होती है तब स्वर उत्पन्न होता है। इस प्रकार यह हमें बोलने में भी बहुत सहायता प्रदान करता है।
हमारी छाती में दो फुप्फुस होते हैं - दायां और बायां। दायां फुप्फुस बाएं से एक इंच छोटा, पर कुछ अधिक चौड़ा होता है। दाएं फुप्फुस का औसत भार 23 औंस और बाएं का 19 औंस होता है। पुरुषों के फुप्फुस स्त्रियों के फुप्फुसों से कुछ भारी होते हैं।
फुप्फुस चिकने और कोमल होते हैं। इनके भीतर अत्यन्त सूक्ष्म अनन्त कोष्ठ होते हैं जिनको ‘वायु कोष्ठ’ कहते हैं। इन वायु कोष्ठों में वायु भरी होती है। फुप्फुस युवावस्था में मटियाला और वृद्धावस्था में गहरे रंग का स्याही मायल हो जाता है। ये भीतर से स्पंज-समान होते हैं।
दोनों फुप्फुसों के मध्य में हृदय स्थित रहता है। प्रत्येक फुप्फुस को एक झिल्ली घेरे रहती है ताकि फूलते और सिकुड़ते वक्त फुप्फुस बिना किसी रगड़ के कार्य कर सकें। इस झिल्ली में विकार उत्पन्न होने पर इसमें शोथ हो जाता है जिसे प्लूरिसी (फुप्फुसावरणशोथ) नामक रोग होना कहते हैं। जब फुप्फुसों में शोथ होता है तो इसे श्वसनीशोथ होना कहते हैं। जब फुप्फुसों से क्षय होता है तब उसे यक्ष्मा या क्षय रोग, तपेदिक, टी.बी. होना कहते हैं।
फेफडों के नीचे एक बड़ी झिल्ली होती है जिसे वक्षोदर मध्यपट या डायाफ्राम कहते हैं जो फुप्फुसों और उदर के बीच में होती है। श्वास लेने पर यह झिल्ली नीचे की तरफ फैलती है जिससे श्वास अन्दर भरने पर पेट फूलता है और बाहर निकलने पर वापिस बैठता है।
फुप्फुसोंं का मुख्य कार्य शरीर के अन्दर वायु खींचकर ऑक्सीजन उपलब्ध कराना तथा इन कोशिकाओं की गतिविधियों से उत्पन्न होने वाली कार्बन डाईऑक्साइड नामक वर्ज्य गैस को बाहर फेंकना है। यह फुप्फुसोंं द्वारा किया जाने वाला फुप्फुसीय वायु संचार कार्य है जो फुप्फुसोंं को शुद्ध और सशक्त रखता है। यदि वायुमण्डल प्रदूषित हो तो फुप्फुसोंं में दूषित वायु पहुंचने से फुप्फुस शुद्ध न रह सकेंगे और विकारग्रस्त हो जाएंगे।
श्वास-क्रिया दो खण्डों में होती है। जब श्वास अन्दर आती है तब इसे "अन्तःश्वसन" कहते हैं। जब यह श्वास बाहर हो जाती है तब इसे "निःश्वसन"कहते हैं। प्राणायाम विधि में इस श्वास को भीतर या बाहर रोका जाता है। श्वास रोकने को कुम्भक कहा जाता है। भीतर श्वास रोकना आंतरिक कुम्भक और बाहर श्वास रोक देना बाह्य कुम्भक कहलाता है। प्राणायाम ‘अष्टांग योग’ के आठ अंगों में एक अंग है। प्राणायाम का नियमित अभ्यास करने से फुप्फुस शुद्ध और शक्तिशाली बने रहते हैं। फुप्फुस में अनेक सीमान्त श्वसनियां होती हैं जिनके कई छोटे-छोटे खण्ड होते हैं जो वायु मार्ग बनाते हैं। इन्हें उलूखल कोशिका कहते हैं। इनमें जो बारीक-बारीक नलिकाएं होती हैं वे अनेक कोशिकाओं और झिल्लीदार थैलियों के जाल से घिरी होती हैं। यह जाल बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य करता है क्योंकि यहीं पर फुप्फुसीय धमनी से ऑक्सीजन विहीन रक्त आता है और ऑक्सीजनयुक्त होकर वापस फुप्फुसीय शिराओं में प्रविष्ठ होकर शरीर में लौट जाता है। इस प्रक्रिया से रक्त शुद्धी होती रहती है। यहीं वह स्थान है जहां उलूखल कोशिकाओं में उपस्थित वायु तथा वाहिकाओं में उपस्थित रक्त के बीच गैसों का आदान-प्रदान होता है जिसके लिए श्वास का आना-जाना होता है।
साधारणत: स्वस्थ मनुष्य एक मिनट में 16 से 20 बार तक श्वास लेता है। भिन्न-भिन्न आयु में श्वास संख्या निम्नानुसार होती है-
आयु | संख्या प्रति मिनट |
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दो महीने से दो वर्ष तक | 35 प्रति मिनट |
दो वर्ष से छ: वर्ष तक | 23 प्रति मिनट |
छ: वर्ष से बारह वर्ष तक | 20 प्रति मिनट |
बारह वर्ष से पन्द्रह वर्ष तक | 18 प्रति मिनट |
पन्द्रह वर्ष से इक्कीस वर्ष तक | 16 से 18 प्रति मिनट |
उपर्युक्त श्वसन दर व्यायाम और क्रोध आदि से बढ़ जाया करती है किन्तु सोते समय या आराम करते समय यह कम हो जाती है। कई रोगों में जैसे न्यूमोनिया, दमा, क्षयरोग, मलेरिया, पीलिया, दिल और गुर्दों के रोगों में भी श्वास-गति बढ़ जाती है। इसी प्रकार ज्यादा अफीम खाने से, मस्तिष्क में चोट लगने के बाद तथा मस्तिष्क के कुछ रोगों में यही कम हो जाया करती है।
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