गोंड समुदाय भारत की एक प्रमुख प्राचीन समुदाय हैं। जो की भारत के कटि प्रदेश - विंध्यपर्वत, सिवान, सतपुड़ा पठार, छत्तीसगढ़ मैदान में दक्षिण तथा दक्षिण-पश्चिम में गोदावरी नदी तक फैले हुए द्रविड़ परिवार की एक कबीला है। जो संभवत: पाँचवीं-छठी शताब्दी में दक्षिण से गोदावरी के तट को पकड़कर मध्य भारत के क्षेत्रों में फैल गई। आज भी मोदियाल गोंड जैसे समूह हैं। जिनकी जातीय भाषा गोंडी है जो द्रविड़ परिवार के है। और तेलुगु, कन्नड़, तमिल आदि से संबन्धित है।
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गोंडवाना साम्राज्य | |||||||||||||||
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157 CE–1781 CE अधिकतर क्षेत्र 1947 CE पूर्ण रूप से | |||||||||||||||
अपने सर्वाधिक विस्तार के समय | |||||||||||||||
Status | साम्राज्य | ||||||||||||||
राजधानी | गढ़ा, सिंगौरगढ़ चौरागढ़ (1564 - 1634) रामनगर (1634 - 1700) मंडला (1700 - 1781) | ||||||||||||||
सबसे बड़ा शहर | भोपाल, जबलपुर, छिंदवाड़ा, भिलाई, रायगढ़, नागपुर, बैतूल, सागर, विदिशा, भवानीपटना, पूरी, राँची, जमशेदपुर | ||||||||||||||
प्रचलित भाषाएँ | गोंडी, प्राकृतिक, हिंदी, संस्कृत | ||||||||||||||
धर्म | हिन्दू (मुख्य) गोंडी (मुख्य) | ||||||||||||||
निवासीनाम | गोंडीयन | ||||||||||||||
सरकार | राजशाही | ||||||||||||||
ऐतिहासिक युग | प्राचीन भारत, मध्यकाल, और आधुनिक काल | ||||||||||||||
• स्थापित | 157 CE | ||||||||||||||
• अंत | 1781 CE अधिकतर क्षेत्र 1947 CE पूर्ण रूप से | ||||||||||||||
क्षेत्रफल | |||||||||||||||
• कुल | 649,121 कि॰मी2 (250,627 वर्ग मील) 42th) | ||||||||||||||
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अब जिस देश का हिस्सा है | भारत |
यह जाति उत्तर प्रदेश में सोनभद्र, मीरजपुर, वाराणसी, चंदौली, जौनपुर, भदोही, आजमगढ़, गाज़ीपुर, मऊ, देवरिया, बलिया, आदि जनपदों में निवास करती है। जिनकी जनसंख्या 15 लाख से भी ज्यादा है।
आस्ट्रोलायड नस्ल की कबीलो की भाँति विवाह संबंध के लिये गोंड भी सर्वत्र दो या अधिक बड़े समूहों में बंटे रहते हैं। एक समूह के अंदर की सभी शांखाओं के लोग 'भाई बंद कहलाते हैं और सब शाखाएँ मिलकर एक बहिर्विवाही समूह बनाती हैं। भीतरी भागों में विवाह पूरे ग्राम समुदाय द्वारा सम्पन्न होता है और वही सब विवाह संबंधी कार्यो के लिये जिम्मेदार होता है। ऐसे अवसर पर कई दिन तक सामूहिक भोज और सामूहिक नृत्यगान चलता है। हर त्यौहार तथा उत्सव का मद्यपान आवश्यक अंग है। वधूमूल्य की प्रथा है और इसके लिए बैल तथा कपड़े दिए जाते हैं।
गोटुल का गोंडों के जीवन पर बहुत प्रभाव है। बस्ती से दूर गाँव के अविवाहित युवक एक बड़ा घर बनाते हैं। जहाँ वे रात्रि में नाचते, गाते और सोते हैं; एक ऐसा ही घर अविवाहित युवतियाँ भी तैयार करती हैं। बस्तर के मारिया गोंडों में अविवाहित युवक और युवतियों का एक ही कक्ष होता है जहाँ वे मिलकर नाचगान करते हैं। गोंड खेतिहर हैं और परंपरा से दहिया खेती करते हैं जो जंगल को जलाकर उसकी राख में की जाती है और जब एक स्थान की उर्वरता तथा जंगल समाप्त हो जाता है तब वहाँ से हटकर दूसरे स्थान को चुन लेते हैं। किंतु सरकारी निषेध के कारण यह प्रथा बहुत कम हो गई है। समस्त गाँव की भूमि समुदाय की सपत्ति होती है और खेती के लिये व्यक्तिगत परिवरों को आवश्यकतानुसार दी जाती है। दहिया खेती पर रोक लगने से और आबादी के दबाव के कारण अनेक समूहों को बाहरी क्षेत्रों तथा मैदानों की ओर आना पड़ा। किंतु वनप्रिय होने के कारण गोंड समूह शुरू से खेती की उपजाऊ जमीन की ओर आकृष्ट न हो सके और धीरे धीरे बाहरी लोगों ने इनके इलाकों की कृषियोग्य भूमि पर सहमतिपूर्ण अधिकार कर लिया। इस दृष्टि से गोंड कि बड़ी उपजाति मिलती हैं एक तो वे हैं जो सामान्य किसान और भूमिधर हो गए हैं, जैसे-: राजगोंड, रघुवल, डडवे और कतुल्या गोंड। दूसरे वे हैं जो मिले जुले गाँवों में खेती मजदूरों, भाड़ झोंकने, पशु चराने और पालकी ढोने जैसे सेवक जातियों के काम करते हैं।
गोंडों का प्रदेश गोंडवाना के नाम से भी प्रसिद्ध है जहाँ 14वीं तथा 17वीं शताब्दी राजगौंड राजवंशों के शासन स्थापित थे। किंतु गोंडों की छिटपुट आबादी समस्त मध्यप्रदेश में है। उड़ीसा, आंध्र और बिहार राज्यों में से प्रत्येक में दो से लेकर चार लाख तक गोंड हैं।
वास्तव में गोंडों को शुद्ध रूप में एक जनजाति कहना कठिन है। इनके विभिन्न समूह सभ्यता के विभिन्न स्तरों पर हैं और धर्म, भाषा तथा वेशभूषा संबंधी एकता भी उनमें नहीं है; न कोई ऐसा जनजातिय संगठन है जो सब गोंडों को एकता के सूत्र में बाँधता हो। उदाहरणार्थ राजगौंड समाज क्षत्रिय है ये समाज गौड़ से भिन्न है इनका इतिहास बहुत पुराना और रहस्यमई हो चुके हैं। इनका इतिहास बहुत गौरवशाली है। राजगौंड हिन्दू धर्म से संबंधित है, कुछ ने इस्लाम को चुना है।
राजगोंड राजाओं का भारत में महत्वपूर्ण स्थान है जिसका मुख्य कारण उनका इतिहास है। 14वीं से 18वीं शताब्दी के बीच गोंडवाना में अनेक राजगोंड राजवंशों का दृढ़ और सफल शासन स्थापित था। इन शासकों ने बहुत से दृढ़ दुर्ग, तालाब तथा स्मारक बनवाए और सफल शासकीय नीति तथा दक्षता का परिचय दिया। इनके शासन की परिधि मध्य भारत से पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार तक पहुँचती थी। 15वीं शताब्दी में चार महत्वपूर्ण गोंड़़ साम्राज्य थे। जिसमें खेरला, गढ मंडला, देवगढ और चाँदागढ प्रमुख थे। गोंड राजा बख्त बुलंद शाह ने नागपुर शहर की स्थापना कर अपनी राजधानी देवगढ से नागपुर स्थानांतरित किया था। गोंडवाना की प्रसिद्ध रानी दुर्गावती राजगोंड राजवंश की रानी थी।
गोंडों का नाम प्राय: खोंडों के साथ लिया जाता है संभवत: उनके भौगोलिक सांन्निध्य के कारण है।
राजगोंड का इतिहास उतना ही पुराना है जितना इस पृथ्वी ग्रह पर मनुष्य, परन्तु लिखित इतिहास के प्रमाण के अभाव में खोज का विषय है। यहाँ गोंड कबीलो के प्राचीन निवास, क्षेत्र आदि के शाक्ष्य उपलब्ध है। रंग के ये लोग इस देश में कोई 3200 वर्ष पूर्व से निवासरत है। कुछ लोग मानते हैं कि गोंड समुदाय का सम्बन्ध सिन्धु घटी की सभ्यता से भी रहा है।
गोंडवाना रानी दुर्गावती के शौर्य गाथाओं को आज भी गोंडी, हल्बी व भतरी लोकगीतों में बड़े गर्व के साथ गया जाता है। आज भी कई पारंपरिक उत्सवों में गोंडवाना राज्य के किस्से कहानियो को बड़े चाव से सुनकर उनके वैभवशाली इतिहास की परम्परा को याद किया जाताविभिन्न हिस्सों में अपने-अपने राज्य विकसित किए, जिनमे से नर्मदा नदी बेसिन पर स्थित गढ़मंडला एक प्रमुख गोंडवाना राज्य रहा है। राजा संग्राम शाह इस साम्राज्य के पराक्रमी राजाओं में से एक थे, जिन्होंने अपने पराक्रम के बल पर राज्य का विस्तार व नए-नए किलों का निर्माण किया। १५४१ में राजा संग्राम की मृत्यु पश्चात् कुंवर दलपत शाह ने पूर्वजों के अनुरूप राज्य की विशाल सेना में इजाफा करने के साथ-साथ राज्य का सुनियोजित रूप से विस्तार व विकास किया।
17 वी शताब्दी के समय गोंड राजा प्रतापसिंह जू देव गुबरा नरेश का उल्लेख मिलता है। यह बहुत ही बुद्धिमान व प्रतापी राजा थे। ग्राम गुबरा से 2 मील दूर प्रसिद्ध स्थान सिध्द बाबा मन्दिर जो राजा प्रतापसिंह जू देव ने बनवाया था यहाँ पर आज भी 15 जनबरी को बहुत बड़ा मेला लगता है। राजा प्रतापसिंह जू देव ने अपने जीवन में बकल में एक बहुत बड़ा अखिल भारतीय राजगोंड क्षत्रिय सभा का सम्मलेन सिहोरा बकल में करवाया था। जिस में 30 हजार राजगोंड भाई उपस्थित हुये यह बहुत बड़ा सम्मलेन मना जाता है उस समय राजा प्रतापसिंह जूदेव मध्यप्रदेश सभापति थे। वे गोंडी एवं हिन्दी भाषाएँ बोलते हैं।
"Madhya Pradesh: Data Highlights the Scheduled Tribes" (PDF). Census of India 2001. Census Commission of India. मूल से 19 दिसंबर 2008 को पुरालेखित (PDF). अभिगमन तिथि 2008-03-06.
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