न्याय (अंग्रेजी-justice) अपने व्यापक अर्थ में, यह विचार, अवधारणा या संप्रत्यय है कि लोगों को वह मिले जिसके वे योग्य या पात्र हों, इस व्याख्या के साथ कि कोई व्यक्ति किसके योग्य है, कई क्षेत्रों व अलग-अलग दृष्टिकोणों द्वारा प्रभावित होता है, जिसमें नैतिकता, तर्कसंगतता, कानून, धर्म , इक्विटी (साम्यता) और निष्पक्षता पर आधारित नैतिक शुद्धता की अवधारणाएं भी शामिल हैं। राज्य कभी-कभी न्यायालयों का संचालन करके और उनके निर्णयों को लागू करके न्याय बढ़ाने का प्रयास करता है। अन्य शब्दों में नैतिकता, औचित्य, विधि (कानून), प्राकृतिक विधि, धर्म या समता के आधार पर 'उचित' होने की स्थिति को न्याय कहते हैं।
यह तय करना मानव-जाति के लिए हमेशा से एक समस्या रहा है कि न्याय का ठीक-ठीक अर्थ क्या होना चाहिए और लगभग सदैव उसकी व्याख्या समय के संदर्भ में की गई है। मोटे तौर पर उसका अर्थ यह रहा है कि अच्छा क्या है इसी के अनुसार इससे संबंधित मान्यता में फेर-बदल होता रहा है। जैसा कि डी.डी. रैफल का मत है-
न्याय के अर्थ का निर्णय करने का प्रयत्न सबसे पहले यूनानियों और रोमनों ने किया (यानी जहाँ तक पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन का संबंध है)। यूनानी दार्शनिक अफलातून (प्लेटो) ने न्याय की परिभाषा करते हुए उसे सद्गुण कहा, जिसके साथ संयम, बुद्धिमानी और साहस का संयोग होना चाहिए। उनका कहना था कि न्याय अपने कर्त्तव्य पर आरूढ़ रहने, अर्थात् समाज में जिसका जो स्थान है उसका भली-भाँति निर्वाह करने में निहीत है (यहाँ हमें प्राचीन भारत के वर्ण-धर्म का स्मरण हो आता है)। उनका मत था कि न्याय वह सद्गुण है जो अन्य सभी सद्गुणों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है। उनके अनुसार, न्याय वह सद्गुण है जो किसी भी समाज में संतुलन लाता है या उसका परिरक्षण करता है। उनके शिष्य अरस्तू (एरिस्टोटल) ने न्याय के अर्थ में संशोधन करते हुए कहा कि न्याय का अभिप्राय आवश्यक रूप से एक खास स्तर की समानता है। यह समानता (1) व्यवहार की समानता तथा (2) आनुपातिकता या तुल्यता पर आधारित हो सकती है। उन्होंने आगे कहा कि व्यवहार की समानता से ‘योग्यतानुसारी (कम्यूटेटिव) न्याय’ उत्पन्न होता है और आनुपातिकता से ‘वितरणात्मक न्याय’ प्रतिफलित होता है। इसमें न्यायालयों तथा न्यायाधीशों का काम योग्यतानुसार न्याय का वितरण होता है और विधायिका का काम वितरणात्मक न्याय का वितरण होता है। दो व्यक्तियों के बीच के कानूनी विवादों में दण्ड की व्यवस्था योग्यतानुसारी न्याय के सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए, जिसमें न्यायपालिका को समानता के मध्यवर्ती बिंदु पर पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिए और राजनीतिक अधिकारों, सम्मान, संपत्ति तथा वस्तुओं के आवंटन में वितरणात्मक न्याय के सिद्धांतों पर चलना चाहिए। इसके साथ ही किसी भी समाज में वितरणात्मक और योग्यतानुसारी न्याय के बीच तालमेल बैठाना आवश्यक है। फलतः अरस्तू ने किसी भी समाज में न्याय की अवधारणा को एक परिवर्तनधर्मी संतुलन के रूप में देखा, जो सदा एक ही स्थिति में नहीं रह सकती।
रोमनों तथा स्टोइकों (समबुद्धिवादियों) ने न्याय की एक किंचित् भिन्न कल्पना विकसित की। उनका मानना था कि न्याय कानूनों और प्रथाओं से निसृत नहीं होता बल्कि उसे तर्क-बुद्धि से ही प्राप्त किया जा सकता है। न्याय दैवी होगा और सबके लिए समान। समाज के कानूनों को इन कानूनों के अनुरूप होना चाहिए; तभी उनका कोई मतलब होगा, अन्यथा नहीं। मानव-निर्मित कानून वास्तव में कानून हो, इसके लिए यह आवश्यक है कि वह इस कानून और प्राकृतिक न्याय की कल्पना से मेल खाए। इस प्राकृतिक न्याय की कल्पना का विकास सर्वप्रथम स्टोइकों ने किया था और बाद में उसे रोमन कैथोलिक ईसाई पादरियों ने अपना लिया। इस न्याय की दृष्टि में सभी मनुष्य समान थे। अपनी कृति इन्स्टीच्यूट्स में जस्टिनियन तर्क-बुद्धि द्वारा विकसित या प्राप्त कानून तथा आम लोगों के कानून या आम कानून के बीच भेद किया।
फिर धर्म-सुधार आंदोलन, पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रांति तक यूरोप में इस क्षेत्र में कुछ खास नहीं हुआ। लॉक, रूसो और कांट - जैसे विचारकों की दृष्टि में न्याय का मतलब स्वतंत्रता, समानता और कानून का मिश्रण था। प्रारंभिक उदारवादियों को सामंतवाद, निरंकुश राजतंत्र और जातिगत विशेषाधिकार अन्यायपूर्ण और इसलिए गैर-कानूनी प्रतीत हुए। उनकी दृष्टि में स्वतंत्रता और समानता के बिना न्याय का कोई मतलब नहीं था। उन्नीसवीं सदी के पूर्व तक न्याय की यही अभिधारणा प्रचलित रही और तब उदारवादी और समाजवादी अथवा मार्क्सवाद चिंतन-धाराओं के बीच असहमति का उदय हुआ। बेंथम और मिल के उपयोगितावादी (यूटिलिटेरियन) सिद्धांत का बोलबाला हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार, जो-कुछ मानव-जाति के सुख या उपयोगिता की अधिकतम वृद्धि में सहायक था वही न्याय था। उनका मानना था कि समस्त प्रतिबंधों की अनुपस्थिति में सुख समाहित हैं, लेकिन तब समाजवादी और मार्क्सवादी यह दलील लेकर सामने आए कि पूंजीवादी सांपत्तिक संबंधों से उत्पन्न गरीबी और असमानता के अतिरेक अन्यायपूर्ण हैं और उनका समर्थन नहीं किया जा सकता। जहाँ तक उदारवादी चिंतन-धाराओं का संबंध है, प्रारंभिक क्लासिकी उदारवादियों का न्याय-विषयक दृष्टिकोण ही बीसवीं सदी के मध्य तक उदारवादियों का मुख्य दृष्टिकोण था। परन्तु केंस की कल्पना के कल्याणकारी राज्यों के उदय के साथ उदारवादी परंपरा में न्याय की एक नई अभिधारणा का विकास करना आवश्यक हो गया। उस अभिधारणा की शायद सबसे अच्छी व्याख्या रॉल्स-कृत ए थिओरी ऑफ जस्टिस (1971) में हुई है। बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में नव-उदारवाद (नियो-लिबरेलिज़्म) तथा जिसे अमेरीका में लिबरटेरियेनिज़्म अर्थात् इच्छास्वातंत्रयवाद की संज्ञा दी गई है उसके उदय के साथ उदारवादी परंपरा में न्याय का एक और सिद्धांत उद्भूत हुआ। दरअसल देखें तो इच्छास्वातंत्रयवाद का मतलब (वैश्वीकरण तथा अंतर्राष्ट्रीय मुक्त बाजार के हक में दलील जुटाने के लिए किए गए उपयुक्त परिवर्तनों के साथ) मुक्त बाजार, न्यूनतम राज्य और स्वतंत्रता तथा संपत्ति के अविकल अधिकारों के हिमायती प्रारंभिक क्लासिकी उदारवादियों की न्याय की अभिधारणा की ओर लौटना था। यह है ‘न्याय का हकदारी सिद्धांत’ (‘इनटाइटलमेंट थिओरी ऑफ जस्टिस’), जिसे रॉबर्ट नॉजिक ने अपनी कृति 'एनार्की, स्टेट एंड यूटोपिया' में लोकप्रिय बनाया।
विकिसूक्ति पर Justice से सम्बन्धित उद्धरण हैं। |
Justice से संबंधित मीडिया विकिमीडिया कॉमंस पर उपलब्ध है। |
विकियात्रा पर Justice history के लिए यात्रा गाइड |
This article uses material from the Wikipedia हिन्दी article न्याय, which is released under the Creative Commons Attribution-ShareAlike 3.0 license ("CC BY-SA 3.0"); additional terms may apply (view authors). उपलब्ध सामग्री CC BY-SA 4.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। Images, videos and audio are available under their respective licenses.
®Wikipedia is a registered trademark of the Wiki Foundation, Inc. Wiki हिन्दी (DUHOCTRUNGQUOC.VN) is an independent company and has no affiliation with Wiki Foundation.