द्विपंखी गण या डिप्टेरा (Diptera) गण के अंतर्गत वे कीट संमिलित हैं जो द्विपक्षीय (दो पंख वाले) हैं। कीट का यह सबसे बृहत् गण है। इसमें लगभग ८० हजार कीट जातियाँ हैं। इसमें मक्खी, पतिंगा, कुटकी (एक छोटा कीड़ा), मच्छर तथा इसी प्रकार के अन्य कीट भी संमिलित हैं। इस समुदाय के अंतर्गत एक ही प्रकार के सूक्ष्म तथा साधारण आकार के कीट होते हैं। ये कीट दिन तथा रात्रि दोनों में उड़ते हैं तथा जल और स्थल दोनों ही स्थान इनके वासस्थान हैं। साधारणत: ये समस्त विश्व में विस्तृत हैं, परंतु गरम देशों में तो इनका ऐसा आधिपत्य है कि प्रति वर्ष सैकड़ों मनुष्यों, तथा अन्य जंतुओं की इनके कारण मृत्यु हो जाती है।
ये बहुत शीघ्रतापूर्वक कार्य करनेवाले तथा सावधान स्वभाव के जीव होते हैं। इनमें से बधई (Bot fly) नाम की मक्खियाँ सबसे अधिक गतिशील होती हैं, जो ५० मील प्रति घंटे की गति से उड़ सकती हैं। इनके अग्रपंख झिल्लीदार होते है। इनमें पिछले पंख नहीं होते, अपितु एक प्रकार के उभड़े हुए अवयव मात्र होते हैं, जिन्हें संतोलक (Halteres) या संतुलक (Balancers) कहते हैं।
इनके मुखद्वार के समीप और भी उपांग मिलते हैं, जिन्हें मुखांग (Mouth parts) कहते हैं। ये मुख्य मुखभाग से मिलकर एक शुंड बनाते हैं, जिनके द्वारा ये अपनी खुराक चूसते हैं। इन्हीं शुंडों के द्वारा ये भेदनकार्य भी करते हैं। ये केवल तरल पदार्थ खा सकते हैं, ठोस नहीं।
नर और मादा के बाह्याकार साधारणत: एक से होते हैं, परंतु लिंगद्विरूपता भी असाधारण नहीं है। कुछ में (जैसे नर मच्छरों में) शृंगिका (antenna) में घने बाल होते हैं और नरों के संयुक्त नेत्र मादाओं की अपेक्षा अधिक समीप होते हैं। इन कीटों में पूर्ण रूपांतर होता है। डिंभ (larva) में बहुधा छोटा सिर होता है और पैरों का अभाव रहता है। प्यूपा (pupa) कठोर आवरण के अंदर रहता है, जिसे प्यूपा कोष (Puparium) कहते हैं। कुछ कीटों का प्यूपा अलग भी रहता है।
मुख्यतया डिप्टेरा गण के जीव दिन में उड़ने वाले हैं, किंतु रक्तचूषक जातियाँ, जैसे मच्छर और बालूमक्षिका (sand-fly) इत्यादि गोधूलि एवं प्रभात वेला में ही अधिक कर्मशील होती हैं और अंधकार की प्रेमी होती हैं। इस गण की बहुत सी जातियाँ अन्य छोटे कीटों, कुटकियों आदि का आहार करती हैं। रक्त चूसने की क्रिया अधिकांशत: मादा में पाई जाती है। डिप्टेरा गण में से कुछ तो मनुष्यों तथा जानवरों में रोग फैलाने के कारण विशेष महत्व के हैं। ये धुँधले तथा मटमैले रंग के होते हैं, किंतु बहुतों में तो स्पष्ट उभरी हुई धारियाँ अथवा काले पीले धब्बे होते हैं। कुछ में बैंगनीपन अथवा नीलिमा और बहुतों में कालिमा के साथ हरीतिमा होती है। कुछ के कम और कुछ के घने बाल भी होते हैं। इनमें से कुछ की क्रियाएँ बर्रों से मिलती जुलती हैं। ये पकड़े जाने पर बर्रों की तरह भनभनाहट करते हैं और उन्हीं की तरह डंक मारने की चेष्टा भी।
सामान्यत: इस गण के कीटों के सिर गोलाकार होते हैं, जिनपर दो संयुक्त नेत्र होते हैं, जो सिर का अधिकांश भाग घेरे रहते हैं। इनके अतिरिक्त सिर के ऊपरी भाग में तीन सरल नेत्र भी होते हैं। इस संयुक्त नेत्रों में सहस्रों दृष्टिनेत्र होते हैं, जिन्हें नेत्राणु (Ommatidium) कहते हैं तथा जो अपने तल पर षट्कोणीय पृष्ठकों (facets) के रूप में दिखाई पड़ते हैं। कुछ कीटों में ये नहीं भी रहते।
इस गण के कीटों के सिर के अग्र भाग में दो छोटी छोटी शृंगिकाएँ (antenna) होती हैं, जो सिर के मध्य भाग से निकलती हैं। इन शृंगिकाओं में कई खंड होते हैं तथा ये कई आकार की होती हैं। इनका कीटाणुओं के वर्गीकरण में बहुत अधिक महत्व है। इस गण के कीटों का मुख विशेष रूप से चूसने के लिए ही बना है अथवा यों कह सकते हैं कि ये अपने मुख से भेदन और चूषण, दोनों ही कार्य, करते हैं। ये ठोस पदार्थ तो बिल्कुल ही नहीं खा सकते। इनका लेबियम (labium) झिल्लीदार होता है तथा इनके शुंड की रचना मुख्यतया इसी से होती है। लेबियम का अंतिम भाग, जिसे लेबेला (labella) कहते हैं, अंडाकार होता है। इनमें विदुकास्थि (mendibles) और ऊर्ध्व हन्वास्थि (maxilla) नहीं होतीं। ये भाग तो केवल रक्तचूषक कीटों में ही पाए जाते हैं तथा उन कीटों के लिए तीक्ष्ण अस्त्र का भी कार्य करते हैं। वक्षखंड संमिलित से होते हैं और वे लगभग एक ही वक्ष बनाते हैं। इनकी टाँगें पाँच भागों में बँटी होती हैं तथा इनके पंख झिल्लीदार होते हैं, किंतु कुछ परजीवी तथा अन्य डिप्टेरा में ये पंख होते ही नहीं। इनके पंखों का नाड़िका (nervure) विन्यास दुर्बल होता है तथा इनमें कुछ आडी नाड़िकाएँ भी होती हैं। मादाओं के उदर के अंतिम खंड नलिकाकार एवं खिंचावदार बने होते हैं, जिन्हें अंडनिक्षेपण अंग कहते हैं।
डिप्टेरा का पाचक तंत्र सरल होता है। इसका हृदय सीधी नलिका मात्र होता है। श्वसनतंत्र में श्वसनलिकाएँ होती हैं, जो बहुधा बड़े-बड़े वायुकोश बनाती हैं। अधरतंत्रिका-रज्जु की गुच्छिकाएँ मिलकर एक संहति बनाती हैं।
वर्गीकरण का मुख्य आधार शृंगिका की रचना और पंख का नाड़ीविन्यास है। जेनेरा और स्पीशीज़ में विभाजन के लिए कभी अप्रसिद्ध और अस्पष्ट रचनाओं को भी ध्यान में रखना पड़ता है। यह गण तीन उपगणों (suborders) में विभाजित है, जिनके नाम हैं-
इसकी शृंगिका में कई खंड होते हैं और यह बहुधा सिर और वक्ष से लंबा होता है। मैक्सिलरी (maxillary) स्पर्शकों में चार, पांच खंड होते हैं और यह लटकता (pendulous) रहता है। पंख में पृष्ठीय कोशिका (discal cell) साधारणतया नहीं होता और क्युबिटल (cubital) कोषिका यदि उपस्थित हुई तो खुली होती है। यह उपगण तेईस कुलों में विभाजित किया जा सकता है, जिनमें से मुख्य कुलों का विवरण निम्नलिखित है :
इस उपगण के डिप्टेरा बहुधा स्थूल शरीरवाले होते हैं, जिनकी शृंगिकाएँ छोटी और तीन खंडवाली होती हैं। इनमें साधारणतया अंतिम लंबा खंड बढ़कर एक सूचिका (style) बन जाती है। मैक्सिलरी (maxillary) स्पर्शक एक या दो खंड के होते हैं। इस उपगण के बहुत से सदस्यों की पहचान उनके नाड़िकाविन्यास और छोटे अग्राभिमुख स्पर्शक के द्वारा होती है। यह उपगण १७ कुलों में विभाजित किया गया है, जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण कुल निम्निलिखित हैं :
ब्राकिसरा उपगण के कुछ अन्य कुलों के नाम रेजिऑनिडी (Rhagionidae), माइडेडी (Mydadae), नेमेस्ट्रिमाइडी (Nemestrimidae), एक्रोसेराइडी इत्यादि हैं।
इस उपगण के डिप्टेराओं की शृंगिकाओं में तीन खंड होते हैं, जिनमें साधारणतया पृष्ठीय बालदार प्रशाखाएँ (arista) होती हैं। स्पर्शक एक खंड का होता है। पृष्ठीय कोशिका (discal cell) प्राय: सर्वदा होती है और क्यूबिटल कोशिका (cubital cell) या तो सिकुड़ी हुई या बंद होती है। सिर के ऊपर लालाटिक संधिरेखा (frontal suture) होती है, जिसपर एक छोटा पत्रक या नखचंद्रक (lunula) होता है।
यह उपगण तीन श्रेणियों में विभाजित होता है:
इनमें ललाट की संधिरेखा नहीं होती तथा नखचंद्रक अस्पष्ट या अनुपस्थित होता है। टिलाइनम (Ptilinum) अनुपस्थित होता है और क्यूबिटल कोशिका लंबी होती है। यह छह कुलों में विभाजित है, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं :
इसके अंतर्गत सामान्यत: चौरस और कड़े आवरणवाली मक्खियाँ हैं, जिनका शरीर समतापी कशेरूकदंडीय प्राणियों पर बाह्य परजीवी जीवन के लिए अनुकूल होता है। इनमें पंख क्षीण होता है, या होता ही नहीं। टिलाइनम उपस्थित या अनुपस्थित रहता है। बाह्य परजीवी जीवन में समानता के नाते इसकी रचना विवर्तित (modified) होती है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित कुल आते हैं :
इस श्रेणी का तीसरा कुल निक्टेरिबाइडी (Nycteribidae) है।
डिप्टेरा के नरों में वृषण अंडाकार या पिरिफॉर्म (pyriform) और बहुधा रंगीन होते हैं। मादाओं में बहुत अधिक अंडनालें होती हैं, जिनकी संख्या पाँच से लेकर १०० से अधिक होती है। अधिकांश डिप्टेरा अंडज होते हैं।
मैथुन के कुछ दिनों बाद मादा बड़ी संख्या में अंडे देती है, जिनका आकार भिन्न भिन्न प्रकार का होता है। घरेलू मक्खी ७५ से १५० तक की संख्या में इकट्ठे ही अंडे देती है और जीवन भर में २,००० से भी अधिक अंडे दे लेती है। इसका जीवन अधिक से अधिक छह से लेकर १० सप्ताह तक का होता है और अपने जीवन में एक मक्खी केवल २२ बार अंडे दे सकती है। ये अंडे या तो बिखरे होते हैं अथवा कतारों में। मच्छरों के अंडे जल में एक बेड़े के आकार में दिए जाते हैं, जो तैरते रहते हैं। इनकी परजीवी जाति अपने अंडे अन्य कीटाणुओं, जंतुओं तथा पौधों के भीतर देती है, जहाँ वे बढ़ते हैं। कुछ जातियों, जैसे माइऐस्टर (Miaster), में डिंबजनन पाया जाता है। कुछ डिप्टेरा जरायुज (viviparous) भी होते हैं और ये अधिकतर प्यूपिधारा श्रेणी में पाए जाते हैं। ये या तो शिशुओं को जन्म देते हैं या ऐसे लार्वों को, जो परिपक्व होते हैं और पैदा होते ही इनका प्यूपीकरण हो जाता है। इस प्रकार लार्वा मादाओं में विभिन्न कालों तक रहता है। कीलिन (Keilin) ने सन् १९१६ में जरायुज कीटों को दो समुदायों में विभाजित किया है। पहले समुदाय में लार्वा मादा के गर्भाशय में अंडे से निकलता है और इसमें गर्भस्थ जीवन के लिए कोई विशेष प्रकार का अनुकूलन नहीं होता। बहुत से टाकिनिडी (Tachinidae) और दूसरे कीट इस समुदाय में आते हैं। दूसरे समुदाय में ग्लाँसाइना (Glossina) और प्यूपिपारा संमिलित हैं। इनमें लार्वा मादा के गर्भाशय में विशेष प्रकार की पोषक ग्रंथियों (nutritive glands) से आहार प्राप्त करते हैं। इन्हीं समुदायों के लार्वे परिपक्व अवस्था में जन्म लेते हैं और जन्म लेते ही इनका प्यूपीकरण हो जाता है।
बहुत से डिप्टेराओं में वर्ष में केवल एक ही पीढ़ी (generation) होती है, किंतु सामान्य डिप्टेराओं में अधिकांशत: एक वर्ष में बहुत सी पीढ़ियाँ होती हैं। इन पीढ़ियों का वर्धन ऋतु एवं ताप पर निर्भर करता है। डिप्टेरा की कुछ जातियों में जीवनचक्र पूरा करने में दो तीन वर्ष भी लग जाते हैं।
डिप्टेरा गण के लार्वों को पैर नहीं होते। इनकी गति कूटपादों और देहभित्ति के ऊपर के कंटकों की सहायता से होती है। इनके शरीर में अधिक से अधिक १२ खंड होते हैं, जिनमें से तीन वक्षीय और अन्य नौ उदरीय होते हैं। कुछ इने गिने कीटों, जैसे ऐनाइसोपॉडिडी (Anisepedidae) और थिरेविडी (Therevidae) के लार्वों में १२ से अधिक खंड होते हैं। अधिकतर लार्वों में स्पष्ट सिर नहीं होता, केवल क्यूलिसिडी (Culicidae) और नेमाटॉसरा (Nematocera) में स्पष्ट और उभरा हुआ सिर होता है। इसी कारण इन्हें युसेफालस (Eucethalous) श्रेणी में रखते हैं। साइक्लॉराफा में अवशेष सिर होता है, इसी कारण इसे एसेफालस (Acephalous) श्रेणी में रखते हैं। इसी प्रकार के अन्य बहुत से लार्वे मध्यवर्गीय होते हैं, जिनका सिर दुर्बल होता है और जिन्हें हेमिसेफॉलस (Hemicephalous) श्रेणी में रखते हैं। इस प्रकार का सिर अधूरा होता है और वक्ष के भीतर सिकोड़ा जा सकता है। पैर न होने के कारण ऐसे लार्वे सड़ी गली वस्तुओं, कूड़ा कर्कट, गोबर, मिट्टी, पौधों के ऊतक तथा जंतुओं के शरीर और पानी में छिपकर जीवन व्यतीत करते हैं।
शृंगिकाएँ कदाचित् ही उभरी हुई तथा विभिन्न प्रकार की होती हैं और उनमें एक से लेकर छह तक खंड होते है। नेमाटॉसरा के कार्यशील लार्वों जैसे लार्वों में ये बहुत पुष्ट होते हैं, क्योंकि इनकी सहायता से ये अपना भोजन खोजते हैं। कभी कभी ये बहुत क्षीण भी होते हैं। विभिन्न समूदायों के मुखभाग की रचना में भी विचित्र अंतर होता है। नेमाटॉसरा के कुछ कुलों में ये आदर्शभूत पाए जाते हैं। साइक्लाराफा में यथार्थ मुखभाग अपक्षयी (atrophied) होता है और उसके स्थान पर अनुकूल रचनाएँ होती हैं, जिनसे सेफालोफैरिंजिऐल (Cephalopharyngeal) कंकाल बनता है।
मांसाहारी कीटों के मुखभाग तीक्ष्ण और काँटेदार होते हैं, दाँत होते ही नहीं। किंतु वनस्पति आहारी कीटों में दाँत होते हैं। मृतोपजीवी कीटों में ग्रसनीय तल उद्रेखित होता है। वनस्पति आहारियों में कम उद्रेखित अथवा चिकना और मांसाहारियों में उद्रेख (ridges) बिलकुल नहीं होते।
संभवत: अधिकतर लार्वे सड़े गले जैव पदार्थ खाते हैं। डिप्टेरा कुल के कुछ केवल पौधे ही खाते हैं, किंतु अधिकांशत: ये परोपजीवी या दूसरों का शिकार करनेवाले ही होते हैं।
पूर्णवृद्धिप्राप्त लार्वा प्यूपा में बदल जाता है। इस बदलने में या तो लार्वा अपनी त्वचा फैंक देता है या वही त्वचा कठोर जलरोधी अंडाकार कोशित कोष्ठ का निर्माण कर लेती है, जिसको प्यूपा कोष या प्रडिंभ कोष कहते हैं। यह प्यूपा कोष अचल होता है। कुछ कीट प्यूपा कोष बनाते हैं तथा यदा कदा दुर्बल कवच भी बनाते हैं। इस श्रेणी के बहुत से कीट लार्वा या प्यूपा की दशा में ही शीतकाल व्यतीत करते हैं, लेकिन कुछ अंडे की दशा में और कुछ प्रौढ़ दशा में शीतनिष्क्रिय रहते हैं।
प्राचीन या पेरिपन्यूस्टिक (Peripneustic) अवस्था लगभग नेमाटॉसरा में ही पाई जाती है। श्वासरध्रं की अधिकतम संख्या दस जोड़ा, जैसे बिबिओ (Bibio) में, होती है, परंतु सीटॉपसिनल (Seatopsinal) और इसी तरह कुछ अन्य कीटों में ये नौ जोड़े होते हैं। मुख्यतया श्वासरध्रं के दो जोड़े, एक अग्र और एक पश्च, होते हैं, परंतु कुछ कीटों में, मुख्यत: परोपजीवियों में, केवल पश्च श्वासरध्रं का जोड़ा ही पाया जाता है। प्यूपा कोष्ठ अंदर के भार के कारण एक निश्चित रेखा पर फट जाता है। गंभीर या प्रचंड साइक्लाराफा का प्रौढ़ जीव, लालाटिक ब्लैडर या टिलाइनम (Ptilinum) को फुलाकर, बाहर निकलता है, जिससे प्यूपा कोष में छिद्र बन जाता है।
एक माह के प्रवास में मलेरिया होने के खतरे का सांख्यिकीय मानचित्र | |
♦ | उच्च खतरा |
♦ | मध्यम खतरा |
♦ | कम खतरा |
♦ | लगभग शून्य खतरा |
♦ | कोई खतरा नहीं |
इस गण के मुख्य प्राणी पूरे विश्व में पाए जाते हैं और इनमें बहुत कम ही समुदाय एक ही स्थान तक सीमित है। साथ ही साथ यह बात भी महत्वपूर्ण है कि उष्ण कटिबंध में ही ये अधिक संख्या तथा महत्वपूर्ण समुदाय में पाए जाते हैं।
डिप्टेरा लार्वा अथवा प्रौढ़, अपनी दोनों ही स्थितियों में, बड़े आर्थिक महत्व का है। कीटों का कोई भी अन्य वर्ग डिप्टेरा से अधिक आर्थिक महत्व का नहीं है। कुछ महत्वपूर्ण संक्रामक रोगों के, जैसे मलेरिया, सुषुप्तिरोग (slepping sickness), फीलपाँव, पीतज्वर इत्यादि के, रोगोत्पादक जीव रक्तशोषक मक्खियों द्वारा मनुष्यों में संचारित किए जाते हैं। इन मक्खियों के लार्वे हानिकारक नहीं होते। मक्खियाँ मनुष्यों तथा पशुओं के लिए घातक तथा विनाशकारी सिद्ध होती हैं। उदाहरणत:, आनॉफेलीज़ और क्यूलेक्स (Culex) मच्छरों की विभिन्न जातियाँ मलेरिया और फीलपाँव को एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में फैलाती हैं। इसी प्रकार एईडीज़ईजिप्टी (Aedesaegypti) पांडुज्वर (yellow fever) के वाहक हैं। ग्लोसाइना (Glossina) मक्खी सुषुप्तिरोग का संक्रमण मनुष्यों में और नॉगाना (nagana) का संक्रमण पालतू जानवरों में करती है। रक्तचूषक छोटी मक्खी (Moth fly, genus Phlebotomus) दक्षिणी यूरोप और उत्तरी अफ्रीका में सैंड ज्वर (sand fever) अथवा पैप्पैटैसी ज्वर (pappataci fever) के संक्रमण के लिए उत्तरदायी है। इसी प्रकार 'घोड़ मक्खी' (Tabanus striatus) भारत और दूसरी जगहों में एक प्रकार की बीमारी, सरा (surra), के रोगोत्पादक जीवों को जानवरों में फैलाती है। घरेलू मक्खी (Musca domestica) और इसी प्रकार की अन्य मक्खियाँ स्वत: रोगोत्पादन का कार्य न करके केवल घातक बीमारियों के रोगवाहक का कार्य करती हैं। यद्यपि ये रक्तचूषक नहीं होती, तथापि आंत्र ज्वर (typhoid), बच्चों का अतिसार (infantile diarrhoea), विसूचिका (cholera), आमातिसार (amoebic dysentery) इत्यादि व्याधियों के जीवाणुओं (germs) की वाहक हैं। ये एक ओर तो मलमूत्रादि, थूक, रोगियों के शवों, खाद तथा अन्य प्रकार की सड़ी गली वस्तुओं का, जिनमें व्याधियों के जीवाणु रहते हैं, स्पर्श करती हैं और दूसरी ओर वे मनुष्यों के खाद्य पदार्थों पर बैठती हैं। ये दो विधियों से रोग फैलाती हैं। एक बाह्य रोगांतरण (external transference), जिसके लिए मक्खी के संपूर्ण शरीर की रचना उपयुक्त होती है और दूसरा आंतर रोगांतरण (internal transference), जो मक्खी के भोजन करने और उगलने या वमन करने की आदत से होता है।
बहुत सी मक्खियों के लार्वा कृषि के पौधों को हानि पहुँचाते हैं। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण मक्खियाँ हैं, जैसे फलमक्षिकाएँ, जो सारे संसार में फलों का नाश करने के लिए प्रसिद्ध हैं। भूमध्यसागर की फल की मक्खियाँ १२० प्रकार के पोषक (Host) पौधों पर पाई जाती हैं। भारत में डेकस डॉरसेलिस (Dacus dorsalis) फलमक्षिका फलों और तरकारियों को बहुत अधिक क्षति पहुँचाती है। इसी प्रकार की बहुत सी दूसरी मक्खियाँ भी हैं, जो हमारे यहाँ पौधों को बहुत अधिक हानि पहुँचाती हैं, जैसे लौकी का मक्खी (Chaetodacus cucurbitae or Pumpkin fruit fly), तरबूज या फूट की मक्खी (mellon fly) और दूसरी मक्खियाँ, जो तरोई, करेला इत्यादि की विनाशक हैं। यदा कदा टमाटर पर भी इनका आक्रमण होता है। इस वर्ग के सदस्य नीबूवाले (citrus) पौधों, हल्दी, अदरक, आम, बेर, इलायची, मसूर, धान, रूई, मदार, शरीफा इत्यादि को हानि पहुँचाते हैं। कुछ के लार्वा अन्न संबंधी (cereals) और दूसरी फसलों की जड़ों को अधिक हानि पहुँचाते हैं। इसी प्रकार कैबेज मैगॉट (Cabbage maggot) और प्याज मक्खी (Onion fly) बंद गोभी और प्याज को बहुत अधिक क्षति पहुँचाती हैं।
कुछ दूसरी मक्खियों के लार्वा मनुष्यों और घरेलू जानवरों को क्षति पहुँचाते हैं। उनकी उपस्थिति से जो व्याधि होती है वह साधारण शब्दों में माइयासिस (Myiasis) के अंतर्गत आती है। माइयासिस उस स्थिति को कहते हैं, जिसमें मनुष्य या जानवर के शरीर का कोई भाग डिप्टेरा गण की मक्खियों के अंडे या लार्वे से आक्रांत रहता है। ये लार्वे शरीर के किसी भी प्राकृतिक छिद्र; त्वचा के व्रण, आहारनलिका या शरीर के ऊतकों में पाए जाते हैं। इस श्रेणी में यूरोप और अमरीका की वार्बल मक्खी (Warble fly) आती है, जो भारत में पंजाब में भी पाई जाती है। यह पशु की खाल का भेदन करके अत्यधिक हानि पहुँचाती है। इसी प्रकार घोड़े की वधई (Gasterophilus) घोड़े और खच्चरों की आहारनलिका पर आक्रमण करती हैं। भेड़ों की वधई (Breeze fly) भेड़ों की नासिका में अंडे देती है और लार्वा अंडों से निकलकर मस्तिष्क तक पहुँच जाती है।
डिप्टेरा केवल हानिकारक ही नहीं होते, वरन् इनकी बहुत सी ऐसी जातियाँ (स्पीशीज़) भी हैं जो मानव के लिए अति उपयोगी हैं। ये हमारी फसलों, बागों और जंगलों की उपज और वृद्धि में बड़ी सहायता देती हैं। बहुत सी ऐसी दूसरी लाभदायक मक्खियाँ भी हैं जो दूसरे अन्य कीटों को समाप्त कर देती हैं। इस गण में परभक्षी एवं कुछ परजीवी आते हैं, जो लाभदायक हैं। परभक्षियों में हॉवर (Hover) मक्खी, कुल सरफाइडी (Syrphidae) और रॉबर (Robber) मक्खी का लार्वा आता है। टाकिनिडी (Tachinidae) कुल का परजीवी लार्वा बहुत से दूसरे असंख्य कीटों को समाप्त करता है। गन्ने का बोरर बीटल (Borer beetle, Rhabocnemis obscura) इस प्रकार के परजीवी टाकिनिड (Tachinid, Ceromasia sphenophori) के द्वारा नियंत्रित हुआ है। ठीक इसी प्रकार दूसरे टाकिनिड बहुत से अनिष्टकारक कीटों पर नियंत्रण रखने में सहायक सिद्ध हुए हैं।
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