सामान्यतः राजनीतिक चिन्तन को केवल पश्चिम की ही परम्परा एवं थाती माना जाता है परन्तु भारत की लगभग पाँच हजार वर्षों से भी अधिक प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति में राजनीतिक चिन्तन की पर्याप्त गौरवशाली परम्परा रही है। पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तन की तुलना में भारतीय राजदर्शन व्यापक धर्म की अवधारणा से समृद्ध है तथा उसका स्वरूप मुख्यतः आध्यात्मिक एवं नैतिक है। मनु, कौटिल्य तथा शुक्र के चिन्तन में धर्म, आध्यात्म, इहलोक संसार, समाज, मानव जीवन, राज्य संगठन आदि के एकत्व एवम् पारस्परिक सम्बन्धों का तानाबाना पाया गया है।
आधुनिक काल में भारतीय राजनीतिक दर्शन और संस्कृति के व्यवस्थित अध्ययन का आरम्भ १८वीं शताब्दी के अन्त में मानी जाती है। सन् 1784 में बंगाल में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना होने के बाद राजनीतिक विचारों को एक नई दिशा मिली। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस सोसायटी की स्थापना में ब्रिटिश हित भी छिपे हुये थे जो अपनी सत्ता को सुदृढ करने के लिए भारतीय परम्पराओं और उसके इतिहास का परिचय प्राप्त करना चाहते थे। लेकिन एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना से भारतीय राजनीति को भी हवा मिली। 19वीं शताब्दी के आरम्भ में दर्शन और धर्म के अनेक प्राचीन ग्रन्थों का संस्कृत से अंग्रेजी तथा अन्य यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद कर लिया गया था।
पश्चिम के वर्चस्व को स्वीकार करते हुए अंग्रेजी सभ्यता, संस्कृति, राजनीति एवं उद्योगवाद को देखकर उनकी सफलता तथा अपनी दयनीय दुरावस्था के कारकों को समझने का प्रयास राजा राममोहन राय ने किया। दयानन्द सरस्वती ने वेद, वैदिक सभ्यता और संस्कृति के गौरवपूर्ण वैभव को पुनः प्राप्त करने के लिए विवेकपूर्ण सनातन आर्य धर्म का मार्ग प्रशस्त किया।
प्राचीन भारत में राजत्व सम्बन्धी चिन्तन तथा उसके स्वरूप के सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वानों में बड़ी भ्रामक धारणा रही है। उनकी यूरोकेन्द्रीयता भारतीय राजदर्शन की श्रेष्ठता को स्वीकार करने में सबसे बड़ी बाधा थी। पश्चिम के कई विद्वानों ने प्राचीन भारतीय राजनीतिक दर्शन को यह कहकर खारिज कर दिया कि भारतीय चिन्तकों और दार्शनिकों की दृष्टि धर्मशास्त्र और आध्यात्मवाद पर केन्द्रित है। यह उनके भारतीय चिन्तन के सतही ज्ञान को दर्शाने के साथ-साथ उनके पूर्वाग्रह को भी दर्शाता है।
मैक्समूलर, ब्लूमफील्ड और डर्निंग जैसे विद्वानों ने कह दिया कि भारतीय दर्शन में राजनीतिक चिन्तन का अभाव है। ये पश्चिम विद्वान यह मानते थे कि भारतीय दर्शन का स्रोत वस्तुतः हिन्दू साहित्य है। इसके आधार पर ही उन्होंने यह धारणा बना ली कि भारतीय साहित्य में संदिग्ध आदर्शवाद, अव्यावहारिक और पारलौकिक मूर्खतापूर्ण बातों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इस भ्रमपूर्ण विचार का कारक भारत पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को भी माना जा सकता है जो भारतीय राजनीतिक चिन्तकों को किसी भी प्रकार का श्रेय नहीं देना चाहते थे। इस तथ्य को एक अन्य पश्चिम विद्वान मैक्सी (Chester Collins Maxey) ने इन शब्दों में स्वीकार किया है-'पाश्चात्य व्याख्याकारों ने पूर्वीय विद्वानों के राजनीतिक विचारों के साथ ही नहीं, प्राचीन हिन्दू राजनैतिक विचारों के साथ भी दुर्व्यहार किया है। हिन्दू राजनैतिक संस्थाओं और विचारों के सम्बन्ध में हमें ऐसे स्रोतों से ज्ञान प्राप्त हुआ है जो भारतीय जीवन और चरित्र के राजनैतिक पहलू पर निष्पक्ष विचार नहीं रख सकते। भारतवंशियों को इस प्रकार देखा गया जैसे वे राजनीतिक उत्तरदायित्व के सर्वथा अयोग्य हैं। दरअसल, अज्ञानवश या फिर जानबूझकर भारतीय विचारकों को या राजनीतिक दार्शनिकों की उपेक्षा की गई है।'
पश्चिम विद्वानों की भारतीय राजनीति के बारे में भ्रमपूर्ण बातें इसलिए भी निराधार साबित हो जाती हैं कि प्लेटो और अरस्तू से शताब्दियों पहले भारतीय राजदर्शन की नींव पड़ चुकी थी। यही नहीं, भारतीय राजनीतिक दर्शन का इतिहास भी उतना ही पुराना है जितनी यहाँ की सभ्यताएँ, संस्कृति और धर्म आदि। प्राचीन यूनानी राजनीतिक चिंतन के महत्वपूर्ण स्रोत प्लेटो की रचनाएँ-"रिपब्लिक" , "स्टेट्समैन" तथा "लॉज" मानी जातीं है तथा अरस्तू की रचना "पॉलिटिक्स" मानी जाती हैं तो भारतीय राजनीतिक चिंतन के स्रोत वैदिक साहित्य, जैन एवं बौद्ध साहित्य, कौटिल्य का 'अर्थशात्र', कामन्दक का 'नीतिसार', शुक्राचार्य का 'शुक्रनीति', रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थ हैं। ऋग्वेद और अथर्ववेद में राजशास्त्र से संबंधित कई श्लोक हैं। ज्ञान-विज्ञान ही नहीं, राजनीति के मामले में भी भारत किसी भी देश से कमतर नहीं रहा है। जिस तरह यूनानी विद्वान अरस्तू के राजनीतिक विचारों को महत्वपूर्ण समझते हैं, उसी तरह भारत में अरस्तू के समकालीन भारतीय राजनीतिक चिन्तक कौटिल्य का महत्व है। मैक्सी तो यहाँ तक कहता है कि भारत का राजनीतिक इतिहास यूरोप के इतिहास से भी अधिक प्राचीन है जबकि गैटिल (R.G. Gettel ) भी भारतीय साहित्य में राजनीतिक दर्शन की महत्ता को स्वीकार करता है और इसे ज्ञान की एक पृथक शाखा मानता है।
पाश्चात्य विद्वानों के भ्रम का एक मुख्य कारण यह भी था कि वे प्राचीन भारतीय वाङ्मय में से राजशास्त्र पर पृथक् ग्रंथ ढूँढने लगे, जबकि वास्तविकता यह थी कि नीतिशास्त्र अथवा राजशास्त्र (राजधर्म) उस सार्वभौमिक और व्यापक धर्म का अंश था जो व्यक्ति, समाज और राज्य सभी के कार्यकलापों का नियमन करता था। बीसवीं शती में कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र के प्रकाशन के पश्चात् यह तथ्य प्रमाणित हो चुका है कि राजत्व, राजनय, राजनीति आदि का अध्ययन प्राचीन भारत में एक विशेष विषय के रूप में महत्व प्राप्त था। प्राचीन काल से ही भारत में राज्य एक वृहद समाज का अंग समझा जाता था। प्राचीन भारतीय विचारकों ने जीवन एवं जगत् के सर्वांग का विचार कर उसके अनुरूप शास्त्र और व्यवस्थाओं का नियमन किया। यही कारण है कि भारत में व्यापक चिन्तन एवं शास्त्र प्रणीत हुए। वैदिक वाङ्मय पुराण, जैन एवं बौद्ध साहित्य, धर्मशास्त्र, नीति-शास्त्र, अभिलेख मुद्राएँ आदि राजत्व सम्बन्धी भारतीय विचारों के आधार एवं आकार ग्रंथ हैं।
पश्चिम के विद्वानों को भारतीय राज व्यवस्था पर सवाल उठाने का मौका इसलिए भी मिल जाता है क्योंकि प्राचीन भारत में इस विषय को दूसरे नामों से जाना-समझा गया। महाभारत के 'शांतिपर्व' में इसे राजधर्म की संज्ञा दी गई तो अन्य जगह यह दण्डनीति, नीतिशास्त्र या फिर अर्थशास्त्र आदि नामों के रूप में आया।
देखा जाये तो प्राचीन भारत में राज-शासन का ही अधिक महत्व था। राजाओं के अपने नियम-कानून और कर्तव्य थे, इन्हें ही राजधर्म कहा जाता था। वर्तमान परिभाषाओं में भी देखें तो राजशास्त्र का मतलब राज्य और शासन के अध्ययन में ही समाहित हैं, इसलिए राजधर्म को भी राजशास्त्र ही समझना अधिक समीचीन होगा। प्राचीन भारत में एक और शब्द 'दण्डनीति' आता है। इसका सम्बन्ध भी शासन के कार्यों अथवा शासन तन्त्र से ही रहा। इसे 'प्रशासन का शास्त्र' भी कहा गया। कौटिल्य का मानना है कि मनु, वृहस्पति और शुक्राचार्य द्वारा वर्णित चार विद्याओं में से दण्डनीति एक है। प्राचीन भारतीय विचारकों का मानना था कि प्रभुसत्ता ही राज्य का आधार है। इसलिए भारतीय विचारक मानते थे कि बिना दण्ड के किसी प्रकार के राज्य का अस्तित्व सम्भव नहीं है। दण्डनीति का समर्थक मनु कहते हैं कि 'जब सभी लोग सो रहे होते हैं तो दण्ड उनकी रक्षा करता है। उसी के भय से लोग न्याय का मार्ग अपनाते हैं।' उशनस् तथा प्रजापति द्वारा शासनतन्त्र पर लिखित ग्रंथ भी 'दण्डनीति' के नाम से ही प्रसिद्ध हैं। डॉ. जायसवाल इस दण्ड नीति को "सरकार के सिद्धान्त" (Principles of Government) नाम देते हैं।
प्राचीन भारत में अर्थशास्त्र को राजशास्त्र के अन्तर्गत माना गया है। विद्वानों में विभ्रम की एक वजह यह भी हमेशा बनी रही। वर्तमान समय में अर्थशास्त्र शब्द का प्रयोग आमतौर पर धन व अर्थ सम्बन्धी अध्ययन के लिए किया जाता है जबकि कौटिल्य का मानना है कि 'अर्थ' शब्द से जिस तरह मनुष्य के व्यवसाय व धंधे का आशय निकलता है, ठीक उसी तरह वे जिस भूमि पर रहकर व्यवसाय चलाते हैं वह भूमि भी सम्बोधित हो सकती है, इसलिए भूमि को प्राप्त करने व उसका पालन करने का जो साधन है, उसे भी अर्थशास्त्र कहना उचित है। अर्थशास्त्र को नीतिशास्त्र अथवा दण्डनीति के ही अर्थ में लिए जाने की एक और भी वजह रही क्योंकि राज्य व शासन के विषय पर प्राचीन भारत में लिखा गया सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ अर्थशास्त्र के नाम से ही पुकारा गया। शुक्रनीति में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि अर्थशास्त्र का क्षेत्र केवल धन-सम्पत्ति प्राप्त करने के उपायों का विवेचन करना ही नहीं नहीं है, बल्कि शासक शास्त्र के सिद्धान्तों को भी प्रस्थापित करता है। अमरकोश में भी अर्थशास्त्र और दण्डनीति को समानार्थक माना गया है। हालांकि 'अर्थशास्त्र' के प्रथम अध्याय पर गौर करें तो प्रतीत होता है कि कौटिल्य 'दण्डनीति' को ही महत्व देता है और उसे यही नाम देना चाहता है।
प्रचीन भारतीय ऋषि परम्परा, चिन्तन मनन एवं उनके शास्त्रीय स्वरूप के प्रणयन में अग्रणी रही है। यद्यपि उनके राजनीति विषयक विचार मुख्य विषय के रूप में प्रतिपादित नहीं थे तथापि वैदिक मंत्र स्वयं में विचारों की विपुल राशि माने गये हैं जिनमें जीवन के विविध पक्षों का चिन्तन हुआ है। इन्ही विचारों की जीविका पर कालान्तर मे जब राज्यों, राष्ट्रों तथा उनकी शासन प्रणालियों का विकास हुआ तो स्वतंत्र रूप से एक आचार्य परम्परा भी विकसित हुई जिसने राजनीतिक विषयों पर तत्युगीन विचारों का प्रतिपादन किया। यद्यपि राजत्व सम्बन्धी स्वतंत्र ग्रंथ कम हैं फिर भी जो थोड़े ग्रंथ उपलब्ध हैं, उनके रचनाकारों, प्रणेताओं तथा चिन्तकों ने राजनीतिक विचारों को महत्व के साथ प्रतिपादित किया है। वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत आदि में प्रसंगतः इन विचारों का उल्लेख हुआ है।
प्राचीन भारतीय राजनीतिक विचारों का परिचय चतुर्थ शदी ई. पू. के महान आचार्य एवं विचारक कौटिल्य (अन्य नाम चाणक्य एवं विष्णुगुप्त) के 'अर्थशास्त्र' नामक गर्न्थ के प्रथम वाक्य से मिल जाता है, जिसमें पूर्ववर्ती आचार्यों तथा उनके विचारों को उद्धृत किया गया है। इनमें भारद्वाज, विशालाक्ष, पराशर, विशुन, कौणदन्त, वातव्याधि, बाहुदन्तीपुत्र, कणिड्क, कात्यायन, घोटमुख, दीर्घ चारायण, विशुनपुत्र और किंजल्क उल्लिखित हैं। इनके मतों का उद्धरण दिया गया है जिससे यह ज्ञात होता है कि राजत्वविषयक विचारों का दीर्घकालीन इतिहास रहा है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में विचार-सम्प्रदायों की सत्ता विद्यमान थी। इनकी परम्परा का आधार गुरु-शिष्य परम्परा रही है। कौटिल्य अपने युग के महान् राजनीतिक विचारक थे। अर्थशास्त्र में उन्होने अनेक विचारकों के मतों का उल्लेख उनके विचार सम्प्रदायों के साथ किया है जैसे- मानवाः, बार्हस्पत्याः, औशनसाः, पाराशराः, आम्भीयाः आदि। इन्ही के साथ "आचार्याः अपरे", "एके" - इन शब्दों के प्रयोग के द्वारा भी कौटिल्य ने पूर्ववर्ती मतों को उद्धृत किया है। इससे यह स्पस्ट होता है कि प्राचीन काल में राजनीतिक विचारों का अपना एक इतिहास रहा है। महाकाव्यों में महाभारत एक ऐसा आकार ग्रंथ है जिसमें राजशास्त्र विचारकों तथा इस विषय के प्रणेताओं के नामोल्लेख मिलते हैं यथा- विशालाक्ष, इन्द्र, बृहस्पति, अनु, शुक्र, भारद्वाज, गौरशिरा, मातरिश्वा, कश्यप, वैश्रवण, उतध्य, वामदेव, शम्बर, कालकवृक्षीय, वसुहोम और कामन्दक। इनमें से दस आचार्य नवीन है तथा छः आचार्यों के नाम कौटिल्य ने भी उद्धृत किए हैं। उदाहरणार्थ विशालाक्ष के नीतिशास्त्र में दस हजार, इन्द्र के नीतिशास्त्र में पाँच हजार, और बृहस्पति के अर्थशास्त्र में तीन हजार अध्याय थे।
महाभारत के ही शांतिपर्व में कीर्तिमान्, कर्दम, अनंग, अतिवल, वैण्य, पुरोधा काव्य और योगाचार्य नामक राजनीतिक विचारकों का भी विवरण मिलता है। इसके अतिरिक्त राजशास्त्र विचारक मनु, उशना, मरुत और प्राचेतस के द्वारा रचित श्लोकों का भी तत्सम उद्धरण मिलता है। इसी प्रकार कामन्दक ने नीतिसार में प्राचीन भारतीय राजशास्त्र विचारकों को उद्घृत किया है। यद्यपि 'मय' एवं 'पुलोमा' को छोड़कर अन्य पूर्ववर्ती हैं। इसी प्रकार चण्डेश्वर के ‘राजनीति रत्नाकर’ में अनेक आचार्यों और उनके ग्रंथों के मत प्रमाण-स्वरूप उद्घृत हैं। व्यास, कात्यायन, नारद, कुल्लूकभट्ट जैसे विचारक आचार्यों के ग्रंथ तो उपलब्ध नहीं हैं किन्तु उनके उद्धरण अवश्य मिलतें हैं।
प्रख्यातविचारक मनु द्वारा रचित मनुस्मृति एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसमें विविध सामाजिक एवं राजनीतिक विषयोंपर विचार प्रगट हैं। मित्रमिश्र द्वारा रचित ‘वीरमित्रोदय’ में विज्ञानेश्वर, बृहत्पाराशर, अपरार्क, गोतमबृहस्पति नारद, अंगिरा और कात्यायन के नामोल्लेख हैं। इसी प्रकार मध्यकाल में सोमदेवसूरि (नीतिवाक्यामृतम् तथा यशस्तिलकचम्पू) भी एक महत्वपूर्ण विचारक आचार्य थे। इनकी विशेषता यह थी कि ये आचार्य कौटिल्य और कामन्दक से तो परिचित थे ही, इनके अतिरिक्त गुरू, शुक्र, विशालाक्ष, परीक्षित, पराशर, भीम, भीष्म, भारद्वाज आदि प्राचीन आचार्यों के ग्रंथों से भी परिचित थे। इन विवरणों से यह ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में ऐसे विचारक, मनीषी आचार्यों तथा उनके विचार सम्प्रदायों की सत्ता थी जिन्होने राजत्व, राजनय, राजनीति के शास्त्रों को तो विकसित किया ही, वे उस विचार-परम्परा के महत्वपूर्ण अधिष्ठान भी थे।
प्राचीन भारतीय राजत्व के विचारको की लम्बी सूची मिलती है। वैदिक, जैन, बौद्ध सभी चिन्तनपरम्पराओं में इसके स्वरूप मिलते हैं। किन्तु मुख्य रूप से कौटिल्य, मनु, याज्ञवल्क्य, शुक्र तथा कामन्दक को राजनय परम्परा के महत्वपूर्ण विचारकों तथा शास्त्र प्रणेताओं में परिभाषित किया गया है। आचार्य कौटिल्य ने अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में अपने समय की समस्त राजनीतिक विचारों की समालोचना की है। यह राजव्यवस्था के लिए एक विधिक ग्रंथ है। कौटिल्य के विचारों में अर्थशास्त्र के प्रकाश में एक व्यक्ति न केवल औचित्य, मितव्ययता एवं सौन्दर्यपूर्ण कार्यों को सम्पन्न कर सकता है अपितु वह अनुचित, अमितव्ययतापूर्ण और असुन्दर कार्यों को छोड़ भी सकता है। इस ग्रंथ में स्वाभाविक एवं कृत्रिम शास्त्रों के बीच धर्म और अधर्म के बीच, नय और अनय के बीच तथा उचित और अनुचित के बीच अन्तर बतलाया गया है। इस ग्रंथ के प्रणयन में आचार्य कौटिल्य ने तत्युगीन राजनीति के ग्रंथों पर ही ध्यान केन्द्रित नहीं किया वरन इसे अपने उस व्यक्तिगत अनुभव एवं ज्ञान पर भी आश्रित रखा जो तत्कालीन भारत की राजनीतिक स्थिति और संस्थाओं का अध्ययन भी करने पर प्राप्त किया था। वे पाश्चात्य जगत् की राजनीतिक विचारधाराओं से भी परिचित थे। तक्षशिला विश्वविद्यालय के इस महान विचारक आचार्य ने राष्ट्रीय एकत्व और सुशासन के लिए पाटलिपुत्र को केन्द्र बनाकर जो कार्य किया वह प्राचीन भारतीय विचारों के इतिहास में एक क्रांतिकारी कदम था। अर्थशास्त्र की खोज ने आचार्य चाणक्य की प्रखर मेधा को प्रकाशित किया है।
अब यह स्पस्ट हो चुका है कि भारत ने उन राजनीतिक विचारों को बहुत पहले ही अभिव्यक्त कर दिया था जो आज पश्चिमी विचारकों यथा- प्लेटो, अरस्तू के नाम संलग्न हैं। मौर्य शासक चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु और प्रधान अमात्य आचार्य चाणक्य ने राजत्व के सभी अंगों पर अत्यन्त सूक्ष्म निर्देश दिया है। कुल 15 अधिकरणों तथा 150 अध्यायों में विभाजित अर्थशास्त्र राजनीति की समस्याओं के प्रतिवैचारिक दृष्टिकोण का चित्रित रूप प्रस्तुत करता है। इसमें राजनीतिक विचारों का उल्लेख अग्रिम अध्यायों के प्रसंगानुसार विभिन्न स्थानों पर किया गया है। इसमें राज्य की उत्पत्ति और स्वरूप, राज्यों के प्रकार, राज्य के उद्देश्य, राजा और राजपद, उत्तराधिकार, मंत्रिपरिषद, स्थानीय प्रशासन, न्यायिक व्यवस्था, दण्डनीति, आर्थिक नीति, दौत्य सम्बन्ध, गुप्तचर व्यवस्था, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, धर्म और नैतिकता आदि पर पर्याप्त विचार और नीति निर्देशित हैं।
इसी क्रम में प्रमुख विचारक आचार्यों में मुख्य स्मृतिकारों यथा मनु और याज्ञवल्क्य का उल्लेख किया जाता है। मनु (ईसा पूर्व 200 से ई. 200 के मध्य) के ग्रंथ मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्य के ग्रंथ (ई.पू. 150 से 200 के मध्य) ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ में राजनीतिक विचारों का संग्रह है। दोनो ही स्मृतियों में समाज, राज्य, शासन, न्याय-व्यवस्था, कर-व्यवस्था, परराष्ट्र सम्बन्ध आदि पर काफी लिख गया है। इनमें उल्लिखित राज्य एवं शासन सम्बन्धी विचार भारतीय चिन्तन प्रणाली के श्रेष्ठ स्वरूप को अभिव्यक्त करते हैं।
कौटिल्यीय अर्थशास्त्र की परम्परा में गुप्तकालीन ग्रंथ कामन्दकीय नीतिसार तथा शुक्रनीति महत्वपूर्ण हैं जिनकी रचना आचार्य कामन्दक तथा शुक्र ने की । यद्यपि राजशास्त्र पर कार्य करने वाले विद्वान् इन ग्रंथों के रचनाकाल को लेकर एकमत नहीं है। डॉ. काशीप्रसाद जयसवाल तथा डॉ. अनन्तसदाशिव अल्तेकर इसकी रचना छठीं-सातवी शती ई. के मध्य स्वीकारते हैं। इसी प्रकार शुक्रनीति की रचना डॉ. यू.एन. घोषाल 12वीं से 16वीं शती ई. के मध्य तथा डॉ. लल्लन जी गोपाल 19वीं शताब्दी मानतें हैं। इन ग्रंथों में दण्डनीति, राजा, राज्य, शासन, न्याय, कोष आदि पर पर्याप्त विचार किया गयाहै।
राजत्व सम्बन्धी विचारों पर केन्द्रित उपर्युक्त आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों के अतिरिक्त सोमदेवसूरि (नीतिवाक्यामृतम्), मित्रमिश्र (वीरमित्रोदय), चण्डेश्वर (राजनीति रत्नाकर) नीलकण्ठ (नीतिमयूख), भोजकृत (युक्तिकल्पतरू) और बृहस्पति सूत्र भी यद्यपि परवर्ती हैं। फिर भी प्राचीन भारतीय राजनीतिक विचारों की शृंखला में पर्याप्त सामग्रियां देतें हैं। इनके अतिरिक्त वैदिक परम्परा के ग्रंथ, संस्कृत साहित्य, जैन एवं बौद्ध साहित्य, पाणिनि की अष्टाध्यायी, शिलालेख, ताम्रलेख आदि में भी पर्याप्त सूचनाएँ मिलतीं है, जिनसे प्राचीन भारत के राजत्व सम्बन्धी विचारकों के सम्बन्ध में सूचनाएँ मिलती हैं। प्राचीन भारतीय विचारों के ऐतिहासिक अध्ययन के क्रम में राजत्व सम्बन्धी विचारों के विशेष संदर्भ में यह कहना समीचीन होगा कि हिन्दू राजनीतिक विचारकों ने ग्रंथ प्रणयन में विचारों की अपेक्षा राजनीतिक संस्थाओं को केन्द्र में रखकर उनके महत्व, संगठन तथा कार्यप्रणाली पर विशद् प्रकाश डाला है। अनेक ऐसे विषय हैं जिनका प्रसंगतः ही उल्लेख हो जाता है। इसीलिए विभिन्न स्रोतों से उन विषयों का विवेचन करना पड़ता है। लेखन की अपेक्षा व्यावहारिक निर्देश भी आचार्यों के ग्रंथों की अनुपलब्धता का कारण रहा है। फिर भी इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में राजनीतिक विचारकों की श्रेष्ठ परम्परा रही है जो आज भी राजनयिक संदर्भो में उपयोगी है।
प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिन्तन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित हैं-
पाश्चात्य राजनीतिक आलोचकों ने कई बातों को आधार बनाकर प्राचीन भारतीय राजशास्त्र की आलोचना की है। आलोचना के विवेक में देखा जाये तो इस मामले में पाश्चात्य आलाचकों का पूर्वाग्रह स्पष्ट नजर आता है। उनका सर्वप्रथम उद्देश्य भारतीय राजशास्त्र के स्वतन्त्र अस्तित्व का केवल खण्डन करना ही रहा है, उसके महत्व को आंकना नहीं।
पाश्चात्य विद्वान डनिंग इन शब्दों में प्राचीन भारतीय राजशास्त्र को खारिज करता है, "भारतीय आर्यों ने अपनी राजनीति को धार्मिक और आध्यात्मवादी पर्यावरण से कभी भी स्वतन्त्र नहीं किया, जिसमें यह आज भी गड़ी है"। जर्मन विद्वान मैक्समूलर का कहना है, "भारतीयों को राष्ट्रीयता की भावना का पता न था। एकमात्र क्षेत्र जिसमें भारतीय मस्तिष्क ने कार्य करने, रचना करने और पूजा करने की स्वतन्त्रता पायी, वह धर्म और दर्शन का क्षेत्र था।"
पाश्चात्य आलोचकों ने प्राचीन भारतीय राजशास्त्र के सन्दर्भ में दूसरा आरोप यह लगाया कि प्राचीन भारत में केवल अर्द्ध स्वेच्छाचारी शासन ही था। हेनरी मेन के शब्दों में कहें तो-“पूर्व के बड़े साम्राज्य मुख्यतः कर एकत्रित करने वाली संस्थाएं भर थीं। समय-समय पर किसी प्रयोजनवश वह प्रजाओं पर हिंसा बल का भी प्रयोग करते थे लेकिन वह प्रथागत कानूनों को न्यायिक ढंग से लागू व प्रशासित नहीं करते थे।" दुर्भाग्यवश मैक्समूलर के समय से ही प्राचीन भारतीय राजनीति के बारे में यह मिथ्या विचार बन गया कि हिन्दू साहित्य में मुख्यतः दिग्भ्रमित आदर्शवाद, अव्यावहारिक, आध्यात्मवाद और परलोक की ही युक्तिहीन बातों का विवेचन है। दूसरा कारण यह रहा कि कुछ प्राचीन लेखकों के इधर-उधर से उठा लिये गये उद्धरणों को ही हिन्दुओं के सम्पूर्ण विचारों का प्रतीक मान लिया गया। गैटेल इस तथ्य को स्वीकार कर प्राचीन भारतीय राजशास्त्र को स्वतन्त्र रूप में देखता है-“हिन्दू राज्य धर्मतन्त्रात्मक न थे। राज्य धार्मिक संगठन से स्वतन्त्र था और पुजारी प्रशासनिक कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करते थे... राजनीतिक दर्शन को ज्ञान की एक पृथक शाखा माना गया है, उसका विस्तृत साहित्य है और उसके रचयिता राजशास्त्र को सबसे महत्वपूर्ण शास्त्र मानते हैं।"
कुछ पूर्वाग्रही पाश्चात्य विद्वानों के विपरीत 'राजनीतिक दर्शन' का रचयिता मैक्सी राजनीतिक विचारों व क्षेत्र में भारत के योगदान को स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है-"भारत का राजनीतिक इतिहास यूरोप के इतिहास से भी अधिक प्राचीन है। अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता की अनेक शताब्दियों में भारतीय उपमहाद्वीप ने प्रायः सभी प्रकार के छोटे और विशाल राज्यों के उदय और पतन को देखा। भारत में ग्रामीण गणतन्त्र से लेकर चन्द्रगुप्त और अशोक शासित मौर्य साम्राज्य थे, जो अपने काल में विश्व के महान राज्य थे। उनके मिस्र और यूनान से कूटनीतिक सम्बन्ध भी थे। ऐसे में यह विश्वास करना मुश्किल है कि इतने दीर्घकालीन साम्राज्य ने राजनीतिक विचारों को जन्म ही न दिया हो।" बाद में मैक्सी के तर्कपूर्ण विचार से अन्य विद्वान भी सहमत हुये और भारतीय राजनीति को गंभीरता से लिया।
देखा जाये तो प्राचीन भारत के सांस्कृतिक विकास में राजनीति का महत्वपूर्ण स्थान था। प्राचीन भारतीय विद्वान् राजनीति के तमाम सिद्धान्तों से बखूबी परिचित थे। प्राचीन विद्वानों ने विज्ञान और कलाओं का भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्गीकरण किया है। एक वर्गीकरण के अनुसार प्राविधिक विज्ञान विधाओं की संख्या 32 तथा कलाएँ 64 थीं। 32 विज्ञानों में एक अर्थशास्त्र भी था जिसका अभिप्राय आधुनिक अर्थशास्त्र और राजशास्त्र दोनों से था।
पाश्चात्य आलोचक प्राचीन भारतीय राजनीति के बारे में एक और सवाल उठाते रहे हैं कि प्राचीन हिन्दू लेखक कानून की सकारात्मक धारणा से अपरिचित थे। उनकी इस धारणा को भी नहीं माना जा सकता क्योंकि प्राचीन भारत में सभी चिन्तकों ने दण्डनीति का एकमत से समर्थन किया है। दण्डनीति, वस्तुतः कानून का ही एक भाग था। शुक्रनीति में एक जगह उल्लेख है कि कतिपय कानूनों को केवल राजा द्वारा ही लागू किया जाना चाहिए। चूंकि विद्वानों के अनुसार सकारात्मक कानून वह होता है जिसे प्रभुत्वपूर्ण राजनीतिक अधिकारी निर्मित व लागू करता है, शायद इसलिये भी एक भ्रम की स्थिति बनी।
इतना ही नहीं, संस्कृत साहित्य में भी राजशास्त्र के सिद्धान्तों एवं व्यवहारों पर अहम सामग्रियाँ भरी पड़ी हैं। अगर पाश्चात्य विद्वान इन सबकी गहन समीक्षा करते तो शायद उन्हें प्राचीन भारतीय राजनीति के विषय में कोई राय बनाने में सरलता होती। शायद उन तक इसकी सुलभता इसलिये भी नहीं हो पाई क्योंकि अधिकतर संस्कृत साहित्य का उस समय अंग्रेजी में अनुवाद नहीं हो सका था। संस्कृत साहित्य के राजनीतिक दर्शन पर प्रकाश डालते हुये बिनय कुमार सरकार ने लिखा है कि संस्कृत साहित्य की हर शाखा में राजनीतिक सिद्धान्तों और व्यवहार पर लेख हैं। साथ ही राजनीति व लोक प्रशासन पर कई विशिष्ट ग्रन्थ भी हैं, जिनका महत्व यूरोपीय देशों के साहित्य से भी अधिक है। लेकिन समस्या यह है कि उनमें से अधिकतर का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं हुआ है।
विनय कुमार सरकार ने भारतीय राजनीतिक विचारधारा के जो प्रमुख सिद्धान्त गिनाये, वो इस प्रकार हैं
सारांश में यह कह सकते हैं कि प्राचीन भारत में राजशास्त्र की चार विचारधाराओं का अस्तित्व था जो मनु, पराशर, वृहस्पति के मानने वालों के समूह में विभक्त था। जबकि शासन-कला पर अमूमन सात वृहद ग्रन्थ थे जिनके रचयिता भारद्वाज, विशालाक्ष, पाराशर, नारद, भीष्म, वातव्याधि और बहुदन्ति माने जाते हैं। अन्त में कह सकते हैं कि प्राचीन भारत में राजतन्त्र स्वेच्छाचारी नहीं बल्कि सीमित था। उस समय राजाओं के निर्वाचन की भी प्रथा थी और वे शासन भी मन्त्रियों तथा परामर्शदाताओं की सहायता से ही करते थे। वैदिक काल में सभा और समिति जैसी लोकप्रिय संस्थाएं थीं तो उत्तर वैदिककाल में गणतन्त्र की व्यवस्था थी।
भारत के प्राचीन राजशास्त्रियों ने राज्य के स्वरूप का प्रतिपादन 'सप्ताङ्ग सिद्धान्त' द्वारा किया है। हिन्दू समाज और हिन्दू राज्य के पीछे यह संकल्पना रही है कि ये दोनों सावयव हैं, इनके द्वारा राज्य की धारणा में आंगिक एकता पर बल दिया गया है। धर्मशास्त्रों, अर्थशास्त्रों और नीतिशास्त्रों में राज्य के सात अंगों का वर्णन मिलता है। राज्य के सात अंगों अथवा अवयवों की मनु, बृहस्पति, भीष्म, कौटिल्य, शुक्र आदि सभी आचार्यों ने माना है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राज्य की परिभाषा करते हुए कहा हैः- ‘‘राज्य सात अंगों अथवों तत्वों से मिलकर बना है। उसके अनुसार सात अंग अथवा प्रकृतियाँ ये हैं- स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड और मित्र।’’
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