अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नैर्भर्य सिद्धान्त यह है कि संसाधन, निर्धन एवं अल्पविकसित देशों के परिधि से धनी देशों के केन्द्र की ओर प्रवाहित होते हैं और निर्धन देशों को और गरीब करते हुए धनी देशों को और धनी बनाते हैं। नैर्भर्य सिद्धान्त इस मूल मान्यता पर आधारित है कि राजनैतिक एवं आर्थिक कारकों के बीच एक गहन सम्बन्ध होता है। ये दोनों कारक परस्पर प्रभावित करते हैं तथा काफी हद तक आर्थिक कारकों के आधार पर राजनीति में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिलते हैं।
नैर्भर्य सिद्धान्त मूल रूप से मार्क्सवाद से प्रभावित रहा है। मार्क्सवाद के साथ-साथ होबसन व लेनिन के साम्राज्यवाद की अवधारणा ने इसे और शक्तिशाली बना दिया है। परन्तु चुंकी मार्क्सवादी 'राज्य' के अस्तित्व को नहीं मानते इसीलिए इसे 'नव-मार्क्सवादी' अवधारणा मानना अधिक तर्कसंगत होगा। वैसे तो यह अवधारणा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में 1950 के दशक से विद्यमान है, परन्तु 1970 के दशक से ज्यादा महत्वपूर्ण बन गई है। इस काल के अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन हेतु राजनीतिक-आर्थिक तत्वों में सम्बन्ध पर अधिक बल दिया जाने लगा है।
इस सिद्धान्त के मुख्य समर्थकों में फ्रांसेस सांडर्स, स्टुअर्ट हालैंड और ंंपांल बरान, पॉल स्वीजी, हेरी मैडगाफ, एंड्रि गुंडर फैंक, अग्रहीरी इमेनुअल, समीर अमीन, इमेनुअल वालरस्टेन आदि प्रमुख हैं।
1970 के दशक के बाद यह सिद्धान्त बहुत महत्वपूर्ण बन गया। निम्नलिखित कारणों से इस सिद्धान्त की चर्चा पर अधिक बल दिया जाने लगा-
इस सिद्धान्त को परिभाषित करना अति कठिन है, क्योंकि अलग-अलग लेखकों ने विभिन्न प्रकार से इसकी व्याख्या प्रस्तुत करने की कोशिश की है। मुख्य रूप से विभिन्न विद्वानों का मानना है कि -
इस सिद्धान्त को विश्लेषण की सुविधा हेतु दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
बहुत से विद्वानों ने इस सिद्धान्त को ‘केन्द्र’ व ‘परिधि’ के राष्ट्रों के मध्य हुई आर्थिक व राजनैतिक अन्तःक्रियाओं के रूप में देखा है। मूल रूप में उनकी सोच में विशेष अन्तर नहीं दिखाई पड़ता, परन्तु किसी कारक विशेष को अधिक व कम महत्व की दृष्टि से उन्हें तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है जिसका विवरण इस प्रकार से है -
इस वर्ग के अग्रणी लेखक के रूप में राऊल प्रबीसिच का नाम लिया जा सकता है जो संयुक्त राष्ट्र के दक्षिणी अमेरिकी आर्थिक आयोग के अध्यक्ष रहे। इसके साथ-साथ फुरटाडो व शंकल को भी इसी वर्ग में शामिल माना जा सकता है।
इस विचार के समर्थक विद्वान अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को केन्द्र व परिधि के राज्यों में बंटा हुआ मानते हैं। उनके अनुसार उत्पादन के परम्परागत तरीकों से केन्द्र के राष्ट्रों के पास अत्याधिक सम्पदा इकट्ठी हो गई है। इसीलिए उन विद्वानों का मानना है कि विकास व गैर विकास या अविकसित को अलग नहीं किया जा सकता, बल्कि ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसके अतिरिक्त, न ही आज आन्तरिक व बाह्य कारकों के बीच अन्तर रखा जा सकता है, बल्कि दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसीलिए लैटिन अमेरिकी देशों के आधारभूत औद्योगिक विकास के बाद ही उनको औपनिवेशिक व साम्राज्यवादी बन्धनों से मुक्ति मिल सकती है।
परन्तु इस वर्ग के विचारकों की उदारवादी एवं प्रगतिशील दोनों ही ने आलोचना की है। उदारवादियों का कहना है कि ये व्यापार चक्र के आर्थिक विकास प्रक्रिया पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन नहीं करते। जबकि प्रगतिशील विद्वानों का आरोप यह है कि संरचनात्मक स्कूल से जुड़े लोग शोषण के बारे में उचित व सही अध्ययन करने में असक्षम रहे हैं। इसके अतिरिक्त, ये विद्वान इस बात को भी नजर अन्दाज कर देते हैं कि परिधि वाले राष्ट्रों में विकास केन्द्र के राष्ट्रों द्वारा तकनीकों के विश्वीकरण के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
इस मत से जुड़े लोगों में प्रमुख हैं एंड्रिगुंडर फ्रैंक, पाल बरान, समीन अमीन आदि। ये विद्वान विश्व व्यवस्था को 'महानगरों' व 'उपग्रहों' के रूप मे विभाजित मानते हैं। फैंक का मानना है कि पूंजीवाद के माध्यम से हमेशा ‘उपग्रहों’ वाले राज्यों में 'गैर-विकास का विकास' होता है। महानगरों वाले राष्ट्र अपने अतिरिक्त पूंजी के लाभांश से इन्हें और अविकसित बना देते हैं। उपग्रहों वाले राज्यों में 'अविकसितता का विकास' (Development of Underdevelopment) एक सम्पूर्ण ऐतिहासिक प्रक्रिया का ही हिस्सा है, अपने आप में कोई स्वतन्त्र गतिविधि नहीं है। इसीलिए जब-जब इन उपग्रह वाले राष्ट्रों का महानगरों वाले राष्ट्रों के कमजोर बन्धन रहा है इन्होंने अपनी विकास दर को बढ़ाया है तथा जब जब ये उनसे अधिक जुड़े रहे हैं यह प्रक्रिया विपरीत रही है। इसीलिए किसी राष्ट्र में पिछड़ेपन का विकास पूंजीवादी व्यवस्था में उस राज्य के पदसोपान के आधार पर अध्ययन की जा सकती है। इसके अतिरिक्त, इसका उस समाज में स्थापित आर्थिक ढांचों के आधार पर भी मूल्यांकन किया जा सकता है।
इस मत की भी दो आधारों पर आलोचनाएं की गई हैं - प्रथम, पूंजी की उपलब्धता व पूंजीवाद दो अलग-अलग बिन्दु हैं सो उन्हें एक नहीं मानना चाहिए। द्वितीय, इस सिद्धान्त के आधार पर पूर्ण रूप से यह स्थापित नहीं किया जा सकता कि विकास से किस प्रकार लैटिन अमेरिकी देशों में पिछड़ेपन का विकास हुआ है।
तीसरा वर्ग उन विचारकों का है जो निर्भरता व विकास के संबंधों को जुड़ा मानते हैं। इनमें से प्रमुख विचारक हैं - कारडोसों, फालेटो व ओसवाल्डो शंकल। इनका मानना है कि ऐतिहासिक-संरचनात्मक दृष्टि से दक्षिणी अमेरिकी देशों में पूंजी निवेश के संदर्भ में मूलभूत परिवर्तन आये हैं। उनका मानना है कि पूंजी निवेश कृषि या कच्चा माल के उत्पाद की बजाय तैयारशुदा माल में लगाया गया है तथा इसके जुड़े संयुक्त उद्यमों में स्थानीय व बाह्य पूंजीनिवेशकों में सहयोग रहा है। इसीलिए निर्भरता, पूंजीवाद वर्चस्व व विकास विरोधाभाषपूर्ण न होकर तीसरी दुनिया के देशों में एक संग्रहित वर्चस्व स्थापित करने की स्थिति रही है। इसीलिए उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पाद को बढ़ा कर तीसरी दुनिया के देशों के शहरी आबादी की आवश्यकता की पूर्ति बाह्य बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा की गई है। इसीलिए इन समाजों की संरचनात्मक व्यवस्था में बिखराव पैदा कर दिया गया है। इसीलिए इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने तीसरी दुनिया के देशों में निर्भरता से जुड़े विकास की स्थिति पैदा कर दी है।
यद्यपि इस वर्ग के विचारकों ने एक पूर्व निर्धारित व्याख्या से अलग हटकर नई व्याख्या दी है, परन्तु इससे वर्ग के सिद्धान्त को एक मूल ईकाई के रूप में उचित प्रयोग नहीं किया जा सका।
उपरोक्त तीनों वर्गों में विचारों में कहीं-कहीं भिन्नता भी देखने को मिलती है तथा परम्परागत मार्क्सवाद से भी कई संदर्भों में अलग है। परन्तु यह सत्य है कि इन सभी के अनुसार आर्थिक विकास की दृष्टि से ‘परिधि’ वाले राष्ट्र आज भी महानगरीय केन्द्रों पर निर्भर हैं। इसी कारण से शायद महानगरों मे 'विकास का विकास' तथा परिधि राष्ट्रों में 'अविकास का विकास' हो रहा है।
निर्भरता सिद्धान्त के ही अन्य रूप को विश्व-प्रणाली सिद्धान्त के अंतर्गत भी अध्ययन किया गया है। यद्यपि कुछ विचारक इन दोनों को अलग मानते हैं, परन्तु दोनों की मूल मान्यताओं में कोई अन्तर नहीं है। अन्तर केवल व्याख्या को लेकर है। अतः इसे निर्भरता के ही एक रूप के अंतर्गत स्वीकारना ज्यादा उचित है।
विश्व प्रणाली सिद्धान्त के प्रमुख प्रणेता इमेनुअल वालरस्टेन को कहा जा सकता है जिन्होंने अपनी पुस्तक द मॉडर्न वर्ल्ड सिस्टम में इसका विस्तृत उल्लेख किया है। वालरस्टेन का मानना है कि इतिहास में दो प्रकार की विश्व प्रणालियां पाई जाती हैं - ‘विश्व साम्राज्य’ व ‘विश्व अर्थव्यवस्था’। दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि संसाधनों के बंटवारे के बारे में किस प्रकार से निर्णय लिए जाते हैं। उनका मानना है कि ‘विश्व साम्राज्य’ व्यवस्था में शक्ति का प्रयोग 'परिधि राज्यों' से 'केन्द्र राज्यों' की ओर संसाधनों का बंटवारा किया जाता है। इसके विपरीत विश्व अर्थव्यवस्था प्रणाली में एक केन्द्रीयकृत राजनीतिक ढांचे का अभाव होता है। अतः कानून के द्वारा संसाधन का बंटवारा किए जाने की बजाए बाजार के माध्यम से इसे सम्पन्न किया जाता है। इस प्रकार यद्धपि संसाधनों के बंटवारे के सम्बन्ध में दोनों के तरीके भिन्न हैं परन्तु दोनों का ही कुल परिणाम एक समान है। वह है परिधी वाले राष्ट्रों से केन्द्रीय राज्यों की ओर संसाधनों का हस्तांतरण हो रहा है।
वालरस्टेन के अनुसार 'केन्द्र राष्ट्रों' की विशेषता है - प्रजातांत्रिक सरकारें, उच्च वेतन, कच्चे माल का आयात, तैयारशुदा माल का निर्यात, उच्च पूंजी निवेश, कल्याणकारी सेवाएं आदि। ठीक इसके विपरीत 'परिधि वाले राष्ट्रों' की विशेषताएं हैं - गैर-प्रजातान्त्रिक सरकार पद्धति, कच्चे माल का निर्यात, तैयार माल की आयात, निम्नस्तरीय वेतन, कल्याणकारी सेवाओं का अभाव। परन्तु वालरस्टेन निर्भरतावादियों से थोड़ा भिन्न हैं। वे केन्द्र व परिधि के इलावा राष्ट्रों की एक तृतीय श्रेणी 'सम परिधि' भी मानते हैं। इस प्रकार के राष्ट्रों की विशेषताएं हैं - सत्तात्मक सरकारें, कच्चे व तैयार माल का निर्यात, तैयार माल व कच्चे माल का आयात, कम वेतनमान, निम्न स्तरीय कल्याणकारी सेवाएं आदि।
वालरस्टेन का भी मानना है कि ये तीनों श्रेणी के राष्ट्र आपस में उत्पादन के शोषणात्मक तरीकों से जुड़े हुए हैं जिसके माध्यम से सम्पदा का हस्तांतरण परिधि के केन्द्र वाले राज्यों की तरफ हो रहा है। इसका मानना है कि क्रमिक उतार-चढ़ाव, धर्मनिरपेक्ष पद्धति एवं विरोधाभासों के कारण विश्व प्रणाली में संकट आते हैं। इन्हीं संकटों के कारण नई विश्व व्यवस्था का जन्म होता है।
वालरस्टेन के विश्व प्रणाली सिद्धान्त की मार्क्सवादियों एवं गैर-मार्क्सवादियों दोनों ही ने आलोचनाएं की है। कुछ लेखकों जैसे चेज व पून का मानना है कि वालरस्टेन ने इसे केवल आर्थिक कारकों तक ही सीमित कर दिया, जबकि अन्य कारकों की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। द्वितीय, फ्रैंक व गिल का मानना है कि वालरस्टेन ने इस सारे प्रकरण को यूरोप केन्द्रित बना कर रख दिया जिसके उत्पत्ति मध्ययुगीन यूरोप से मानी जाती है। परन्तु यदि गहन अध्ययन किया जाए तो वर्तमान विश्व प्रणाली की जड़ें मध्ययुगीन यूरोप से कहीं अधिक मजबूत हैं।
उपरोक्त दोनों ही अवस्थाओं में अध्ययन के पश्चात् हम कह सकते हैं कि निर्भरता के सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं -
निर्भरता के सिद्धान्त की निम्नलिखित प्रमुख आधारों पर आलोचनाएं की गई हैं-
उपरोक्त आलोचनाओं के बावजूद इस सिद्धान्त की उपयोगिता को भी नकारा नहीं जा सकता जो निम्नलिखित हैं-
अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि निर्भरता के सिद्धान्त के माध्यम से केन्द्र (विकसित) एवं परिधि (विकासशील) राष्ट्रों के संबंधों के माध्यम से विश्व व्यवस्था के परिवर्तित स्वरूप को अध्ययन करने का प्रयास किया गया है। इस सिद्धान्त के माध्यम से वर्तमान व ऐतिहासिक संदर्भों में समन्वय पैदा करने के साथ-साथ पूंजीवाद के परिणामस्वरूप राष्ट्रों के संबंधों को समझने के उचित प्रयास किये गये हैं। यद्यपि विभिन्न विद्वानों के विचारों में भिन्नता अवश्य है, परन्तु आर्थिक कारक या पूंजीवाद के अंतरराष्ट्रीय राजनीति को समझने में महत्व प्रदान करने पर मुख्य तौर पर आम सहमति नजर आती है। लेकिन इस सिद्धान्त के वृहत स्वरूप व व्यष्टिपूर्वक अध्ययन से इस सिद्धान्त में कई सैद्धान्तिक व व्यावहारिक कमियां स्पष्ट झलकती हैं। परन्तु आवश्यकता इस सिद्धान्त को त्यागने की न होकर इसे और बारीकियों के साथ तराशने की की है। केन्द्र व परिधि राष्ट्रों के बीच उत्पन्न वर्चस्व स्थापित करने व विकास अवरुद्ध होने की समस्याओं के गहन अध्ययनों से नए सामान्यीकरणों के स्थापित करने की अति शीघ्र आवश्यकता है।
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