अर्थशास्त्र , कौटिल्य या चाणक्य (चौथी शदी ईसापूर्व) द्वारा रचित संस्कृत का एक ग्रन्थ है। इसमें राज्यव्यवस्था, कृषि, न्याय एवं राजनीति आदि के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया है। अपने तरह का (राज्य-प्रबन्धन विषयक) यह प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसकी शैली उपदेशात्मक और सलाहात्मक (instructional) है।
अर्थशास्त्र (ग्रन्थ) | |
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लेखक | कौटिल्य |
देश | भारत |
भाषा | संस्कृत |
विषय | Statecraft, Economic policy and Military strategy |
प्रकाशन तिथि | 3rd century BCE |
यह प्राचीन भारतीय राजनीति का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसके रचनाकार का व्यक्तिनाम विष्णुगुप्त, गोत्रनाम कौटिल्य ('कुटिल' से व्युत्पत्न्न) और स्थानीय नाम चाणक्य (पिता का नाम 'चणक' होने से) था। अर्थशास्त्र (15.431) में लेखक का स्पष्ट कथन है:
चाणक्य सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य (323-298 ई.पू.) के महामंत्री थे। उन्होंने चंद्रगुप्त के प्रशासकीय उपयोग के लिए इस ग्रंथ की रचना की थी। यह मुख्यतः सूत्रशैली में लिखा हुआ है और संस्कृत के सूत्रसाहित्य के काल और परम्परा में रखा जा सकता है। यह शास्त्र अनावश्यक विस्तार से रहित, समझने और ग्रहण करने में सरल एवं कौटिल्य द्वारा उन शब्दों में रचा गया है जिनका अर्थ सुनिश्चित हो चुका है। (अर्थशास्त्र, 15.6)'
अर्थशास्त्र में समसामयिक राजनीति, अर्थनीति, विधि, समाजनीति, तथा धर्मादि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस विषय के जितने ग्रंथ अभी तक उपलब्ध हैं उनमें से वास्तविक जीवन का चित्रण करने के कारण यह सबसे अधिक मूल्यवान् है। इस शास्त्र के प्रकाश में न केवल धर्म, अर्थ और काम का प्रणयन और पालन होता है अपितु अधर्म, अनर्थ तथा अवांछनीय का शमन भी होता है (अर्थशास्त्र, 15.431)।
इस ग्रंथ की महत्ता को देखते हुए कई विद्वानों ने इसके पाठ, भाषांतर, व्याख्या और विवेचन पर बड़े परिश्रम के साथ बहुमूल्य कार्य किया है। शाम शास्त्री और गणपति शास्त्री का उल्लेख किया जा चुका है। इनके अतिरिक्त यूरोपीय विद्वानों में हर्मान जाकोबी (ऑन दि अथॉरिटी ऑव कौटिलीय, इं.ए., 1918), ए. हिलेब्रांड्ट, डॉ॰ जॉली, प्रो॰ए.बी. कीथ (ज.रा.ए.सी.) आदि के नाम आदर के साथ लिए जा सकते हैं। अन्य भारतीय विद्वानों में डॉ॰ नरेन्द्रनाथ ला (स्टडीज इन ऐंशेंट हिंदू पॉलिटी, 1914), श्री प्रमथनाथ बनर्जी (पब्लिक ऐडमिनिस्ट्रेशन इन ऐंशेंट इंडिया), डॉ॰ काशीप्रसाद जायसवाल (हिंदू पॉलिटी), प्रो॰ विनयकुमार सरकार (दि पाज़िटिव बैकग्राउंड ऑव् हिंदू सोशियोलॉजी), प्रो॰ नारायणचंद्र वंद्योपाध्याय, डॉ॰ प्राणनाथ विद्यालंकार आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
यद्यपि कतिपय प्राचीन लेखकों ने अपने ग्रंथों में अर्थशास्त्र से अवतरण दिए हैं और कौटिल्य का उल्लेख किया है, तथापि यह ग्रंथ लुप्त हो चुका था। 1904 ई. में तंजोर के एक पंडित ने भट्टस्वामी के अपूर्ण भाष्य के साथ अर्थशास्त्र का हस्तलेख मैसूर राज्य पुस्तकालय के अध्यक्ष श्री आर. शाम शास्त्री को दिया। श्री शास्त्री ने पहले इसका अंशतः अंग्रेजी भाषान्तर 1905 ई. में "इंडियन ऐंटिक्वेरी" तथा "मैसूर रिव्यू" (1906-1909) में प्रकाशित किया। इसके पश्चात् इस ग्रंथ के दो हस्तलेख म्यूनिख लाइब्रेरी में प्jay हुए और एक संभवत: कलकत्ता में। तदनन्तर शाम शास्त्री, गणपति शास्त्री, यदुवीर शास्त्री आदि द्वारा अर्थशास्त्र के कई संस्करण प्रकाशित हुए। शाम शास्त्री द्वारा अंग्रेजी भाषान्तर का चतुर्थ संस्करण (1929 ई.) प्रामाणिक माना जाता है।
पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही भारत तथा पाश्चात्य देशों में हलचल-सी मच गई क्योंकि इसमें शासन-विज्ञान के उन अद्भुत तत्त्वों का वर्णन पाया गया, जिनके सम्बन्ध में भारतीयों को सर्वथा अनभिज्ञ समझा जाता था। पाश्चात्य विद्वान फ्लीट, जौली आदि ने इस पुस्तक को एक ‘अत्यन्त महत्त्वपूर्ण’ ग्रंथ बतलाया और इसे भारत के प्राचीन इतिहास के निर्माण में परम सहायक साधन स्वीकार किया।
ग्रंथ के अंत में दिए चाणक्यसूत्र (15.1) में अर्थशास्त्र की परिभाषा इस प्रकार हुई है :
इसके मुख्य विभाग हैं :
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इन अधिकरणों के अनेक उपविभाग (15 अधिकरण, 150 अध्याय, 180 उपविभाग तथा 6,000 श्लोक) हैं।
पद | अंग्रेजी | पद | अंग्रेजी | |
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राजा | King | युवराज | Crown prince | |
सेनापति | Chief, armed forces | परिषद् | Council | |
नागरिक | City manager | पौरव्य वाहारिक | City overseer | |
मन्त्री | Counselor | कार्मिक | Works officer | |
संनिधाता | Treasurer | कार्मान्तरिक | Director, factories | |
अन्तेपाल | Frontier commander | अन्तर विंसक | Head, guards | |
दौवारिक | Chief guard | गोप | Revenue officer | |
पुरोहित | Chaplain | करणिक | Accounts officer | |
प्रशास्ता | Administrator | नायक | Commander | |
उपयुक्त | Junior officer | प्रदेष्टा | Magistrate | |
शून्यपाल | Regent | अध्यक्ष | Superintendent |
अर्थशास्त्र में समसामयिक राजनीति, अर्थनीति, विधि, समाजनीति, तथा धर्मादि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस विषय के जितने ग्रंथ अभी तक उपलब्ध हैं उनमें से वास्तविक जीवन का चित्रण करने के कारण यह सबसे अधिक मूल्यवान् है। इस शास्त्र के प्रकाश में न केवल धर्म, अर्थ और काम का प्रणयन और पालन होता है अपितु अधर्म, अनर्थ तथा अवांछनीय का शमन भी होता है (अर्थशास्त्र, 15.431)।
इस ग्रंथ की महत्ता को देखते हुए कई विद्वानों ने इसके पाठ, भाषांतर, व्याख्या और विवेचन पर बड़े परिश्रम के साथ बहुमूल्य कार्य किया है। शाम शास्त्री और गणपति शास्त्री का उल्लेख किया जा चुका है। इनके अतिरिक्त यूरोपीय विद्वानों में हर्मान जाकोबी (ऑन दि अथॉरिटी ऑव कौटिलीय, इं.ए., 1918), ए. हिलेब्रांड्ट, डॉ॰ जॉली, प्रो॰ ए.बी. कीथ (ज.रा.ए.सी.) आदि के नाम आदर के साथ लिए जा सकते हैं। अन्य भारतीय विद्वानों में डॉ॰ नरेंद्रनाथ ला (स्टडीज इन ऐंशेंट हिंदू पॉलिटी, 1914), श्री प्रेमथनाथ बनर्जी (पब्लिक ऐडमिनिस्ट्रेशन इन ऐंशेंट इंडिया), डॉ॰ काशीप्रसाद जायसवाल (हिंदू पॉलिटी), प्रो॰ विनयकुमार सरकार (दि पाज़िटिव बैकग्राउंड ऑव् हिंदू सोशियोलॉजी), प्रो॰ नारायणचंद्र वन्द्योपाध्याय, डॉ॰ प्राणनाथ विद्यालंकार आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र' राजनीतिक सिद्धांतों की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इस संबंध में यह प्रश्न उठता है कि कौटिल्य ने अपनी पुस्तक का नाम 'अर्थशास्त्र' क्यों रखा? प्राचीनकाल में 'अर्थशास्त्र' शब्द का प्रयोग एक व्यापक अर्थ में होता था। इसके अन्तगर्त मूलतः राजनीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कानून आदि का अध्ययन किया जाता था। आचार्य कौटिल्य की दृष्टि में राजनीति शास्त्र एक स्वतंत्र शास्त्र है और आन्वीक्षिकी (दर्शन), त्रयी (वेद) तथा वार्ता एंव कानून आदि उसकी शाखाएँ हैं। सम्पूर्ण समाज की रक्षा राजनीति या दण्ड व्यवस्था से होती है या रक्षित प्रजा ही अपने-अपने कर्त्तव्य का पालन कर सकती है।
उस समय अर्थशास्त्र को राजनीति और प्रशासन का शास्त्र माना जाता था। महाभारत में इस संबंध में एक प्रसंग है, जिसमें अर्जुन को अर्थशास्त्र का विशेषज्ञ माना गया है।
निश्चित रूप से कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी राजशास्त्र के रूप में लिया गया होगा, यों उसने अर्थ की कई व्याख्याएँ की हैं। कौटिल्य ने कहा है— मनुष्याणां वृतिरर्थः (4) अर्थात् मनुष्यों की जीविका को 'अर्थ' कहते हैं। अर्थशास्त्र की व्याख्या करते हुए उसने कहा है—तस्या पृथिव्या लाभपालनोपायः शास्त्रमर्थ-शास्त्रमिति। (5) (मनुष्यों से युक्त भूमि को प्राप्त करने और उसकी रक्षा करने वाले उपायों का निरूपण करने वाला शास्त्र अर्थशास्त्र कहलाता है।) इस प्रकार यह भी स्पष्ट है कि 'अर्थशास्त्र' के अन्तर्गत राजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था दोनों से संबंधित सिद्धांतों का समावेश है। वस्तुतः कौटिल्य 'अर्थशास्त्र' को केवल राजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था का शास्त्र कहना उपयुक्त नहीं होगा। वास्तव में, यह अर्थव्यवस्था, राजव्यस्था, विधि व्यवस्था, समाज व्यवस्था और धर्म व्यवस्था से संबंधित शास्त्र है।
कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के पूर्व और भी कई अर्थशास्त्रों की रचना की गयी थी, यद्यपि उनकी पांडुलिपियाँ उपलब्ध नहीं हैं। भारत में प्राचीन काल से ही अर्थ, काम और धर्म के संयोग और सम्मिलन के लिए प्रयास किये जाते रहे हैं और उसके लिये शास्त्रों, स्मृतियों और पुराणों में विशद् चर्चाएँ की गयी हैं। कौटिल्य ने भी 'अर्थशास्त्र' में अर्थ, काम और धर्म की प्राप्ति के उपायों की व्याख्या की है। वात्स्यायन के 'कामसूत्र' में भी अर्थ, धर्म और काम के संबंध में सूत्रों की रचना की गयी है।
अपने पूर्व अर्थशास्त्रों की रचना की बात स्वयं कौटिल्य ने भी स्वीकार किया है। अपने 'अर्थशास्त्र' में कई सन्दर्भों में उसने आचार्य वृहस्पति, भारद्वाज, शुक्राचार्य, पराशर, पिशुन, विशालाक्ष आदि आचार्यों का उल्लेख किया है। कौटिल्य के पूर्व अनेक आचार्यों के ग्रंथों का नामकरण दंडनीति के रूप में किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कौटिल्य के पूर्व शास्त्र दंडनीति कहे जाते थे और वे अर्थशास्त्र के समरूप होते थे। परन्तु जैसा कि अनेक विद्वानों ने स्वीकार किया है कि दंडनीति और अर्थशास्त्र दोनों समरूप नहीं हैं। यू. एन. घोषाल के कथनानुसार अर्थशास्त्र ज्यादा व्यापक शास्त्र है, जबकि दंडनीति मात्र उसकी शाखा है। (6)
कौटिल्य के पाश्चात् लिखे गये शास्त्र 'नीतिशास्त्र' के नाम से विख्यात हुए, जैसे कामंदकनीतिसार, नीतिवाक्यामृत। वैसे कई विद्वानों ने अर्थशास्त्र को नीतिशास्त्र की अपेक्षा ज्यादा व्यापक माना है। परन्तु, अधिकांश विद्वानों की राय में नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों समरूप हैं तथा दोनों के विषय क्षेत्र भी एक ही हैं। स्वयं कामंदक ने नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र को समरूप माना है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के पूर्व और उसके बाद भी 'अर्थशास्त्र' जैसे शास्त्रों की रचना की गयी।
इस संबंध में ऐसे विद्वानों की अच्छी-खासी संख्या है जो यह मानते हैं कि कौटिल्य 'अर्थशास्त्र' का रचनाकार नहीं था। ऐसे विद्वानों में पाश्चात्य विद्वानों की संख्या ज्यादा है। स्टेन, जॉली, विंटरनीज व कीथ इस प्रकार के विचार के प्रतिपादक हैं। भारतीय विद्वान आर. जी. भण्डारकर ने भी इसका समर्थन किया है। भंडारकर ने कहा है कि पतंजलि ने महाभाष्य में कौटिल्य का उल्लेख नहीं किया है। 'अर्थशास्त्र' के रचयिता के रूप में कौटिल्य को नहीं मान्यता देनेवालों ने अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये हैं—
पुस्तक की समाप्ति पर स्पष्ट रूप से लिखा गया है-
साथ ही यह भी लिखा गया है:
विष्णु पुराण में इस घटना की चर्चा इस तरह की गई है:
‘नीतिसार’ के कर्ता कामन्दक ने भी घटना की पुष्टि करते हुए लिखा है:
इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि विष्णुगुप्त और कौटिल्य एक ही व्यक्ति थे। ‘अर्थशास्त्र’ में ही द्वितीय अधिकरण के दशम अध्याय के अन्त में पुस्तक के रचयिता का नाम ‘कौटिल्य’ बताया गया है:
पुस्तक के आरम्भ में ‘कौटिल्येन कृतं शास्त्रम्’ तथा प्रत्येक अध्याय के अन्त में ‘इति कौटिलीयेऽर्थशास्त्रे’ लिखकर ग्रन्थकार ने अपने ‘कौटिल्य नाम को अधिक विख्यात किया है। जहां-जहां अन्य आचार्यों के मत का प्रतिपादन किया है, अन्त में ‘इति कौटिल्य’ अर्थात् कौटिल्य का मत है-इस तरह कहकर कौटिल्य नाम के लिए अपना अधिक पक्षपात प्रदर्शित किया है।
परन्तु यह सर्वथा निर्विवाद है कि विष्णुगुप्त तथा कौटिल्य अभिन्न व्यक्ति थे। उत्तरकालीन दण्डी कवि ने इसे आचार्य विष्णुगुप्त नाम से यदि कहा है, तो बाणभट्ट ने इसे ही कौटिल्य नाम से पुकारा है। दोनों का कथन है कि इस आचार्य ने ‘दण्डनीति’ अथवा ‘अर्थशास्त्र’ की रचना की।
पंचतन्त्र में इसी आचार्य का नाम चाणक्य दिया गया है, जो अर्थशास्त्र का रचयिता है। कवि विशाखदत्त-प्रणीत सुप्रसिद्ध नाटक ‘मुद्राराक्षस’ में चाणक्य को कभी कौटिल्य तथा कभी विष्णुगुप्त नाम से सम्बोधित किया गया है।
‘अर्थशास्त्र’ की रचना ‘शासन-विधि’ के रूप में प्रथम मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के लिए की गई। अत: इसकी रचना का काल वही मानना उचित है, जो सम्राट चन्द्रगुप्त का काल है। पुरातत्त्ववेत्ता विद्वानों ने यह काल 321 ई.पू. से 296 ई.पू. तक निश्चित किया है। कई अन्य विद्वान सम्राट सेण्ड्राकोटस (जो यूनानी इतिहास में सम्राट चन्द्रगुप्त का पर्यायवाची है) के आधार पर निश्चित की हुई इस तिथि को स्वीकार नहीं करते।
सुखस्य मूलं धर्मः। धर्मस्य मूलं अर्थः। अर्थस्य मूलं राज्यं। राज्यस्य मूलं इन्द्रिय जयः। इन्द्रियाजयस्य मूलं विनयः। विनयस्य मूलं वृद्धोपसेवा॥
सुख का मूल है, धर्म। धर्म का मूल है, अर्थ। अर्थ का मूल है, राज्य। राज्य का मूल है, इन्द्रियों पर विजय। इन्द्रियजय का मूल है, विनय। विनय का मूल है, वृद्धों की सेवा।
जैसे ऊपर कहा गया है, इसका मुख्य विषय शासन-विधि अथवा शासन-विज्ञान है: ‘‘कौटिल्येन नरेन्द्रार्थे शासनस्य विधि: कृत:।’’ (कौटिल्य ने राजाओं के लिये शासन विधि की रचना की है।) इन शब्दों से स्पष्ट है कि आचार्य ने इसकी रचना राजनीति-शास्त्र तथा विशेषतया शासन-प्रबन्ध की विधि के रूप में की। अर्थशास्त्र की विषय-सूची को देखने से (जहां अमात्योत्पत्ति, मन्त्राधिकार, दूत-प्रणिधि, अध्यक्ष-नियुक्ति, दण्डकर्म, षाड्गुण्यसमुद्देश्य, राजराज्ययो: व्यसन-चिन्ता, बलोपादान-काल, स्कन्धावार-निवेश, कूट-युद्ध, मन्त्र-युद्ध इत्यादि विषयों का उल्लेख है) यह सर्वथा प्रमाणित हो जाता है कि इसे आजकल कहे जाने वाले अर्थशास्त्र (इकोनोमिक्स) की पुस्तक कहना भूल है। प्रथम अधिकरण के प्रारम्भ में ही स्वयं आचार्य ने इसे 'दण्डनीति' नाम से सूचित किया है।
शुक्राचार्य ने दण्डनीति को इतनी महत्त्वपूर्ण विद्या बतलाया है कि इसमें अन्य सब विद्याओं का अन्तर्भाव मान लिया है- क्योंकि 'शस्त्रेण रक्षिते देशे शास्त्रचिन्ता प्रवर्तते' की उक्ति के अनुसार शस्त्र (दण्ड) द्वारा सुशासित तथा सुरक्षित देश में ही वेद आदि अन्य शास्त्रों की चिन्ता या अनुशीलन हो सकता है। अत: दण्डनीति को अन्य सब विद्याओं की आधारभूत विद्या के रूप में स्वीकार करना आवश्यक है और वही दण्डनीति अर्थशास्त्र है।
जिसे आजकल अर्थशास्त्र (economics) कहा जाता है, उसके लिए 'वार्ता' शब्द का प्रयोग किया गया है, यद्यपि यह शब्द पूर्णतया अर्थशास्त्र का द्योतक नहीं। कौटिल्य ने वार्ता के तीन अंग कहे हैं - कृषि, वाणिज्य तथा पशु-पालन, जिनसे प्राय: वृत्ति या जीविका का उपार्जन किया जाता था। मनु, याज्ञवल्क्य आदि शास्त्रकारों ने भी इन तीन अंगों वाले वार्ताशास्त्र को स्वीकार किया है। पीछे शुक्राचार्य ने इस वार्ता में कुसीद (बैंकिग) को भी वृत्ति के साधन-रूप में सम्मिलित कर दिया है। परन्तु अर्थशास्त्र को सभी शास्त्रकारों ने दण्डनीति, राजनीति अथवा शासनविज्ञान के रूप में ही वर्णित किया है। अत: ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ को राजनीति की पुस्तक समझना ही ठीक होगा न कि सम्पत्तिशास्त्र की पुस्तक। वैसे इसमें कहीं-कहीं सम्पत्तिशास्त्र के धनोत्पादन, धनोपभोग तथा धन-विनिमय, धन-विभाजन आदि विषयों की भी प्रासंगिक चर्चा की गई है।
‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ के प्रथम अधिकरण का प्रारम्भिक वचन इस सम्बन्ध में अधिक प्रकाश डालने वाला है:
अर्थात्-प्राचीन आचार्यों ने पृथ्वी जीतने और पालन के उपाय बतलाने वाले जितने अर्थशास्त्र लिखे हैं, प्रायः उन सबका सार लेकर इस एक अर्थशास्त्र का निर्माण किया गया है।
यह उद्धरण अर्थशास्त्र के विषय को जहां स्पष्ट करता है, वहां इस सत्य को भी प्रकाशित करता है कि ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ से पूर्व अनेक आचार्यों ने अर्थशास्त्र की रचनाएं कीं, जिनका उद्देश्य पृथ्वी-विजय तथा उसके पालन के उपायों का प्रतिपादन करना था। उन आचार्यों तथा उनके सम्प्रदायों के कुछ नामों का निर्देशन ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ में किया गया है, यद्यपि उनकी कृतियां आज उपलब्ध भी नहीं होतीं। ये नाम निम्नलिखित है:
अर्थशास्त्र के इन दस सम्प्रदायों के आचार्यों में प्राय: सभी के सम्बन्ध में कुछ-न-कुछ ज्ञात है, परन्तु विशालाक्ष के बारे में बहुत कम परिचय प्राप्त होता है। इन नामों से यह तो अत्यन्त स्पष्ट है कि अर्थशास्त्र नीतिशास्त्र के प्रति अनेक महान विचारकों तथा दार्शनिकों का ध्यान गया और इस विषय पर एक उज्ज्वल साहित्य का निर्माण हुआ। आज वह साहित्य लुप्त हो चुका है। अनेक विदेशी आक्रमणों तथा राज्यक्रान्तियों के कारण इस साहित्य का नाम-मात्र शेष रह गया है, परन्तु जितना भी साहित्य अवशिष्ट है वह एक विस्तृत अर्थशास्त्रीय परम्परा का संकेत करता है।
इस अर्थशास्त्र में एक ऐसी शासन-पद्धति का विधान किया गया है जिसमें राजा या शासक प्रजा का कल्याण सम्पादन करने के लिए शासन करता है। राजा स्वेच्छाचारी होकर शासन नहीं कर सकता। उसे मन्त्रिपरिषद् की सहायता प्राप्त करके ही प्रजा पर शासन करना होता है। राज्य-पुरोहित राजा पर अंकुश के समान है, जो धर्म-मार्ग से च्युत होने पर राजा का नियन्त्रण कर सकता है और उसे कर्तव्य-पालन के लिए विवश कर सकता है।
सर्वलोकहितकारी राष्ट्र का जो स्वरूप कौटिल्य को अभिप्रेत है, वह ‘अर्थशास्त्र’ के निम्नलिखित वचन से स्पष्ट है-
अर्थात्-प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजाके हित में उसका हित है। राजा का अपना प्रिय (स्वार्थ) कुछ नहीं है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है।
400 ई० सन् के लगभग कामन्दक ने कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर कामन्दकीय नीतिसार नामक 20 सर्गों में विभक्त काव्यरूप एक अर्थशास्त्र लिखा था। यह नैतिकता और विदेश-नीति के सिद्धान्तों पर भी विचार करता है।
सोमदेव सूरि का नीतिवाक्यामृत, हेमचन्द्र का लघु अर्थनीति, भोज का युक्तिकल्पतरु, शुक्र का शुक्रनीति आदि कुछ दूसरे सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्र हैं, जिनको नीतिशास्त्र के व्यावहारिक पक्ष की व्याख्या करने वाले ग्रन्थों के अन्तर्गत भी गिना जा सकता है। चाणक्यनीतिदर्पण, नीतिश्लोकों का अव्यवस्थित संग्रह है।
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