यूरोप में 1650 के दशक से लेकर 1780 के दशक तक की अवधि को प्रबोधन युग या ज्ञानोदय युग (Age of Enlightenment) कहते हैं। इस अवधि में पश्चिमी यूरोप के सांस्कृतिक एवं बौद्धिक वर्ग ने परम्परा से हटकर तर्क, विश्लेषण तथा वैयक्तिक स्वातंत्र्य पर जोर दिया। ज्ञानोदय ने कैथोलिक चर्च एवं समाज में गहरी पैठ बना चुकी अन्य संस्थाओं को चुनौती दी।
यूरोप में 17वीं-18वीं शताब्दी में हुए क्रांतिकारी परिवर्तनों के कारण इस काल को प्रबोधन, ज्ञानोदय अथवा विवेक का युग कहा गया और इसका आधार पुनर्जागरण, धर्मसुधार आंदोलन व वाणिज्यिक क्रांति ने तैयार कर दिया था। पुनर्जागरण काल में विकसित हुई वैज्ञानिक चेतना ने, तर्क और अन्वेषण की प्रवृत्ति ने 18वीं शताब्दी में परिपक्वता प्राप्त कर ली। वैज्ञानिक चिंतन की इस परिपक्व अवस्था को 'प्रबोधन' के नाम से जाना जाता है। प्रबोधनकालीन चिंतकों ने इस बात पर बल दिया कि इस भौतिक दुनिया और प्रकृति में होने वाली घटनाओं के पीछे किसी न किसी व्यवस्थित अपरिवर्तनशील और प्राकृतिक नियम का हाथ है। फ्रांसिस बेकन ने बताया कि विश्वास मजबूत करने के तीन साधन हैं- अनुभव, तर्क और प्रमाण; और इनमें सबसे अधिक शक्तिशाली प्रमाण है क्योंकि तर्क/अनुभव पर आधारित विश्वास स्थिर नहीं रहता।
प्रबोधन के चिंतकों ने ज्ञान को प्राकृतिक विज्ञानों के साथ जोड़ दिया। पर्यववेक्षण, प्रयोग और आलोचनात्मक छानबीन की व्यवस्थित पद्धति का प्रयोग ज्ञानोदय के चिंतकों की नजर में सत्य तक पहुँचने का सक्षम आधार थी। उनके मुताबिक ज्ञान को प्रयोग एवं परीक्षा योग्य होना चाहिए। इसके पास ऐसे प्रमाण होना चाहिए जो बोधगम्य हो और मानव मस्तिष्क की पहुँच में हो। ज्ञान की इसी धारणा के आधार पर प्रबोधन ने पराभौतिक अनुमान और ज्ञान में विरोध बताया।
मध्ययुग में ईसाईमत का प्रभाव इसलिए माना जाता था कि ईश्वर द्वारा निर्मित इस दुनिया को मनुष्य नहीं जान सकता। इस परिभाषा के मुताबिक यह दुनिया मानवीय बुद्धि के लिए अगम है। मनुष्य एवं बह्मण्ड के बारे में सत्य का केवल “उद्घाटन” हो सकता है इसलिए उसे केवल पवित्र पुस्तकों के जरिए जाना जा सकता है। “जहाँ ज्ञान का प्रकाश आलोकित नहीं होता वहाँ विश्वास की ज्योति से रास्ता सूझता है।” यही विश्वास मध्य युग की विशेषता थी। ज्ञानोदय ने इस नजरिए को खारिज कर दिया और दावा किया कि जिन चीजों को बुद्धि के प्रयोग व व्यवस्थित पर्यवेक्षण से नहीं जाना जा सकता, वे मायावी हैं। मनुष्य ब्रह्माण्ड के रहस्यों को पूरी तरह समझ सकता है। प्रकृति के बारे में हमें पवित्र पुस्तकों के माध्यम से नहीं बल्कि प्रयोगों एवं परीक्षाओं के माध्यम से बात करनी चाहिए।
कार्य-कारण संबंध का अध्ययन विज्ञान संबंधी प्रबोधन चिन्तन का केन्द्रीय तत्व था। चिंतकों ने ऐसी पूर्ववर्ती घटना को चिन्हित करने की कोशिश की जिसका होना किसी परिघटना के पैदा होने के लिए अनिवार्य है और पूर्ववर्ती घटना के न होने के लिए अनिवार्य है और पूर्ववर्ती घटना के न होने से परवर्ती घटना नहीं पैदा होती। वस्तुतः कारणों की खोज प्राकृतिक एवं सामाजिक वातावरण पर मनुष्य का नियंत्रण बढ़ाने के साधन के रूप में की जाने लगी।
प्रबोधन युग के चिंतकों ने मानव के खुशी और भलाई पर बल दिया। उसके अनुसार मनुष्य स्वभाव से ही विवेकशील और अच्छा है किन्तु स्वार्थी धर्माधिकारियों और उनके बनाए गए नियमों ने मनुष्य को भ्रष्ट कर दिया यदि मनुष्य अपने को इन स्वार्थी धर्माधिकारियों के चुंगल से मुक्त कर सके तो एक आदर्श समाज की स्थापना की जा सकती है। प्रबोधन के चिंतको का मानना था कि दुनिया मशीन की तरह है जिनका नियंत्रण व संचालन कुछ खास नियमों के तहत् होता है। फलस्वरूप उन्हें आशा बनी कि इस अंतर्निहित नियमों को खोज वे ब्रह्माण्ड के रहस्य को समझ लेंगे और फिर उस पर काबू पा लेंगे। इसका उद्देश्य व्यक्तियों को अपने पर्यावरण पर नियंत्रण स्थापित करने में समर्थ बना देना था ताकि वे प्राकृतिक शक्तियों की विध्वंसात्मक शक्तियों से अपनी रक्षा कर सके साथ ही साथ प्रकृति की ऊर्जा का मानव जाति के फायदे के लिए इस्तेमाल कर सके। न्यूटन ने प्रकाश के मौलिक रहस्यों का पता लगाया और प्रकाश विज्ञान की स्थापना की। बेंजामिन फ्रैंकलिन सहित कई लोगों ने विद्युत की खोज में अपना योगदान दिया।
प्रबोधनयुगीन चिंतकों ने कहा कि कोई परमसत्ता है और इस दुनिया के समस्त प्राणी उसी के बनाए हुए हैं और इन सबके साथ क्रूरता का नहीं बल्कि दयालुता का आचरण करना चाहिए। इसके अनुसार ईश्वर की तुलना उस घड़ी-निर्माता से की जा सकती है जो घड़ी के निर्माण के बाद यह निर्देश नहीं देता कि उसमें समय का निर्देशन कैसे हो। इस देववाद (Deism / प्राकृतिक धर्म) में रीति-रिवाज, अनुष्ठानों तथा अप्राकृतिक तत्त्वों का बहिष्कार कर दिया गया और सभी मनुष्यों की समानता और सहिष्णुता को नए आधार के रूप में ग्रहण किया गया। इस तरह प्राकृतिक धर्म मनुष्यता का धर्म था और यह धर्म लोगों में दूसरों की खिल्ली उड़ाने और नफरत पैदा करने का स्रोत नहीं बनेगा, ज्ञानोदय (प्रबोधन) के चिंतकों का ऐसा मानना था।
ज्ञानोदय के चिंतक स्वतंत्रता व स्वच्छंदता के हिमायती थे। दिदरो ने व्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में तर्क देते हुए कहा- “प्रकृति ने किसी को भी दूसरों को आदेश देने का अधिकार नहीं दिया है, स्वतंत्रता दैवी दान है।” प्रबोधन के चिंतकों ने कहा कि सब मनुष्य एक समान उत्पन्न होते हैं उनमें जो विषमता पाई जाती है इसका कारण केवल यह है कि सबको शिक्षा एवं उन्नति का अवसर समान नहीं मिलता।
प्रबोधन ने प्रकृति के महत्व को प्रतिपादित किया। चिंतकों के अनुसार प्रकृति अपने सरल रूप में सौन्दर्य से परिपूर्ण है। प्रकृति की ओर लौट चलना एक प्रकार से स्वतंत्रता की ओर लौटने के बराबर है।
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