समावेशी शिक्षा (अंग्रेज़ी: Inclusive education) से आशय उस शिक्षा प्रणाली से है जिसमें एक सामान्य छात्र एक दिव्यांग छात्र के साथ विद्यालय में अधिकतर समय बिताता है। दूसरे शब्दों में, समावेशी शिक्षा विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों को सामान्य बालकों से अलग शिक्षा देने की विरोधी है।
शिक्षा का समावेशीकरण यह बताता है कि विशेष शैक्षणिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक सामान्य छात्र और एक दिव्यांग को समान शिक्षा प्राप्ति के अवसर मिलने चाहिए। पहले समावेशी शिक्षा की परिकल्पना सिर्फ विशेष छात्रों के लिए की गई थी लेकिन आधुनिक काल में हर शिक्षक को इस सिद्धांत को विस्तृत दृष्टिकोण में अपनी कक्षा में व्यवहार में लाना चाहिए।
समावेशी शिक्षा या एकीकरण के सिद्धांत की ऐतिहासिक जड़ें कनाडा और अमेरिका से जुड़ीं हैं। प्राचीन शिक्षा पद्धति की जगह नई शिक्षा नीति का प्रयोग आधुनिक समय में होने लगा है। समावेशी शिक्षा विशेष विद्यालय या कक्षा को स्वीकार नहीं करता। अशक्त बच्चों को सामान्य बच्चों से अलग करना अब मान्य नहीं है। विकलांग बच्चों को भी सामान्य बच्चों की तरह ही शैक्षिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार है।
समावेशी शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
समावेशी शिक्षा, निम्नलिखित कारणों से महत्वपूर्ण है-
1. शारीरिक दोषमुक्त विभिन्न बालकों की विशेष आवश्यकताओं की सर्वप्रथम पहचान करना तथा निर्धारण करना।
2. शारीरिक दोष की दशा को बढ़ाने से पहले कि वे गम्भीर स्थिति को प्राप्त हो, उनके रोकथाम के लिये सर्वप्रथम उपाय किया जाना। बालकों के सीखने की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए कार्य करने की विभिन्न नवीन विधियों द्वारा विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करना।
3. शारीरिक रूप से विकृतियुक्त बालकों का पुनर्वास कराया जाना।
4. शारीरिक रूप से विकृतियुक्त बालकों की शिक्षण समस्याओं की जानकारी प्रदान करना।
5. शारीरिक रूप से विकृतियुक्त बालकों की शिक्षण समस्याओं की जानकारी प्रदान करना तथा सुधार हेतु सामूहिक संगठन की तैयारी किया जाना।
6. बालकों की असमर्थताओं का पता लगाकर उनके निवारण का प्रयास करना।
समावेशी शिक्षा में चार प्रकियाएं होती है-
1.मानकीकरण- सामान्यीकरण वह प्रक्रिया है जो प्रतिभाशाली बालकों तथा युवकों को जहाँ तक संभव हो कार्य सीखने के लिए सामन्य सामाजिक वातावरण पैदा करें।
2. संस्थारहित शिक्षा- संस्थारहित शिक्षा ऎसी प्रक्रिया है जिसमे अधिक से अधिक प्रतिभाशाली बालकों तथा युवक छात्राओं की सीमाओं को समाप्त कर देती है जो आवासीय विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करते हैं एवं उन्हें जनसाधारण के मध्य शिक्षा ग्रहण करने का अवसर प्रदान करते हैं।
3.शिक्षा की मुख्य धारा- शिक्षा की मुख्य धारा वह प्रक्रिया है जिनमे प्रतिभाशाली बालकों को समान्य बालकों के साथ दिन प्रतिदिन शिक्षा के माध्यम से आपस मे संबंध रखते हैं।
4.समावेश- समावेश वह प्रक्रिया है जो प्रतिभाशाली बालकों को प्रत्येक दशा में सामान्य शिक्षा कक्ष में उनकी शिक्षा के लिये लाती है । समन्वित पृथक्करण के विपरीत है । पृथक्करण वह प्रक्रिया है जिसमें समाज का विशिष्ट समुह अलग से पहचाना जाता है तथा धीरे धीरे सामाजिक तथा व्यक्तिगत दूरी उस समूह की तथा समाज की बढ़ती जाती है।
=== पूर्णत: समावेशी विद्यालय तथा सामान्य/विशेष शैक्षिकनीतिया
साधारणतः छात्र एक कक्षा में अपनी आयु के हिसाब से रखे जाते हैं चाहे उनका अकादमिक स्तर ऊँचा या नीचा ही क्यों न हो। शिक्षक सामान्य और विकलांग सभी बच्चों से एक जैसा बर्ताव करते हैं। अशक्त बच्चों की मित्रता अक्सर सामान्य बच्चों के साथ करवाई जाती है ताकि ऐसे ही समूह समुदाय बनता है। यह दिखाया जाता है कि एक समूह दूसरे समूह से श्रेष्ठ नहीं है। ऐसे बर्ताव से सहयोग की भावना बढती है।
शिक्षक कक्षा में सहयोग की भावना बढ़ाने के लिए कुछ तरीकों का उपयोग करते हैं:
एक शिक्षा, एक सहयोग—इस मॉडल में एक शिक्षक शिक्षा देता है और दूसरा प्रशिक्षित शिक्षक विशेष छात्र की आवश्यकताओं को और कक्षा को सुव्यवस्थित रखने में सहयोग करता है।
ऐसे बच्चों को अधिक देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता होती है जिनके साथ उनकी देखरेख करने वाला कोई नहीं होता है अथवा जिनके परिवारों ने गरीबी अन्य किसी कारण से उन्हें त्याग दिया हो। किशोर न्याय (बच्चों की देख रेख और संरक्षण अधिनियम) 2000 उनकी देखभाल, संरक्षण और पुनर्वास का प्रावधान करता है जिसमें दत्तक ग्रहण, पोषण देख – रेख, प्रायोजन भी शामिल है।
कुछ बच्चे विभिन्न कारणों से अपने माता – पिता को खो देते हैं जैसे – गरीबी, विकलांगता, बीमारी, माता – पिता की मृत्यु अथवा कारावास, प्रवास अथवा सशस्त्र विवाद के कारण उनसे अलगाव। ऐसे बच्चों की संख्या भी बहुत अधिक है जिनके माता – पिता में से एक अथवा दोनों जीवित नहीं हैं। अभिभावकीय देखरेख के अभाव वाले ऐसे बच्चे उत्पीड़न,शोषण और उपेक्षा के उच्च जोखिम में जीते हैं। कभी – कभी जीवन में आई कठिनाइयों और जीवित रहने के लिए उनके द्वारा किया जाने वाला संघर्ष उन्हें अपराध करने पर विवश कर देता है जिसके उन्हें कानूनी परिणाम झेलने पड़ते हैं। कभी – कभी एचआईवी/एड्स से पीड़ित बच्चे अथवा ऐसे बच्चे जिन्होंने स्वयं कानून का उल्लंघन किया है या जिनके माता – पिता ने अपराध किया है, गाँव में कलंक माने जाते हैं और सामाजिक बहिष्कार के शिकार बन जाते हैं। इससे उनका जीवन अत्यंत कष्टकर हो जाता है। शारीरिक अथवा मानसिक विकलांगता से पीड़ित बच्चों को भी प्राय: परिवार और समुदाय द्वारा बोझ समझा जाता है। लोग इन बच्चों को कोसते हैं तथा ऐसे बच्चे भी उत्पीड़न, उपेक्षा और हिंसा के शिकार बनते हैं।
कर्नाटक के बागलकोट जिले के दिगम्बेश्वर मंदिर में मनाए जाने वाले महोत्सव के दौरान, छोटे बच्चों को 30 फूट ऊँचे मंदिर की छत से नीचे फेंका जाता है। छत से फेंके जाने वाले बच्चे दो वर्ष से कम की आयु के होते हैं। स्थानीय लोगों का विश्वास है की यह अनुष्ठान बच्चे के लिए स्वश्त्य और भाग्य लेकर आता है।
भारत में चली आ कुछ परंपरागत और अंधविश्वासी प्रथाएँ बच्चों की संवृद्धि, विकास और कुशलता के लिए बहुत हानिकारक हैं।
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