मनुस्मृति: एक हिंदू धर्मशास्त्र

मनुस्मृति हिन्दू धर्म व मानवजाति का एक प्राचीन धर्मशास्त्र व प्रथम संविधान (स्मृति) है। यह 1776 में अंग्रेजी में अनुवाद करने वाले पहले संस्कृत ग्रंथों में से एक था, ब्रिटिश फिलॉजिस्ट सर विलियम जोंस द्वारा, और ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के लाभ के लिए हिंदू कानून का निर्माण करने के लिए इस्तेमाल किया गया था। मनुस्मृति में कुल 12 अध्याय हैं जिनमें 2684 श्लोक हैं। कुछ संस्करणों में श्लोकों की संख्या 2964 है।

इस संदूक को: देखें  संवाद  संपादन

हिन्दू धर्म
श्रेणी

Om
इतिहास · देवता
सम्प्रदाय · पूजा ·
आस्थादर्शन
पुनर्जन्म · मोक्ष
कर्म · माया
दर्शन · धर्म
वेदान्त ·योग
शाकाहार शाकम्भरी  · आयुर्वेद
युग · संस्कार
भक्ति {{हिन्दू दर्शन}}
ग्रन्थशास्त्र
वेदसंहिता · वेदांग
ब्राह्मणग्रन्थ · आरण्यक
उपनिषद् · श्रीमद्भगवद्गीता
रामायण · महाभारत
सूत्र · पुराण
विश्व में हिन्दू धर्म
गुरु · मन्दिर देवस्थान
यज्ञ · मन्त्र
हिन्दू पौराणिक कथाएँ  · हिन्दू पर्व
विग्रह
प्रवेशद्वार: हिन्दू धर्म

मनुस्मृति: भारत से बाहर प्रभाव, मनुस्मृति के प्रणेता एवं काल, मनुस्मृति की संरचना एवं विषयवस्तु

हिन्दू मापन प्रणाली

इसकी गणना विश्व के ऐसे ग्रन्थों में की जाती है, जिनसे मानव ने वैयक्तिक आचरण और समाज रचना के लिए प्रेरणा प्राप्त की है। इसमें प्रश्न केवल धार्मिक आस्था या विश्वास का नहीं है। मानव जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति, किसी भी प्रकार आपसी सहयोग तथा सुरुचिपूर्ण ढंग से हो सके, यह अपेक्षा और आकांक्षा प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति में होती है। विदेशों में इस विषय पर पर्याप्त खोज हुई है, तुलनात्मक अध्ययन हुआ है और समालोचनाएँ भी हुई हैं। हिन्दु समाज में तो इसका स्थान वेदत्रयी के उपरान्त हैं। मनुस्मृति की पचासों पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुईं हैं। कालान्तर में बहुत से प्रक्षेप भी स्वाभाविक हैं। साधारण व्यक्ति के लिए यह सम्भव नहीं है कि वह बाद में सम्मिलित हुए अंशों की पहचान कर सके। कोई अधिकारी विद्वान ही तुलनात्मक अध्ययन के उपरान्त ऐसा कर सकता है।

भारत से बाहर प्रभाव

एन्टॉनी रीड कहते हैं कि बर्मा, थाइलैण्ड, कम्बोडिया, जावा-बाली आदि में धर्मशास्त्रों और प्रमुखतः मनुस्मृति, का बड़ा आदर था। इन देशों में इन ग्रन्थों को प्राकृतिक नियम देने वाला ग्रन्थ माना जाता था और राजाओं से अपेक्षा की जाती थी कि वे इनके अनुसार आचरण करेंगे। इन ग्रन्थों का प्रतिलिपिकरण किया गया, अनुवाद किया गया और स्थानीय कानूनों में इनको सम्मिलित कर लिया गया।

'बाइबल इन इण्डिया' नामक ग्रन्थ में लुई जैकोलिऑट (Louis Jacolliot) लिखते हैं:

    मनुस्मृति ही वह आधारशिला है जिसके ऊपर मिस्र, परसिया, ग्रेसियन और रोमन कानूनी संहिताओं का निर्माण हुआ। आज भी यूरोप में मनु के प्रभाव का अनुभव किया जा सकता है।
    (Manu Smriti was the foundation upon which the Egyptian, the Persian, the Grecian and the Roman codes of law were built and that the influence of Manu is still felt in Europe.)

मनु की प्रतिष्ठा , गरिमा और महिमा का प्रभाव एवं प्रसार विदेशों में भी भारत से कम नहीं रहा है । ब्रिटेन , अमेरिका , जर्मन से प्रकाशित इन्साइक्लोपीडिया में मनु को मानवजाति का आदि पुरुष आदि धर्मशास्त्रकार आदि विधिप्रणेता आदि न्यायशास्त्री और आदि समाजव्यवस्थापक वर्णित किया है । मनु के मन्तव्यों का समर्थन करते हुए अपनी पुस्तकों में मैक्समूलर , ए.ए. मैकडानल , ए.श्री . कीथ , पी . थामस , लुईसरेनो आदि पाश्चात्य लेखकों ने मनुस्मृति को धर्मशास्त्र के साथ - साथ एक ' लॉ बुक ' भी माना है और उसके विधानों को सार्वभौम , सार्वजनीन तथा सबके लिए कल्याणकारी बताया है । भारतीय सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जज सर विलियम जोन्स ने तो भारतीय विवादों के निर्णय में मनुस्मृति की अपरिहार्यता को देखकर संस्कृत सीखी और मनुस्मृति को पढ़कर उसका सम्पादन भी किया । जर्मन के प्रसिद्ध दार्शनिक प्रौडरिच नीत्से ने तो यहां तक कहा कि मनुस्मृति बाइबल से उत्तम ग्रंथ है बल्कि उससे बाइबल की तुलना करना ही पाप है । अमेरिका से प्रकाशित इन्साइक्लोपीडिया आफ दि सोशल साइंसिज , कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया , कीथरचित हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर , भारतरत्न पी . वी . काणे रचित धर्मशास्त्र का इतिहास , डॉ ० सत्यकेतु रचित दक्षिण - पूर्वी और दक्षिण एशिया में भारतीय संस्कृति आदि पुस्तकों में विदेशों में मनुस्मृति के प्रभाव और प्रसार का जो विवरण दिया गया है , उसे पढ़कर प्रत्येक भारतीय अपने अतीत पर गर्व कर सकता है ।

मनुस्मृति के प्रणेता एवं काल

मनुस्मृति के काल एवं प्रणेता के विषय में नवीन अनुसंधानकारी विद्वानों ने पर्याप्त विचार किया है। किसी का मत है कि "मानव" चरण (वैदिक शाखा) में प्रोक्त होने के कारण इस स्मृति का नाम मनुस्मृति पड़ा। कोई कहते हैं कि मनुस्मृति से पहले कोई 'मानव धर्मसूत्र' था (जैसे, मानव गृह्यसूत्र आदि हैं) जिसका आश्रय लेकर किसी ने एक मूल मनुस्मृति बनाई थी जो बाद में उपबृंहित होकर वर्तमान रूप में प्रचलित हो गई। मनुस्मृति के अनेक मत या वाक्य जो निरुक्त, महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलते हैं, उनके हेतु पर विचार करने पर भी कई उत्तर प्रतिभासित होते हैं। इस प्रकार के अनेक तथ्यों का बूहलर (Buhler, G.) (सैक्रेड बुक्स ऑव ईस्ट सीरीज, संख्या २५), पाण्डुरंग वामन काणे (हिस्ट्री ऑव धर्मशात्र में मनुप्रकरण) आदि विद्वानों ने पर्याप्त विवेचन किया है। यह अनुमान बहुत कुछ तर्कसंगत प्रतीत होता है कि मनु के नाम से धर्मशास्त्रीय विषय परक वाक्य समाज में प्रचलित थे, जिनका निर्देश महाभारत आदि में है तथा जिन वचनों का आश्रय लेकर वर्तमान मनुसंहिता बनाई गई, साथ ही प्रसिद्धि के लिये भृगु नामक प्राचीन ऋषि का नाम उसके साथ जोड़ दिया गया। मनु से पहले भी धर्मशास्त्रकार थे, यह मनु के "एते" आदि शब्दों से ही ज्ञात हुआ है। कौटिल्य ने "मानवाः" (मनुमतानुयायियों) का उल्लेख किया है।

चीन से प्राप्त पुरातात्विक प्रमाण के अनुसार मनुस्मृति कम से कम १०,२२० ईसा पूर्व प्राचीनतम सिद्ध हुई है।

विद्वानों के अनुसार मनु परम्परा की प्राचीनता होने पर भी वर्तमान मनुस्मृति ईसापूर्व चतुर्थ शताब्दी से प्राचीन नहीं हो सकती (यह बात दूसरी है कि इसमें प्राचीनतर काल के अनेक वचन संगृहीत हुए हैं), यह बात यवन, शक, कंबोज, चीन आदि जातियों के निर्देश से ज्ञात होती है। यह भी निश्चित हे कि स्मृति का वर्तमान रूप द्वितीय शती ईसा पूर्व तक दृढ़ हो गया था और इस काल के बाद इसमें कोई संस्कार नहीं किया गया।

मनुस्मृति की संरचना एवं विषयवस्तु

मनुस्मृति भारतीय आचार-संहिता का विश्वकोश है, मनुस्मृति में बारह अध्याय तथा दो हजार पाँच सौ श्लोक हैं, जिनमें सृष्टि की उत्पत्ति, संस्कार, नित्य और नैमित्तिक कर्म, आश्रमधर्म, वर्णधर्म, राजधर्म व प्रायश्चित आदि विषयों का उल्लेख है।

(१) जगत् की उत्पत्ति

(२) संस्कारविधि, व्रतचर्या, उपचार

(३) स्नान, दाराघिगमन, विवाहलक्षण, महायज्ञ, श्राद्धकल्प

(४) वृत्तिलक्षण, स्नातक व्रत

(५) भक्ष्याभक्ष्य, शौच, अशुद्धि, स्त्रीधर्म

(६) गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ, मोक्ष, संन्यास

(७) राजधर्म

(८) कार्यविनिर्णय, साक्षिप्रश्नविधान

(९) स्त्रीपुंसधर्म, विभाग धर्म, धूत, कंटकशोधन, वैश्यशूद्रोपचार

(१०) संकीर्णजाति, आपद्धर्म

(११) प्रायश्चित्त

(१२) संसारगति, कर्म, कर्मगुणदोष, देशजाति, कुलधर्म, निश्रेयस।

मनुस्मृति में व्यक्तिगत चित्तशुद्धि से लेकर पूरी समाज व्यवस्था तक कई ऐसी सुंदर बातें हैं जो आज भी हमारा मार्गदर्शन कर सकती हैं। जन्म के आधार पर जाति और वर्ण की व्यवस्था पर सबसे पहली चोट मनुस्मृति में ही की गई है (श्लोक-12/109, 12/114, 9/335, 10/65, 2/103, 2/155-58, 2/168, 2/148, 2/28)। सबके लिए शिक्षा और सबसे शिक्षा ग्रहण करने की बात भी इसमें है (श्लोक- 2/198-215)। स्त्रियों की पूजा करने अर्थात् उन्हें अधिकाधिक सम्मान देने, उन्हें कभी शोक न देने, उन्हें हमेशा प्रसन्न रखने और संपत्ति का विशेष अधिकार देने जैसी बातें भी हैं (श्लोक-3/56-62, 9/192-200)। राजा से कहा गया है कि वह प्रजा से जबरदस्ती कुछ न कराए (8/168)। यह भी कहा गया कि प्रजा को हमेशा निर्भयता महसूस होनी चाहिए (8/303)। सबके प्रति अहिंसा की बात की गई है (4/164)।

सप्तांग राज्य का सिद्धान्त

भारतीय राजदर्शन में मनु द्वारा प्रतिपादित सप्तांग राज्य सिद्धान्त अत्यन्त चर्चित है। इसके अनुसार, राज्य एक शरीर की भाँति है जिसके सात अंग हैं। ये सभी राज्य-रूपी शरीर की प्रकृतियां है जिनके बिना राज्य संचालन की कल्पना करना कठिन है। मनुस्मृति के अध्याय 9 के श्लोक 294 में राज्य के सात अंग गिनाये गये हैं-

    (1) स्वामी अर्थात् राजा, (2) मंत्री, (3) पुर (दुर्ग), (4) राष्ट्र, (5) कोष, (6) दण्ड तथा (7) मित्र

इन सात अंगों से निर्मित राज्य का प्रत्येक अंग एक विशिष्ट कार्य करता है और इसी कारण उसका महत्व है। मनु के अनुसार यदि इनमें से किसी भी एक अंश की उपेक्षा होती है तो राजा के लिये राज्य का कुशल संचालन सम्भव नहीं है।

राजा सम्बन्धी विचार

मनु के अनुसार जिस राजा के राज्य में न चोर , न परस्त्रीगामी , न दुष्ट वचन बोलने वाला , न साहसिक डाकू , और न ही राजा की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला है , वह राजा अतीव श्रेष्ठ है । मनु ने राजा को अनेक राजाओं के सारभूत अंश से निर्मित बताया है। राजा ईश्वर से उत्पन्न है अतः उसका अपमान नहीं हो सकता है। राजा से द्वेष करने का अर्थ है कि स्वयं को विनाश की ओर ले जाना। “मनु स्मृति में तो यहां तक लिखा है कि राजा में अनेक देवता प्रवेश करते हैं। अतः वह स्वयं एक देवता बन जाता है। “मनु स्मृति के अनुसार- “ऐसा राजा इन्द्र अथवा विद्युत के समान एश्वर्यकर्ता, पवन के समान सबके प्राणावत, प्रिय तथा हृदय की बात जानने वाला, यम के समान पक्षपात-रहित न्यायधीश, सूर्य के समान न्याय, धर्म तथा विद्या का प्रकाश, अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करने वाला, वरूण के समान दुष्टों को अनेक प्रकार से बांधने वाला, चन्द्र के समान श्रेष्ठ पुरूषों को आनन्द देने वाला तथा कुबेर के समान कोष भरने वाला होना चाहिए।"

परस्परविरुद्धानां तेषां च समुपार्जनम् । कन्यानां सम्प्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम् ॥

अर्थात् राजा को चाहिये कि वह धर्म- अर्थ- काम में कहीं परस्पर विरोध आ पड़ने पर उसे दूर करें , धर्म अर्थ में अभिवृद्धि करें और कन्याओं एवं कुमारों को गुरुकुलों में भेजकर शिक्षा दिलाना , उनकी सुरक्षा तथा विवाह आदि की नियम व्यवस्था करे ।

मनु ने राजा के गुणों एवं कर्तव्यों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। मनु के अनुसार राजा को प्रजा तथा ब्राहमणों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहना चाहिए। राजा को अपने इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना चाहिए। उसे काम, क्रोध आदि से मुक्त रहना चाहिए। "मनुस्मृति" में स्पष्ट किया गया है कि उसे शिकार, जुआ, दिवाशयन, परनिन्दा, परस्त्री प्रेम, मद्यपान, नाच-गाना, चुगलखोरी, ईर्ष्या, परछिद्रान्वेषण, कटुवचन,धन का अपहरण आदि से बचना चाहिए। मनु स्मृति में राजा के लिये मुख्य निर्देश निम्न हैं

1.वह शस्त्र धन, धान्य, सेना, जल आदि से परिपूर्ण पर्वतीय दुर्ग में हर प्रकार से सुरक्षित निवास करे ताकि वह शत्रुओं से बच सके।

2.राजा स्वजातीय और सर्वगुण सम्पन्न स्त्री से विवाह करे।

3. राजा समय-समय पर यज्ञ का आयोजन करे और ब्राह्मणों को दान करे।

4. प्रजा से कर वसूली ईमानदार एवं योग्य कर्मचारियों के द्वारा किया जाना चाहिए। प्रजा के साथ राजा का संबंध पिता-पुत्र की तरह होना चाहिए।

5. राजा को युद्ध के लिये तैयार रहना चाहिए। युद्ध में मृत्यु से उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी।

6. विभिन्न राजकीय कार्यों के लिये विभिन्न अधिकारियों की नियुक्ति की जाय।

7. राजा को विस्तारवादी नीति को अपनाना चाहिए।

8. अपने सैन्य बल एवं बहादुरी का सदैव प्रदर्शन करना चाहिए।

9. गोपनीय बातों का गोपनीय बनाकर रखना चाहिए। शत्रुओं की योजनाओं को समझने के लिये मजबूत गुप्तचर व्यवस्था रखनी चाहिए।

10. अपने मंत्रियों को सदैव विश्वास में रखना चाहिए।

11. राजा सदैव सर्तक रहे। अविश्वसनीय पर बिल्कुल विश्वास न करे और विश्वसनीय पर पैनी निगाह रखे।

12. राजा को राज्य की रक्षा तथा शत्रु के विनाश के लिये तत्पर रहना चाहिए।

13. राजा को अपने कर्मचारियों, अधिकारियों के आचरण की जांच करते रहना चाहिए। गलत पाने पर उनको पदच्युत कर देना चाहिए।

14. राजा को मृदुभाषी होना चाहिए।

मनु ने राजा की दिनचर्या का भी वर्णन किया है। उनने सम्पूर्ण दिन को तीन भागों में बांटकर प्रत्येक के लिये अलग-अलग कार्य निर्धारित किये हैं। राजा को स्नान एवं ध्यान के बाद ही न्याय का कार्य करना चाहिए। राजकार्यों के संबंध में अपने मंत्रियों के साथ तथा विदेश मामलों में अपने गुप्तचरों एवं राजदूतों के साथ परामर्श नियमित रूप से करना चाहिए। "मनुस्मृति" में राजा के गतिशील जीवन की चर्चा की गई है। इसमें राजा को सदैव सजग और सावधान रहने की आशा की जाती है।

    युद्ध एवं संकट के समय राजा के कार्य

मनुस्मृति में युद्ध के समय राजा के कर्तव्यों पर प्रकाश डाला गया है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि युद्ध के समय राजा को भयभीत नहीं होना चाहिए और पूरी तैयारी और मनोबल के साथ शत्रु का संहार करना चाहिए। यह राजा का धर्म है कि वह शत्रु का संहार कर मातृभूमि की रक्षा करें। "मनुस्मृति" में स्पष्ट किया गया है कि शांति के समय प्रजा के धान्य का छठा-आठवां भाग प्राप्त करे परन्तु युद्ध के समय वह चौथा भाग भी प्राप्त कर सकता है। आपातकाल में राजा द्वारा अतिरिक्त कर लेना कोई पाप नहीं है।

शासन-संबंधी विचार

मनु के अनुसार शासन का मुख्य उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम की प्राप्ति में सहायक होना है। अतः राजा को अपने सहयोगियों (मंत्रियों) के माध्यम से इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। मनुस्मृति में स्पष्ट किया गया है कि राजा को सदैव लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, जो प्राप्त हो गया है उसे सुरक्षित रखने का प्रयास करना चाहिए। राजकोष को भरने का सदैव प्रयास करना चाहिए। समाज के कमजोर एवं सुपात्र लोगों को दान करना चाहिए। राजा को प्रजा के साथ पुत्रवत वर्ताव करना चाहिए तथा राष्ट्रहित में कठोर भी हो जाना चाहिए। राजा को न्यायी, सिद्धान्तप्रिय तथा मातृभूमि से प्रेम करने वाला होना चाहिए।

राजा को राजकार्य में सहायता देने के लिए मंत्रियों की व्यवस्था है। मनुस्मृति में "मंत्री" शब्द का प्रयोग नहीं है परन्तु 'सचिव' शब्द का प्रयोग कई बार मिलता है। मनुस्मृति में कहा गया है कि अकेले आदमी से सरल काम भी मुश्किल हो जाता है। अतः शासन के जटिल कार्यों के लिये मंत्री नियुक्त किये जाने चाहिए। वे विद्वान, कर्तव्यपरायण, शास्त्रज्ञाता, कुलीन तथा अनुभवी होने चाहिए। शासन कार्य में एकांत में तथा अलग-अलग तथा आवश्यकतानुसार संयुक्त मत्रंणा करनी चाहिए। मंत्रियों को उनकी योग्यतानुसार कार्य सौंपना चाहिए। यहां पर मनु स्पष्ट करते हैं - 'सूर, दक्ष और कुलीन सदस्य को वित्त विभाग; शुचि आचरण से युक्त व्यक्ति को रत्न एवं खनिज विभाग; सम्पूर्ण शाखों के ज्ञाता मनोवैज्ञानिक, अन्तःकरण से शुद्ध तथा चतुर कुलीन व्यक्ति को संधि-विग्रह विभाग का अधिष्ठाता बनाया जाना चाहिए। मंत्रिपरिषद के अमात्य नामक व्यक्ति को दण्ड विभाग, सेना विभाग तथा राजा को राष्ट्र एवं कोष अपने अधीन रखना चाहिए। इनमें से वह ब्राह्मणों को विशेष महत्व देने पर बल देते हैं। उनका मत है कि -" इस पृथ्वी पर जो कुछ भी है वह ब्राह्मण ही है। ब्राह्मण ब्रह्मा का ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ पुत्र है।"

मनु की मान्यता है कि मत्रणा अत्यन्त गोपनीय होनी चाहिए। इसके लिए मध्याह्न अथवा आधी रात को उपयुक्त माना है। मनुस्मृति से यह भी पता चलता है कि उस समय मंत्रियों का राजा के प्रति उत्तरदायित्व, मत्रंणा की गोपनीयता मिलकर निर्णय लेने की भावना तथा मंत्रियों में विभागों के बंटवारे की व्यवस्था विकसित हो गई थी। प्रशासनिक कार्यों के संचालन के लिये वह योग्य, अनुभवी तथा ईमानदार कर्मचारी की नियुक्ति के पक्षधर हैं। भ्रष्ट अधिकारियों पर पैनी निगाह रखते हुए उनके विरूद्ध कठोर कार्यवाही करने चाहिए। कर्मचारियों एवं महत्वपूर्ण पदाधिकारियों पर नजर रखने के लिये गुप्तचर व्यवस्था को प्रभावी बनाया जाना चाहिए। राजदूत के संबंध में मनु ने स्पष्ट किया है कि निर्भीक प्रकृति के, सुवक्ता, देश-काल पहचानने वाले, हृदय एवं मनोभाव को पहचानने वाले, विविध लिपियों के ज्ञाता तथा विश्वासपात्र को राजदूत बनाया जाना चाहिए।

टीकाएं

मनु पर कई व्याख्याएँ प्रचलित हैं-

    (1) मेधातिथि कृत भाष्य;
    (2) कुल्लूक भट्ट द्वारा रचित मन्वर्थमुक्तावली टीका;
    (3) नारायण कृत मन्वर्थ विवृत्ति टीका;
    (4) राघवानन्द कृत मन्वर्थ चन्द्रिका टीका;
    (5) नन्दन कृत नन्दिनी टीका;
    (6) गोविन्दराज कृत मन्वाशयानसारिणी टीका आदि।

मनु के अनेक टीकाकारों के नाम ज्ञात हैं, जिनकी टीकाएँ अब लुप्त हो गई हैं, यथा- असहाय, भर्तृयज्ञ, यज्वा, उपाध्याय ऋजु, विष्णुस्वामी, उदयकर, भारुचि या भागुरि, भोजदेव धरणीधर आदि।

भारत में वेदों के उपरान्त सर्वाधिक मान्यता और प्रचलन ‘मनुस्मृति’ का ही है। इसमें चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, भांति-भांति के विवादों, सेना का प्रबन्ध आदि उन सभी विषयों पर परामर्श दिया गया है जो कि मानव मात्र के जिवन में घटित होने सम्भव हैं यह सब धर्म-व्यवस्था वेद पर आधारित है। मनु महाराज के जीवन और उनके रचनाकाल के विषय में इतिहास-पुराण स्पष्ट नहीं हैं, तथापि सभी एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि मनु आदिपुरुष थे और उनका यह शास्त्र आदिशास्त्र है क्योंकि मनु की समस्त मान्यताएँ सत्य होने के साथ-साथ देश, काल तथा जाति बन्धनों से रहित हैं।

मनुस्मृति के कुछ चुने हुए विचार (श्लोक)

    जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते।
      अर्थ - जन्म से जो शूद्र होते हैं, कर्म के आधार पर उनका नया वर्ण होता है अतः सभी द्विज कहलाते हैं।
    धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः।
    धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ॥
      अर्थ - धर्म के दस लक्षण हैं - धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, स्वच्छता, इन्द्रियों को वश में रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना (अक्रोध)।
    नास्य छिद्रं परो विद्याच्छिद्रं विद्यात्परस्य तु।
    गूहेत्कूर्म इवांगानि रक्षेद्विवरमात्मन: ॥
    वकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत्।
    वृकवच्चावलुम्पेत शशवच्च विनिष्पतेत् ॥
      अर्थ - कोई शत्रु अपने छिद्र (निर्बलता) को न जान सके और स्वयं शत्रु के छिद्रों को जानता रहे, जैसे कछुआ अपने अंगों को गुप्त रखता है, वैसे ही शत्रु के प्रवेश करने के छिद्र को गुप्त रक्खे। जैसे बगुला ध्यानमग्न होकर मछली पकड़ने को ताकता है, वैसे अर्थसंग्रह का विचार किया करे, शस्त्र और बल की वृद्धि कर के शत्रु को जीतने के लिए सिंह के समान पराक्रम करे। चीते के समान छिप कर शत्रुओं को पकड़े और समीप से आये बलवान शत्रुओं से शश (खरगोश) के समान दूर भाग जाये और बाद में उनको छल से पकड़े।
    नोच्छिष्ठं कस्यचिद्दद्यान्नाद्याचैव तथान्तरा।
    न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्ट: क्वचिद् व्रजेत् ॥
      अर्थ - न किसी को अपना जूठा पदार्थ दे और न किसी के भोजन के बीच आप खावे, न अधिक भोजन करे और न भोजन किये पश्चात हाथ-मुंह धोये बिना कहीं इधर-उधर जाये।
    तैलक्षौमे चिताधूमे मिथुने क्षौरकर्मणि।
    तावद्भवति चांडालः यावद् स्नानं न समाचरेत् ॥
      अर्थ - तेल-मालिश के उपरान्त, चिता के धूंऐं में रहने के बाद, मिथुन (संभोग) के बाद और केश-मुण्डन के पश्चात - व्यक्ति तब तक चांडाल (अपवित्र) रहता है जब तक स्नान नहीं कर लेता - मतलब इन कामों के बाद नहाना जरूरी है।
    अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।
    संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥
      अर्थ - अनुमति (= मारने की आज्ञा) देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले - ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं।
    यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
    यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।
    अर्थ - अर्थात् जहाँ स्त्रियों का आदर किया जाता है ,
    वहाँ देवता रमण करते हैं और जहाँ इनका अनादर होता है , वहाँ सब कार्य निष्फल होते हैं।


प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हा गृहदीप्तयः । स्त्रियः श्रियश्च गेहेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन ॥

अर्थ - स्त्रियां सन्तान को उत्पन्न करके वंश को आगे बढ़ाने वाली हैं , स्वयं सौभाग्यशाली हैं और परिवार का भाग्योदय करने वाली हैं , वे पूजा अर्थात् सम्मान की अधिकारिणी हैं , प्रसन्नता और सुख से घर को प्रकाशित या प्रसन्न करने वाली हैं , यों समझिये कि घरों में स्त्रियों और लक्ष्मी तथा शोभा में कोई विशेष अन्तर नहीं है अर्थात् स्त्रियां घर की लक्ष्मी और शोभा हैं ।


आसमुद्रात्त वै पूर्वादासमुदात्त पश्चिमात्। नयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त्त विदुर्बुधाः ॥

अर्थ - जिस क्षेत्र के पूर्व और पश्चिम में समुद्र है , जो पर्वतों के मध्य है तथा घिरा हुआ है वह सरस्वती तथा दृषद्वती ( ब्रह्मा कि इरावती ) नदियों के अंतर में स्थित है । वह देव निर्मित आर्यावर्त देश है ।

आर्ष धर्मोपदेशं च वेदशास्त्र अविरोधिना । यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्मं वेद नेतरः ।।

अर्थ - जो मनुष्य धर्मशास्त्र का वेदशास्त्र के अनुकूल तर्क के द्वारा अनुसंधान और चिन्तन करता है, वही धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझ पाता है , अन्य नहीं ॥

मनु और कौटिल्य के विचारों की तुलना

मनु और कौटिल्य प्राचीन भारत के प्रमुख राजनीतिक विचारक थे। उनके विचारों में अनेक बिन्दुओं पर समानता तथा अनेक बिन्दुओं पर असमानता दिखायी पड़ती है।

दोनों ही विद्वान प्राचीन भारतीय परम्पराओं रीतियों एवं वर्णाश्रम व्यवस्था को स्वीकार करते हैं। कौटिल्य ने सृष्टि के सम्बन्ध में स्पष्ट मत नहीं रखा है परन्तु मनु का मत है कि ब्राह्मणों का जन्म ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रियों की उत्पति उनकी भुजाओं से, वैश्यों की उत्पति उनके पेट से हुई है। दोनों मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष मानते है। दोनों ही दण्डनीति को स्वीकार करते है। मनु के अनुसार दण्ड ही राजा है। राज्य की उत्पति के संबंध में दोनों के विचार समान है। मनु दैवीय उत्पति के सिद्धान्त को तो मानते हैं परन्तु उसमें समझौते की झलक मिलती है। कौटिल्य भी उत्पति के संबंध में समझौतावादी सिद्धान्त स्वीकार करता है। दोनों ही सावयवी सिद्धान्त (Organic Theory), को स्वीकार करते हुए राज्य रूपी शरीर के सात अंग (सप्ताङ्ग) बताये है। इनमें स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड और मित्र प्रमुख हैं। दोनों ने ही राजतन्त्र को श्रेष्ठ शासन माना है। वे राज्य को सर्व सत्ताधारी बताते है। दोनों की राज्य का समान लक्ष्य मानते हैं। दोनों ने प्रशासन में मंत्रियों की भूमिका को स्वीकार किया है। मंत्रियों की योग्यता के संबंध में दोनों के विचार समान है। कौटिल्य ने राजनीतिक व्यवस्था पर अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में व्यापक व्याख्या की परन्तु मनु ने इतनी व्यापक व्याख्या नहीं की। कर व्यवस्था पर दोनों के विचार समान हैं। वे कर जन-कल्याण के लिये लगाने पर बल देते थे। अन्तर्राष्ट्रीय मामलों अथवा विदेश नीति के संचालन में दोनों ही षाड्गुण्य नीति तथा मण्डल सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

विवाद

"एक लड़की हमेशा अपने पिता के संरक्षण में रहनी चाहिए, शादी के बाद पति उसका संरक्षक होना चाहिए, पति की मौत के बाद उसे अपने बच्चों की दया पर निर्भर रहना चाहिए, किसी भी स्थिति में एक महिला आज़ाद नहीं हो सकती।"

मनुस्मृति के पांचवें अध्याय के 148वें श्लोक में ये बात लिखी है। ये महिलाओं के बारे में मनुस्मृति की राय साफ़ तौर पर बताती है। मनुस्मृति का पांचवे अध्याय के १४७ एवं १४८ वें श्लोक अनेक अन्य श्लोकों एवं मापदंडों के अनुसार प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं। मनुस्मृति के अनुसार स्त्रियों की रक्षा बलपूर्वक नहीं हो सकती :

न कश्चिद्योषितः शक्तः प्रसह्य परिरक्षितुम् । (मनु. ९/१०)

अर्थात् कोई भी व्यक्ति बलात् या दबाव के साथ स्त्रियों की कुसंगों से रक्षा नहीं कर सकता।

अरक्षिता गृहे रुद्धाः पुरुषैराप्तकारिभिः । आत्मानमात्मना यास्तु रक्षेयुस्ताः सुरक्षिताः ॥ (मनु. ९/१२)

अर्थात् स्त्रियां आत्मनियन्त्रण से ही बुराइयों से बच सकती हैं—क्योंकि घनिष्ठ आज्ञा कर्ता पिता , माता , पति आदि द्वारा घर में बलात् रोककर रखी हुई अर्थात् निगरानी में रखी जाती हुई स्त्रियां भी असुरक्षित हैं, बुराइयों से बच नहीं पाती किन्तु जो तो अपनी रक्षा स्वयं अपने विवेक से करती हैं वस्तुतः वे ही गलत कार्यों में न पड़कर सुरक्षित रहती हैं।

तस्मादेता : सदा पूज्या : भूषणाच्छादनाशनैः । भूतिकामैर्नरैर्नित्यं सत्कारेषूत्सवेषु च ॥ (मनु. ३/५९)

अर्थात् ऐश्वर्य की इच्छा करने वाले पुरुषों को योग्य है कि सत्कार के अवसरों और उत्सवों में स्त्रियों का भूषण , वस्त्र , खान - पान आदि से सदा पूजा अर्थात् सत्कार कर प्रसन्न रखें ।

सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च । यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ॥ ६० ॥ (मनु. ३/६०)

अर्थात् जिस कुल में निरन्तर पत्नी के व्यवहार से पति सन्तुष्ट रहता है और उसी प्रकार पति के व्यवहार से पत्नी सन्तुष्ट रहती है, उस कुल का कल्याण निश्चित होता है।

आधुनिक टिप्पणियाँ

मनुस्मृति के दृश्य भारतीय नेताओं में भिन्न हैं। अंबेडकर (बाएं) ने इसे 1927 में जला दिया, जबकि गांधी (दाएं) ने इसे उदात्त और साथ ही विरोधाभासी शिक्षाओं का मिश्रण पाया। गांधी ने एक महत्वपूर्ण पढ़ने, और उन भागों की अस्वीकृति का सुझाव दिया जो अहिंसा के विपरीत थे।

मनुस्मृति मूल्यांकन और आलोचना के अधीन है। [१००] 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में पाठ के उल्लेखनीय भारतीय आलोचकों में डॉ बी आर अम्बेडकर थे, जिन्होंने भारत में जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को जिम्मेदार ठहराया। विरोध में, अम्बेडकर ने 25 दिसंबर, 1927 को मनुस्मृति को अलाव में जलाया। जबकि डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने मनुस्मृति की निंदा की, महात्मा गांधी ने पुस्तक को जलाने का विरोध किया। उत्तरार्द्ध ने कहा कि जबकि जातिगत भेदभाव आध्यात्मिक और राष्ट्रीय विकास के लिए हानिकारक था, इसका हिंदू धर्म और मनुस्मृति जैसे ग्रंथों से कोई लेना-देना नहीं था। गांधी ने तर्क दिया कि पाठ अलग-अलग कॉलिंग और व्यवसायों को पहचानता है, किसी के अधिकारों को नहीं बल्कि किसी के कर्तव्यों को परिभाषित करता है, कि शिक्षक से लेकर चौकीदार तक सभी के लिए समान रूप से आवश्यक है, और समान दर्जा। गांधी ने मनुस्मृति को उदात्त शिक्षाओं को शामिल करने के लिए माना लेकिन एक पाठ जिसमें असंगति और अंतर्विरोध थे, जिसका मूल पाठ किसी के अधिकार में नहीं है। उन्होंने सिफारिश की कि किसी को पूरे पाठ को पढ़ना चाहिए, मनुस्मृति के उन हिस्सों को स्वीकार करना चाहिए जो "सत्य और अहिंसा (दूसरों के लिए अहिंसा या अहिंसा)" और अन्य भागों की अस्वीकृति के अनुरूप हैं।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

संबंधित कड़ियाँ

Tags:

मनुस्मृति भारत से बाहर प्रभावमनुस्मृति के प्रणेता एवं कालमनुस्मृति की संरचना एवं विषयवस्तुमनुस्मृति राजा सम्बन्धी विचारमनुस्मृति शासन-संबंधी विचारमनुस्मृति टीकाएंमनुस्मृति के कुछ चुने हुए विचार (श्लोक)मनुस्मृति मनु और कौटिल्य के विचारों की तुलनामनुस्मृति विवादमनुस्मृति आधुनिक टिप्पणियाँमनुस्मृति इन्हें भी देखेंमनुस्मृति सन्दर्भमनुस्मृति संबंधित कड़ियाँमनुस्मृतिधर्मशास्त्रविलियम जोंस (भाषाशास्त्री)स्मृतिहिन्दू धर्म

🔥 Trending searches on Wiki हिन्दी:

बौद्ध धर्मभारत की जनगणना २०११इज़राइलक्रिकेट के नियमभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहासभूषण (हिन्दी कवि)सर्व शिक्षा अभियानसर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के अनुसार भारत के राज्यजाटविश्व व्यापार संगठनप्रीति ज़िंटागूगलयोगआन्ध्र प्रदेशशिव पुराणजियोदिल्लीराजनाथ सिंहभुगतानभारत का इतिहासराजस्थान विधानसभा चुनाव 2023पुनर्जागरणरबीन्द्रनाथ ठाकुरअशोक के अभिलेखजल प्रदूषणराजनीतिछत्तीसगढ़कोलकाता नाईट राइडर्सराष्ट्रीय पुस्तकालय (भारत)नई शिक्षा नीति 2020प्रकाश राजविज्ञापनवैष्णो देवी मंदिरमीणाउत्तर प्रदेशपदानुक्रमपप्पू यादवझारखण्डआदर्श चुनाव आचार संहितागलसुआसुकरातजियो सिनेमाभारत की राजनीतिउदारतावादगुप्त राजवंशबाल गंगाधर तिलकपारिभाषिक शब्दावलीलोक सभाबिहारी (साहित्यकार)आईसीसी विश्व ट्वेन्टी २०भूकम्पअनुच्छेद 370 (भारत का संविधान)मुलायम सिंह यादवहनुमानआदि शंकराचार्यए॰ पी॰ जे॰ अब्दुल कलामसिकंदरलता मंगेशकरसाक्षात्कारसूरत लोक सभा निर्वाचन क्षेत्रजैन धर्मअजंता गुफाएँआवर्त सारणीवैद्यनाथ मन्दिर, देवघरपृथ्वी का इतिहासकुर्मीप्राचीन मिस्रअमरनाथगुम है किसी के प्यार मेंमैंने प्यार कियाजसप्रीत बुमराहप्याज़े का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्तबादशाह (गायक)नई दिल्ली लोकसभा निर्वाचन क्षेत्ररस (काव्य शास्त्र)स्वस्तिवाचनबृहस्पति (ग्रह)मौर्य राजवंश🡆 More