नरसिंह अथवा नृसिंह (मानव रूपी सिंह) को पुराणों में भगवान विष्णु का अवतार माना गया है। जो आधे मानव एवं आधे सिंह के रूप में प्रकट होते हैं, जिनका सिर एवं धड तो मानव का था लेकिन चेहरा एवं पंजे सिंह की तरह थे वे भारत में, खासकर दक्षिण भारत में वैष्णव संप्रदाय के लोगों द्वारा एक देवता के रूप में पूजे जाते हैं जो विपत्ति के समय अपने भक्तों की रक्षा के लिए प्रकट होते हैं।
नरसिंह नृसिंह | |
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सुरक्षा के देवता और भक्तों की देखभाल करने वाले | |
हिरण्यकशिपु का वध करते हुए नृसिंह रूपी विष्णु | |
अन्य नाम | नरहरि , उग्रवीर महाविष्णु , हिरण्यकशिपु अरी आदि |
अस्त्र | तेज नाखून, चक्र, गदा और शंख |
युद्ध | हिरणकशिपु वध |
सवारी | पक्षीराज गरूड़ |
शास्त्र | विष्णु पुराण , भागवत पुराण आदि |
नरसिंहदेव, के बारे में कई तरह की प्रार्थनाएँ की जाती हैं जिनमे कुछ प्रमुख ये हैं:
नरसिंह मंत्र ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम्। नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ॥
(हे क्रुद्ध एवं शूर-वीर महाविष्णु, तुम्हारी ज्वाला एवं ताप चतुर्दिक फैली हुई है। हे नरसिंहदेव, तुम्हारा चेहरा सर्वव्यापी है, तुम मृत्यु के भी यम हो और मैं तुम्हारे समक्षा आत्मसमर्पण करता हूँ।)
प्रहलाद हृदयाहलादं भक्ता विधाविदारण। शरदिन्दु रुचि बन्दे पारिन्द् बदनं हरि ॥१॥
नमस्ते नृसिंहाय प्रहलादाहलाद-दायिने। हिरन्यकशिपोर्बक्षः शिलाटंक नखालये ॥२॥
इतो नृसिंहो परतोनृसिंहो, यतो-यतो यामिततो नृसिंह। बर्हिनृसिंहो ह्र्दये नृसिंहो, नृसिंह मादि शरणं प्रपधे ॥३॥
तव करकमलवरे नखम् अद् भुत श्रृग्ङं। दलित हिरण्यकशिपुतनुभृग्ङंम्। केशव धृत नरहरिरुप, जय जगदीश हरे ॥४॥
वागीशायस्य बदने लर्क्ष्मीयस्य च बक्षसि। यस्यास्ते ह्र्देय संविततं नृसिंहमहं भजे ॥५॥
श्री नृसिंह जय नृसिंह जय जय नृसिंह। प्रहलादेश जय पदमामुख पदम भृग्ह्र्म ॥६॥
निरा नरसिंहपूर जिल्हा-पुणे राज्य-महाराष्ट्र
खरकड़ा, खेतड़ी, राजस्थान
यह मंदिर सतयुग कालिन है। कहते है कि यहाँ पर भृगु ऋषि ने तपस्या की थी जब विष्णु जी ने नर्सिंग जी का अवतार ले कर हिरण्यकश्यपु का वध किया तब भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु को याद किया और तब भगवान नरसिंह जी ने उन्हें दर्शन दिए और यहाँ पर अपने नाखूनों से एक कुंड का बनाया और अपने शरीर को साफ किया और यही पर अंतर्ध्यान हुए।यहाँ पर नर्सिंग चौदश को भगतों का तांता लगा रहता है। इस मंदिर को औरंगजेब ने नष्ट कर दिया था बाद में इसका फिर से जीर्णोद्धार हुआ है।।
उदामाण्डी,झुंझुनूं
यह मंदिर 1331 में बनवाया गया था बहुत ही विशाल और भव्य मंदिर है।
मथुरा
अति प्राचीन मथुरा पुरी में भगवान नरसिंह का मंदिर मानिक चौक में स्थित है यहाँ भगवान नरसिंह और वाराह की घाटी है यहाँ नरसिंह चौदस को भगवान नरसिंह का उत्सव मनाया जाता है तथा लीला भी की जाती है।
मायापुर इस्कॉन में नरसिंह देव का मन्दिर हे। यह मन्दिर नदिया जिला, पश्चिम बंगाल में स्थित है।
बीकानेर लखोिटयों के चौक में वर्षो्ं पुराना नर िसंह समेत पूरे शहर में कुल चार नर िसंह मंिदर हैा
ग्राम असवाल कोटुली, जिला अल्मोड़ा, तहसील- भिक्यासैन में भी एक नृसिंह का प्राचीन मंदिर है।
नृसिंह मंदिर हाटपिप्लिया में भगवान नरसिंह कि ७.५ कि लो वजनी पाषाण प्रतिमा है जो कि हर वर्ष डोल ग्यारस पर्व पर भमोरी नदी पर 3 बार तेराई जाती है
बनमनखी बिहार
बिहार राज्य के पूर्णिया जिला के बनमनखी में सिकलीगढ़ धरहरा गांव हैं। बताया जाता है कि इसी गांव में भगवान नरसिंह अवतरित हुए थे और यही वो गांव है जहां भक्त प्रह्लाद की बुआ होलिका अपने भतीजे को गोद में लेकर आग में बैठी थी। मान्यता के मुताबिक यहीं से होलिकादहन की परंपरा की शुरुआत हुई थी।
ऐसी मान्यता है कि प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप का किला सिकलीगढ़ में था। गांव के बड़े बुजुर्गों की माने तो अपने परम भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए खंभे से भगवान नरसिंह ने अवतार लिया था। मान्यता है कि उस खंभे का एक हिस्सा जिसे माणिक्य स्तंभ के नाम से जाना जाता है वो आज भी मौजूद है। इसी स्थान पर प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप का वध हुआ था। खास बात ये है कि माणिक्य स्तंभ 12 फीट मोटा है और करीब 65 डिग्री पर झुका हुआ है।
गीता प्रेस, गोरखपुर के कल्याण के 31 वें साल के तीर्थांक विशेषांक में भी सिकलीगढ धरहरा का जिक्र किया गया है।
विष्णुपुराण और शिवमहापुराण के साथ साथ लिङ्ग पुराण में भी वर्णित है। यह कथा कुछ इस प्रकार है-:
हिरण्यकशिपु के वध के पश्चात् भी भगवान नरसिंह का क्रोध शान्त करने में प्रह्लाद भी विफल हो गए थे। उन्हें शांत करने के लिए देवताओं ने भगवान शंकर से गुहार लगाई। देवों की प्रार्थना पर महादेव ने पहले अपने गण वीरभद्र को उन्हें शांत करने भेजा। लेकिन वीरभद्र विफल हो गए। ब्रह्मा जी के अनुरोध पर भगवान शिव ने शेर , मनुष्य और शरभ नामक पक्षी (एक जंगली पक्षी जो शेर से भी अधिक बलवान था और जिसके आठ पैर थे) का मिश्रित रूप लिया और इसी रूप में वे भगवान नरसिंह के सामने पहुंचे। नरसिंह रूपी भगवान विष्णु को शांत करने के लिए शरभ रूपी भगवान शिव ने पहले विष्णु स्तुति का पाठ किया। लेकिन नरसिंह रूपी विष्णु जी का क्रोध शांत नहीं हुआ। इसके बाद शरभ रूपी भगवान शिव नरसिंह रूपी भगवान विष्णु को अपनी पूंछ में बांधा और खींचकर पाताललोक ले गए। उन्होंने शरभेश्वर की पकड़ से छूटने का बड़ा प्रयास किया लेकिन वे छूट ही नहीं पाए। इसके बाद नरसिंह रूपी भगवान विष्णु ने शिव स्तुति का पाठ किया और वापस अपने मूल विष्णु स्वरूप में आ गए।
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