गोवा मुक्ति संग्राम, गोवा मुक्ति आन्दोलन या गोवा मुक्ति संघर्ष से आशय उस सम्पूर्ण संघर्ष से है जो गोवा को पुर्तगाल से मुक्त कराने के लिये किया गया था। जब भारत के बड़े क्षेत्र पर अंग्रेज शासन कर रहे थे तब गोवा, दमन और दीव पर पुर्तगाल का शासन था। यह संघर्ष १९वीं शताब्दी में ही छोटे स्तर पर आरम्भ हो चुका था लेकिन १९४० से १९६१ के बीच बहुत प्रबल आन्दोलन के रूप में आ गया। अन्ततः दिसम्बर १९६१ में भारतीय सेना के तीनों अंगों ने मिलकर गोवा को मुक्त करा लिया।
15 जुलाई 1583 को कुंकली में पुर्तगालियों के खिलाफ पहला विद्रोह हुआ। इसके बाद तो 1788 में पिंटो विद्रोह और राणे विद्रोह आदि ने गोवा मुक्ति आंदोलन में अहम भूमिका निभायी। इसी क्रम में गोवा के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी टीबी कुन्हा ने साल 1928 में गोवा एक्शन कमेटी बनायी जिसने गोवा की आजादी के लिए सत्याग्रह और अहिंसा के माध्यम से जन जागरण किया। गोवा मुक्ति आंदोलन में महिलाओं ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। सुधाताई जोशी ऐसी ही एक वीरांगना हैं।
पुर्तगालियों के विरुद्ध पहला विद्रोह 15 जुलाई 1583 को कुंकली में हुआ जब धर्म-परिवर्तन कराने आए पांच पादरियों पर स्थानीय लोगों ने योजनाबद्ध तरीके से हमला किया और उनकी हत्या कर दी। स्थानीय लोगों के लिए अब ये अस्मिता और अस्तित्व की लड़ाई बन गई थी। इस घटना का बदला पुर्तगालियों ने धोखे से लिया। उन्होंने बातचीत के लिये कुंकली इलाके से 15 लोगों को बुलाया और उन्हें घेरकर धोखे से हमला कर दिया। जिसमें सभी की मौत हो गई। माना जाता है कि ये गोवा के स्वतंत्रता संग्राम के पहले शहीद थे।
1788 में पिन्टो विद्रोह हुआ। वितोरिनो फारिया और जोस गोंसाल्वेज़जो उस समय पुर्तगाल में थे। दोनों यूरोप में लोकतंत्र के आगमन को देख रहे थे। ये दोनों गोवा लौटे और आज़ादी व लोकतंत्र के विचार को गोवा में पोषित किया। पिंटो परिवार की मदद से 1788 में विद्रोह हुआ जिसे कुचल दिया गया। 13 दिसंबर 1788 को 47 नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। जिनमें से कई को फांसी दी गई।
गोवा के स्वतंत्रता आंदोलन का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अध्याय है राणे सशस्त्र विद्रोह। 1755 से लेकर 1912 तक राणे समुदाय ने अनेकों बार शासकों से सशस्त्र संघर्ष किया। शासकों ने बार-बार इस संघर्ष को बर्बर तरीके से कुचला दिया। बंदूक, तलवार आदि स्थानीय हथियारों के साथ सत्तरी इलाके के राणों ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी और पुर्तगाली शासन के दिल में खौफ भर दिया। पहाड़ी इलाकों और अंदरूनी जंगलों में तकरीबन 150 साल तक गुरिल्ला लड़ाई चलती रही।
1926 में तरिस्ताव दे ब्रागांझा कुन्हा भारत लौटे और उन्होंने अपने पांच साथियों के साथ मिलकर 1928 में गोवा कांग्रेस कमेटी का गठन किया जिसने गोवा की मुक्ति के लिये सत्याग्रह और अहिंसा को अपना हथियार बनाया। वो अपनी कलम के जरिये लगातार गोवा की आजादी का मसला पूरी दुनिया के सामने रखते रहे। टीबी कुन्हा के ही एक सम्बन्धी रहे लुईस दे मिनेझिस ब्रागांझा जो एक पत्रकार और उपनिवेशवादी कार्यकर्ता थे, लगातार पुर्तगाली शासन के खिलाफ सक्रिय रहे। मिनेझिस ब्रागांझा, द हेराल्ड, द डिबेट, द इवनिंग न्यूज़ डेली आदि के संस्थापकों में शामिल रहे। द हेराल्ड में आप व्यंग्यात्मक कॉलम लिखते थे। जिसमें विचार की आज़ादी, बोलने की आज़ादी, शोषण से आज़ादी और धर्मनिरपेक्षता आदि मुद्दों को प्रमुखता से उठाते रहे। आप भारत में चल रहे आज़ादी के आंदोलन और रणनीतियों से भी गोवा की जनता को सजग करते रहे। मिनेझिस ब्रागांझा विभिन्न संगठनों और एजेंसियों में मुख्य भूमिका में रहे और हर मंच से गोवा की आज़ादी का नारा बुलंद करते रहे।
1930 में पुर्तगाल में कोलोनियल एक्ट पास किया गया जिसके अनुसार पुर्तगाल के किसी भी उपनिवेश में रैली, मीटिंग और अन्य कोई सरकार विरोधी सभा और गतिविधि पर प्रतिबन्ध लगा दिया। 'जयहिन्द' तक बोलने पर जेल में डाला जाने लगा। 1932 में जब अतोनियो द ओलिवीरा सालाज़ार पुर्तगाल के शासक बनें तब गोवा में दमन अपने इंतिहां पर पहुंच गया। भयानक सेंसरशिप थोप दी गई। यहां तक कि शादी के कार्ड भी सेंसर किये जाने लगे कि कहीं आज़ादी का कोई गुप्त संदेश तो नहीं फैलाया जा रहा।
महिलाओं ने भी इस संघर्ष में बढ़-चढ़कर भाग लिया। सुधाताई जोशी ऐसी ही एक विरांगना हैं। सुधाताई ने 1955 में मापसा में महलाओं की एक सभा का आयोजन किया। जैसे ही सुधाताई ने भाषण देना शुरू किया एक पुलिसकर्मी ने सीधे सुधाताई के मुंह की तरफ बंदूक तान दी। सुधाताई बिना डरे बोलती रहीं। सभा में शामिल महिलाओं ने तिरंगा लहराते हुए जयहिंद के नारे लगाने शुरू कर दिये। सुधाताई को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। मात्र सुधाताई ही नहीं बल्कि वत्सला किर्तानी, शारदा साव, सिंधू देसपांडे, लिबिया लोबो, अंबिका दांडेकर, मित्रा बीर, सेलिना मोनिझ, शालिनी लोलयेकर, किशोरी हरमलकर ऐसी अनेक महिलाएं थीं जिन्होनें स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया और कुर्बानियां दी। ये सूची बहुत लम्बी है।
१५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजों ने भारत को स्वतंत्र घोषित कर दिया। लेकिन गोवा, दमन और दीव में पुर्तगाली जमे रहे। पुर्गताली गोवा को किसी भी कीमत पर छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। पुर्तगालियों के खिलाफ स्थानीय लोगों ने विद्रोह किया।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से प्रेरित होकर १९४० के दशक तक गोवा के स्वतंत्रता आन्दोलन ने गति प्राप्त कर ली थी। पूरे देश में जिस तरह अंग्रेजी शासन समाप्त करने के लिये आन्दोलन चल रहे थे, उसी तरह गोवा में भी पुर्तगालियों के खिलाफ स्थानीय लोगों का निरन्तर और स्वतःस्फूर्त प्रतिरोध हुआ था। पुर्तगाली शासन द्वारा समय-समय पर गोवावासियों को अपने पूर्ण नियंत्रण में लाने के लिए जो उपाय किए गए, उनका हमेशा कड़ा विरोध हुआ। गोवा कांग्रेस बनी और आजादी का आन्दोलन चलाया गया। भारत में जो कांग्रेस थी उसे उसका साथ मिला।
गोवा को मुक्त कराने में डॉक्टर राममनोहर लोहिया का बहुत बड़ा योगदान था। 1946 में वह गोवा गए थे, जहां उन्होंने देखा कि पुर्तगाली तो अंग्रजों से भी बदतर थे। 18 जून 1946 को बीमार राम मनोहर लोहिया ने पुर्तगाली प्रतिबंध को पहली बार चुनौती दी। वहां नागरिकों को सभा सम्बोधन का भी अधिकार नहीं था। लोहिया से ये सब देखा नहीं गया और उन्होंने तुरन्त 200 लोगों की एक सभा बुलाई। तेज बारिश के बावजूद उन्होंने पहली बार एक जनसभा को संबोधित किया, जिसमें उन्होंने पुर्तगाली दमन के विरोध में आवाज उठाई। उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और मड़गांव की जेल में रखा गया। लेकिन जनता के भारी आक्रोश के कारण बाद में उन्हें छोड़ना पड़ा। पुर्तगालियों ने लोहिया के गोवा आने पर पांच साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन इसके बावजूद भी गोवा की आजादी की लड़ाई लगातार जारी रही।
11 जून 1953 को पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन में भारत ने अपने दूतावास बन्द किए। फिर पुर्तगाल पर दबाव डालना शुरू किया। गोवा, दमन और दीव के बीच आने जाने पर बंदिशे लग गईं। 15 अगस्त 1955 को तीन से पांच हजार आम लोगों ने गोवा में घुसने की कोशिश की। लोग निहत्थे थे और पुर्तगाल की पुलिस ने गोली चला दी। 30 लोगों की जान चली गई। तनाव बढ़ने के बाद गोवा पर सेना की चढ़ाई की तैयारी की गई। 1 नवम्बर 1961 में भारतीय सेना के तीनों अंगों को युद्ध के लिए तैयार रहने को कहा। भारतीय सेना ने अपनी तैयारियों को अंतिम रूप देने के साथ आखिरकार दो दिसंबर को गोवा मुक्ति का अभियान शुरू कर दिया। बहुत से लोगों का विचार है कि नेहरू ने अपनी अन्तरराष्ट्रीय छबि चमकाने के लिये गोवा को समय से आजाद नहीं कराया।
जमीन से सेना, समुद्र से नौसेना और हवा से वायुसेना गई। इसे 'ऑपरेशन विजय' का नाम दिया गया। दिसंबर 1961 को गोवा की तरफ सेना पहली बार बढ़ी। सेना जैसे-जैसे आगे बढ़ती लोग स्वागत करते। कुछ जगह पुर्तगाल की सेना लड़ी। लेकिन हर तरफ से घिरे होने की वजह से पराजय तय थी। वायु सेना ने आठ और नौ दिसंबर को पुर्तगालियों के ठिकाने पर अचूक बमबारी की, थल सेना और वायुसेना के हमलों से पुर्तगाली तिलमिला गए। आखिर में 19 दिसंबर 1961 की रात साढ़े आठ बजे भारत में पुर्तगाल के गवर्नर जनरल मैन्यु आंतोनियो सिल्वा ने समर्पण सन्धि पर हस्ताक्षर किये। इसी के साथ गोवा पर 451 साल का पुर्तगाली राज समाप्त हुआ।
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