सरह या सरहपा या सिद्ध सरहपा (८वीं शती) हिन्दी ,मैथिली, उड़ीया ,बंगाली के प्रथम कवि माने जाते हैं। उनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है। उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था और उनके ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म‘ तथा ‘पद्मवज्र’ नाम भी मिलते हैं। वे पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे।
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उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान उड़ीसा बताया गया है। एक जनश्रुति सहरसा जिले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है।
सरहपा द्वारा रचित दोहाकोष में प्रयुक्त लिपि वर्तमान समय की कैथी, विदेह लिपि , असमिया लिपि और बांग्ला लिपि और उड़िया लिपि से बहुत कुछ मिलती है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार, सरहपाद सबसे प्राचीन सिद्ध या सिद्धाचार्य थे तथा वे उड़िया, और हिन्दी के 'आदि कवि' हैं। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार सरहपाद, हरिभद्र नामक बौद्ध दार्शनिक के शिष्य थे जो स्वयं शान्तरक्षित के शिष्य थे। चूंकि तिब्बती ऐतिहासिक स्रोतों से यह सुज्ञात है कि शान्तरक्षित का जीवनकाल ८वीं शताब्दी का मध्यकाल था, तथा हरिभद्र पाल राजा धर्मपाल (७७० – ८१५ ई) के समकालीन थे, अतः प्रतीत होता है कि सरहपाद का जीवनकाल ८वीं शताब्दी का उत्तरार्ध या ९वीं शताब्दी का पूर्वार्ध रहा होगा।
सरहपा द्वारा रचित दोहागीतिकोष हिन्दी सन्त साहित्य परम्परा का 'आदि ग्रन्थ' प्रतीत होता है । उसके कुछ दोहे देखिए-
तञ्जुर नामक प्राचीन तिब्बती बौद्धग्रन्थ में सरह की निम्नलिखित रचनाएँ उल्लिखित हैं:
शबरपा : इनका जन्म 780 ई. में हुआ। यह क्षत्रिय थे। सरहपा से इन्होंने ज्ञान प्राप्त किया। चर्यापद इनकी प्रसिद्ध पुस्तक है।
लुइप : ये राजा धर्मपाल के राज्यकाल में कायस्थ परिवार में जन्मे थे। शबरपा ने इन्हें अपना शिष्य माना था। चौरासी सिद्धों में इनका सबसे ऊँचा स्थान माना जाता है। उड़ीसा के तत्कालीन राजा और मंत्री इनके शिष्य हो गए थे।
डोम्भिया : मगध के क्षत्रिय वंश में जन्मे डोम्भिया ने विरूपा से दीक्षा ग्रहण की थी। इनका जन्मकाल 840 ई. रहा। इनके द्वारा इक्कीस ग्रंथों की रचना की गई, जिनमें 'डोम्बि-गीतिका', योगाचार्य और अक्षरद्विकोपदेश प्रमुख हैं।
कण्हपा : इनका जन्म कायस्थ वंश में 820 ई. में हुआ था। ये कर्नाटक के थे, लेकिन बिहार के सोमपुरी स्थान पर रहते थे। जालंधरपा को इन्होंने अपना गुरु बनाया था। इनके लिखे चौहत्तर ग्रंथ बताए जाते हैं। यह पौराणिक रूढि़यों और उनमें फैले भ्रमों के विरोधी थे।
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