अर्नेस्ट हेमिंग्वे (1899-1961) अमेरिकन उपन्यासकार तथा कहानीकार थे। 1954 ई० में साहित्य में नोबेल पुरस्कार विजेता। अपने संघर्षपूर्ण जीवन के बहुविध अनुभवों का इन्होंने सफलतम सर्जनात्मक उपयोग किया तथा अनेक ऐसी रचनाएँ दीं जो आत्म-अनुभवजन्य होने का संकेत देती हुई भी कलात्मकता के शिखर को छूती है।
अर्नेस्ट हेमिंग्वे | |
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जन्म | 21 जुलाई 1899 |
मौत | 2 जुलाई 1961 |
मौत की वजह | आत्महत्या बैलिस्टिक आघात |
आवास | की वेस्ट, पैरिस |
नागरिकता | संयुक्त राज्य अमेरिका |
पेशा | पटकथा लेखक, उपन्यासकार, पत्रकार, नाटककार, कवि, लेखक |
पुरस्कार | साहित्य में नोबेल पुरस्कार |
हस्ताक्षर |
अर्नेस्ट हेमिंग्वे का जन्म अमेरिका के इलिनॉय प्रदेश के ओक पार्क में 21 जुलाई 1899 ई० को हुआ था। उनका पूरा नाम अर्नेस्ट मिलर हेमिंग्वे (Ernest Miller Hemingway) था। उनके पिता एक देहाती डॉक्टर थे।
बचपन में हेमिंग्वे का मन पढ़ने-लिखने में अधिक नहीं लगता था। वे हाई स्कूल से कई बार भागे थे और उच्च शिक्षा बिल्कुल प्राप्त नहीं की। जब वह 18 वर्ष के थे तो उस समय प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था और उनकी इच्छा थी कि वे सेना में भर्ती हो जाएँ। परंतु डॉक्टर ने उन्हें अक्षम करार दिया। इसके बाद वे कैन्सास सिटी में पत्र-संवाददाता का काम करने लगे। 1918 ई० में रेडक्रॉस में एंबुलेंस ड्राइवर के काम में लगे और इटली के मोर्चों पर भेजे गये। 1920 ई० में वे फिर पत्रकारिता के क्षेत्र में आये और लगातार 1926 ई० तक काम करते रहे। बाद में भी पत्रकारिता से उनका लगाव बना रहा।
हेमिंग्वे का जीवन काफी संघर्षपूर्ण रहा है। उन्होंने काफी गरीबी भी देखी और सफल होने पर काफी अमीरी भी। परंतु यह सफलता उन्हें काफी संघर्ष और अपने ढंग की मौलिक साधना के बाद ही प्राप्त हुई थी। आरंभ में हेमिंग्वे ने पेरिस में कई वर्ष गरीबी के साथ काटे थे। वे जहाँ भी रहे, उन परिस्थितियों से प्रेरित होकर लेखन कार्य करते रहे। अपने टोरंटो निवास के समय हेमिंग्वे का परिचय कुमारी गरटूड स्टीन से हुआ, जिससे वे काफी प्रभावित हुए। एज़रा पाउंड से भी उन्हें साहित्यिक सहायता मिली और उपन्यासकार सिक मैडौक्स फोर्ड से भी। जेम्स ज्वॉयस से भी उनका परिचय हो गया था।
कुमारी स्टीन ने हेमिंग्वे को सांढ़ और मनुष्य की लड़ाई देखने का चस्का लगा दिया था। इस जानकारी का उपयोग उन्होंने अपनी सुप्रसिद्ध कहानी 'दोपहर के बाद मौत' (डेथ इन द आफ्टरनून) में किया है। 1928 ई० में अमेरिका लौट कर वे 10 वर्षों तक रहे, जो उनके लेखन के लिए काफी उपयुक्त रहा। 1941 ई० में वे युद्ध संवाददाता बन कर चीन गये और वहाँ से लौटने के बाद अपने अंतिम समय तक हवाना में रहे। 2 जुलाई 1961 ई० को अपने ही घर पर बैठे हुए बंदूक साफ करते हुए आकस्मिक रूप से गोली चल जाने से वे अपने ही हाथों मौत का शिकार हो गये।
लेखन के आरंभिक समय में हेमिंग्वे की रचना 'तीन कहानियाँ और दस कविताएँ' (थ्री स्टोरीज एंड टेन पोयम्स) 1923 ई० में प्रकाशित हुई और 'हमारे समय में' (इन आवर टाइम) 1925 ई० में। किंतु इससे उन्हें न तो प्रसिद्धि मिली न ही आर्थिक लाभ। उस समय उन्हें आर्थिक सहयोग की अत्यधिक आवश्यकता थी। 1926 ई० में 'सन आल्सो राइजेज' (सूरज भी उगता है) प्रकाशित होने पर उन्हें आर्थिक सफलता मिली। 1927 में 'मैन विदाउट वोमेन' (स्त्री के बिना पुरुष) के प्रकाशित होने के बाद उनकी रचनाओं की मांग बढ़ गयी और पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ प्रचुर मात्रा में निकलने लगीं। 1929 ई० में केवल 30 वर्ष की अवस्था में उनकी सुप्रसिद्ध औपन्यासिक कृति शस्त्र विदाई (ए फेयरवेल टू आर्म्स) प्रकाशित हुई, जिसकी धूम मच गयी और हेमिंग्वे को व्यापक रूप से यश प्राप्त हुआ। 1918 ई० से ही युद्ध को निकट से देखने के अनुभव का इस रचना में उन्होंने सृजनात्मक उपयोग किया।
हेमिंग्वे ने संघर्षपूर्ण जीवन जिया भी था और देखा भी था। साथ ही मृत्यु को भी अनेक बार उन्होंने निकट से देखा था। युद्ध क्षेत्र का उन्हें व्यापक अनुभव था। अपनी दुरवस्था में लगभग 8 साल तक उन्होंने मछली मारने का कार्य भी किया था। इन सब अनुभवों का उन्होंने रचनात्मक उपयोग किया है। हेमिंग्वे को फिल्म के लिए कहानी लिखने तथा फिल्म बनवाने का भी शौक था। इस तरह की कहानियों में 'मैकोम्बर' और 'किलर' (हत्यारे) बेहद प्रसिद्ध हुईं। उनकी कहानी 'फाॅर हूम दि बेल टाॅल्स' तथा 'दि स्नोज़ ऑफ किलिमंजारो' पर भी फिल्में बनीं।
1950 ई० में प्रकाशित 'अक्रॉस द रिवर एंड इन टू द ट्रीज़' में उन्होंने मृत्यु का वर्णन कर अपनी ही मृत्यु की कल्पना की है। यह पुस्तक भी बेस्टसेलर सिद्ध हुई थी। 1954 में उनकी संसार प्रसिद्ध रचना दि ओल्ड मैन एंड द सी (बूढ़ा मछुआरा और समुद्र) प्रकाशित हुई और इसी रचना पर उन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। हेमिंग्वे की इस रचना को न केवल उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना घोषित किया गया है बल्कि इस रचना में वर्णित बूढ़े मछुआरे की जिजीविषा एवं संघर्ष अपने आप में प्रेरणा के एक प्रतीक का रूप ले चुका है। सामान्य व्यक्ति से लेकर रचनाकारों तक ने इस रचना से प्रेरणा ली है तथा उस रचनात्मक प्रतीक का उपयोग भी किया है। हिन्दी के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार अमृतलाल नागर ने अपनी सर्वोत्तम रचनाओं में से एक अमृत और विष में बूढ़े मछुआरे के उस बिंब का प्रयोग करते हुए रचनात्मक आभार स्वीकार किया है।
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