अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध विभिन्न देशों के बीच सम्बन्धों का अध्ययन है, साथ ही साथ सम्प्रभु राज्यों, अन्तर-सरकारी संगठनों, अन्तरराष्ट्रीय अ-सरकारी संगठनों, अ-सरकारी संगठनों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की भूमिका का भी अध्ययन है। अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध को कभी-कभी 'अन्तरराष्ट्रीय अध्ययन' (अंग्रेजी: International Studies ; देवनागरीकृत : इण्टरनेशनल स्टडीज़ ) के रूप में भी जाना जाता है, हालाँकि दोनों शब्द पूरी तरह से पर्याय नहीं हैं।
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साधारण शब्दों में 'अंतरराष्ट्रीय राजनीति' का अर्थ है 'राज्यों के मध्य राजनीति करना'। यदि 'राजनीति' के अर्थ का अध्ययन करें तो तीन प्रमुख तत्त्व सामने आते हैं - (क) समूहों का अस्तित्व; (ख) समूहों के बीच ; तथा (ग) समूहों द्वारा अपने हितों की पूर्ति। इस आशय को यदि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आकलन करें तो ये तीन तत्त्व मुख्य रूप से - (1) राज्यों का अस्तित्व; (2) राज्यों के बीच संघर्ष; तथा (3) अपने राष्ट्रहितों की पूर्ति हेतु शक्ति का प्रयोग आते हैं । अतः अंतरराष्ट्रीय राजनीति उन क्रियाओं का अध्ययन करना है जिसके अंतर्गत राज्य अपने राष्ट्र हितों की पूर्ति हेतु शक्ति के आधार पर संघर्षरत रहते हैं। इस सन्दर्भ में राष्ट्रीय हित अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रमुख लक्ष्य होते हैं; संघर्ष इसका दिशा निर्देश तय करती है; तथा शक्ति इस उद्देश्य प्राप्ति का प्रमुख साधन माना जाता है।
परन्तु उपर्युक्त परिभाषा को हम परम्परागत मान सकते हैं, क्योंकि आज ‘अंतरराष्ट्रीय राजनीति’ का स्थान इससे व्यापक अवधारणा ‘अंतरराष्ट्रीय संबंधों’ ने ले लिया है। इसके अंतर्गत राज्यों के परस्पर संघर्ष के साथ-साथ सहयोगात्मक पहलुओं को भी अब अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है। इसके अतिरिक्त आज ‘राज्यों’ के अलावा अन्य कई कारक भी अब अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विषय क्षेत्र बन गए हैं। अतः इसके अंतर्गत आज व्यक्ति, संस्था, संगठन व कई अन्य गैर-राज्य इकाइयाँ भी सम्मिलित हो गई हैं। इसका वर्तमान आधार व विषय क्षेत्र आज काफी व्यापक स्वरूप ले चुका है। इन सभी विषयों पर चर्चा से पहले अलग-अलग विद्वानों द्वारा दी गई निम्न परिभाषाओं की समीक्षा करना अति अनिवार्य हो जाता है-
इन परिभाषाओं का दायरा अति सीमित है, क्योंकि इसके अंतर्गत मूलतः ‘राज्यों’ को ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के कारक के रूप में माना गया है। यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप तक ही सीमित है। मुख्य रूप से हेंस जे. मारगेन्थाऊ, हेराल्ड स्प्राऊट, बोन डॉयक, थाम्पसन आदि इसके मुख्य समर्थक हैं जो इनकी निम्न परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है-
नवीन परिभाषाओं में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के व्यापक स्वरूप अंतरराष्ट्रीय संबंधों की चर्चा की गई है। इसमें राज्य के अतिरिक्त अंतरराष्ट्रीय राजनीति के नवीन कारकों जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन, देशांतर समूह, गैर सरकारी संगठन, अंतरराष्ट्रीय संस्थायें, कुछ व्यक्तियों आदि को भी सम्मिलित किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें संघर्ष के साथ-साथ सहयोग तथा राजनीति के साथ-साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में इसे प्रभावित करने वाले अर्थात्, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, विज्ञान एवं तकनीकि आदि पहलुओं का भी उल्लेख किया गया है। विभिन्न लेखकों की निम्नलिखित परिभाषाओं से यह आशय अति स्पष्ट रूप में उजागर हो जाता है-
इस प्रकार अंतरराष्ट्रीय राजनीति का स्वरूप प्रारम्भ से वर्तमान तक बहुत व्यापक हो जाता है। इसमें आज राष्ट्र राज्यों के साथ विभिन्न विश्व इकाइयों एवं संगठनों के अध्ययन का समावेश हो चुका है। परन्तु इन सभी परिवर्तनों के बाद भी इन अध्ययनों का केंद्र बिंदु (केन्द्र बिन्दु) आज भी राष्ट्र राज्य ही है।
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर अंतरराष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप के बारे में निम्न निष्कर्ष सामने आते हैं।
अतः अंतरराष्ट्रीय राजनीति का स्वरूप परिवर्तनशील है। जब-जब अंतरराष्ट्रीय राजनीति के परिवेश, कारकों व घटनाक्रम में परिवर्तन आयेगा, इसके अध्ययन करने के तरीकों व दृष्टिकोणों में भी परिवर्तन अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त, यह परिवर्तन स्थाई न होकर निरन्तर है। इसके साथ-साथ विभिन्न कारकों, स्तरों, आयामों आदि के कारण यह बहुत जटिल है अतः इसके सुचारू अध्ययन हेतु बहुत स्पष्ट, तर्कसंगत, व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है।
जैसा उपर्युक्त परिभाषाओं एवं स्वरूप से ज्ञात है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति का विषय क्षेत्र बढ़ता ही जा रहा है। आज इसका विषय क्षेत्र काफी व्यापक हो गया है जिसके अंतर्गत निम्नलिखित बातों का अध्ययन किया जाता है-
अतः अंतरराष्ट्रीय राजनीति का विषय क्षेत्र आज बहुत व्यापक व जटिल होने के साथ-साथ विकास की ओर अग्रसर है। इसके अंतर्गत विभिन्न परंपरागत (परम्परागत) कारकों के साथ-साथ गैर-परंपरागत (परम्परागत) कारकों का अध्ययन भी महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विकास का इतिहास ज्यादा प्राचीन नहीं है, बल्कि यह विषय बीसवीं शताब्दी की उपज है। स्पष्ट रूप से देखा जाए तो वेल्ज विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय वुडरो विल्सन पीठ की 1919 में स्थापना से ही इसका इतिहास प्रारम्भ होता है। इस पीठ पर प्रथम आसीन होने वाले प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर ऐल्फर्ड जिमर्न थे तथा बाद में अन्य प्रमुख विद्धान जिन्होंने इस पीठ को सुशोभित किया उनमें से प्रमुख थे - सी.के. वेबस्टर, ई.एच.कार, पी.ए. रेनाल्ड, लारेंस डब्लू, माटिन, टी.ई. ईवानज आदि। इसी समय अन्य विश्वविद्यालयों एवं संस्थानों में भी इसी प्रकार की व्यवस्थाएं देखने को मिली। अतः पिछली एक शताब्दी के इस विषय के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो इस विषय में आये उतार-चढ़ाव के साथ-साथ इसके एक स्वायत्त विषय में स्थापित होने के बारे में जानकारी मिलती है। इस विषय में आये बहुआयामी परिवर्तनों ने जहां एक ओर विषयवस्तु का संवर्धन, समन्वय तथा विकास किया है, वहीं दूसरी ओर विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन करके बहुत सी जटिल समस्याओं एवं पहलुओं को समझने में सहायता प्रदान की है।
केनेथ थाम्पसन ने सन् 1962 के 'रिव्यू ऑफ पॉलिटिक्स' में प्रकाशित अपने लेख में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के इतिहास को चार भागों में बांटा है, जिसके आधार पर इस विषय का सुस्पष्ट एवं सुनिश्चित अध्ययन सम्भव हो सकता है। विकास के इन चार चरणों में शीतयुद्धोत्तर युग के पांचवें चरण को भी सम्मिलित किया जा सकता है। इनका विस्तृत वर्णन निम्न प्रकार से है-
प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व इतिहास, कानून, राजनीति शास्त्र, दर्शन शास्त्र आदि के विद्वान ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अलग-अलग पहलुओं पर विचार करते थे। मुख्य रूप से इतिहासकार ही इसका अध्ययन राजनयिक इतिहास तथा अन्य देशों के साथ संबंधों के इतिहास के रूप में करते थे। इसके अंतर्गत कूटनीतिज्ञों व विदेश मन्त्रियों द्वारा किए गए कार्यों का लेखा जोखा होता था। अतः इसे कूटनीतिक इतिहास की संज्ञा भी दी जाती है। ई.एच.कार के अनुसार प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व युद्ध का संबंध केवल सैनिकों तक समझा जाता था तथा इसके समकक्ष अंतरराष्ट्रीय राजनीति का संबंध राजनयिकों तक। इसके अतिरिक्त, प्रजातांत्रिक देशों में भी परम्परागत रूप से विदेश नीति को दलगत राजनीति से अलग रखा जाता था तथा चुने हुए अंग भी अपने आपको विदेशी मन्त्रालय पर अंकुश रखने में असमर्थ महसूस करते थे। 1919 से पूर्व इस विषय के प्रति उदासीनता के कई प्रमुख कारण थे - प्रथम, इस समय तक यही समझा जाता था कि युद्ध व राज्यों में गठबंधन उसी प्रकार स्वाभाविक है जैसे गरीबी व बेरोजगारी। अतः युद्ध, विदेश नीति एवं राज्यों के मध्य परस्पर संबंधों को रोक पाना मानवीय सामर्थ्य के वश से बाहर माना जाता था। द्वितीय, प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व युद्ध इतने भयंकर नहीं होते थे। तृतीय, संचार साधनों के अभाव में अंतरराष्ट्रीय राजनीति कुछ गिने चुने राज्यों तक ही सीमित थी।
इस प्रकार इस युग में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन की सबसे बड़ी कमी सामान्य हितों का विकास रहा। इस काल में केवल राजनयिक इतिहास का वर्णनात्मक अध्ययन मात्रा ही हुआ। परिणामस्वरूप, इससे न तो वर्तमान तथा न ही भावी अंतरराष्ट्रीय राजनीति को समझने में कोई मदद मिली। इस युग की मात्रा उपलब्धि 1919 में वेल्स विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के पीठ की स्थापना रही।
दो विश्व युद्धों के बीच के काल में दो समानान्तर धाराओं का विकास हुआ। जिनमें से प्रथम के अंतर्गत पूर्व ऐतिहासिकता के प्रति प्रभुत्व को छोड़कर सामयिक घटनाओं/समस्याओें के अध्ययन पर अधिक बल दिया जाने लगा। इसके साथ साथ अब ऐतिहासिक राजनीतिक अध्ययन को वर्तमान राजनीतिक सन्दर्भों के साथ जोड़ कर देखने का प्रयास भी किया गया। ऐतिहासिक प्रभाव के कम होने के बाद भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन हेतु एक समग्र दृष्टिकोण का अभाव अभी भी बना रहा। इस काल में वर्तमान के अध्ययन पर तो बहुत बल दिया गया, लेकिन वर्तमान एवं अतीत के पारस्परिक संबंध के महत्त्व को अभी भी पहचाना नहीं गया। इसके अतिरिक्त, न ही युद्धोत्तर राजनीतिक समस्याओं को अतीत की तुलनीय समस्याओं के साथ रखकर देखने का प्रयास ही किया गया।
शायद इसीलिए इस युग में भी दो मूलभूत कमियाँ स्पष्ट रूप से उजागर रहीं। प्रथम, पहले चरण की ही भांति इस काल में भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सार्वभौमिक सिद्धान्त का विकास नहीं हो सका। द्वितीय, आज भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन अधिक सुस्पष्ट एवं तर्कसंगत नहीं बन पाया। इस प्रकार इस चरण में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में बल देने की स्थिति में बदलाव के अतिरिक्त बहुत ज्यादा परिवर्तन देखने को नहीं मिला तथा न ही इस विषय के स्पष्ट रूप से स्वतन्त्रा अनुशासन बनने की पुष्टि हुई।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विकास का तृतीय चरण भी द्वितीय चरण के समानान्तर दो विश्व युद्धों के बीच का काल रहा। इसे सुधारवाद का युग इसलिए कहा जाता है कि इसमें राज्यों द्वारा राष्ट्र संघ की स्थापना के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सुधार की कल्पना की गई। इस युग में मुख्य रूप से संस्थागत विकास किया गया। इस काल के विद्वानों, राजनयिकों, राजनेताओं व चिन्तकों का मानना था कि यदि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का विकास हो जाता है तो विश्व समुदाय के सम्मुख उपस्थित युद्ध व शांति की समस्याओं का समाधान सम्भव हो सकेगा। इस उद्देश्य हेतु कुछ कानूनी व नैतिक उपागमों की संरचनाएं की गई जिनके निम्न मुख्य आधार थे।
इन्हीं आदर्शिक एवं नैतिक मूल्यों पर बल देते हुए अंतरराष्ट्रीय संगठन (राष्ट्र संघ) की परिकल्पना की गई। इसकी स्थापना के उपरान्त यह माना गया कि अब अंतरराष्ट्रीय संबंधों में राज्यों के मध्य शान्ति बनाने का संघर्ष समाप्त हो गया। नई व्यवस्था के अंतर्गत शक्ति संतुलन का कोई स्थान नहीं होगा। अब राज्य अपने विवादों का निपटारा संघ के माध्यम से करेंगे। अतः इस युग में न केवल युद्ध व शान्ति की समस्याओं का विवेचन किया, अपितु इसके दूरगामी सुधारों के बारे में भी सोचा गया। अतः अध्ययनकर्ताओं के मुख्य बिन्दु भी कानूनी समस्याओं व संगठनों के विकास के साथ-साथ इनके माध्यम से अंतरराष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप को बदलने वाला रहा। अन्ततः इस काल में भावात्मक, कल्पनाशील व नैतिक सुधारवाद पर अधिक बल दिया गया है।
परन्तु विश्वयुद्धों के बीच इन उपागमों की सार्थकता पर हमेशा प्रश्न चिह्न लगा रहा। राष्ट्र संघ की प्रथम एक दशक (1919-1929) की गतिविधियों से जहां आशा की किरण दिखाई दी, वहीं दूसरे दशक (1929-1939) की यर्थाथवादी स्थिति ने इस धारणा को बिल्कुल समाप्त कर दिया। बड़ी शक्तियों के मध्य असहयोग व गुटबन्दियों ने शान्ति की स्थापना की बजाय शक्ति संघर्ष व्यवस्था को जन्म दिया। जापान ने मंचूरिया पर हमले करके जहां शांति को भंग कर दिया वहीं इटली, जर्मनी व रूस ने भी विवादास्पद स्थितियों में न केवल राष्ट्र संघ की सदस्यता ही छोड़ी, बल्कि द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारम्भ होने की प्रक्रिया को और तीव्र बना दिया। इस प्रकार शान्ति, नैतिकता, व कानून से विश्व व्यवस्था नहीं चल सकी, तो ई.एच.कार, शुंभा, क्विंसी राईट आदि लेखकों के कारण यथार्थवादी दृष्टिकोण को वैकल्पिक उपागम के रूप में बल मिला।
इस चरण में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मूलभूत परिवर्तनों से न केवल इसकी विषयवस्तु व्यापक हुई बल्कि इसमें बहुत जटिलताएँ भी पैदा हो गई। शीतयुगीन काल में राजनीति के स्वरूप में परिवर्तन तथा नये राज्यों के उदय ने सम्पूर्ण अंतरराष्ट्रीय परिवेश को ही बदल दिया। परिणामस्वरूप नये उपागमों, आयामों, संस्थाओं व प्रवृत्तियों का सर्जन हुआ जिनके माध्यम से अंतरराष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन सुनिश्चित हो गया।
पूर्व चरणों की आदर्शिक, संस्थागत, नैतिक, कानूनी एवं सुधारवादी धाराओं की असफलताओं ने नये उपागमों के विकास की ओर अग्रसर किया। यह नया उपगम था-यथार्थवाद। वैसे तो ई.एच.कार, श्वार्जनबर्जर, क्विंसी राईट, शुभां आदि लेखकों ने इस दृष्टिकोण को विकसित किया, परन्तु हेंस जे. मारगेन्थाऊ ने इसे एक सामान्य सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य हमेशा अपने हितों की पूर्ति हेतु संघर्षरत रहते हैं। अतः अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को समझने हेतु इस शक्ति संघर्ष के विभिन्न आयामों को समझना अति आवश्यक है।
यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सुनिश्चित व सुस्पष्ट विकास के रूप में अंतरराष्ट्रीय संगठन (संयुक्त राष्ट्र संघ) की भी उत्पत्ति हुई। अब इस संगठन का स्वरूप मात्रा आदर्शवादी व सुधारवादी न होकर, महत्त्वपूर्ण राजनीतिक संगठन के रूप में उभर कर आया। इसके अंतर्गत मानवजाति को युद्ध की विभीषिका से बचाने के साथ-साथ राज्यों के मध्य संघर्ष के कौन-कौन से कारण हैं? विश्वशांति हेतु खतरे के कौन-कौन से कारक हैं? शांति की स्थापना कैसे हो सकती है? शस्त्रों की होड़ को कैसे रोका जा सकता है? आदि कई प्रकार के प्रश्नों का समाधान ढूंढने के प्रयास भी किए गए।
उपर्युक्त दो प्रवृत्तियों के साथ-साथ व्यवहारवाद की उत्पत्ति भी इस युग की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि रही। व्यवहारवादी दृष्टिकोण के माध्यम से ”व्यवस्था सिद्धान्त“ की उत्पत्ति कर अंतरराष्ट्रीय राजनीति को समझने का प्रयास किया गया। इस उपागम के अंतर्गत राज्यों के अध्ययन हेतु तीन प्रमुख कारकों का अध्ययन किया जाना ज़रूरी माना गया। ये कारक थे-
उपर्युक्त प्रवृतियों का मुख्य बल अंतरराष्ट्रीय राजनीति मैं सैद्धान्तिकरण को बढ़ावा देना रहा है। अतः इस युग में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के सार्वभौमिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना अति महत्त्वपूर्ण कार्य रहा है। सिद्धान्त निर्माण की इस प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप अनेक आंशिक सिद्धान्तों जैसे - यथार्थवाद, संतुलन का सिद्धान्त, संचार सिद्धान्त, क्रीड़ा सिद्धान्त, सौदेबाजी का सिद्धान्त, शान्ति अनुसन्धान दृष्टिकोण, व्यवस्था सिद्धान्त, विश्व व्यवस्था प्रतिमान आदि का निर्माण हुआ। इन सिद्धान्तों के प्रतिपादन के बावजूद इस युग में किसी एक सार्वभौमिक व सामान्य सिद्धान्त का अभाव अभी भी बना रहा। 1990 के दशक में जयन्त बंधोपाध्याय ने अपनी पुस्तक - जनरल थ्योरी ऑफ इंटरनेशनल रिलेसन्स (1993) - में मार्टिन कापलान के व्यवस्थापरक सिद्धान्त की कमियों को दूर कर एक सार्वभौमिक सिद्धान्त की स्थापना की कोशिश की है, परन्तु वह भी अभी वाद-प्रतिवाद के दौर में ही हैं। अतः सैद्धान्तिकरण के मुख्य दौर के बावजूद शीतयुद्ध कालीन युग अपनी वैचारिक संकीर्णता व अलगाव के कारण किसी एक सामान्य सिद्धान्त के प्रतिपादन से वंचित रहा।
शीतयुद्धोत्तर युग में सभी राष्ट्रों द्वारा एक आर्थिक व्यवस्था के अंतर्गत जुड़ना प्रारम्भ कर दिया। इसीलिए अब वैश्वीकरण, उदारीकरण, मुक्त बाजार व्यवस्था आदि का दौर प्रारम्भ हो गया। इस सन्दर्भ में न केवल आर्थिक मुद्दों का ही महत्त्व बढ़ा, अपितु अंतरराष्ट्रीय राजनीति का महत्त्व और भी बढ़ गया। आज राष्ट्रीयता एवं अंतरराष्ट्रीयता का विभेद समाप्त हो गया इसके अतिरिक्त, अब अंतरराष्ट्रीय राजनीति की विषय सूची में काफी नवीन विषयों का समावेश हो गया जो राष्ट्रीय न रहकर अब मानवजाति की समस्याओं के रूप में उभर कर आये। वर्तमान विश्व की प्रमुख समस्याओं में आतंकवाद, पर्यावरण, ओजोन परत क्षीण होना, नशीले पदार्थों एवं मादक द्रव्यों की तस्करी, मानवाधिकारों का हनन आदि प्रमुख मुद्दे उभर कर सामने आये जिनका राष्ट्रीय स्तर या क्षेत्रय स्तर की बजाय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हल निकालना अनिवार्य बन गया है।
सैद्धान्तिक स्तर पर भी 1945 से 1991 तक के सार्वभौमिक सिद्धान्त की स्थापना के प्रयास को धक्का लगा। अंतरराष्ट्रीय राजनीति की इस सन्दर्भ में अब प्राथमिकताएं बदल गई। उत्तर-आधुनिकतावाद में (पोस्ट मोडर्निज्म) अब सार्वभौमिक सिद्धान्तों की सार्थकता पर प्रश्न चिह्न लग रहे हैं। ऐतिहासिक सन्दर्भ एवं प्राचीन परिवेश के प्रभाव को भी नकारा जा रहा है। अब स्वतन्त्र मुद्दे अधिक महत्त्वपूर्ण हो गए हैं। वृहत् सिद्धान्त गौण हो गए हैं। नए सन्दर्भ में आंशिक शोध अधिक महत्त्वपूर्ण बन गई है। उदाहरणस्वरूप नारीवाद, मानवाधिकार, पर्यावरण आदि विषयों पर अधिक बल देने के साथ-साथ चिन्तन भी प्रारम्भ हो गया है। अतः शीतयुद्धोत्तर युग में अंतरराष्ट्रीय राजनीति का स्वरूप, विषय सूची एवं विषय क्षेत्र पूर्ण रूप से परिवर्तित हो गए हैं। अब सामान्य सैद्धान्तिक स्थापना पर भी अधिक बल नहीं दिया जा रहा है। इसीलिए इस बदले हुए परिवेश में अंतरराष्ट्रीय राजनीति महत्त्वपूर्ण ही नहीं, अपितु स्वायत्तता की ओर अग्रसर प्रतीत हो रही है। और विषय की स्वायत्तता हेतु आशावादी संकेत दिखाई देते हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध ने न केवल अन्तरराष्ट्रीय राजनीति को मूलभूत रूप में प्रभावित किया अपितु कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों की अभिव्यक्ति भी की। अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के कारकों में परिवर्तन, कारकों को व्यापक स्वरूप प्रदान करना, नवीन सिद्धान्तों का प्रतिपादन आदि अनेक विषयों के अतिरिक्त अन्तरराष्ट्रीय राजनीति का पूर्ण परिवेश ही बदल कर रख दिया है। जहाँ एक ओर सैद्धान्तिक स्तर पर यथार्थवाद व आदर्शवाद के वाद-विवाद तथा प्राचीन व वैज्ञानिकता पर वाद-विवाद हो रहा है, वहीं दूसरी ओर व्यावहारिक स्तर पर अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध विषय के प्रारूप के बारे में विवादास्पद प्रश्न उठ रहे थे कि - क्या अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध एक स्वायत्त विषय है या नहीं? यद्यपि आज अधिकतर विश्वविद्यालयों में स्नातक व स्नातकोत्तर स्तरों पर तथा शोध हेतु यह एक स्वायत्त विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है, तथापि इसे सामाजिक विज्ञान के अन्य विषयों के समकक्ष मान्यता नहीं मिली है। इतना अवश्य हुआ है कि विकसित देशों में तो कई विश्वविद्यालयों में इसे पूर्ण रूप से स्वायत्त विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। भारत जैसे विकासशील देशों में भी सुधार हुआ है। यहां प्रारम्भ में ‘भारतीय अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध विद्यालय, नई दिल्ली’ जो बाद में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध विद्यालय के रूप में स्वायत्त रूप से कार्य कर रहा है। इसके अतिरिक्त कई अन्य विश्वविद्यालयों जैसे जादवपुर विश्वविद्यालय, कलकत्ता, गोवा विश्वविद्यालय आदि में भी अब इसे स्वायत्त विषय का दर्जा मिला है।
अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों को एक स्वायत्त विषय के रूप में अध्ययन करने से पूर्व एक बात स्पष्ट करनी अति आवश्यक है कि जब हम इस विषय की स्वायत्तता के प्रश्न का अध्ययन करते हैं तो ‘अन्तरराष्ट्रीय राजनीति’ व अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों को अलग-अलग विषय नहीं मानते हैं। यह इसलिए किया गया है कि दोनों ही विषयों को अभी स्वायत्त अनुशासन न मानकर राजनीतिशास्त्र विषय के एक उप-अनुशासन के रूप में ही मान्यता प्राप्त है। दूसरे इनका विभेद इतना सूक्ष्म है कि अनुशासन की स्वायत्तता की प्रमाणिकता के बाद इस विषय को सुलझाया जा सकता है।
अन्तरराष्ट्रीय राजनीति को स्वायत्त विषय मानने के सन्दर्भ में तीन पृथक-पृथक विचार दिए गए हैं जो निम्न प्रकार से हैं -
जो विद्वान इस विषय को स्वायत्त मानते हैं उनके अनुसार अन्तरराष्ट्रीय राजनीति की विषय वस्तु व अनुशासन सम्बन्धी सामग्री को देखते हुए इसे एक स्वायत्त विषय माना जाना चाहिए। इस तर्क के प्रमुख समर्थक हैं- सी॰ए॰डब्ल्यू॰ मैनींग, क्विंसी राईट, राबर्ट लोटिंग ऐलन, हेंस जे. मारगेन्थाऊ, कार्ल एम. कॉपर जानसन, हॉफमैन; ए॰एल॰ बर्न आदि। इन विद्वानों ने निम्न आधारों पर इसे स्वायत्त विषय प्रमाणित किया है-
जो विद्वान अन्तरराष्ट्रीय राजनीति को एक स्वायत्त विषय नहीं मानते उनका मानना यह है कि इस विषय में ऐसी कोई विलक्षण वस्तु नहीं है कि इसे अध्ययन हेतु स्वायत्त माना जाए। उन्होंने निम्न तर्को के आधार पर अपनी बात का समर्थन किया है-
कुछ विद्वान उपर्युक्त दोनों प्रकार की बहस को निरर्थक मानते हैं। उनका मानना यह है कि उपर्युक्त दोनों तर्कों को अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हुए विकास के माध्यम से अधिक भली प्रकार से जाना जा सकता है। अतः 20वीं शताब्दी में, और विशेषकर 1945 के बाद, के विकास की समीक्षा अति अनिवार्य है। यदि अंतरराष्ट्रीय राजनीति की स्वायत्तता के प्रश्न का गहन अध्ययन करते हैं तो पता चलता है कि इस सन्दर्भ में दो मूलभूत समस्याओं का सामना करना पड़ता है। एक तो अंतरराष्ट्रीय संबंध के स्वरूप, विषयवस्तु व अध्ययन के तरीकों में प्रभावी परिवर्तन आये हैं। दूसरा, इसी समय राजनीतिशास्त्र की परिधि की जटिलताओं एवं अपरिभाषित सीमाओं के विकास के कारण समस्या और बढ़ गई है। लेकिन 1919 से आज तक के अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विकास पर नज़र डालें तो स्पष्ट होता है कि इसकी उपलब्धियां इसे स्वायत्तता दिलाने में काफी सहायक सिद्ध होंगी।
1919 के बाद से ही, विशेषकर अमेरिका में, बहुत से विद्वानों ने इस विषय को अधिक से अधिक वैज्ञानिक बनाने हेतु प्रयास किए हैं। इसके विषय वस्तु, तरीकों एवं सिद्धान्त को सुस्पष्ट करने के प्रयास भी हुए हैं। इन लेखकों में मुख्य रूप से पॉल, राईन्स, बर्न, जेम्स ब्राइट, हबर्ट, गिवन्स, रेमण्ड वुल, पार्ककर, मून, शुभां, ऐलफर्ड जिमर्न, ई.एच. कार आदि का योगदान सराहनीय रहा है। इस सन्दर्भ में समीक्षा के पश्चात् रिचर्ड स्मीथबील इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि-
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इस स्थिति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए हैं। इस क्षेत्र में हुए नये शोधों के आधार पर जहां एक ओर अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विश्लेषणात्मक संबंधों को बल मिला है, वहीं दूसरी ओर नवीन सिद्धांतों का प्रतिपादन भी हुआ है। अमेरिका में अनेक विद्धानों मुख्य रूप से मारगेन्थाऊ, रिचर्ड स्नाइडर, मॉर्टिन कापलान, कार्ल डब्ल्यू डॉयस, चार्ल्स मेकलेलैंड आदि ने इस ओर विशिष्ट योगदान दिया है। इसके अतिरिक्त विकसित व विकासशील दोनों देशों के अध्ययन पर बल दिया है। इसकी विषय सामग्री का संकलन, सिद्धान्त प्रतिपादन एवं पद्धतियों का भी काफी विकास हुआ है। परन्तु आज भी सबसे महत्त्वपूर्ण कमी एक सार्वभौमिक/सामान्य सिद्धान्त प्रतिपादन का अभाव बना हुआ है। शीतयुद्धोत्तर विश्व में इसका महत्त्व और बढ़ गया है। इस भूमण्डलीकरण के दौर में सभी राज्य एक प्रकार की आर्थिक व्यवस्था से जुड़ते जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय मुद्दे जैसे पर्यावरण, आतंकवाद, नारीवाद, एड्ज, ओजोन परत क्षीण होना, मानवाधिकार आदि राष्ट्रीय की बजाय मानवीय/मानवजाति से संबद्ध हो गए हैं। अतः आज इन सबके समाधान हेतु अंतरराष्ट्रीय मंचों/संगठनों की सक्रिय भागीदारी आवश्यक है। अब सार्वभौमिक सिद्धान्त को भी उत्तर आधुनिकवाद की दृष्टि से नकार कर व्यक्तिपरक एवं स्थानीय आधार पर अधिक बल दिया गया है। अत 1945 के बाद के विकास के आधार पर इसे स्वायत्तता की ओर अग्रसर कहा जा सकता है, जिसे 1991 के बाद शीत युद्ध के अंत की प्रक्रिया ने और सशक्त बनाने की कोशिश की है।
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