हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल का नामकरण विद्वानों ने इस प्रकार किया है-
ये सभी नाम वस्तुत: एक ही सत्य को कई रूपों में परखने की विविध चेष्टाये हैं। जिन्होंने काव्य के प्रमुख गुणों को ध्यान में रखा, उन्होंने वीरगाथा; जिन्होंने कवि को प्रधान समझा, उन्होंने चारण; जिन्होंने काव्य-विषय आश्रयदाता को प्रधान माना, उन्होंने सामन्त तथा जिन्होंने साहित्य की प्राचीनता को ध्यान में रखा, उन्होंने पुर्व प्रारम्भ तथा आदिकाल नाम रखे ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस काल का नाम वीरगाथा काल रखा है। इस नामकरण का आधार स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं- ...आदिकाल की इस दीर्घ परम्परा के बीच प्रथम डेढ़-सौ वर्ष के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं होता-धर्म, नीति, श्रृंगार, वीर सब प्रकार की रचनाएँ दोहों में मिलती है। इस अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति के उपरांत जब से मुसलमानों की चढाइयों का आरम्भ होता है तब से हम हिन्दी साहित्य की प्रवृत्ति एक विशेष रूप में बँधती हुई पाते हैं। राजाश्रित कवि अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रमपूर्ण चरितों या गाथाओं का वर्णन करते थे। यही प्रबन्ध परम्परा रासो के नाम से पायी जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने वीरगाथा काल कहा है। इसके सन्दर्भ में वे तीन कारण बताते हैं-
शुक्ल जी द्वारा किये गये वीरगाथाकाल नामकरण के सम्बन्ध में कई विद्वानों ने अपना विरोध व्यक्त किया है। इनमें श्री मोतीलाल मैनारिया, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि मुख्य हैं। आचार्य द्विवेदी का कहना है कि वीरगाथा काल की महत्वपूर्ण रचना पृथ्वीराज रासो की रचना उस काल में नहीं हुई थी और यह एक अर्ध-प्रामाणिक रचना है। यही नहीं शुक्ल ने जिन ग्रन्थों के आधार पर इस काल का नामकरण किया है, उनमें से कई रचनाओं का वीरता से कोई सम्बन्ध नहीं है। बीसलदेव रासो गीति रचना है। जयचंद्र प्रकाश तथा जयमयंक जस चंद्रिका -इन दोनों का वीरता से कोई सम्बन्ध नहीं है। ये ग्रन्थ केवल सूचना मात्र हैं। अमीर खुसरो की पहेलियों का भी वीरत्व से कोई सम्बन्ध नहीं है। विजयपाल रासो का समय मिश्रबन्धुओं ने सं.1355 माना है अतः इसका भी वीरता से कोई सम्बन्ध नहीं है। परमाल रासो पृथ्वीराज रासो की तरह अर्ध प्रामाणिक रचना है तथा इस ग्रन्थ का मूल रूप प्राप्य नहीं है। कीर्तिलता और कीर्तिपताका- इन दोनों ग्रन्थों की रचना विद्यापति ने अपने आश्रयदाता राजा कीर्तिसिंह की कीर्ति के गुणगान के लिए लिखे थे। उनका वीररस से कोई सम्बन्ध नहीं है। विद्यापति की पदावली का विषय राधा तथा अन्य गोपियों से कृष्ण की प्रेम-लीला है। इस प्रकार शुक्ल जी ने जिन आधार पर इस काल का नामकरण वीरगाथा काल किया है, वह योग्य नहीं है।
डॉ० ग्रियर्सनने हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक काल का नाम 'चारण काल' (700-1300 ई०) रखा है। इस काल के नामकरण के मूल में राजपूताने के चारणों द्वारा रचित वीरगाथाएँ रही हैं। उनका इस संबंध में कथन है कि
"हिन्दुस्तान का प्राचीनतम भाषा साहित्य राजपूताने के चारणों द्वारा प्रस्तुत ऐतिहासिक वृत्तान्त है । प्रथम चारण जिसके सम्बन्ध में कुछ निश्चित सूचनाएँ प्राप्त हैं, सुप्रसिद्ध चन्दवरदाई है, जिसने १२ वीं शती के अन्तिम भाग में दिल्ली के पृथ्वीराज चौहान के वैभव और गुणों का वर्णन अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'पृथ्वीराज रासो' में किया है। उसका समसामयिक चारण जगनिक था जो पृथ्वीराज के महान् प्रतिद्वन्द्वी महोबा के परमर्दि का दरबारी था और सम्भवतः आल्हा खण्ड का रचयिता था जो पृथ्वीराज रासो की भांति हिन्दुस्तान में समान रूप से प्रख्यात है , दुर्भाग्य से हस्तलिखित रूप में सुरक्षित न रहकर मौखिक परम्परा में ही शेष रह सका है ।
इतिहास की घटनाओं का वर्णन भी साहित्य के अन्तर्गत आ गया था, क्योंकि साहित्य इस समय वीर-पूजा अथवा धर्म और राजनीति के नेता के गौरव का गीत था। सत्य और धर्म के किसी भी अग्रणी का जीवन-चरित उस समय साहित्य था। राजनीति और साहित्य का इतने समीप आ जाना हिन्दी साहित्य के इतिहास में चारणकाल की विशेषता है। —हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ॰ रामकुमार वर्मा
डॉ॰ रामकुमार वर्मा- इन्होंने हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल को चारणकाल नाम दिया है। रामकुमार वर्मा ने अपने पूर्ववर्ती इतिहासकारों की अपेक्षा अधिक विस्तृत और अधिक वेज्ञानिक रूप से विवेचत करते हुए इस काल के कवियों की विशिष्ट मनोदशा और प्रवृति को देखकर इसका नाम चारणकाल रखा । चारणों की इस विविष्टता की ओर शुक्लजी ने भी संकेत किया था। पर वे इस शब्द को प्रमुखता देने के पक्षपात्ती न थे। वे वीरगाथा को चारणों की पारिवारिक सम्पत्ति मानते थे। डा० वर्मा उस काल के शत-प्रतिशत कवियों को जाति, परम्परा और प्रवृति से चारण मानते है। राजनीति ओर साहित्य की समीपता को वे इस काल की प्रमुख विशेषता मानते है। इस काल के कवियों ने केवल आश्रयदाताओं को ही नही, सामान्य जनता को भी उत्साहित और प्रेरित किया। इसलिए इस काल का साहित्य केवल राजदरबारों में सुरक्षित न रहकर जनता के बीच भी लोकप्रिय हुआ ।
सामन्त काल में सामन्त शब्द से उस युग की राजनीतिक स्थिति का पता चलता हे ओर अधिकांश चारण जाति के कवियों की राजस्तुतिपरक रचनाओं के प्रेरणा-स्रोतो का भी पता चलता है । -हिन्दी साहित्य का आदिकाल, पृ० २३ ।
राहुल संकृत्यायन- उन्होंने 8वीं से 13 वीं शताब्दी तक के काल को सिद्ध-सांमत युग की रचनाएँ माना है। उनके मतानुसार उस समय के काव्य में दो प्रवृत्तियों की प्रमुखता मिलती है- 1.सिद्धों की वाणी- इसके अंतर्गत बौद्ध तथा नाथ-सिद्धों की तथा जैनमुनियों की उपदेशमुलक तथा हठयोग की क्रिया का विस्तार से प्रचार करनेवाली रहस्यमूलक रचनाएँ आती हैं। 2.सामंतों की स्तृति- इसके अंतर्गत चारण कवियों के चरित काव्य (रासो ग्रंथ) आते हैं, जिनमें कवियों ने अपने आश्रय दाता राजा एवं सामंतों की स्तृति के लिए युद्ध, विवाह आदि के प्रसंगों का वर्णन किया है। इन ग्रंथों में वीरत्व का नवीन स्वर मुखरित हुआ है। राहुल जी का यह मत भी विद्वानों द्वारा मान्य नहीं है। क्योंकि इस नामकरण से लौकिक रस का उल्लेख करनेवाली किसी विशेष रचना का प्रमाण नहीं मिलता। नाथपंथी तथा हठयोगी कवियों तथा खुसरो आदि की काव्य-प्रवृत्तियों का इस नाम में समावेश नहीं होता है।
मिश्रबंधुओं ने ई.स. 643 से 1387 तक के काल को प्रारंभिक काल कहा है। यह एक सामान्य नाम है और इसमें किसी प्रवृत्ति को आधार नहीं बनाया गया है। यह नाम भी विद्वानों को स्वीकार्य नहीं है।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी- उन्होंने हिंदी साहित्य के प्रथम काल का नाम बीज-बपन काल रखा। उनका यह नाम योग्य नहीं है क्योंकि साहित्यिक प्रवृत्तियों की दृष्टि से यह काल आदिकाल नहीं है। यह काल तो पूर्ववर्ती परिनिष्ठित अपभ्रंश की साहित्यिक प्रवृत्तियों का विकास है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी- इन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रारंभिक काल को आदिकाल नाम दिया है। विद्वान भी इस नाम को अधिक उपयुक्त मानते हैं। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा है- वस्तुतः हिंदी का आदि काल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम, मनोभावापन्न, परंपराविनिर्मुक्त, काव्य-रूढि़यों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक नहीं है। यह काल बहुत अधिक परंपरा-प्रेमी, रूढि़ग्रस्त, सजग और सचेत कवियों का काल है। आदिकाल नाम ही अधिक योग्य है क्योंकि साहित्य की दृष्टि से यह काल अपभ्रंश काल का विकास ही है, पर भाषा की दृष्टि से यह परिनिष्ठित अपभ्रंश से आगे बढ़ी हुई भाषा की सूचना देता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य के आदिकाल के लक्षण-निरूपण के लिए निम्नलिखित पुस्तकें आधारभूत बतायी हैं-
संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि इस काल का काव्य हिन्दी के लिए आदिकालीन और मुख्य: चारणों द्वारा रचित वीरगाथात्मक आख्यानों से पूर्ण है। यो आदिकाल कहकर हम अपने दृष्टिकोण का विस्तार कर लेते है और वीरगाथाओं के अतिरिक्त जैनों-बौद्धों के काव्य को भी इसके अन्तर्गत स्वीकार कर लेते हैं ।
इस प्रकार हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल के नामकरण के रूप में आदिकाल नाम ही योग्य व सार्थक है, क्योंकि इस नाम से उस व्यापक पुष्ठभूमि का बोध होता है, जिस पर परवर्ती साहित्य खड़ा है। भाषा की दृष्टि से इस काल के साहित्य में हिंदी के प्रारंभिक रूप का पता चलता है तो भाव की दृष्टि से भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल तक की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों के आदिम बीज इसमें खोजे जा सकते हैं। इस काल की रचना-शैलियों के मुख्य रूप इसके बाद के कालों में मिलते हैं। आदिकाल की आध्यात्मिक, श्रृंगारिक तथा वीरता की प्रवृत्तियों का ही विकसित रूप परवर्ती साहित्य में मिलता है। इस कारण आदिकाल नाम ही अधिक उपयुक्त तथा व्यापक नाम है।
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