पौधे का वह भाग जो जमीन के अन्दर मुलांकुर से विकसित होकर प्रवेश करता है तथा प्रकाश के विपरीत जाता है, जड़ या मूल (root) कहलाता है।
मूल या जड़ उच्च कोटि पादपों (फर्न तथा बीजवाले पौधे) का भूमिगत भाग है, जिसमें न तो पत्तियाँ रहती हैं और न जनन अंग, किंतु इसमें एक शीर्ष वर्धमान (apical growing) सिरा रहता है। यह अवशोषण अंग, वाताप (aerating) अंग, खाद्य भंडार और सहारे का कार्य करता है। अधिकांश पौधों में जड़ बीजपत्राधर (hypocoty) के निम्न छोर के रूप में उत्पन्न होती है। बहुवर्षी (perennial) श्जड़े तने के सदृश ऊतकतंत्र प्रदर्शित करती है तथा इनका रँभ (stele) अविच्छिन्न रहता है। बहुवर्षी जड़ो के प्रकेधा (procambium) वलयक (strand) के विकास, अंतश्चर्म (endodermis) की सुव्यक्त मोटाई और वर्धन सिरे के विभज्योतक (meristem) के सुरक्षात्मक आवरण के रूप में अंतर होता है। अधिपादप (epiphytes) की जड़े पूर्णत: अग्राभिसारी (aerisl) होती है, किंतु अपस्थानिक (adventitious) जड़े पौधों के अन्य भागों पर उत्पन्न होती है। निम्न कोटि पादपों में जड़ों का अधिकांश कार्य प्रकंद करते है।
शरीर की के तीन दृष्टि में मूलभाग है: अधिचर्म वल्कुट तथा रंभ। इन तीनों भागों में शीर्ष विभज्योतक द्वारा नई कोशिकाएँ जुड़ती हैं। विभज्योतक की बाह्य सतह मूल-गोप बनाती है। जब मूल मृदा में बलपूर्वक प्रवेश करता है, तब मूल-गोप आघात से उसकी रक्षा करता है। मूल की संपूर्ण मोटाई में शीर्ष विभज्योतक व्याप्त रहता है, अत: नई कोशिकाएँ दीर्घीकरण के बाद व्यवस्थित कोशिकाओं की तरह पंक्तियों में विकसित होती हैं। कोशिकाओं का विभाजन, दीर्घीकरण तथा परिपक्वन वर्धमान प्रक्रम है, जो मूल के ऊर्ध्वाधर स्तरविन्यास में मूल गोप, शीर्ष विभज्योतक, दीर्घीकरण क्षेत्र तथा परिपक्वन क्षेत्र में मूल गोप, शिर्ष विभज्योतक, दीर्घीकरण क्षेत्र तथा परिपक्वन क्षेत्र में होता है। अधिचर्म, वल्कुट और रंभ क्षेत्र में ऊतकों के अंतर की उत्तरोत्तर अवस्थाएँ सुस्पष्ट रहती हैं। दीर्घीकरण क्षेत्र के ठीक ऊपर अधिचर्म कोशिकाएँ लंबी बेलनाकार उद्वर्ध उत्पन्न करती हैं, जिन्हें मूलरोम कहश्ते हैं। ये रोम मूल का अवशोषण क्षेत्र बढ़ा देते हैं।
अधिचर्म के ठीक नीचे ऊतकों का जो क्षेत्र रहता है, उसे वल्कुट कहते हैं। इस क्षेत्र का अधिकांश मृदूतक का धना होता है। इसमें तंतु बिखरी हुई कोशिकाओं के रूप में रहते हैं। रंभा या अविच्छिन्न बेलन भी वल्कुट में हो सकता है। कोशिकाओं के बीच में सुस्पष्ट अवकाश होता हैं।
रंभ प्राथमिक दारू दलयक तथा प्राथमिक फ्लोएम का बना होता है। दारू वलयक त्रिज्यात: चौरस होते हैं और मूल की एक ही परिधि में ये और फ्लोएम एकांतर होते हैं जड़ में प्राय: मज्जा नहीं होती, किंतु द्वितीजपत्री पौधों की जड़ों की अपेक्षा एकबीजपत्री पौधों की जड़ों में प्राय: मिलती हैं। रंभ की सतह पर पार्श्वीय जड़े विभज्योतकी कोशिकाओं से निकलकर वल्कुट से बाहर निकलने का मार्ग बलपूर्वक बनाती हैं। मोटाई में सुस्पष्ट वृद्धि करने वाली जड़े, प्राथमिक दारू के ठीक बाहर प्राणालित बेलन के रूप में तथा प्राथमिक फ्लोएम के अंदर, संवहनी एधा विकसित करती है। एधा की बाहृा सतह से द्वितीयक फ्लोएम तथा आंतरिक सतह से द्वितीयक दारू विकसित होता है। जब जड़ों की अत्यधिक मोटाई वल्कुट को विदीर्ण कर देती है, तब वल्कुट की आंतरिक सतह परिरंभ या द्वितीयक फ्लाएम में कार्क बनती है। जो जड़ पहले बनती है और सीधे तने से वृद्धि करती, वह प्राथमिक जड़ कहलाती है। प्राथमिक जड़ की शाखाएँ द्वितीयक तथा द्वितीयक की शाखाएँ तृतीयक जड़े कहलाती हैं।
जड़ों को उनके उगने के स्थान के अनुसार मृदामूल (soilt root), वायव (aeril) मूल तथा जलमूल कहते हैं। जो जड़े तने पर निकलती हैं, उन्हें अपस्थानिक कहते हैं, जैसे बरगद के जड़। जो जड़ें दूसरे पौधों से पोषण प्राप्त करती हैं, उन्हें परजीवी (parasitic) जड़ें कहते हैं।
मूल के प्रकार उसकी आकृति और शाखनविधि पर निर्भर करते हैं। जब केंद्रीय अक्ष बिना विभक्त गावदुम रूप में गहरा भूमिगत होता है, तब उससे मूसला जड़ (tap root) बनती है। इस प्रकार की जड़ कभी कभी छोटी होती है और खाद्य पदार्थो से भरी रहने के कारण फूली रहती है, जैसे गाजर की शंक्वाकार (fusiform) तथा शलजम की कुंभीरूप (napiform) मूल। एक बीजपत्री पौधों में प्राथमिक अक्ष शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और उसका स्थान द्वितीयक अक्ष ले लेता है। जब अवरोही अक्ष बहुत छोटा होता है। और छोटे छोटे पतले तथा समान तंतुओं (moniliform) मूल कहते हैं। जब तंतुक (fibrii) माटे तथा रसदार होते हैं, तो ऐसा मूल पूलिकित (fasciculate) कहलाता है। इन मूलों के अतिरिक्त ग्रंथिल (palmately tubercular) मूल भी होते हें।
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