तन्त्र

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बन्धित तंत्र या प्रणाली या सिस्टम के बारे में तंत्र (सिस्टम) देखें।


तन्त्र
तन्त्र कलाएं (ऊपर से, दक्षिणावर्त) : हिन्दू तांत्रिक देवता, बौद्ध तान्त्रिक देवता, जैन तान्त्रिक चित्र, कुण्डलिनी चक्र, एक यंत्र एवं ११वीं शताब्दी का सैछो (तेन्दाई तंत्र परम्परा का संस्थापक

तन्त्र, परम्परा से जुड़े हुए आगम ग्रन्थ हैं। तन्त्र शब्द के अर्थ बहुत विस्तृत है। तन्त्र-परम्परा एक हिन्दू एवं बौद्ध परम्परा तो है ही, जैन धर्म, सिख धर्म, तिब्बत की बोन परम्परा, दाओ-परम्परा तथा जापान की शिन्तो परम्परा में पायी जाती है। भारतीय परम्परा में किसी भी व्यवस्थित ग्रन्थ, सिद्धान्त, विधि, उपकरण, तकनीक या कार्यप्रणाली को भी तन्त्र कहते हैं।

हिन्दू परम्परा में तन्त्र मुख्यतः शाक्त सम्प्रदाय से जुड़ा हुआ है, उसके बाद शैव सम्प्रदाय से, और कुछ सीमा तक वैष्णव परम्परा से भी। शैव परम्परा में तन्त्र ग्रन्थों के वक्ता साधारणतयः शिवजी होते हैं। बौद्ध धर्म का वज्रयान सम्प्रदाय और आगम मठ अपने तन्त्र-सम्बन्धी विचारों, कर्मकाण्डों और साहित्य के लिये प्रसिद्ध है।

तन्त्र का शाब्दिक उद्भव इस प्रकार माना जाता है - “तनोति त्रायति तन्त्र”। जिससे अभिप्राय है – तनना, विस्तार, फैलाव इस प्रकार इससे त्राण होना तन्त्र है। हिन्दू, बौद्ध तथा जैन दर्शनों में तन्त्र परम्परायें मिलती हैं। यहाँ पर तन्त्र साधना से अभिप्राय "गुह्य या गूढ़ साधनाओं" से किया जाता रहा है।

तन्त्रों को वेदों के काल के बाद की रचना माना जाता है जिसका विकास प्रथम सहस्राब्दी के मध्य के आसपास हुआ। साहित्यक रूप में जिस प्रकार पुराण ग्रन्थ मध्ययुग की दार्शनिक-धार्मिक रचनायें माने जाते हैं उसी प्रकार तन्त्रों में प्राचीन-अख्यान, कथानक आदि का समावेश होता है। अपनी विषयवस्तु की दृष्टि से ये धर्म, दर्शन, सृष्टिरचना शास्त्र, प्राचीन विज्ञान आदि के इनसाक्लोपीडिया भी कहे जा सकते हैं। यूरोपीय विद्वानों ने अपने उपनिवीशवादी लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए तन्त्र को 'गूढ़ साधना' ( esoteric practice) या 'साम्प्रदायिक कर्मकाण्ड' बताकर भटकाने की कोशिश की है।

वैसे तो तन्त्र ग्रन्थों की संख्या हजारों में है, किन्तु मुख्य-मुख्य तन्त्र 64 कहे गये हैं। तन्त्र का प्रभाव विश्व स्तर पर है। इसका प्रमाण हिन्दू, बौद्ध, जैन, तिब्बती आदि धर्मों की तन्त्र-साधना के ग्रन्थ हैं। भारत में प्राचीन काल से ही बंगाल, बिहार और राजस्थान तन्त्र के गढ़ रहे हैं।

यह शास्त्र तीन भागों में विभक्त है— आगम, यामल और मुख्य तंत्र । वाराही तंत्र के अनुसार जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की पूजा, सब कार्यों के साधना, पुरश्चरण, षट्कर्म- साधन और चार प्रकार के ध्यानयोग का वर्णन हो, उसे आगम कहते हैं। जिसमें सृष्टितत्व, ज्योतिष, नित्य कृत्य, क्रम, सूत्र, वर्णभेद और युगधर्म का वर्णन हो उसे यामल कहते हैं। और जिसमें सृष्टि, लट, मंत्रनिर्णय, देवताओं, के संस्थान, यंत्रनिर्णय, तीर्थ, आश्रम, धर्म, कल्प, ज्योतिष संस्थान, व्रत-कथा, शौच और अशौच, स्त्री-पुरूष-लक्षण, राजधर्म, दान- धर्म, युवाधर्म, व्यवहार तथा आध्यात्मिक विषयों का वर्णन हो, वह तंत्र कहलाता है ।

इस शास्त्र का सिद्धान्त है कि कलियुग में वैदिक मंत्रों, जपों और यज्ञों आदि का कोई फल नहीं होता । इस युग में सब प्रकार के कार्यों की सिद्धि के लिये तंत्राशास्त्र में वर्णित मंत्रों और उपायों आदि से ही सहायता मिलती है । इस शास्त्र के सिद्धान्त बहुत गुप्त रखे जाते हैं और इसकी शिक्षा लेने के लिये मनुष्य को पहले दीक्षित होना पड़ना है । आजकल प्रायः मारण, उच्चाटन, वशीकरण आदि के लिये तथा अनेक प्रकार की सिद्धियों आदि के साधन के लिये ही तंत्रोक्त मंत्रों और क्रियाओं का प्रयोग किया जाता है । यह शास्त्र प्रधानतः शाक्तों का ही है और इसके मंत्र प्रायः अर्थहीन और एकाक्षरी हुआ करते हैं । जैसे,— ह्नीं, क्लीं, श्रीं, स्थीं, शूं, क्रू आदि । तांत्रिकों का पंचमकार— मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन — और आगम मठ की चक्रपूजा प्रसिद्ध है । तांत्रिक सब देवताओं का पूजन करते हैं पर उनकी पूजा का विधान सबसे भिन्न और स्वतंत्र होता है । चक्रपूजा तथा अन्य अनेक पूजाओं में तांत्रिक लोग मद्य, मांस और मत्स्य का बहुत अधिकता से व्यवहार करते हैं और उनका पूजन करते हैं ।

इतिहास

यद्यपि अथर्ववेद संहिता में मारण, मोहन, उच्चाटन और वशीकरण आदि का वर्णन और विधान है तथापि आधुनिक तंत्र का उसके साथ कोई संबंध नहीं हैं । कुछ लोगों का विश्वास है कि कनिष्क के समय में और उसके उपरान्त भारत में आधुनिक तंत्र का प्रचार हुआ है । चीनी यात्री फाहियान और हुएनसांग ने अपने लेखों में इस शास्त्र का कोई उल्लेख नहीं किया है । यद्यपि निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि तंत्र का प्रचार कब से हुआ पर इसमें संदेह नहीं कि यह शास्त्र शायद ईसवी चौथी या पांचवीं शताब्दी से अधिक पुराना नहीं रहा होगा । हिंदुओं की देखादेखी बौद्धों में भी तंत्र का प्रचार हुआ और तत्संबंधी अनेक ग्रंथ बने । हिंदू तांत्रिक उन्हें 'उपतंत्र' कहते हैं । उनका अधिक प्रचार तिब्बत तथा चीन में है। वाराही तंत्र में यह भी लिखा है कि जैमिनि, कपिल, नारद, गर्ग, पुलस्त्य, भृगु, शुक्र, बृहस्पति आदि ऋषियों ने भी कई उपतंत्रों की रचना की है ।

भारतीय ग्रन्थों में "तन्त्र" शब्द का अस्तित्व
काल ग्रन्थ या ग्रन्थकार 'तंत्र' का प्रासंगिक अर्थ
1700–1100 ईसापूर्व ऋग्वेद X, 71.9 वस्त्र बुनने का यन्त्र
1700-? ईसापूर्व सामवेद, Tandya Brahmana सार (or "main part", perhaps denoting the quintessence of the Sastras)
1200-900 ईसापूर्व अथर्ववेद X, 7.42 वस्त्र बुनने का यन्त्र या वस्त्र बुनना
1400-1000 ईसापूर्व यजुर्वेद, तैत्तिरीय ब्राह्मण 11.5.5.3 वस्त्र बुनने का यन्त्र या वस्त्र बुनना
600-500 ईसापूर्व पाणिनि कृत अष्टाध्यायी 1.4.54 एवं 5.2.70 वस्त्र बुनने का यन्त्र, वस्त्र बुनना
pre-500 ईसापूर्व शतपथ ब्राह्मण सार (or main part; see above)
350-283 ईसापूर्व चाणक्य कृत अर्थशास्त्र विज्ञान, शास्त्र; system or shastra
300 ई सांख्यकारिका के रचयिता ईश्वरकृष्ण (कारिका 70) दर्शन या सिद्धान्त (सांख्य को 'तन्त्र' कहा है।)
320 CE विष्णुपुराण Practices and rituals
320-400 ई कालिदास कृत अभिज्ञानशाकुन्तलम् किसी विषय की गहन समझ या पाण्डित्य
423 CE Gangdhar stone inscription in Rajasthan Worship techniques (Tantrodbhuta) Dubious link to Tantric practices.
550 CE Sabarasvamin's commentary on Mimamsa Sutra 11.1.1, 11.4.1 etc. Thread, text; beneficial action or thing
500-600 CE Chinese Buddhist canon (Vol. 18–21: तन्त्र (वज्रयान) or Tantric Buddhism Set of doctrines or practices
600 CE कामिकागम या कामिकातन्त्र Extensive knowledge of principles of reality
606–647 CE बाणभट्ट (हर्षचरित]] में and in कादम्बरी), in भास's चारुदत्त and in शूद्रक's मृच्छकटिक Set of sites and worship methods to goddesses or Matrikas.
975–1025 CE अभिनवगुप्त की तंत्रालोक नामक कृति Set of doctrines or practices, teachings, texts, system (sometimes called Agamas)
1150–1200 CE अभिनवगुप्त के यंत्रालोक के भाष्यकार जयरथ Set of doctrines or practices, teachings
1690–1785 CE भास्कराचार्य (दार्शनिक) System of thought or set of doctrines or practices, a canon

परिचय

व्याकरण शास्त्र के अनुसार 'तन्त्र' शब्द ‘तन्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है 'विस्तार'। शैव सिद्धान्त के ‘कायिक आगम’ में इसका अर्थ किया गया है, तन्यते विस्तार्यते ज्ञानम् अनेन्, इति तन्त्रम् (वह शास्त्र जिसके द्वारा ज्ञान का विस्तार किया जाता है)। तन्त्र की निरुक्ति ‘तन’ (विस्तार करना) और ‘त्रै’ (रक्षा करना), इन दोनों धातुओं के योग से सिद्ध होती है। इसका तात्पर्य यह है कि तन्त्र अपने समग्र अर्थ में ज्ञान का विस्तार करने के साथ उस पर आचरण करने वालों का त्राण (रक्षा) भी करता है।

तन्त्र-शास्त्र का एक नाम 'आगम शास्त्र' भी है। इसके विषय में कहा गया है-

    आगमात् शिववक्त्रात् गतं च गिरिजा मुखम्।
    सम्मतं वासुदेवेन आगमः इति कथ्यते ॥

वाचस्पति मिश्र ने योग भाष्य की तत्ववैशारदी व्याख्या में 'आगम' शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है कि जिससे अभ्युदय (लौकिक कल्याण) और निःश्रेयस (मोक्ष) के उपाय बुद्धि में आते हैं, वह 'आगम' कहलाता है।

शास्त्रों के एक अन्य स्वरूप को 'निगम' कहा जाता है। निगम के अन्तर्गत वेद, पुराण, उपनिषद आदि आते हैं। इसमें ज्ञान, कर्म और उपासना आदि के विषय में बताया गया है। इसीलिए वेद-शास्त्रों को निगम कहते हैं। उस स्वरूप को व्यवहार (आचरण) में उतारने वाले उपायों का रूप जो शास्त्र बतलाता है, उसे 'आगम' कहते हैं। तन्त्र अथवा आगम में व्यवहार पक्ष ही मुख्य है। तन्त्र, क्रियाओं और अनुष्ठान पर बल देता है। ‘वाराही तन्त्र’ में इस शास्त्र के जो सात लक्षण बताए हैं, उनमें व्यवहार ही मुख्य है। ये सात लक्षण हैं-

  1. सृष्टि,
  2. प्रत्यय,
  3. देवार्चन,
  4. सर्वसाधन (सिद्धियां प्राप्त करने के उपाय),
  5. पुरश्चरण (मारण, मोहन, उच्चाटन आदि क्रियाएं),
  6. षट्कर्म (शान्ति, वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन और मारण के साधन), तथा
  7. ध्यान (ईष्ट के स्वरूप का एकाग्र तल्लीन मन से चिन्तन)।

तन्त्र का सामान्य अर्थ है 'विधि' या 'उपाय'। विधि या उपाय कोई सिद्धान्त नहीं है। सिद्धान्तों को लेकर मतभेद हो सकते हैं। विग्रह और विवाद भी हो सकते हैं, लेकिन विधि के सम्बन्ध में कोई मतभेद नहीं है। डूबने से बचने के लिए तैरकर ही आना पड़ेगा। बिजली चाहिए तो कोयले, पानी का अणु का रूपान्तरण करना ही पड़ेगा। दौड़ने के लिए पाँव आगे बढ़ाने ही होंगे। पर्वत पर चढ़ना है तो ऊँचाई की तरफ कदम बढ़ाये बिना कोई चारा नहीं है। यह क्रियाएँ 'विधि' कहलाती हैं। तन्त्र अथवा आगम में व्यवहार पक्ष ही मुख्य है। तन्त्र की दृष्टि में शरीर प्रधान निमित्त है। उसके बिना चेतना के उच्च शिखरों तक पहुँचा ही नहीं जा सकता। इसी कारण से तन्त्र का तात्पर्य ‘तन’ के माध्यम से आत्मा का ’त्राण’ या अपने आपका उद्धार भी कहा जाता है। यह अर्थ एक सीमा तक ही सही है। वास्तव में तन्त्र साधना में शरीर, मन और काय कलेवर के सूक्ष्मतम स्तरों का समन्वित उपयोग होता है। यह अवश्य सत्य है कि तन्त्र शरीर को भी उतना ही महत्त्व देता है जितना कि मन, बुद्घि और चित को।

कर्मकाण्ड और पूजा-उपासना के तरीके सभी धर्मों में अलग-अलग हैं, पर तन्त्र के सम्बन्ध में सभी एकमत हैं। सभी धर्मों का मानना है मानव के भीतर अनन्त ऊर्जा छिपी हुई है, उसका पाँच-सात प्रतिशत हिस्सा ही कार्य में आता है, शेष भाग बिना उपयोग के ही पड़ा रहता है। सभी धर्म–सम्प्रदाय इस बात को एक मत से स्वीकार करते हैं व अपने हिसाब से उस भाग का मार्ग भी बताते हैं। उन धर्म-सम्प्रदायों के अनुयायी अपनी छिपी हुई शक्तियों को जगाने के लिए प्रायः एक समान विधियां ही काम में लाते हैं। उनमें जप, ध्यान, एकाग्रता का अभ्यास और शरीरगत ऊर्जा का सघन उपयोग शामिल होता है। यही तन्त्र का प्रतिपाद्य है। तन्त्रोक्त मतानुसार मन्त्रों के द्वारा यन्त्र के माध्यम से भगवान की उपासना की जाती है।

विषय को स्पष्ट करने के लिए तन्त्र-शास्त्र भले ही कहीं सिद्धान्त की बात करते हों, अन्यथा आगम-शास्त्रों का तीन चौथाई भाग विधियों का ही उपदेश करता है। तन्त्र के सभी ग्रन्थ शिव और पार्वती के संवाद के अन्तर्गत ही प्रकट हैं। देवी पार्वती प्रश्न करती हैं और शिव उनका उत्तर देते हुए एक विधि का उपदेश करते हैं। अधिकांश प्रश्न समस्याप्रधान ही हैं। सिद्धान्त के सम्बन्ध में भी कोई प्रश्न पूछा गया हो तो भी शिव उसका उत्तर कुछ शब्दों में देने के उपरान्त विधि का ही वर्णन करते हैं।

आगम शास्त्र के अनुसार 'करना' ही जानना है, अन्य कोई 'जानना' ज्ञान की परिभाषा में नहीं आता। जब तक कुछ किया नहीं जाता, साधना में प्रवेश नहीं होता, तब तक कोई उत्तर या समाधान नहीं है।

तन्त्रों की विषयवस्तु

तन्त्रों की विषय वस्तु को मोटे तौर पर निम्न तौर पर बतलाया जा सकता है-

  • ज्ञान, या दर्शन,
  • योग,
  • कर्मकाण्ड,
  • विशिष्ट-साधनायें, पद्धतियाँ तथा समाजिक आचार-विचार के नियम।

वेदान्त के अद्वैत विचारों का प्रभाव तन्त्र ग्रन्थों में दिखलायी पड़ता है। तन्त्र में प्रकृति के साथ शिव, अद्वैत दोनों की बात की गयी है। परन्तु तन्त्र दर्शन में ‘शक्ति’ (ईश्वर की शक्ति) पर विशेष बल दिया गया है।

तन्त्र की तीन परम्परायें

तन्त्र की तीन परम्परायें मानी जाती हैं –

  • शैव आगम या शैव तन्त्र,
  • वैष्णव संहितायें, तथा
  • शाक्त तन्त्र

शैव आगम

शैव आगमों की चार विचारधारायें हैं –

भारतीय परम्परा में आगमों का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन मन्दिरों, प्रतिमाओं, भवनों, एवं धार्मिक-आध्यात्मिक विधियों का निर्धारण इनके द्वारा हुआ है।

शैव सिद्धान्त

प्राचीन तौर पर शैव सिद्धान्त के अन्तर्गत 28 आगम तथा 150 उपागमों को माना गया है।

शैव सिद्धान्त के अनुसार सैद्धान्तिक रूप से शिव ही केवल चेतन तत्त्व हैं तथा प्रकृति जड़ तत्त्व है। शिव का मूलाधार शक्ति ही है। शक्ति के द्वारा ही बन्धन एवं मोक्ष प्राप्त होता है।

कश्मीरी शैवदर्शन

प्रमुख ग्रन्थ शिवसूत्र है। इसमें शिव की प्रत्यभिज्ञा के द्वारा ही ज्ञान प्राप्ति को कहा गया है। जगत् शिव की अभिव्यक्ति है तथा शिव की ही शक्ति से उत्पन्न या संभव है। इस दर्शन को ‘त्रिक’ दर्शन भी कहा जाता है क्योंकि यह – शिव, शक्ति तथा जीव (पशु) तीनों के अस्तित्व को स्वीकार करता है।

वीरशैव दर्शन

इस दर्शन का महत्पूर्ण ग्रन्थ “वाचनम्” है जिससे अभिप्राय है ‘शिव की उक्ति’।

यह दर्शन पारम्परिक तथा शिव को ही पूर्णतया समस्त कारक, संहारक, सर्जक मानता है। इसमें जातिगत भेदभाव को भी नहीं माना गया है। इस दर्शन के अन्तर्गत गुरु परम्परा का विशेष महत्व है।

आगम का मुख्य लक्ष्य 'क्रिया' के ऊपर है, तथापि ज्ञान का भी विवरण यहाँ कम नहीं है। 'वाराहीतंत्र' के अनुसार आगम इन सात लक्षणों से समवित होता है : सृष्टि, स्थिति , प्रलय, देवतार्चन, सर्वसाधन, पुरश्चरण, षट्कर्म, (=शांति, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन तथा मारण) साधन तथा ध्यानयोग। 'महानिर्वाण' तंत्र के अनुसार कलियुग में प्राणी मेध्य (पवित्र) तथा अमेध्य (अपवित्र) के विचारों से बहुधा हीन होते हैं और इन्हीं के कल्याणार्थ भगवान महेश्वर ने आगमों का उपदेश पार्वती को स्वयं दिया। शैव आगम (पाशुपत, वीरशैव सिद्धांत, त्रिक आदि) द्वैत, शक्तिविशिष्टद्वैत तथा अद्वैत की दृष्टि से भी इनमें तीन भेद माने जाते हैं। आगमिक पूजा विशुद्ध तथा पवित्र भारतीय है।

२८ शैवागम सिद्धांत के रूप में विख्यात हैं। 'भैरव आगम' संख्या में चौंसठ सभी मूलत: शैवागम हैं। इनमें द्वैत भाव से लेकर परम अद्वैत भाव तक की चर्चा है। किरणागम, में लिखा है कि, विश्वसृष्टि के अनंतर परमेश्वर ने सबसे पहले महाज्ञान का संचार करने के लिये दस शैवो का प्रकट करके उनमें से प्रत्येक को उनके अविभक्त महाज्ञान का एक एक अंश प्रदान किया। इस अविभक्त महाज्ञान को ही शैवागम कहा जाता है। वेद जैसे वास्तव में एक है और अखंड महाज्ञान स्वरूप है, परंतु विभक्त होकर तीन अथवा चार रूपों में प्रकट हुआ है, उसी प्रकार मूल शिवागम भी वस्तुत: एक होने पर भी विभक्त होकर २८ आगमों के रूप में प्रसिद्व हुआ है। इन समस्त आगमधाराओं में प्रत्येक की परंपरा है।

वैष्णव संहिता

वैष्णव संहिता की दो विचारधारायें मिलती हैं – वैखानस संहिता, तथा पंचरात्र संहिता।

वैखानस संहिता – यह वैष्णव परम्परा के वैखानस विचारधारा है। वैखानस परम्परा प्राथमिक तौर पर तपस् एवं साधन परक परम्परा रही है।

पंचरात्र संहिता – पंचरात्र से अभिप्राय है – ‘पंचनिशाओं का तन्त्र’। पंचरात्र परम्परा प्रचीनतौर पर विश्व के उद्भव, सृष्टि रचना आदि के विवेचन को समाहित करती है। इसमें सांख्य तथा योग दर्शनों की मान्यताओं का समावेश दिखायी देता है। वैखानस परम्परा की अपेक्षा पंचरात्र परम्परा अधिक लोकप्रचलन में रही है। इसके 108 ग्रन्थों के होने को कहा गया है। वैष्णव परम्परा में भक्ति वादी विचारधारा के अतिरिक्त शक्ति का सिद्धान्त भी समाहित है।

शाक्त तंत्र

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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