देवनागरी भारतीय उपमहाद्वीप में प्रयुक्त प्राचीन ब्राह्मी लिपि पर आधारित बाएँ से दाएँ आबूगीदा है। यह प्राचीन भारत में पहली से चौथी शताब्दी ईस्वी तक विकसित किया गया था और ७वीं शताब्दी ईस्वी तक नियमित उपयोग में था। देवनागरी लिपि, जिसमें १४ स्वर और ३३ व्यञ्जन सहित ४७ प्राथमिक वर्ण हैं, दुनिया में चौथी सबसे व्यापक रूप से अपनाई जाने वाली लेखन प्रणाली है, जिसका उपयोग १२० से अधिक भाषाओं के लिए किया जा रहा है।
देवनागरी लिपि | |
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देवनागरी लिपि (ऊपर स्वर है, नीचे व्यंजन है) | |
प्रकार | आबूगीदा |
भाषाएँ | अपभ्रंश, अवधी, भीली, भोजपुरी, बोडो, ब्रज , छत्तीसगढ़ी, डोगरी, गढ़वाली हरियाणवी, हिंदी , हिंदुस्तानीghfg , कश्मीरी, कोंकणी,कुमाऊंनी, मगही, मैथिली, मराठी, मारवाड़ी, मुंदरी, नेवारी, नेपाली, पालि, पहाड़ी, प्राकृत, राजस्थानी, सादरी, संस्कृत, संताली, सरैकी, शेरपा, सिंधी, सूरजापुरी। |
समय अवधि | पूर्व रूप: पहली शताब्दी ई., आधुनिक रूप: १०वीं शताब्दी ई. |
जनक प्रणाली | |
बाल प्रणालियाँ | गुजराती मोड़ी |
Sister systems | नन्दिनागरी |
आईएसओ 15924 | Deva, 315 |
दिशा | बाएँ-से-दाएँ |
यूनिकोड एलियास | Devanagari |
यूनिकोड रेंज | U+0900–U+097F देवनागरी, U+A8E0–U+A8FF देवनागरी विस्तारित, U+1CD0–U+1CFF वैदिक विस्तार |
[क] ब्राह्मी लिपियों का सॅमॅटिक से मूल, सार्वभौमिक रूप से सहमत नहीं है। नोट: इस पृष्ठ पर आइपीए ध्वन्यात्मक प्रतीक हो सकते हैं। |
इस लिपि की शब्दावली भाषा के उच्चारण को दर्शाती है। रोमन लिपि के विपरीत, इस लिपि में अक्षर केस की कोई अवधारणा नहीं है। यह बाएँ से दाएँ लिखा गया है, चौकोर रूपरेखा के भीतर सममित गोल आकृतियों के लिए एक दृढ़ प्राथमिकता है, और एक क्षैतिज रेखा द्वारा पहचाना जा सकता है, जिसे शिरोरेखा के रूप में जाना जाता है, जो पूर्ण अक्षरों के शीर्ष के साथ चलती है। एक सरसरी दृष्टि में, देवनागरी लिपि अन्य भारतीय लिपियों जैसे पूर्वी नागरी लिपि या गुरमुखी लिपि से अलग दिखाई देती है, लेकिन एक निकटतम अवलोकन से पता चलता है कि वे कोण और संरचनात्मक जोर को छोड़कर बहुत समान हैं।
अधिकतर भाषाओं की तरह देवनागरी भी बायें से दायें लिखी जाती है। प्रत्येक शब्द के ऊपर एक रेखा खिंची होती है (कुछ वर्णों के ऊपर रेखा नहीं होती है) जिसे शिरोरेखा कहते हैं। देवनागरी का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। यह एक ध्वन्यात्मक लिपि है जो प्रचलित लिपियों (रोमन, अरबी, चीनी आदि) में सबसे अधिक वैज्ञानिक है। इससे वैज्ञानिक और व्यापक लिपि शायद केवल अध्वव लिपि है। भारत की कई लिपियाँ देवनागरी से बहुत अधिक मिलती-जुलती हैं, जैसे- बांग्ला, गुजराती, गुरुमुखी आदि। कम्प्यूटर प्रोग्रामों की सहायता से भारतीय लिपियों को परस्पर परिवर्तन बहुत आसान हो गया है।
भारतीय भाषाओं के किसी भी शब्द या ध्वनि को देवनागरी लिपि में ज्यों का त्यों लिखा जा सकता है और फिर लिखे पाठ को लगभग 'हू-ब-हू' उच्चारण किया जा सकता है, जो कि रोमन लिपि और अन्य कई लिपियों में सम्भव नहीं है, जब तक कि उनका विशेष मानकीकरण न किया जाये, जैसे आइट्रांस या IAST ।
इसमें कुल ५२ अक्षर हैं, जिसमें १४ स्वर और ३८ व्यंजन हैं। अक्षरों की क्रम व्यवस्था (विन्यास) भी बहुत ही वैज्ञानिक है। स्वर-व्यंजन, कोमल-कठोर, अल्पप्राण-महाप्राण, अनुनासिक्य-अन्तस्थ-उष्म इत्यादि वर्गीकरण भी वैज्ञानिक हैं। एक मत के अनुसार देवनगर (काशी) में प्रचलन के कारण इसका नाम देवनागरी पड़ा।
भारत तथा एशिया की अनेक लिपियों के संकेत देवनागरी से अलग हैं, परन्तु उच्चारण व वर्ण-क्रम आदि देवनागरी के ही समान हैं, क्योंकि वे सभी ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न हुई हैं (उर्दू को छोड़कर)। इसलिए इन लिपियों को परस्पर आसानी से लिप्यन्तरित किया जा सकता है। देवनागरी लेखन की दृष्टि से सरल, सौन्दर्य की दृष्टि से सुन्दर और वाचन की दृष्टि से सुपाठ्य है।
देवनागरी या नागरी नाम का प्रयोग "क्यों" प्रारम्भ हुआ और इसका व्युत्पत्तिपरक प्रवृत्तिनिमित्त क्या था- यह अब तक पूर्णतः निश्चित नहीं है।
(क) 'नागर' अपभ्रंश या गुजराती "नागर" ब्राह्मणों से उसका सम्बन्ध बताया गया है। पर दृढ़ प्रमाण के अभाव में यह मत सन्दिग्ध है।
(ख) दक्षिण में इसका प्राचीन नाम "नंदिनागरी" था। हो सकता है "नन्दिनागर" कोई स्थानसूचक हो और इस लिपि का उससे कुछ सम्बन्ध रहा हो।
(ग) यह भी हो सकता है कि "नागर" जन इसमें लिखा करते थे, अत: "नागरी" अभिधान पड़ा और जब संस्कृत के ग्रंथ भी इसमें लिखे जाने लगे तब "देवनागरी" भी कहा गया।
(घ) सांकेतिक चिह्नों या देवताओं की उपासना में प्रयुक्त त्रिकोण, चक्र आदि संकेतचिह्नों को "देवनागर" कहते थे। कालान्तर में नाम के प्रथमाक्षरों का उनसे बोध होने लगा और जिस लिपि में उनको स्थान मिला- वह 'देवनागरी' या 'नागरी' कही गई। इन सब पक्षों के मूल में कल्पना का प्राधान्य है, निश्चयात्मक प्रमाण अनुपलब्ध हैं।
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| डोगरी |
पहाड़ी भाषा में भी हम अधिकतम शब्द देवनागरी लिपी के नज़र आते हैं।
देवनागरी, भारत, नेपाल, तिब्बत और दक्षिण पूर्व एशिया की लिपियों के ब्राह्मी लिपि परिवार का हिस्सा है। गुजरात से कुछ अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिनकी भाषा संस्कृत है और लिपि नागरी लिपि। ये अभिलेख पहली ईसवी से लेकर चौथी ईसवी के कालखण्ड के हैं। ध्यातव्य है कि नागरी लिपि, देवनागरी से बहुत निकट है और देवनागरी का पूर्वरूप है। अतः ये अभिलेख इस बात के साक्ष्य हैं कि प्रथम शताब्दी में भी भारत में देवनागरी का उपयोग आरम्भ हो चुका था। नागरी, सिद्धम और शारदा तीनों ही ब्राह्मी की वंशज हैं। रुद्रदमन के शिलालेखों का समय प्रथम शताब्दी का समय है और इसकी लिपि की देवनागरी से निकटता पहचानी जा सकती हैं। जबकि देवनागरी का जो वर्तमान मानक स्वरूप है, वैसी देवनागरी का उपयोग १००० ई के पहले आरम्भ हो चुका था।
मध्यकाल के शिलालेखों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि नागरी से सम्बन्धित लिपियों का बड़े पैमाने पर प्रसार होने लगा था। कहीं-कहीं स्थानीय लिपि और नागरी लिपि दोनों में सूचनाएँ अंकित मिलतीं हैं। उदाहरण के लिए, ७वीं-८वीं शताब्दी के पट्टदकल्लु (मन्दिर परिसर) (कर्नाटक) के स्तम्भ पर सिद्धमात्रिका और तेलुगु-कन्नड लिपि के आरम्भिक रूप - दोनों में ही सूचना लिखी हुई है। कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) के ज्वालामुखी अभिलेख में शारदा और देवनागरी दोनों में लिखा हुआ है।
७वीं शताब्दी तक देवनागरी का नियमित रूप से उपयोग होना आरम्भ हो गया था और लगभग १००० ई तक देवनागरी का पूर्ण विकास हो गया था।
डॉ॰ द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार सर्वप्रथम देवनागरी लिपि का प्रयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट (७००-८०० ई.) के शिलालेख में मिलता है। आठवीं शताब्दी में चित्रकूट, नवीं में बड़ौदा के ध्रुवराज भी अपने राज्यादेशों में इस लिपि का उपयोग किया हैं।
७५८ ई. का राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग का सामगढ़ ताम्रपट मिलता है जिस पर देवनागरी अंकित है। शिलाहारवंश के गंडारादित्य प्रथम के उत्कीर्ण लेख की लिपि देवनागरी है। इसका समय बारहवीं शताब्दी हैं। ग्यारहवीं शताब्दी के चोलराजा राजेन्द्र के सिक्के मिले हैं जिन पर देवनागरी लिपि अंकित है। राष्ट्रकूट राजा इंद्रराज (दसवीं शताब्दी) के लेख में भी देवनागरी का व्यवहार किया है। प्रतिहार राजा महेंद्रपाल (८९१-९०७) का दानपत्र भी देवनागरी लिपि में है।
कनिंघम की पुस्तक में सबसे प्राचीन मुसलमानों सिक्के के रूप में महमूद गजनवी द्वारा चलाये गए चांदी के सिक्के का वर्णन है जिस पर देवनागरी लिपि में संस्कृत अंकित है। मुहम्मद विनसाम (११९२-१२०५) के सिक्कों पर लक्ष्मी की मूर्ति के साथ देवनागरी लिपि का व्यवहार हुआ है। शम्सुद्दीन इल्तुतमिश (१२१०-१२३५) के सिक्कों पर भी देवनागरी अंकित है। सानुद्दीन फिरोजशाह प्रथम, जलालुद्दीन रज़िया, बहराम शाह, अलाऊद्दीन मसूदशाह, नासिरुद्दीन महमूद, मुईजुद्दीन, गयासुद्दीन बलवन, मुईजुद्दीन कैकूबाद, जलालुद्दीन हीरो सानी, अलाउद्दीन महमद शाह आदि ने अपने सिक्कों पर देवनागरी अक्षर अंकित किये हैं। अकबर के सिक्कों पर देवनागरी में ‘राम‘ सिया का नाम अंकित है। गयासुद्दीन तुग़लक़, शेरशाह सूरी, इस्लाम शाह, मुहम्मद आदिलशाह, गयासुद्दीन इब्ज, ग्यासुद्दीन सानी आदि ने भी इसी परम्परा का पालन किया।
भाषावैज्ञानिक दृष्टि से देवनागरी लिपि अक्षरात्मक (सिलेबिक) लिपि मानी जाती है। लिपि के विकाससोपानों की दृष्टि से "चित्रात्मक", "भावात्मक" और "भावचित्रात्मक" लिपियों के अनंतर "अक्षरात्मक" स्तर की लिपियों का विकास माना जाता है। पाश्चात्य और अनेक भारतीय भाषाविज्ञानविज्ञों के मत से लिपि की अक्षरात्मक अवस्था के बाद अल्फाबेटिक (वर्णात्मक) अवस्था का विकास हुआ। सबसे विकसित अवस्था मानी गई है ध्वन्यात्मक(फोनेटिक) लिपि की। "देवनागरी" को अक्षरात्मक इसलिए कहा जाता है कि इसके वर्ण- अक्षर (सिलेबिल) हैं- स्वर भी और व्यंजन भी। "क", "ख" आदि व्यंजन सस्वर हैं- अकारयुक्त हैं। वे केवल ध्वनियाँ नहीं हैं अपितु सस्वर अक्षर हैं। अत: ग्रीक, रोमन आदि वर्णमालाएँ हैं। परंतु यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि भारत की "ब्राह्मी" या "भारती" वर्णमाला की ध्वनियों में व्यंजनों का "पाणिनि" ने वर्णसमाम्नाय के १४ सूत्रों में जो स्वरूप परिचय दिया है- उसके विषय में "पतंजलि" (द्वितीय शताब्दी ई.पू.) ने यह स्पष्ट बता दिया है कि व्यंजनों में संनियोजित "अकार" स्वर का उपयोग केवल उच्चारण के उद्देश्य से है। वह तत्वतः वर्ण का अंग नहीं है। इस दृष्टि से विचार करते हुए कहा जा सकता है कि इस लिपि की वर्णमाला तत्वतः ध्वन्यात्मक है, अक्षरात्मक नहीं।
Writen By:- Dev Chouhan
देवनागरी की वर्णमाला में १२ स्वर और ३४ व्यञ्जन हैं। शून्य या एक या अधिक व्यञ्जनों और एक स्वर के मेल से एक अक्षर बनता है।
निम्नलिखित स्वर आधुनिक हिन्दी (खड़ी बोली) के लिये दिए गए हैं। संस्कृत में इनके उच्चारण थोड़े अलग होते हैं।
वर्णाक्षर | “प” के साथ मात्रा | IPA उच्चारण | "प्" के साथ उच्चारण | IAST समतुल्य | हिन्दी में वर्णन |
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अ | प | / ə / | / pə / | a | बीच का मध्य प्रसृत स्वर |
आ | पा | / αː / या / aː / | / pɑː / या /paː/ | ā | दीर्घ विवृत पश्व प्रसृत स्वर |
इ | पि | / ɪ / | / pɪ / | i | ह्रस्व संवृत अग्र प्रसृत स्वर |
ई | पी | / iː / | / piː / | ī | दीर्घ संवृत अग्र प्रसृत स्वर |
उ | पु | / ʊ / | / pʊ / | u | ह्रस्व संवृत पश्व वर्तुल स्वर |
ऊ | पू | / uː / | / puː / | ū | दीर्घ संवृत पश्व वर्तुल स्वर |
ए | पे | / e: / | / pe: / | e | दीर्घ अर्धसंवृत अग्र प्रसृत स्वर |
ऐ | पै | / ɛ: / | / pɛ: / | ai | दीर्घ लगभग-विवृत अग्र प्रसृत स्वर |
ओ | पो | / ο: / | / pο: / | o | दीर्घ अर्धसंवृत पश्व वर्तुल स्वर |
औ | पौ | / ɔ: / | / pɔ: / | au | दीर्घ अर्धविवृत पश्व वर्तुल स्वर |
संस्कृत में ऐ दो स्वरों का युग्म होता है और "अ–इ" या "आ-इ" की तरह बोला जाता है। इसी तरह औ "अ-उ" या "आ-उ" की तरह बोला जाता है।
इसके अलावा हिन्दी और संस्कृत में
जब किसी स्वर प्रयोग नहीं हो, तो वहाँ पर 'अ' (अर्थात श्वा का स्वर) माना जाता है। स्वर के न होने को हलन्त् अथवा विराम से दर्शाया जाता है। जैसे कि क् ख् ग् घ्। जिन वर्णो को बोलने के लिए स्वर की सहायता लेनी पड़ती है उन्हें व्यञ्जन कहते है। दूसरे शब्दो में- व्यञ्जन उन वर्णों को कहते हैं, जिनके उच्चारण में स्वर वर्णों की सहायता ली जाती है।
अल्पप्राण अघोष | महाप्राण अघोष | अल्पप्राण घोष | महाप्राण घोष | नासिक्य | |
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कण्ठ्य | क / kə / | ख /khə/ | ग / gə / | घ /gɦə/ | ङ /ŋə/ |
तालव्य | च / tʃə / | छ /tʃhə/ | ज /dʒə/ | झ /dʒɦə/ | ञ /ɲə/ |
मूर्धन्य | ट / ʈə / | ठ /ʈhə/ | ड / ɖə / | ढ /ɖɦə/ | ण /ɳə/ |
दन्त्य | त / t̪ə / | थ /t̪hə/ | द / d̪ə / | ध /d̪ɦə/ | न /nə/ |
ओष्ठ्य | प / pə / | फ /phə/ | ब / bə / | भ /bɦə/ | म /mə/ |
तालव्य | मूर्धन्य | दन्त्य/ वर्त्स्य | कण्ठोष्ठ्य/ काकल्य | |
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अन्तस्थ | य /jə/ | र / ɾə / | ल /lə/ | व / ʋə / |
ऊष्म/ संघर्षी | श /ʃə/ | ष /ʂə/ | स /sə/ | ह / ɦə / या / hə / |
हिन्दी भाषा में मुख्यतः अरबी और फ़ारसी भाषाओं से आये शब्दों को देवनागरी में लिखने के लिये कुछ वर्णों के नीचे नुक़्ता (बिन्दु) लगे वर्णों का प्रयोग किया जाता है (जैसे क़, ज़ आदि)। किन्तु हिन्दी में भी अधिकांश लोग नुक्तों का प्रयोग नहीं करते। इसके अलावा संस्कृत, मराठी, नेपाली एवं अन्य भाषाओं को देवनागरी में लिखने में भी नुक्तों का प्रयोग नहीं किया जाता है।
वर्णाक्षर (अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला उच्चारण) | उदाहरण | हिन्दी में वर्णन | अंग्रेज़ी में वर्णन | अशुद्ध उच्चारण |
क़ (/q/) | क़त्ल | अघोष अलिजिह्वीय स्पर्श | Voiceless uvular stop | क (/k/) |
ख़ (/x or χ/) | ख़रीद | अघोष अलिजिह्वीय या कण्ठ्य संघर्षी | Voiceless uvular or velar fricative | ख (/kh/) |
ग़ (/ɣ or ʁ/) | ग़ैर | घोष अलिजिह्वीय या कण्ठ्य संघर्षी | Voiced uvular or velar fricative | ग (/g/) |
ज़ (/z/) | ज़िन्दगी | घोष वर्त्स्य संघर्षी | Voiced alveolar fricative | ज (/dʒ/) |
झ़ (/ʒ/) | अझ़दहा | घोष तालव्य संघर्षी | Voiced palatal fricative | ज (/dʒ/) |
ड़ (/ ɽ /) | पेड़ | अल्पप्राण मूर्धन्य उत्क्षिप्त | Unaspirated retroflex flap | - |
ढ़ (/ɽh/) | पढ़ना | महाप्राण मूर्धन्य उत्क्षिप्त | Aspirated retroflex flap | - |
थ़ (/θ/) | अथ़्रू | अघोष दन्त्य संघर्षी | Voiceless dental fricative | थ (/t̪h/) |
द़ (/ð/) | अद़ान | घोष दन्त्य संघर्षी | Voiced dental fricative | द (/d̪/) |
फ़ (/f/) | फ़र्क़ | अघोष दन्त्यौष्ठ्य संघर्षी | Voiceless labio-dental fricative | फ (/ph/) |
ब़ (/v/) | केलेब़ | घोष दन्त्यौष्ठ्य संघर्षी | Voiced labio-dental fricative | ब (/b/) |
य़ (/yʰ/) | फुलाय़ | घोष दन्त्यौष्ठ्य संघर्षी | Voiced labio-dental fricative | य (/y/) |
थ़ का प्रयोग मुख्यतः पहाड़ी भाषाओँ में होता है जैसे की डोगरी (की उत्तरी उपभाषाओं) में "आँसू" के लिए शब्द है "अथ़्रू"। हिन्दी में ड़ और ढ़ व्यञ्जन फ़ारसी या अरबी से नहीं लिए गए हैं, न ही ये संस्कृत में पाये जाये हैं। असल में ये संस्कृत के साधारण ड/ट और ढ/ठ के बदले हुए रूप हैं।
प्रतीक | नाम | कार्य |
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। | डण्डा / खड़ी पाई / पूर्ण विराम | वाक्य का अन्त बताने के लिए |
॥ | दोहरा डण्डा | |
॰ | लाघव चिह्न | संक्षिप्तीकरण के लिये, जैसे मो॰ क॰ गाँधी |
ॐ | प्रणव , ओम | हिन्दू धर्म का शुभ शब्द |
प॑ | उदात्त | उच्चारण बताने के लिए वैदिक संस्कृत के कुछ ग्रन्थों में प्रयुक्त |
प॒ | अनुदात्त | उच्चारण बताने के लिए वैदिक संस्कृत के कुछ ग्रन्थों में प्रयुक्त |
देवनागरी अङ्क निम्न रूप में लिखे जाते हैं :
० | १ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ |
देवनागरी लिपि में दो व्यञ्जन का संयुक्ताक्षर निम्न रूप में लिखा जाता है :
क | ख | ग | घ | ङ | च | छ | ज | झ | ञ | ट | ठ | ड | ढ | ण | त | थ | द | ध | न | प | फ | ब | भ | म | य | र | ल | व | श | ष | स | ह | ळ | |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
क | क्क | क्ख | क्ग | क्घ | क्ङ | क्च | क्छ | क्ज | क्झ | क्ञ | क्ट | क्ठ | क्ड | क्ढ | क्ण | क्त | क्थ | क्द | क्ध | क्न | क्प | क्फ | क्ब | क्भ | क्म | क्य | क्र | क्ल | क्व | क्श | क्ष | क्स | क्ह | क्ळ |
ख | ख्क | ख्ख | ख्ग | ख्घ | ख्ङ | ख्च | ख्छ | ख्ज | ख्झ | ख्ञ | ख्ट | ख्ठ | ख्ड | ख्ढ | ख्ण | ख्त | ख्थ | ख्द | ख्ध | ख्न | ख्प | ख्फ | ख्ब | ख्भ | ख्म | ख्य | ख्र | ख्ल | ख्व | ख्श | ख्ष | ख्स | ख्ह | ख्ळ |
ग | ग्क | ग्ख | ग्ग | ग्घ | ग्ङ | ग्च | ग्छ | ग्ज | ग्झ | ग्ञ | ग्ट | ग्ठ | ग्ड | ग्ढ | ग्ण | ग्त | ग्थ | ग्द | ग्ध | ग्न | ग्प | ग्फ | ग्ब | ग्भ | ग्म | ग्य | ग्र | ग्ल | ग्व | ग्श | ग्ष | ग्स | ग्ह | ग्ळ |
घ | घ्क | घ्ख | घ्ग | घ्घ | घ्ङ | घ्च | घ्छ | घ्ज | घ्झ | घ्ञ | घ्ट | घ्ठ | घ्ड | घ्ढ | घ्ण | घ्त | घ्थ | घ्द | घ्ध | घ्न | घ्प | घ्फ | घ्ब | घ्भ | घ्म | घ्य | घ्र | घ्ल | घ्व | घ्श | घ्ष | घ्स | घ्ह | घ्ळ |
ङ | ङ्क | ङ्ख | ङ्ग | ङ्घ | ङ्ङ | ङ्च | ङ्छ | ङ्ज | ङ्झ | ङ्ञ | ङ्ट | ङ्ठ | ङ्ड | ङ्ढ | ङ्ण | ङ्त | ङ्थ | ङ्द | ङ्ध | ङ्न | ङ्प | ङ्फ | ङ्ब | ङ्भ | ङ्म | ङ्य | ङ्र | ङ्ल | ङ्व | ङ्श | ङ्ष | ङ्स | ङ्ह | ङ्ळ |
च | च्क | च्ख | च्ग | च्घ | च्ङ | च्च | च्छ | च्ज | च्झ | च्ञ | च्ट | च्ठ | च्ड | च्ढ | च्ण | च्त | च्थ | च्द | च्ध | च्न | च्प | च्फ | च्ब | च्भ | च्म | च्य | च्र | च्ल | च्व | च्श | च्ष | च्स | च्ह | च्ळ |
छ | छ्क | छ्ख | छ्ग | छ्घ | छ्ङ | छ्च | छ्छ | छ्ज | छ्झ | छ्ञ | छ्ट | छ्ठ | छ्ड | छ्ढ | छ्ण | छ्त | छ्थ | छ्द | छ्ध | छ्न | छ्प | छ्फ | छ्ब | छ्भ | छ्म | छ्य | छ्र | छ्ल | छ्व | छ्श | छ्ष | छ्स | छ्ह | छ्ळ |
ज | ज्क | ज्ख | ज्ग | ज्घ | ज्ङ | ज्च | ज्छ | ज्ज | ज्झ | ज्ञ | ज्ट | ज्ठ | ज्ड | ज्ढ | ज्ण | ज्त | ज्थ | ज्द | ज्ध | ज्न | ज्प | ज्फ | ज्ब | ज्भ | ज्म | ज्य | ज्र | ज्ल | ज्व | ज्श | ज्ष | ज्स | ज्ह | ज्ळ |
झ | झ्क | झ्ख | झ्ग | झ्घ | झ्ङ | झ्च | झ्छ | झ्ज | झ्झ | झ्ञ | झ्ट | झ्ठ | झ्ड | झ्ढ | झ्ण | झ्त | झ्थ | झ्द | झ्ध | झ्न | झ्प | झ्फ | झ्ब | झ्भ | झ्म | झ्य | झ्र | झ्ल | झ्व | झ्श | झ्ष | झ्स | झ्ह | झ्ळ |
ञ | ञ्क | ञ्ख | ञ्ग | ञ्घ | ञ्ङ | ञ्च | ञ्छ | ञ्ज | ञ्झ | ञ्ञ | ञ्ट | ञ्ठ | ञ्ड | ञ्ढ | ञ्ण | ञ्त | ञ्थ | ञ्द | ञ्ध | ञ्न | ञ्प | ञ्फ | ञ्ब | ञ्भ | ञ्म | ञ्य | ञ्र | ञ्ल | ञ्व | ञ्श | ञ्ष | ञ्स | ञ्ह | ञ्ळ |
ट | ट्क | ट्ख | ट्ग | ट्घ | ट्ङ | ट्च | ट्छ | ट्ज | ट्झ | ट्ञ | ट्ट | ट्ठ | ट्ड | ट्ढ | ट्ण | ट्त | ट्थ | ट्द | ट्ध | ट्न | ट्प | ट्फ | ट्ब | ट्भ | ट्म | ट्य | ट्र | ट्ल | ट्व | ट्श | ट्ष | ट्स | ट्ह | ट्ळ |
ठ | ठ्क | ठ्ख | ठ्ग | ठ्घ | ठ्ङ | ठ्च | ठ्छ | ठ्ज | ठ्झ | ठ्ञ | ठ्ट | ठ्ठ | ठ्ड | ठ्ढ | ठ्ण | ठ्त | ठ्थ | ठ्द | ठ्ध | ठ्न | ठ्प | ठ्फ | ठ्ब | ठ्भ | ठ्म | ठ्य | ठ्र | ठ्ल | ठ्व | ठ्श | ठ्ष | ठ्स | ठ्ह | ठ्ळ |
ड | ड्क | ड्ख | ड्ग | ड्घ | ड्ङ | ड्च | ड्छ | ड्ज | ड्झ | ड्ञ | ड्ट | ड्ठ | ड्ड | ड्ढ | ड्ण | ड्त | ड्थ | ड्द | ड्ध | ड्न | ड्प | ड्फ | ड्ब | ड्भ | ड्म | ड्य | ड्र | ड्ल | ड्व | ड्श | ड्ष | ड्स | ड्ह | ड्ळ |
ढ | ढ्क | ढ्ख | ढ्ग | ढ्घ | ढ्ङ | ढ्च | ढ्छ | ढ्ज | ढ्झ | ढ्ञ | ढ्ट | ढ्ठ | ढ्ड | ढ्ढ | ढ्ण | ढ्त | ढ्थ | ढ्द | ढ्ध | ढ्न | ढ्प | ढ्फ | ढ्ब | ढ्भ | ढ्म | ढ्य | ढ्र | ढ्ल | ढ्व | ढ्श | ढ्ष | ढ्स | ढ्ह | ढ्ळ |
ण | ण्क | ण्ख | ण्ग | ण्घ | ण्ङ | ण्च | ण्छ | ण्ज | ण्झ | ण्ञ | ण्ट | ण्ठ | ण्ड | ण्ढ | ण्ण | ण्त | ण्थ | ण्द | ण्ध | ण्न | ण्प | ण्फ | ण्ब | ण्भ | ण्म | ण्य | ण्र | ण्ल | ण्व | ण्श | ण्ष | ण्स | ण्ह | ण्ळ |
त | त्क | त्ख | त्ग | त्घ | त्ङ | त्च | त्छ | त्ज | त्झ | त्ञ | त्ट | त्ठ | त्ड | त्ढ | त्ण | त्त | त्थ | त्द | त्ध | त्न | त्प | त्फ | त्ब | त्भ | त्म | त्य | त्र | त्ल | त्व | त्श | त्ष | त्स | त्ह | त्ळ |
थ | थ्क | थ्ख | थ्ग | थ्घ | थ्ङ | थ्च | थ्छ | थ्ज | थ्झ | थ्ञ | थ्ट | थ्ठ | थ्ड | थ्ढ | थ्ण | थ्त | थ्थ | थ्द | थ्ध | थ्न | थ्प | थ्फ | थ्ब | थ्भ | थ्म | थ्य | थ्र | थ्ल | थ्व | थ्श | थ्ष | थ्स | थ्ह | थ्ळ |
द | द्क | द्ख | द्ग | द्घ | द्ङ | द्च | द्छ | द्ज | द्झ | द्ञ | द्ट | द्ठ | द्ड | द्ढ | द्ण | द्त | द्थ | द्द | द्ध | द्न | द्प | द्फ | द्ब | द्भ | द्म | द्य | द्र | द्ल | द्व | द्श | द्ष | द्स | द्ह | द्ळ |
ध | ध्क | ध्ख | ध्ग | ध्घ | ध्ङ | ध्च | ध्छ | ध्ज | ध्झ | ध्ञ | ध्ट | ध्ठ | ध्ड | ध्ढ | ध्ण | ध्त | ध्थ | ध्द | ध्ध | ध्न | ध्प | ध्फ | ध्ब | ध्भ | ध्म | ध्य | ध्र | ध्ल | ध्व | ध्श | ध्ष | ध्स | ध्ह | ध्ळ |
न | न्क | न्ख | न्ग | न्घ | न्ङ | न्च | न्छ | न्ज | न्झ | न्ञ | न्ट | न्ठ | न्ड | न्ढ | न्ण | न्त | न्थ | न्द | न्ध | न्न | न्प | न्फ | न्ब | न्भ | न्म | न्य | न्र | न्ल | न्व | न्श | न्ष | न्स | न्ह | न्ळ |
प | प्क | प्ख | प्ग | प्घ | प्ङ | प्च | प्छ | प्ज | प्झ | प्ञ | प्ट | प्ठ | प्ड | प्ढ | प्ण | प्त | प्थ | प्द | प्ध | प्न | प्प | प्फ | प्ब | प्भ | प्म | प्य | प्र | प्ल | प्व | प्श | प्ष | प्स | प्ह | प्ळ |
फ | फ्क | फ्ख | फ्ग | फ्घ | फ्ङ | फ्च | फ्छ | फ्ज | फ्झ | फ्ञ | फ्ट | फ्ठ | फ्ड | फ्ढ | फ्ण | फ्त | फ्थ | फ्द | फ्ध | फ्न | फ्प | फ्फ | फ्ब | फ्भ | फ्म | फ्य | फ्र | फ्ल | फ्व | फ्श | फ्ष | फ्स | फ्ह | फ्ळ |
ब | ब्क | ब्ख | ब्ग | ब्घ | ब्ङ | ब्च | ब्छ | ब्ज | ब्झ | ब्ञ | ब्ट | ब्ठ | ब्ड | ब्ढ | ब्ण | ब्त | ब्थ | ब्द | ब्ध | ब्न | ब्प | ब्फ | ब्ब | ब्भ | ब्म | ब्य | ब्र | ब्ल | ब्व | ब्श | ब्ष | ब्स | ब्ह | ब्ळ |
भ | भ्क | भ्ख | भ्ग | भ्घ | भ्ङ | भ्च | भ्छ | भ्ज | भ्झ | भ्ञ | भ्ट | भ्ठ | भ्ड | भ्ढ | भ्ण | भ्त | भ्थ | भ्द | भ्ध | भ्न | भ्प | भ्फ | भ्ब | भ्भ | भ्म | भ्य | भ्र | भ्ल | भ्व | भ्श | भ्ष | भ्स | भ्ह | भ्ळ |
म | म्क | म्ख | म्ग | म्घ | म्ङ | म्च | म्छ | म्ज | म्झ | म्ञ | म्ट | म्ठ | म्ड | म्ढ | म्ण | म्त | म्थ | म्द | म्ध | म्न | म्प | म्फ | म्ब | म्भ | म्म | म्य | म्र | म्ल | म्व | म्श | म्ष | म्स | म्ह | म्ळ |
य | य्क | य्ख | य्ग | य्घ | य्ङ | य्च | य्छ | य्ज | य्झ | य्ञ | य्ट | य्ठ | य्ड | य्ढ | य्ण | य्त | य्थ | य्द | य्ध | य्न | य्प | य्फ | य्ब | य्भ | य्म | य्य | य्र | य्ल | य्व | य्श | य्ष | य्स | य्ह | य्ळ |
र | र्क | र्ख | र्ग | र्घ | र्ङ | र्च | र्छ | र्ज | र्झ | र्ञ | र्ट | र्ठ | र्ड | र्ढ | र्ण | र्त | र्थ | र्द | र्ध | र्न | र्प | र्फ | र्ब | र्भ | र्म | र्य | र्र | र्ल | र्व | र्श | र्ष | र्स | र्ह | र्ळ |
ल | ल्क | ल्ख | ल्ग | ल्घ | ल्ङ | ल्च | ल्छ | ल्ज | ल्झ | ल्ञ | ल्ट | ल्ठ | ल्ड | ल्ढ | ल्ण | ल्त | ल्थ | ल्द | ल्ध | ल्न | ल्प | ल्फ | ल्ब | ल्भ | ल्म | ल्य | ल्र | ल्ल | ल्व | ल्श | ल्ष | ल्स | ल्ह | ल्ळ |
व | व्क | व्ख | व्ग | व्घ | व्ङ | व्च | व्छ | व्ज | व्झ | व्ञ | व्ट | व्ठ | व्ड | व्ढ | व्ण | व्त | व्थ | व्द | व्ध | व्न | व्प | व्फ | व्ब | व्भ | व्म | व्य | व्र | व्ल | व्व | व्श | व्ष | व्स | व्ह | व्ळ |
श | श्क | श्ख | श्ग | श्घ | श्ङ | श्च | श्छ | श्ज | श्झ | श्ञ | श्ट | श्ठ | श्ड | श्ढ | श्ण | श्त | श्थ | श्द | श्ध | श्न | श्प | श्फ | श्ब | श्भ | श्म | श्य | श्र | श्ल | श्व | श्श | श्ष | श्स | श्ह | श्ळ |
ष | ष्क | ष्ख | ष्ग | ष्घ | ष्ङ | ष्च | ष्छ | ष्ज | ष्झ | ष्ञ | ष्ट | ष्ठ | ष्ड | ष्ढ | ष्ण | ष्त | ष्थ | ष्द | ष्ध | ष्न | ष्प | ष्फ | ष्ब | ष्भ | ष्म | ष्य | ष्र | ष्ल | ष्व | ष्श | ष्ष | ष्स | ष्ह | ष्ळ |
स | स्क | स्ख | स्ग | स्घ | स्ङ | स्च | स्छ | स्ज | स्झ | स्ञ | स्ट | स्ठ | स्ड | स्ढ | स्ण | स्त | स्थ | स्द | स्ध | स्न | स्प | स्फ | स्ब | स्भ | स्म | स्य | स्र | स्ल | स्व | स्श | स्ष | स्स | स्ह | स्ळ |
ह | ह्क | ह्ख | ह्ग | ह्घ | ह्ङ | ह्च | ह्छ | ह्ज | ह्झ | ह्ञ | ह्ट | ह्ठ | ह्ड | ह्ढ | ह्ण | ह्त | ह्थ | ह्द | ह्ध | ह्न | ह्प | ह्फ | ह्ब | ह्भ | ह्म | ह्य | ह्र | ह्ल | ह्व | ह्श | ह्ष | ह्स | ह्ह | ह्ळ |
ळ | ळ्क | ळ्ख | ळ्ग | ळ्घ | ळ्ङ | ळ्च | ळ्छ | ळ्ज | ळ्झ | ळ्ञ | ळ्ट | ळ्ठ | ळ्ड | ळ्ढ | ळ्ण | ळ्त | ळ्थ | ळ्द | ळ्ध | ळ्न | ळ्प | ळ्फ | ळ्ब | ळ्भ | ळ्म | ळ्य | ळ्र | ळ्ल | ळ्व | ळ्श | ळ्ष | ळ्स | ळ्ह | ळ्ळ |
ब्राह्मी परिवार की लिपियों में देवनागरी लिपि में सबसे अधिक संयुक्ताक्षर समर्थित हैं। डिजिटन उपकरणों पर छन्दस फॉण्ट देवनागरी में बहुत संयुक्ताक्षर समर्थन हैं।
पुराने समय में प्रयुक्त हुई जाने वाली देवनागरी के कुछ वर्ण आधुनिक देवनागरी से भिन्न हैं।
आधुनिक देवनागरी | पुरानी देवनागरी |
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आचार्य विनोबा भावे संसार की अनेक लिपियों के जानकार थे। उनकी स्पष्ट धारणा थी कि देवनागरी लिपि भारत ही नहीं, संसार की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है। अगर भारत की सब भाषाओं के लिए इसका व्यवहार चल पड़े तो सारे भारतीय एक दूसरे के बिल्कुल नजदीक आ जाएंगे। हिंदुस्तान की एकता में देवनागरी लिपि हिंदी से ही अधिक उपयोगी हो सकती है। अनन्त शयनम् अयंगार तो दक्षिण भारतीय भाषाओं के लिए भी देवनागरी की संभावना स्वीकार करते थे। सेठ गोविन्ददास इसे राष्ट्रीय लिपि घोषित करने के पक्ष में थे।
बहुत से लोगों का विचार है कि भारत में अनेकों भाषाएँ होना कोई समस्या नहीं है जबकि उनकी लिपियाँ अलग-अलग होना बहुत बड़ी समस्या है। न्यायमूर्ति शारदा चरण मित्र (१८४८ - १९१७) ने भारत जैसे विशाल बहुभाषा-भाषी और बहुजातीय राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने के उद्देश्य से ‘एक लिपि विस्तार परिषद‘ की स्थापना की थी और परिषद की ओर से १९०७ में ‘देवनागर‘ नामक मासिक पत्र निकाला था जो बीच में कुछ व्यवधान के बावजूद उनके जीवन पर्यन्त अर्थात् सन् १९१७ तक निकलता रहा।
गांधीजी ने १९४० में गुजराती भाषा की एक पुस्तक को देवनागरी लिपि में छपवाया और इसका उद्देश्य बताया था कि मेरा सपना है कि संस्कृत से निकली हर भाषा की लिपि देवनागरी हो।
इसी प्रकार विनोबा भावे का विचार था कि-
बौद्ध संस्कृति से प्रभावित क्षेत्र नागरी के लिए नया नहीं है। चीन और जापान चित्रलिपि का व्यवहार करते हैं। इन चित्रों की संख्या बहुत अधिक होने के कारण भाषा सीखने में बहुत कठिनाई होती है। देववाणी की वाहिका होने के नाते देवनागरी भारत की सीमाओं से बाहर निकलकर चीन और जापान के लिए भी समुचित विकल्प दे सकती है। भारतीय मूल के लोग संसार में जहां-जहां भी रहते हैं, वे देवनागरी से परिचय रखते हैं, विशेषकर मारीशस, सूरीनाम, फिजी, गुयाना, त्रिनिदाद, टोबैगो आदि के लोग। इस तरह देवनागरी लिपि न केवल भारत के अंदर सारे प्रांतवासियों को प्रेम-बंधन में बांधकर सीमोल्लंघन कर दक्षिण-पूर्व एशिया के पुराने वृहत्तर भारतीय परिवार को भी ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय‘ अनुप्राणित कर सकती है तथा विभिन्न देशों को एक अधिक सुचारू और वैज्ञानिक विकल्प प्रदान कर ‘विश्व नागरी‘ की पदवी का दावा इक्कीसवीं सदी में कर सकती है। उस पर प्रसार लिपिगत साम्राज्यवाद और शोषण का माध्यम न होकर सत्य, अहिंसा, त्याग, संयम जैसे उदात्त मानवमूल्यों का संवाहक होगा, असत् से सत्, तमस् से ज्योति तथा मृत्यु से अमरता की दिशा में।देवनागरी एक भारतीय लिपि है जिसमें अनेक भारतीय भाषाएँ तथा कई विदेशी भाषाएँ लिखी जाती हैं। यह बायें से दायें लिखी जाती है। इसकी पहचान एक क्षैतिज रेखा से है जिसे ‘शिरोरेखा’ कहते हैं। संस्कृत, पालि, हिन्दी, मराठी, कोङ्कणी, सिन्धी, कश्मीरी, हरियाणवी डोगरी, खस, नेपाल भाषा (तथा अन्य नेपाली भाषाएँ), तमाङ्ग भाषा, गढ़वाली, बोडो, अङ्गिका, मगही, भोजपुरी, नागपुरी, मैथिली, सन्थाली, राजस्थानी बघेली आदि भाषाएँ और स्थानीय बोलियाँ भी देवनागरी में लिखी जाती हैं।
इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पञ्जाबी, बिष्णुपुरिया मणिपुरी, रोमानी और उर्दू भाषाएँ भी देवनागरी में लिखी जाती हैं। देवनागरी विश्व में सर्वाधिक प्रयुक्त लिपियों में से एक है। यह दक्षिण एशिया की १७० से अधिक भाषाओं को लिखने के लिए प्रयुक्त हो रही है।
दुनिया की कई भाषाओं के लिये देवनागरी सबसे अच्छा विकल्प हो सकती है क्योंकि यह यह बोलने की पूरी आजादी देता है। दुनिया की और किसी भी लिपि में यह नहीं हो सकता है। इन्डोनेशिया, विएतनाम, अफ्रीका आदि के लिये तो यही सबसे सही रहेगा। अष्टाध्यायी को देखकर कोई भी समझ सकता है की दुनिया में इससे अच्छी कोई भी लिपि नहीं है। अगर दुनिया पक्षपातरहित हो तो देवनागरी ही दुनिया की सर्वमान्य लिपि होगी क्योंकि यह पूर्णत: वैज्ञानिक है। अंग्रेजी भाषा में वर्तनी (स्पेलिंग) की विकराल समस्या के कारगर समाधान के लिये देवनागरी पर आधारित देवग्रीक लिपि प्रस्तावित की गयी है।
देवनागरी का विकास उस युग में हुआ था जब लेखन हाथ से किया जाता था और लेखन के लिए शिलाएँ, ताड़पत्र, चर्मपत्र, भोजपत्र, ताम्रपत्र आदि का ही प्रयोग होता था। किन्तु लेखन प्रौद्योगिकी ने बहुत अधिक विकास किया और प्रिन्टिंग प्रेस, टाइपराइटर आदि से होते हुए वह कम्प्यूटर युग में पहुँच गयी है जहाँ बोलकर भी लिखना सम्भव हो गया है। जब प्रिंटिंग एवं टाइपिंग का युग आया तो देवनागरी के यंत्रीकरण में कुछ अतिरिक्त समस्याएँ सामने आयीं जो रोमन में नहीं थीं। उदाहरण के लिए रोमन टाइपराइटर में अपेक्षाकृत कम कुंजियों की आवश्यकता पड़ती थी। देवनागरी में संयुक्ताक्षर की अवधारणा होने से भी बहुत अधिक कुंजियों की आवश्यकता पड़ रही थी। ध्यातव्य है कि ये समस्याएँ केवल देवनागरी में नहीं थी बल्कि रोमन और सिरिलिक को छोड़कर लगभग सभी लिपियों में थी। चीनी और उस परिवार की अन्य लिपियों में तो यह समस्या अपने गम्भीरतम रूप में थी।
इन सामयिक समस्याओं को ध्यान में रखते हुए अनेक विद्वानों और मनीषियों ने देवनागरी के सरलीकरण और मानकीकरण पर विचार किया और अपने सुझाव दिए। इनमें से अनेक सुझावों को क्रियान्वित नहीं किया जा सका या उन्हें अस्वीकार कर दिया गया। कहने की आवश्यकता नहीं है कि कम्प्यूटर युग आने से (या प्रिंटिंग की नई तकनीकी आने से) देवनागरी से सम्बन्धित सारी समस्याएँ स्वयं समाप्त हों गयीं।
भारत के स्वाधीनता आंदोलनों में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त होने के बाद लिपि के विकास व मानकीकरण हेतु कई व्यक्तिगत एवं संस्थागत प्रयास हुए। सर्वप्रथम बम्बई के महादेव गोविन्द रानडे ने एक लिपि सुधार समिति का गठन किया। तदनन्तर महाराष्ट्र साहित्य परिषद पुणे ने सुधार योजना तैयार की। सन १९०४ में बाल गंगाधर तिलक ने अपने केसरी पत्र में देवनागरी लिपि के सुधार की चर्चा की। प्रिणामस्वरूप देवनागरी के टाइपों की संख्या १९० निर्धारित की गयी और इन्हें 'केसरी टाइप' कहा गया।
आगे चलकर सावरकर बंधुओं ने 'अ' की बारहखड़ी प्रयिग करने का सुझाव दिया ( अर्थात् 'ई' न लिखकर अ पर बड़ी ई की मात्रा लगायी जाय)। डॉ गोरख प्रसाद ने सुझाव दिया कि मात्राओं को व्यंजन के बाद दाहिने तरफ अलग से रखा जाय। डॉ. श्यामसुन्दर दास ने अनुस्वार के प्रयोग को व्यापक बनाकर देवनागरी के सरलीकरण के प्रयास किये (पंचमाक्षर के बदले अनुस्वार के प्रयोग )। इसी प्रकार श्रीनिवास का सुझाव था कि महाप्राण वर्ण के लिए अल्पप्राण के नीचे ऽ चिह्न लगाया जाय। १९४५ में काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा अ की बारहखड़ी और श्रीनिवास के सुझाव को अस्वीकार करने का निर्णय लिया गया।
देवनागरी के विकास में अनेक संस्थागत प्रयासों की भूमिका भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है। १९३५ में हिंदी साहित्य सम्मेलन ने नागरी लिपि सुधार समिति के माध्यम से 'अ' की बारहखड़ी और शिरोरेखा से संबंधित सुधार सुझाए। इसी प्रकार, १९४७ में आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में गठित एक समिति ने बारहखड़ी, मात्रा व्यवस्था, अनुस्वार व अनुनासिक से संबंधित महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये। देवनागरी लिपि के विकास हेतु भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने कई स्तरों पर प्रयास किये हैं। सन् १९६६ में मानक देवनागरी वर्णमाला प्रकाशित की गई और १९६७ में ‘हिंदी वर्तनी का मानकीकरण’ प्रकाशित किया गया। १९८३ में ‘देवनागरी लिपि तथा हिन्दी की वर्तनी का मानकीकरण’ प्रकाशित किया गया।
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