सन १९०५ में रूसी साम्राज्य के एक विशाल भाग में राजनीति एवं सामाजिक जनान्दोलन हुए जिन्हें १९०५ की रूसी क्रान्ति कहते हैं। यह क्रान्ति कुछ सीमा तक सरकार के विरुद्ध थी और कुछ सीमा तक दिशाहीन। श्रमिकों ने हड़ताल किये, किसान आन्दोलित हो उठे, सेना में विद्रोह हुआ। इसके फलस्वरूप कई संवैधानिक सुधार किये गये जिसमें मुख्य हैं- रूसी साम्राज्य के ड्युमा की स्थापना, बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था, १९०६ का रूसी संविधान।
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1905 की रूसी क्रांति | |||||||
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खूनी रविवार के पहले की अभिव्यक्तियाँ | |||||||
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योद्धा | |||||||
साँचा:फ्लैगीकोन इम्पीरियल सरकार Supported by:
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सेनानायक | |||||||
निकोलस द्वितीय सर्गेई वित्ते | विक्टर चेर्नोव व्लादिमीर लेनिन |
रूस की 1905 की क्रांति के कारण उसकी राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियों में निहित थे। जापानी युद्ध ने केवल उत्प्रेरक का कार्य किया। युद्ध में पराजय के कारण रूस की जनता का असंतोष इतना बढ़ गया था कि उसने राज्य के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। इस क्रांति के कारण ही सरकार को जापान से युद्ध बंद कर शांति संधि करनी पड़ी। इस क्रांति के कारण निम्नलिखित थे -
रूस में जापान के विरूद्ध युद्ध को जनता का समर्थन प्राप्त नहीं था। रूस की जनता यह नहीं जानती थी कि युद्ध किस उद्देश्य से लड़ा जा रहा है। युद्ध का प्रबंधन कुशलता से नहीं किया गया था। भ्रष्टाचार इस सीमा तक बढ़ गया था कि जनता ने जो उपहार सैनिकों के लिए दिये थे, वे नगरों में खुले आम बेचे जा रहे थे। पराजय से जनता में निराशा बढ़ती जा रही थी। 27 दिसम्बर को सम्राट् की दूसरी घोषण प्रकाशित हुई। इसमें सुधार कार्यक्रम पर कई प्रतिबंध लगा दिये गयें जैसे सभाओं की स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती थी। इससे रूस की जनता को मालूम हो गया कि सरकार अपनी शक्ति निरंकुश रखना चाहती थी और सुधार करने के लिए उसकी इच्छा नहीं थी।
जार की घोषणाओं से सुधारवादी संतुष्ट नहीं थे। अब इस आंदोलन में श्रमिक वर्ग भी सम्मिलित हो गया। जनवरी 1905 में राजधानी सेंट पीटर्सबर्ग में हड़तालें हुई। श्रमिक संगठन पर एक उदारवादी पादरी, फादर गेपन का प्रभाव। यह संगठन श्रमिकों की आर्थिक समस्याओं पर विचार करने के लिए बनाया गया था लेकिन श्रमिक वर्ग में राजनीतिक जागृति बढ़ रही थी। अतः फादर गेपन को अपना प्रभाव बनाये रखने के लिए आंदोलन को राजनीतिक रूप भी देना पड़ा। उसके नेतृत्व में राजधानी के श्रमिकों ने कई माँगों के लेकर हडताल कर दी। वार्ता असफल होने के बाद गेपन ने जार के समक्ष याचिका प्रस्तुत करने का निश्चय किया। 22 जनवरी, 1905 को रविवार के दिन उसके नेतृत्व में हजारों श्रमिकों का जुलूस शांतिपूर्ण था लेकिन महल के सामने मैदान में सैनिकों ने उस पर गोलियाँ चलायीं जिससे सैकड़ों प्रदर्शनकारी मारे गये। इस घटना से क्रांति आंरभ हो गयी।
सुधारवादी आंदोलन अब स्पष्ट रूप से क्रांतिकारी आंदोलन बन चुका था। यातायात और संचार साधन हड़तालों के कारण अवरूद्ध हो गये। थे। जनता के बढ़ते हुए असंतोष के कारण जार ने 3 मार्च को फिर सुधारों की घोषणा की। जार ने कहा कि वह साम्राज्य के योग्यतम व्यक्तियों को कानून बनाने के कार्य में सम्बद्ध करना चाहता था। अपै्रल व जून में अनेक सुधारों की घोषणा भी की गयी और जनता से कहा गया कि वे सुधारों के विषय पर अपने स्मरण पत्र प्रस्तुत करें।
सुधारों की इन चर्चाओं के साथ हड़तालों का दौर भी चल रहा था। सारे देश के श्रमिकों ने हड़ताल कर दी थी। स्थान-स्थान पर पुलिस और श्रमिकों की मुठभेंड़े भी हो रही थीं। 14 जून को काला सागर के एक जहाज ‘प्रोटीओमकिन’ के नाविकों ने विद्रोह कर दिया। इस बीच सुदूरपूर्व के दो युद्धों में रूस की निर्णायक पराजय हो चुकी थी। मार्च 1905 में जापान ने मुदकन में रूसी सेना को पराजित कर दिया था। जल युद्ध में जापानियों ने रूस के जहाजी बेड़े की सुसीमा के युद्ध में नष्ट कर दिया था।
सुसीमा की पराजय के बाद सुधारवादियों ने पुनः सुधार की माँग प्रस्तुत की। इस बार जेम्सतेवों सुधारवादियों के दोनों वर्ग नरम-सुधारवादी और उदार-सुधारवादी एक हो गये। उनका संयुक्त अधिवेशन हुआ जिसमें नगरों के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। इस सम्मेलन ने जार के पास एक प्रतिनिधिमण्डल भेजा। प्रतिनिधिमण्डल ने जार से भेंट करके ‘सम्राट और जनता’ के सहयोग के लिए प्रार्थना की लेकिन इसका सरकार की प्रतिक्रियावादी नीति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। 28 जून को नगर परिषदों का एक वृहद सम्मेलन हुआ जिसमें माँग की गयी कि जेम्सतेवों सम्मेलन की योजना को स्वीकार किया जाये। 19 जुलाई को जेम्सतेवों तथा नगर परिषदों का संयुक्त सम्मेलन हुआ जिसमें संविधान की रूपरेखा स्वीकृत की गयी। सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन अपनी ओर से 6 अगस्त को घोषणा प्रकाशित की जिसमें ड्यूमा की स्थापना के बारे में कहा गया था। इसे अत्यंत सीमित मताधिकार पर चुना जाना था और इसकी स्थिति परामर्श देने की थी। यह सरकार का अधूरा प्रयास था। अनुदारवादियों को छोड़कर किसी दल ने इस योजना को स्वीकार नहीं किया।
1905 की क्रांति असफल हो चुकी थी लेकिन सुधारवादियों को अभी ड्यूमा से आशा थी। शीघ्र ही यह स्पष्ट हो गया कि सरकार अपनी रूचि की ड्यूमा चाहती थी। प्रथम ड्यूमा को दो माह बाद भंग कर दिया गया। इसके सदस्यों ने देश से सरकार के प्रति असहयोग की अपील की लेकिन देश आंदोलनों से थक चुका था, अतः इसका प्रभाव नहीं पड़ा। सरकार ने छुटपुट विद्रोह को निर्दयता से कुचल दिया। दूसरी ड्यूमा में भी सरकार विरोधी सदस्यों का बहुमत था। इसे भी भंग कर दिया गया। इसके बाद सरकार ने मताधिकार सीमित करके चुनाव कराये। इससे तीसरी ड्यूमा में सरकार के समर्थकों को बहुमत प्राप्त हो गया। यद्यपि ड्यूमा बनी रही लेकिन वह सरकार से सहयोग करती रही और सरकार की इच्छा के अनुसार चालती रही।
क्रांति की असफलता के कारण निम्नलिखित थे -
1905 की क्रांति असफल होने के बाद रूस में स्वेच्छाचारी शासन पूर्ण रूप से स्थापित हो गया था। शासन की नीति प्रतिक्रियावादी और दमनात्मक थी लेकिन ड्यूमा का अस्तित्व बने रहने से शासन का स्वरूप अर्ध-संवैधानिक था। 1912 ई. में चौथी ड्यूमा चुनी गयी। वह भी शासन से सहयोग करती रही। उसके समय में प्रथम विश्वयुद्ध में रूस शामिल हुआ और 1917 में क्रांति हुई। युद्ध की असफलताओं के कारण अविश्वास का वातावरण बन गया। इससे ड्यूमा और सरकार के मध्य मतभेद उत्पन्न हो गये। इस संघर्ष में दोनों ही दुर्बल हो गये जिससे अंत में सत्ता बोल्शेविकों के हाथों में चली गयी।
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