ब्राह्मी लिपि एवं उससे व्युत्पन्न अधिकांश लिपियों की वर्णमाला के प्रत्येक वर्ग के पांचवें वर्णों के समूह को पंचमाक्षर या पंचमाक्षर' कहते हैं (पञ्चमाक्षर = पञ्चम अक्षर = पाँचवाँ अक्षर)। देवनागरी में ङ, ञ, ण, न तथा म पंचमाक्षर हैं।
विभिन्न भाषाओं में पंचमाक्षर का प्रयोग होता है। सभी भाषाओं में पंचमाक्षर के प्रयोग के अपने-अपने नियम या परिपाटी है।
हिन्दी में तकनीकी टंकण यन्त्रों की समस्याओं से निकालने के लिए तात्कालिक रूप से पञ्चमाक्षरों के अर्द्धस्वरूप के स्थान पर अनुस्वार का उपयोग करके काम चला लेने का उपाय सुझाया गया था जिसके फलस्वरूप समसामयिक हिन्दी लेखन में पंचमाक्षर के स्थान पर अनुस्वार को वरीयता दी जाने लगी है। सामान्यतया अनुस्वार की ध्वन्यात्मकता को स्पष्ट करने के लिए पंचम वर्ण - 'कवर्ग', 'चवर्ग', 'टवर्ग', 'तवर्ग' एवं 'पवर्ग' के ङ्, ञ्, ण्, न् एवं म्- का व्यवहार किया जाता है। जैसे- गङ्गा - गंगा, दिनाङ्क - दिनांक, पञ्चम - पंचम, चञ्चल - चंचल, कण्ठ - कंठ, कन्धा - कंधा, कम्पन - कंपन आदि।
जहाँ तक हिन्दी का सम्बन्ध है, टंकण यन्त्रों पर देवनागरी के उपयोग को सुगम बनाने के लिए कुछ स्थितियों में पञ्चमाक्षरों के स्थान पर अनुस्वार लिखकर काम निकालने का सुझाव दिया गया था। किन्तु ऐसा नहीं है कि पंचमाक्षरों का प्रयोग वर्जित किया गया था, या पंचमाक्षरों के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग अधिक शुद्ध घोषित किया गया था।
कुछ स्थितियों में सुभीता के लिए पंचमाक्षरों के स्थान पर अनुस्वार के प्रयोग से सम्बन्धित कुछ सुझाव दिये गये थे वे निम्नलिखित हैं। वर्णमाला के विभिन्न वर्गों के परिप्रेक्ष्य में इनके प्रयोग में परिवर्तन संभव है। जैसे-
कवर्ग में ङ् का प्रयोग क, ख, ग, घ के पूर्व होता है। हालांकि 'पराङ्मुख' और 'वाङ्मय' आदि कुछ शब्दों में अपवाद स्वरूप 'ङ्' का ही प्रयोग मिलता है। यहाँ (ं) का प्रयोग नहीं किया जा सकता। ङ व्यंजन शब्द के आदि तथा अंत में नहीं आता। इसके अनुसार विशिष्ट ध्वन्यात्मक प्रयोगों को छोड़कर इस वर्ग के लिए अनुस्वार का प्रयोग किया जा सकता है।
चवर्ग में ञ् का प्रयोग च, छ, ज, झ के पूर्व होता है। जैसे- अञ्चल, पञ्छी, अञ्जन एवं झञ्झट आदि। हालांकि ञ का प्रयोग हिंदी लेखन में प्रायः नहीं हो रहा है। इनके स्थान पर अब अनुस्वार का ही प्रयोग हो रहा है। ञ् भी शब्द के आदि या अंत में नहीं आता।
टवर्ग में ण् का प्रयोग ट, ठ, ड, ढ के पूर्व होता है। जैसे- घण्टा, कण्ठ, अण्डा आदि। अब इनके स्थान पर प्रायः अनुस्वार (ं) का प्रयोग होता है। स्वतंत्र रूप से ण का प्रयोग केवल संस्कृत के शब्दों में होता है। वह भी मध्य (प्रणाम) और अंत (प्रण) में। टवर्ग के अतिरिक्त य,व एवं ण के पूर्व भी ण आता है, किन्तु ऐसी स्थिति में इसके स्थान पर अनुस्वार नहीं आता। जैसे- पुण्य, कण्व एवं विषण्ण।
तवर्ग में न् का प्रयोग त, थ, द, ध के पूर्व होता है। जैसे- जन्तर, मन्थर, तन्दूर, गन्ध आदि। अब इनके स्थान पर भी अनुस्वार (ं) के प्रयोग की अनुशंसा की जाती है। जैसे- अंत, पंथ, आनंद एवं गंधक। परंतु 'जन्म' जैसे शब्दों में अनुस्वार का प्रयोग वर्जित किया गया है। 'न' से आरंभ होने वाले शब्द कोटि कोटि हैं।
पवर्ग में म् का प्रयोग प, फ, ब, भ के पूर्व होता है । जैसे- सम्पर्क, गुम्फित, अम्बर, गम्भीर आदि । अब इनके स्थान पर भी ङ्, ञ्, ण् एवं न् की तरह ही प्रायः अनुस्वार (ं) का प्रयोग होता है । जैसे- संपर्क, गुंफित, अंबर एवं गंभीर । अनेक शब्दों में अनुस्वार का प्रयोग वर्जित है तथा केवल म् का प्रयोग होता है। 'म' से आरम्भ होने वाले शब्द कोटि कोटि हैं।
हिन्दी शब्दानुशासन की रचना करने वाले किशोरी दास वाजपेयी का मानना है कि पंचमाक्षर अनुनासिक अल्पप्राण हैं। उनके अनुसार हिन्दी के रूप गठन में 'ङ', 'ञ' तथा 'ण' का कोई योग नहीं है। जो मिठास 'न' तथा 'म' में है, वह इन तीनों में नहीं है। इसीलिए हिन्दी ने 'न' तथा 'म' को ही अपनाया है। संस्कृत (तद्रूप) शब्द जो हिन्दी में प्रयुक्त होते हैं, उन में ही ये (ङ, ञ, ण) आते हैं - 'वाङ्मय', 'चाञ्चल्य', 'पाण्डित्य' आदि। वाजपेयी जी का मानना है कि अनुस्वार का स्थान भी नासिका है। संस्कृत व्याकरण के अनुसार 'म्' प्रायः और 'न्' कभी-कभी अनुस्वार हुआ करता है। यही (नासिका सहयोग) कारण है कि अनुस्वार लगने से भी स्वर-व्यंजन मधुर ध्वनि देने लगते हैं - 'कंकन किंकिनी नूपुर धुनि सुनि'। जैसा 'न' वैसा ही अनुस्वार मधुर।
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