रैयतवाड़ी व्यवस्था 1792 ई.
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में मद्रास प्रैज़िडन्सी के बारामहल जिले में सर्वप्रथम लागू की गई। थॉमस मुनरो 1819 ई. से 1826 ई. के बीच मद्रास का गवर्नर रहा। रैयतवाड़ी व्यवस्था के प्रारंभिक प्रयोग के बाद मुनरो ने इसे 1820 ई. में संपूर्ण मद्रास में लागू कर दिया। इसके तहत कम्पनी तथा रैयतों (किसानों) के बीच सीधा समझौता या सम्बन्ध था। राजस्व के निधार्रण तथा लगान वसूली में किसी जमींदार या बिचौलिये की भूमिका नहीं होती थी। कैप्टन रीड तथा थॉमस मुनरो द्वारा प्रत्येक पंजीकृत किसान को भूमि का स्वामी माना गया। वह राजस्व सीधे कंपनी को देगा और उसे अपनी भूमि के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता था लेकिन कर न देने की स्थिति में उसे भूमि से वंचित होना पड़ता था। इस व्यवस्था के सैद्धान्तिक पक्ष के तहत खेत की उपज का अनुमान कर उसका आधा राजस्व के रूप में जमा करना पड़ता था।
रैयतवाड़ी दो शब्दों के मेल से बना है जिसमें रैयत का आशय प्रजा या किसान से है एवं वाड़ी का आशय है प्रबंधन, अर्थात किसानों के साथ प्रबंधन। दूसरे शब्दों में रैयतवाड़ी व्यवस्था ब्रिटिश कंपनी द्वारा प्रचलित एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें राज्य या सरकार किसानों के साथ प्रत्यक्ष तौर पर भू राजस्व का प्रबंधन करती है। यह मद्रास, बंबई, आसाम, एवं सिंध का क्षेत्र में यह व्यवस्था प्रचलित थी अर्थात भारत में ब्रिटिश सम्राज्य के कुल भूभाग के 51% भूमि पर यह व्यवस्था लागू थी। रैयतवाड़ी व्यवस्था के प्रचलन के संदर्भ में मूल रूप से दो विचारधाराएं प्रस्तुत की जाती है पूंजीवादी विचारधारा और उपयोगितावादी विचारधारा स्मरणीय है, कि रैयतवाड़ी व्यवस्था के पीछे सबसे अधिक पूंजीवादी विचारधारा तथा पूंजीवादी विचारधारा का मानवीय चेहरा उपयोगितावादी विचारधारा मुख्य तौर पर जिम्मेदार था। इस विचारधारा का केंद्रीय मान्यता था की भूमि के ऊपर उस वर्ग का स्वामित्व होना चाहिए। जो उस भूमि में अपना श्रम लगाकर फसलों का उत्पादन करता है और यही वजह है,की अर्थशास्त्री रिकार्डो के सिद्धांत से प्रभावित होकर जमींदारों को गैर उत्पादक वर्ग मानते हुए किसानों को ही भूमि का मालिक स्वीकार किया गया| इस पद्धति के तहत किसानों के साथ भू राजस्व कर निर्धारण भी रिकार्डो के सिद्धांत पर ही आधारित था जैसे:-
कुल उत्पादन - किसान का कुल लागत = शेष और उस शेष पर राज्य एवं किसानों के बीच फसल से प्राप्त आय का बंटवारा
रैयतवाड़ी पद्धति में भूमि का मालिकाना हक किसानों के पास था। भूमि को क्रय विक्रय एवं गिरवी रखने की वस्तु बना दी गई। इस पद्धति में भू राजस्व का दर वैसे तो 1/3 होता था, लेकिन उसकी वास्तविक वसूली ज्यादा थी। इस पद्धति में भू-राजस्व का निर्धारण भूमि के उपज पर न करके भूमि पर किया जाता था इस पद्धति में भी सूर्यास्त का सिद्धांत प्रचलित था।
1. भू राजस्व का निर्धारण भूमि के उत्पादकता पर न करके भूमि पर किया गया, जो किसान के हित के लिए सही नहीं था।
2. इस पद्धति में भू राजस्व का दर इतना ज्यादा था कि किसान के पास अधिशेष नहीं बचता था। परिणाम स्वरुप किसान महाजनों के चंगुल में फसते गए और इस तरह महाजन ही एक छद्म ज़मीदार के रुप में उभर कर आने लगे।
3. इस व्यवस्था ने दोषपूर्ण राजस्व व्यवस्था के कारण किसानों के पास इतना अधिशेष नहीं बचता था, कि वह कृषि में उत्पादकता बढ़ाने के लिए निवेश कर सके, परिणामस्वरूप किसान धीरे-धीरे कर्ज़ और लगान के कुचक्र में फंसते चले गए|
4. यद्यपि इस व्यवस्था में फसलों के वाणिज्यिकरण को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ, लेकिन इसका भी लाभ किसानों को प्राप्त नहीं हो पाया, यह लाभ सौदागर सरकार एवं महाजन को मिला।
कुल मिलाकर रैयतवाड़ी व्यवस्था स्थाई बंदोबस्त के सापेक्ष निसंदेह एक प्रगतिशील कदम था, लेकिन विद्यमान ढांचा साम्राज्यवादी था, जिसका केंद्रीय उद्देश्य था,'भारतीय अर्थव्यवस्था का शोषण करना' था।
महालवाड़ी दो शब्दों से मिलकर बना हुआ है, जिसमें महाल का अर्थ है, गांव मोहल्ला कस्बा इत्यादि और वाड़ी का आशय है प्रबंधन, अर्थात महलवाड़ी भू राजस्व के पद्धति में एक गांव को ही इकाई मानते हुए, उसके साथ भू-राजस्व का बंदोबस्त कर दिया गया। इस पद्धति के तहत उस गांव को सामूहिक रुप में अर्थात अपना प्रधान के माध्यम से सरकार को अपना उपज का अंश देना पड़ता था |
उत्तर प्रदेश मध्य भारत पंजाब इत्यादि के क्षेत्र में यानी कि भारत में ब्रिटिश कंपनी के कुल भूभाग के 30% भाग जमीन पर इस व्यवस्था पर यह लागू किया गया। उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक से इस प्रक्रिया की आरंभ हुई जो कालांतर में पंजाब के क्षेत्र के विजय के बाद वहां भी इसे लागू कर दिया गया। इसे हॉल्ट मैकेंजी , रॉबर्ट बर्ड, जेम्स टॉम सॉन्ग द्वारा लागू किया गया। महालवाड़ी व्यवस्था के संदर्भ में भी उपयोगितावादी विचारधारा के प्रभाव को स्वीकार किया जाता है और इसलिए इस व्यवस्था में भी किसानों के स्वामित्व के साथ छेड़छाड़ नहीं किया, और साथ ही साथ इस व्यवस्था में सिंचाई संसाधनों के विकास पर बल दिया गया |
1. यह व्यवस्था एक गांव को इकाई मानकर उसके साथ राज्य द्वारा भू राजस्व का प्रबंधन करने के विचार पर आधारित थी। ये व्यवस्था हमारे देश के किसानों के लिए घातक सिद्ध हो रही थी। 2. इस व्यवस्था में मध्यस्थ वर्ग का अभाव था, यह व्यवस्था स्थाई न होकर 20 से 30 वर्षों के लिए हुआ करती थी,(अल्पकालिक थी), पुनः इसका निर्धारण होता था इस पद्धति में भी राजस्व की दर अधिकतम थी कभी-कभी यह दर 66% तक हो जाती थी।
उल्लेखनीय है, कि महालवाड़ी व्यवस्था में कृषि के क्षेत्र में कुछ सुधार हुए जैसे सिंचाई योजनाओं की शुरूआत, लेकिन सरकार के साम्राज्यवादी स्वरूप होने के कारण इस व्यवस्था के माध्यम से भी किसानों के जीवन में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ
1772 में वारेन हेस्टिंग्स ने एक नयी भू-राजस्व पद्धति लागू की, जिसे 'इजारेदारी प्रथा' के नाम से जाना गया है। इस पद्धति को अपनाने का मुख्य उद्देश्य अधिक भू-राजस्व वसूल करना था। इस व्यवस्था की मुख्य दो विशेषतायें थीं-
इसमें पंचवर्षीय ठेके की व्यवस्था थी। तथासबसे अधिक बोली लगाने वाले को भूमि ठेके पर दी जाती थी।
किंतु इस व्यवस्था से कम्पनी को ज्यादा लाभ नहीं हुआ क्योंकि इस व्यवस्था से उसकी वसूली में अस्थिरता आ गयी। पंचवर्षीय ठेके के इस दोष के कारण 1777 ई. में इसे परिवर्तित कर दिया गया तथा ठेके की अवधि एक वर्ष कर दी गयी। अर्थात अब भू-राजस्व की वसूली का ठेका प्रति वर्ष किया जाने लगा। किंतु प्रति वर्ष ठेके की यह व्यवस्था और असफल रही। क्योंकि इससे भू-राजस्व की दर तथा वसूल की राशि की मात्रा प्रति वर्ष परिवर्तित होने लगी। इससे कम्पनी को यह अनिश्चितता होती थी कि अगले वर्ष कितना लगान वसूल होगा। इस व्यवस्था का एक दोष यह भी था कि प्रति वर्ष नये-नये व्यक्ति ठेका लेकर किसानों से अधिक से अधिक भू-राजस्व वसूल करते थे। चूंकि इसमें इजारेदारों (ठेकेदारों या जमींदारों) का भूमि पर अस्थायी स्वामित्व होता था, इसलिये वे भूमि सुधारों में कोई रुचि नहीं लेते थे। उनका मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक लगान वसूल करना होता था। इसके लिये वे किसानों का उत्पीड़न भी करते थे। ये इजारेदार वसूली की पूरी रकम भी कम्पनी को नहीं देते थे। इस व्यवस्था के कारण किसानों पर अत्यधिक बोझ पड़ा। तथा वे कंगाल होने लगे।
यद्यपि यह व्यवस्था काफी दोषपूर्ण थी फिर भी इससे कम्पनी की आय में वृद्धि हुयी।
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