शिशु शब्द का अर्थ बहुत व्यापक होता है। कोई जन्म से लेकर ढाई तीन वर्षों तक, कोई पाँच वर्ष तक और कोई छह या सात वर्ष तक के बच्चे को शिशु कहता है। परंतु शिशुशिक्षा के अर्थ दो से ग्यारह या बारह वर्ष तक की शिक्षा माना जाता है। इस पर्याप्त लंबी अवधि को प्राय दो भागों में बाँटा जाता है। दो वर्ष से छह वर्ष की शिक्षा को शिशुशिक्षा (इनफंट या नर्सरी एजुकेशन) कहते हैं, जो प्राय: शिशुशालाओं (नर्सरी स्कूलों) में दी जाती है। छह वर्ष के पश्चात् ग्यारह या बारह वर्ष की शिक्षा को बालशिक्षा (चाइल्ड एजुकेशन) या प्रारंभिक शिक्षा (एलीमेंटरी एजुकेशन) कहते हैं। संसार के सभी प्रगतिशील देशों में प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य है। अत: कहीं छह वर्ष के पश्चात् और कहीं सात वर्ष से प्रारंभिक विद्यालयों में शिक्षा आरंभ की जाती है जो प्राय: पाँच वर्षों तक चलती है। तत्पश्चात् बच्चे माध्यमिक शिक्षा में प्रविष्ट होते हैं।
शिशु मनुष्य का पूर्वरूप है। मनुष्य की संपूर्ण शक्तियाँ और संभावनाएँ शिशु में संनिहित रहती हैं। उसके समुचित पालन पोषण एवं शिक्षादीक्षा पर ही भावी मनुष्य का विकास निर्भर रहता है। अत: मनुष्य की शिक्षा को पूर्ण बनाने की नींव शैशवावस्था में ही पड़ जानी चाहिए। इसी से आज के युग में शिशुशिक्षा को सर्वाधिक महत्व प्रदान किया जाता है।
उन्नीसवीं शताब्दी तक शिशु को शिक्षित करने का ढंग बड़ा ही कठोर था। उसके प्रति अध्यापक की सहानुभूति का अभाव था। शिक्षा में शारीरिक दंड का विधान प्रमुख था। शिशु का भी कोई पृथक् व्यक्तित्व है - उसकी अपनी आवश्यकताएँ, स्वतंत्र रुचि एवं आकांक्षाएँ हैं - इसपर अध्यापक का ध्यान नहीं जाता था। शिशु सामान्य (तथाकथित) अपराध पर अध्यापक का क्रुद्ध होना और उसे शारीरिक दंड देना स्वाभाविक था। माता पिता भी "दशवर्षाणि ताडयेत्" को वेदवाक्य मानकर शिक्षा में शिशु के दंड का विधान नतमस्तक होकर स्वीकार करते थे।
शिशु की स्वतंत्रता का सर्वप्रथम प्रचारक रूसो (1712-1778 ई.) हुआ। तत्पश्चात् पेस्तालीत्सी (1746-1827) ने शिशुशिक्षा को मनोवैज्ञानिक आधार प्रदान किया। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में फ्रोबेल नामक जर्मन शिक्षाशास्त्री ने "बालोद्यान" (किंडरगार्टन) पद्धति द्वारा शिशुशिक्षा में क्रांति उत्पन्न की; परंतु अनेक कारणों से उसका प्रचार मंद गति से हुआ जिससे उन्नीसवीं शताब्दी का अंत होते यह पद्धति यूरोप के अन्य देशों तथा अमरीका में फैली। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में अमरीका के एडवर्ड थार्नडाइक तथा चार्ल्स जुड ने शिशुशिक्षा को सरल, सरस एवं आकर्षक बनाने का प्रयत्न किया। अब शिक्षाशास्त्रियों एव मनावैज्ञानिकों का ध्यान शिशु मनोविज्ञान की ओर विशेष रूप से आकृष्ट हुआ। इटली की प्रसिद्ध महिला शिक्षाशास्त्रिणी मैरिया मांतेस्सोरी ने ज्ञानेंद्रियों की साधना पर विशेष बल दिया जिससे शिशु-शिक्षण-पद्धति में एक नवीन युग आरंभ हुआ और शिशु की शिक्षा सामूहिक से व्यक्तिप्रधान हो गई। प्रत्येक शिशु की पृथक् रुचि एवं मानसिक विकास के अनुरूप उसे शिक्षा देने की व्यवस्था हुई। महात्मा गांधी ने शिशुशिक्षा में उपयोगितावाद का प्रधानता दी और जीवनोपयोगी किसी व्यवसाय (जैसे कताई, बुनाई या कृषि) को शिक्षा का आधार बनाया जिससे यह शिक्षा आधार (बेसिक) शिक्षा कहलाती है।
अधिकांश देशों में शिशुशिक्षा की दो प्रमुख पद्धतियाँ व्यवहार में लाई जाती हैं - एक बालोद्यान की, दूसरी मांतेस्सोरी। बालोद्यान पद्धति में बच्चों को कुछ खिलौनों या क्रीड़ा उपकरणों (जिन्हें फ्रोबेल ने "उपहार" कहा है) तथा शिशु गीतों (नर्सरी सौंग्स) द्वारा सामूहिक शिक्षा दी जाती है। बच्चे शिक्षा को खेल समझकर बड़ी रुचि से आकृष्ट होते हैं और विद्यालय उनके लिए आकर्षण का केंद्र बन जाता है। परंतु शिशुमनोविज्ञान के विकास से पता चला है कि प्रत्येक शिशु दूसरे से भिन्न होता है। अत: उसकी शिक्षा दूसरों से पृथक् ढंग से होनी चाहिए। उस अपनी सहज शक्तियों एवं संभावनाओं का विकास करने के लिए अवसर मिलना चाहिए। केवल सामूहिक शिक्षा देने से उसकी बहुत सी शक्तियाँ अविकसित रह जाती हैं। अत: बालोद्यान का स्थान धीरे धीरे मांतेस्सोरी पद्धति ले रही है। मांतेस्सोरी पद्धति के मूल आधार हैं ज्ञानेंद्रियों का साधन या विकास तथा शिशु की स्वतंत्रता। इस पद्धति के द्वारा तीन से छह या सात वर्ष के बच्चों का अनेक प्रकार के शैक्षिक यंत्रों (डिडैक्टिक) ऐपैरेटस द्वारा वस्तुओं के रूप, रंग, आकार आदि का ज्ञान कराया जाता है। परंतु प्राय: संपूर्ण ज्ञान बच्चे स्वयं प्राप्त करते हैं। आत्मशिक्षण इस पद्धति का मूल मंत्र है। अध्यापिका दर्शक के रूप में विद्यमान रहकर शिशु के कार्यों का संप्रेक्षण एवं निर्देश करती है। इससे उसे "अध्यापिका" न कहकर "संचालिका" कहते हैं। मांतेस्सोरी विद्यालयों में इंद्रियसाधना के साथ साथ व्यावहारिक जीवन की उपयोगी शिक्षा दी जाती है, जैसे भोजन परसना, कमरा साफ करना, कमरे के सामान व्यवस्थित रूप से सजाकर रखना, इत्यादि। स्वच्छता के साथ ही वेशभूषा धारण करने के ढंग, जैसे बालों में कंघी करना, कपड़ों में बटन लगाना, फीता बाँधना इत्यादि भी सिखाए जाते हैं। इन विद्यालयों में टेबुल, कुर्सी, चौकी इत्यादि सभी आवश्यक सामान हल्के बनवाए जाते हैं जिससे बच्चे सरलता से उन्हें स्थानांतरित कर सकें। इस प्रकार उन्हें अपने सभी कार्य स्वयं करने की शिक्षा दी जाती है।
उक्त दोनों प्रकार की पद्धतियों में शिशु के व्यक्तित्व का महत्व स्वीकार किया जाता है और उसे किसी प्रकार का शारीरिक दंड न देकर प्रेम से शिक्षा देना श्रेयस्कर माना जाता है। शिक्षा में दंड या पुरस्कार के बिना वातावरण से जो प्रेरणा मिलती है वही शिशु के विकास में सहायक होती है। बालोद्यान पद्धति में उपहार का विधान तो है परंतु पुरस्कार का नहीं है। मांतेस्सोरी पद्धति में भी पुरस्कार या प्रलोभन देकर शिक्षा की ओर आकृष्ट करने का कोई विधान नहीं है। दोनों ही पद्धतियों में सक्रियता का सिद्धांत मान्य है। बच्चों में क्रियाशीलता एवं स्फूर्ति की अधिकता होती है जिसका संचालन उपयुक्त दिशा में होना चाहिए। अत: आधुनिक शिक्षा में शिशु को विभिन्न प्रकार की क्रियाओं में व्यस्त रखा जाता है और शिक्षा को खेल का रूप प्रदान किया जाता है जिससे वह शिशु को बोझ न जान पड़े। आधुनिक शिक्षा का एक बहुमान्य सिद्धांत है करके सीखना। इस सिद्धांत के अनुसार ही उक्त दोनों पद्धतियों में व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा दी जाती है। शिशु के शरीर में निरंतर वर्धमान शक्ति एव स्फूर्ति का उपयोग करने के लिए शारीरिक व्यायाम तथा खेल-कूद की पर्याप्त व्यवस्था रखी जाती है। खेलकूद के नियमों के पालन से अनुशासन की शिक्षा मिलती है, साथ ही सहयोग द्वारा कार्य करने एवं आदान प्रदान करने का अभ्यास बढ़ता है।
शिशुशिक्षा में कहानी, कविता तथा संगीत को भी प्रमुख स्थान दिया जाता है। यद्यपि श्रीमती मांतेस्सोरी परियों की काल्पनिक कथाओं के विरुद्ध हैं और बच्चों के लिए उन्हें अनुपयुक्त मानती हैं फिर भी व्यवहार में प्राय: देखा जाता है कि ऐसी कथाओं से बच्चों का केवल मनोरंजन ही नहीं होता वरन् उनमें कल्पनाशक्ति का विकास भी होता है। अत: उनके पाठ्यक्रम में इनका होना लाभदायक सिद्ध होता है। बच्चों के लिए कविता एवं संगीत के महत्व को श्रीमती मांतेस्सोरी भी स्वीकार करती हैं। अत: उनके विद्यालयों में बच्चों को कविताएँ - विशेषत: नादसौंदर्यात्मक, लययुक्त एवं अभिनेय कविताएँ सिखाई जाती हैं। प्रयाण गीतों तथा नृत्य के साथ चलनेवाले गीतों को प्रधानता दी जाती है। तात्पर्य यह है कि वर्तमान शिशुशिक्षा पद्धति में शिशु को सब प्रकार की स्वतंत्रता देकर आत्माभिव्यंजन का पूर्ण अवसर प्रदान किया जाता है। इसके लिए अनुकूल वातावरण एवं उपकरण प्रस्तुत करना शिक्षक का मुख्य कर्तव्य होता है।
उपर्युक्त सिद्धांतों के अनुसार शिशुशिक्षा के समुचित प्रसार के लिए निम्नोक्त आवश्यकताओं की पूर्ति अपेक्षित है - दो से छह वर्ष के बच्चों के लिए शिशुशालाओं (नर्सरी स्कूलों) तथा छह से ग्यारह वर्ष के बच्चों के लिए बालोद्यान की स्थापना; सभी शिशुविद्यालयों में जलपान एवं दोपहर के भोजन की व्यवस्था; शिशु छात्रावासों की स्थापना; शिशु छात्रावासों की स्थापना; शिशुशिक्षा के लिए उपयुक्त प्रशिक्षित अध्यापिकाओं की नियुक्ति; बच्चों के क्रीड़ोपकरणों की व्यवस्था; बालसमाजों (चिल्ड्रेंस क्लबों) की स्थापना जहाँ बच्चे एकत्र होकर परस्पर मिल सकें तथा मनोरंजन के साधनों द्वारा जी बहला सकें; शिशुशिक्षा के लिए उपयुक्त साहित्य-आकर्षक पुस्तकें, पत्रपत्रिकाएँ आदि-के अतिरिक्त उपयोगी एवं आकर्षक खिलौने प्रस्तुत करना; विकलांग, विकृतमस्तिष्क एवं अपराधी बच्चों के लिए पृथक् विद्यालयों की स्थापना; शिशुप्रदर्शनियों द्वारा बच्चों के स्वास्थ्य को प्रोत्साहन देना; तथा राज्य द्वारा शिक्षा का संपूर्ण भारवहन जिससे सभी बच्चों का समान अवसर मिले, भोजन, जलपान, आवास आदि नि:शुल्क प्राप्त हों एवं उनके शारीरिक या मानसिक विकास में धनाभाव के कारण कोई त्रुटि न रहने पाए।
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