तारपीन (Turpentine) सगंध वाष्पशील तैल है। वाष्पशील तैलों में इसका स्थान सर्वोपरि है। इसे 'तारपीन का तेल' (oil of turpentine) भी कहते हैं। यह चीड़ आदि जीवित वृक्षों से प्राप्त रेजिन के आसवन से प्राप्त किया जाता है। इसमें टरपीन होते हैं। वनस्पति से प्राप्त तारपीन के स्थान पर खनिज तारपीन या अन्य पेट्रोलियम आसवों का उपयोग भी किया जाता है किन्तु ये तारपीन वनस्पति से प्राप्त तारपीन से रासायनिक रूप से सर्वथा भिन्न हैं।
तारपीन के उपयोग का पहले पहल उल्लेख १६०५ ई० में मिलता है। तब से इसका उपयोग दिन दिन बढ़ता गया और पीछे व्यापक रूप से व्यापार शुरू हो गया। १६५० ई० में तो यह व्यापार की प्रमुख वस्तु बन गया था। धीरे धीरे अमरीका में भी इसका व्यापार चमका और १८०० ई० तक यह अमरीका में व्यापार के लिये महत्व की वस्तु बन गया था। अमरीका के अनेक राज्यों में भी इसका निर्माण शुरू हो गया। १९०० ई० में जॉर्जिया इसके उत्पादन का प्रधान केंद्र बन गया था।
तारपीन अनेक कार्बनिक यौगिकों का मिश्रण है। यह कार्बनिक यौगिक [टरपीन] है। प्रधानतया इसमें ऐल्फा-पाइनिन रहता है।
सल्फाइट तारपीन में प्रधानतया पैरा-साइमिन रहता है, जो रासायनिक संरचना में तारपीन सा ही होता है और वास्तविक तारपीन के स्थान में उद्योग धंधों में प्रयुक्त हो सकता है।
लगभग ४० प्रतिशत तारपीन पेंट और वार्निश में, ४५ प्रतिशत रसायनों और औषधियों के निर्माण में, ६ प्रति शत जूता, स्याही और इसी प्रकार के अन्य पदार्थो में, ५ प्रतिशत रेलमार्गों और जहाजों में और अल्पमात्रा, लगभग ३ प्रतिशत, अन्य कामों में लगती है। यह मोम तथा अन्य पॉलिशों के और कृमिनाशकों के निर्माण में तथा घरेलू कामों में विलायक के रूप में प्रयुक्त होता है। इससे कपूर, टरपिनिऑल और अन्य बहुमूल्य औषधियाँ बनती है। औषधि के रूप में भी इसका उपयोग होता है।
तलवो मे गांठ पड़ जाना: जिस स्थान पे गोखरू हुआ हो, वहाँ 2-3 मिनट बर्फ रगडिये। फिर उस हिस्से पे थोड़ा सा तारपीन का आयल मिलाकर पत्ती बांध दीजिये। गोखरू निकल जायेगा। फिर उस स्थान पे थोड़ा सा टरपिनिऑल लगा के दो तीन दिन मालिश करें। धारीदार बेलन फेरिये। गोखरू कभी नहीं होगा। (श्री देवेन्द्र वोरा दवारा लिखित एकुप्रेशर पद्धत्ति विषयक पुस्तक से लिए गए है। )
लंबें पत्तेवाले चीड़ के पेड़ों के लंबे धड़ों की छीलने से एक प्रकार का स्राव निकलता है। जिसे रेजिन कहते हैं। इस रेजिन में ही तारपीन रहता है। पीछे देखा गया कि चीड़ लकड़ी के भंजक आसवन या वाष्प आसवन, या विलायक निष्कर्षण, से भी तारपीन प्राप्त हो सकता है। पेड़ के छेदने से जो तेल प्राप्त होता है, उसे गोंद तारपीन या 'गमस्पिरिट ऑव टरपेंटाइन' भी कहते हैं और काठ के वाष्प आसवन या विलायक निष्कर्षण से जो तेल प्राप्त होता है, उसे काठ तारपीन कते हैं। इन विभिन्न विधियों से प्राप्त तेलों में विशेष अंतर नहीं हैं। इन सभी के उपयोग प्राय: एक से ही हैं। पेड़ से जो स्राव प्राप्त होता है उसे 'ओलियो-रेजिन' (oleo-resin) कहते हैं। इसमें वस्तुत: तारपीन में घुला हुआ रेजिन रहता है जिसे ओलियोरेजिन कहते हैं। ओलियोरेजिन को ताँबे के भभके में आसुत करते हैं। तारपीन और जल निकल जाते हैं और विभिन्न गुरुत्व के कारण अलग अलग स्तरों में बँट जाते हैं। आसवन पात्र में जो ठोस या अर्ध ठोस पदार्थ रह जाता है उसे गंधराल या 'रोजिन' कहते हैं। एक पाउंड ओलियोरेजिन से ९.२४२ पाउंड तारपीन और ०.८ पाउंड रोजिन प्राप्त होता है। यदि रोजिन को विलायक नैफ्था से उपचारित किया जाए तो नैफ्था में उसका एक अंश धुल जाता है। विलयन से विलायक को निकाले पर जो अवशिष्ट अंश बच जाता है उसे चीड़ रोजिन कहते हैं।
भंजक आसवन वैसे ही संपंन्न होता है जैसे कोयला बनाने में कठोर काठ का आसवन होता है। जो उत्पादन प्राप्त होते हैं, उनमें कुछ गैसें रहती हैं और कुछ द्रव प्राप्त होता है। द्रव के आसवन से तारपीन प्राप्त होता है, जिसे 'डिस्टिल्ड वुड टरपेंटाइन' कहते हैं। इसके परिष्कार से परिष्कृत तारपीन प्राप्त होता है। निष्कर्षण के लिए लकड़ी को छोटी चैलियों में काटते और नैफ्था या पेट्रोल से निष्कर्ष निकालते हैं। लकड़ी को जलाने के काम में लाते हैं। उत्पाद को फिर प्रभाजक स्तंभ की सहायता से अम्लप्रतिरोधी मिश्रधातु के पात्र में पृथक करते हैं। सल्फेट विधि से लुगदी निर्माण में चीड़ से कुछ तैल संघनित होकर प्राप्त होता है। जिसमें ४० से ६० प्रतिशत तारपीन और १० से २० प्रति शत चीड़ का तेल रहते हैं। प्रभाजक आसवन से ये पृथक किए जा सकते हैं। स्प्रूस (spruce) से लुगदी बनाने में जो तैल प्राप्त होता है, उसे सल्फाइट तारपीन कहते है।
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