प्रकिण्व रासायनिक क्रियाओं को उत्प्रेरण करने वाले प्रोटीन को कहते हैं। इनके लिये एंज़ाइम शब्द का प्रयोग सन १८७८ में कुह्ने ने पहली बार किया था। प्रकिण्वों के स्रोत मुख्यतः सूक्ष्मजीव, पादप तथा प्राणी होते हैं। किसी प्रकिण्व के अमीनो अम्ल में परिवर्तन द्वारा उसके गुणधर्म में उपयोगी परिवर्तन लाने हेतु अध्ययन को प्रकिण्व अभियांत्रिकी कहते हैं। प्रकिण्व अभियांत्रिकी का एकमात्र उद्देश्य औद्योगिक अथवा अन्य उद्योगों के लिये अधिक क्रियाशील, स्थिर एवं उपयोगी प्रकिण्वों को प्राप्त करना है। पशुओं से प्राप्त रेनेट भी एक प्रकिण्व ही होता है। ये शरीर में होने वाली जैविक क्रियाओं के उत्प्रेरक होने के साथ ही आवश्यक अभिक्रियाओं हेतु शरीर में विभिन्न प्रकार के प्रोटीन का निर्माण करते हैं। इनकी भूमिका इतनी महत्त्वपूर्ण है कि ये या तो शरीर की रासायनिक क्रियाओं को आरंभ करते हैं या फिर उनकी गति बढ़ाते हैं। इनका उत्प्रेरण का गुण एक चक्रीय प्रक्रिया है।
सभी उत्प्रेरकों की ही भांति, प्रकिण्व भी अभिक्रिया की उत्प्रेरण ऊर्जा (Ea‡) को कम करने का कार्य करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप अभिक्रिया की गति में वृद्धि हो जाती है। अधिकांश प्रकिण्वन अभिक्रियाएं अन्य अनुत्प्रेरित अभिक्रियाओं की तुलना में लाखों गुणा तेज गति से होती हैं। इसी प्रकार अन्य सभी उत्प्रेरण अभिक्रियाओं की तरह ही प्रकिण्व भी अभिक्रिया में खपते नहीं हैं, न ही अभिक्रिया साम्य में परिवर्तन करते हैं। तथापि प्रकिण्व अन्य अधिकांश उत्प्रेरकों से इस बाट में अलग होते हैं, कि प्रकिण्व किसी विशेष अभिक्रिया हेतु विशिष्ट होते हैं। प्रकिण्वों द्वारा लगभग ४००० से अधिक ज्ञात जैवरासायनिक अभिक्रियाएं संपन्न होती हैं। कुछ राइबोज़ न्यूक्लिक अम्ल अणु भी अभिक्रियाओं को उत्प्रेरित करते हैं, जिसका एक अच्छा उदाहरण है राइबोसोम के कुछ भागों में होती अभिक्रियाएं। कुछ कृत्रिम अणु भी प्रकिण्वों जैसी उत्प्रेरक क्रियाएं दिखाते हैं। इन्हें कृत्रिम प्रकिण्व कहते हैं। कार्बोनिक ऐन्हाइड्रेस अभी तक ज्ञात तीव्रतम प्रकिण्व है।
प्रकिण्वों की क्रियाओं के फलस्वरूप तैयार होने वाले रासायनिक तत्त्व क्रियाधार और उनकी उपस्थिति के बिना तैयार होने वाले अभिकर्मक कहलाते हैं। जीवों के शरीर में होने वाली रासायनिक अभिक्रियाएँ उनके जीवन के लिए अनिवार्य होती हैं। शरीर छोटी-छोटी कोशिकाओं से मिलकर बनता है। रासायनिक क्रियाओं के फलस्वरूप इन कोशिकाओं की संख्या में वृद्धि होती है। शरीर में ये अभिक्रियाएँ अविरल होती रहें, इसके लिए प्रकिण्वों की उपस्थिति आवश्यक होती है। क्रियाधार के साथ साधारणतः प्रकिण्वों की अभिक्रियाएँ तीन प्रकार की होती हैं:
क्रियाधार का अनुकूलन तब होता है, जब प्रकिण्व क्रियाधार अणुओं के साथ क्रिया कर उनके साथ रासायनिक आबन्ध बनाते हैं। इसमें प्रकिण्व, क्रियाधार से क्रिया कर उसके अणुओं को खण्डित कर देता है। क्रियाधार के साथ क्रिया कर प्रकिण्व उसमें रासायनिक परिवर्तन करता है और अणुओं के इलेक्ट्रॉन की स्थिति में परिवर्तन कर देता है। इसके कारण ही अणु शेष अणुओं के साथ आबन्ध बना पाते हैं। प्रकिण्व जब क्रियाधार के संपर्क में आते हैं तो उन पर गड्ढे बन जाते हैं। प्रकिण्व के संपर्क में आने पर क्रियाधार इन गड्ढों के साथ क्रिया कर रासायनिक निर्माण करते हैं। इस अभिक्रिया के पूर्ण होने पर वे उस उत्पाद को मुक्त कर देते हैं और दूसरे क्रियाधार के साथ क्रिया के लिए तैयार हो जाते हैं। इस तरह के प्रकिण्व कभी नष्ट नहीं होते, बल्कि बार बार चक्रीय प्रक्रिया में शामिल होते रहते हैं। प्रकिण्वों के न बनने पर फिनाइलकीटोनूरिया रोग होता है, जिससे मस्तिष्क के विकास में बाधा आती है।
प्रत्येक प्रकिण्व के अणु में क्रियाधार बन्धन स्थल मिलता है जो क्रियाधार सम्बन्ध कर सक्रिय प्रकिण्व क्रियाधार सम्मिश्र का निर्माण करता है। यह सम्मिश्र अल्पावधि का होता है, जो उत्पाद एवं अपरिवर्तित प्रकिण्व में विघटित हो जाता है इसके पूर्व मध्यावस्था के रूप में प्रकिण्व उत्पाद जटिल का निर्माण होता है। प्रकिण्व क्रियाधार जटिल का निर्माण उत्प्रेरण के लिए आवश्यक होता है।
प्रकिण्व क्रिया के उत्प्रेरक चक्र को निम्न चरणों में व्यक्त किया जा सकता है:
जी कारक प्रोटीन की तृतीयक संरचना को परिवर्तित करते हैं, वे प्रकिण्व को सक्रियता को भी प्रभावित करते हैं जैसे- तापक्रम, pH। क्रियाधार की सान्द्रता में परिवर्तन या किसी विशिष्ट रसायन का प्रकिण्व से बन्धन उसकी प्रक्रिया को नियन्त्रित करते हैं।
प्रकिण्व सामान्यतः तापमान व pH के लघु परिसर में कार्य करते हैं। प्रत्येक प्रकिण्व की अधिकतम क्रियाशीलता एक विशेष तापमान व pH पर ही होती हैं, जिसे क्रमश: इष्टतम तापक्रम व pH कहते हैं। इस इष्टतम मान के ऊपर या नीचे होने से क्रियाशीलता घट जाती है। निम्न तापमान प्रकिण्व को अस्थायी रूप से निष्क्रियावस्था में सुरक्षित रखता है, जबकि उच्च तापमान प्रकिण्व की क्रियाशीलता को समाप्त कर देता है क्योंकि उच्च तापमान प्रकिण्व प्रोटीन को विकृत कर देता है।
क्रियाधार की सान्द्रता के वृद्धि के साथ पहले तो एंजाइम क्रिया की गति बढ़ती हैं। अभिक्रिया अन्ततोगत्वा सर्वोच्च गति प्राप्त करने के बाद क्रियाधार की सान्द्रता वृद्धि पर भी अग्रसर नहीं होती है। ऐसा इसलिए होता है कि प्रकिण्व के अण्वों की संख्या क्रियाधार के अण्वों से कहीं कम होती हैं और इन अण्वों से प्रकिण्व के सन्तृप्त होने के बाद प्रकिण्व का कोई भी अणु क्रियाधार के अतिरिक्त अण्वों से बन्धन करने हेतु मुक्त नहीं बचता है।
किसी भी प्रकिण्व की क्रियाशीलता विशिष्ट रसायनों को उपस्थिति में संवेदनशील होती है जो प्रकिण्व से बन्धते हैं। जब रसायन का एंजाइम से बन्धने के उपरान्त इसकी क्रियाशीलता बंद हो जाती है तो इस प्रक्रिया को सन्दमन व उस रसायन को प्रकिण्व सन्दमक कहते हैं।
जब सन्दमक अपनी आण्विक संरचना में क्रियाधार से काफी समानता रखता है और प्रकिण्व की क्रियाशीलता को सन्दमित करता हो तो इसे प्रतिस्पर्धात्मक सन्दमन कहते हैं। सन्दमक की क्रियाधार से निकटतम संरचनात्मक समानता के फलस्वरूप यह क्रियाधार से प्रकिण्व के क्रियाधार बन्धक स्थल से बन्धते हुए प्रतिस्पर्धा करता है। फलस्वरूप क्रियाधार, क्रियाधार बन्धक स्थल से बन्ध नहीं पाता, जिसके फलस्वरूप प्रकिण्व क्रिया मन्द हो जाती हैं। उदाहरणार्थ, सक्सिनिक डिहाइड्रोजिनेस का मैलोनेट द्वारा सन्दमन जो संरचना में क्रियाधार सक्सिनेट से निकट की समानता रखता है। ऐसे प्रतिस्पर्धी सन्दमको का अक्सर उपयोग रोगजनक जीवाणु के नियन्त्रण हेतु किया जाता है।
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