चैत्रामास में शक्तिपूजा का विशेष महत्व रहा है। राजस्थान के करौली जिला मुख्यालय से दक्षिण दिशा की ओर 24 किलोमीटर की दूरी पर पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य त्रिकूट पर्वत पर विराजमान कैला मैया का दरबार चैत्रामास में लघुकुम्भ नजर आता है। उत्तरी-पूर्वी राजस्थान के चम्बल नदी के बीहडों के नजदीक कैला ग्राम में स्थित मां के दरबार में बारह महीने श्रद्धालु दर्शनार्थ आते रहते हैं लेकिन चैत्रा मास में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले वार्षिक मेले में तो जन सैलाब-सा उमड पडता है। केला माता को अंजना माता का अवतार भी माना जाता है तथा योगमाया भी कहते है जो देवकी और वासुदेव की पुत्री थी, यह माता भाटी राजपूतों ( JADAUN RAJPUT) की कुल देवी हैं उत्तर भारत के प्रसिद्ध शक्तिपीठों में से एक इस मंदिर का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना है। मंदिर के बारे में कई मान्यताएं हैं इतिहासकारों के अनुसार वर्तमान में जो कैला ग्राम है वह करौली के यदुवंशी राजाओं के आधिपत्य में आने से पहले गागरोन के खींची राजपूतों के शासन में था। खींची राजा मुकन्ददास ने सन् 1116 में मंदिर की सेवा, सुरक्षा का दायित्व राजकोष पर लेकर नियमित भोग-प्रसाद और ज्योत की व्यवस्था करवा दी थी। राजा रघुदास ने लाल पत्थर से माता का मंदिर बनवाया। स्थानीय करौली रियासत द्वारा उसके बाद नियमित रूप से मंदिर प्रबन्धन का कार्य किया जाता रहा। मां कैलादेवी की मुख्य प्रतिमा के साथ मां चामुण्डा की प्रतिमा भी विराजमान है।
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चैत्रामास में लगभग एक पखवाडे तक चलने वाले इस लक्खी मेले में राजस्थान के सभी जिलो के अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, गुजरात व दक्षिण भारतीय प्रदेशों तक के दर्शनार्थी आकर मां के दरबार में मनौतियां मांगते है। चैत्रामास के दौरान करौली जिले के प्रत्येक मार्ग पर चलने वाले राहगीर के कदम कैला ग्राम की तरफ जा रहे होते है। सत्राह दिवसीय इस मेले का मुख्य आकर्षण प्रथम पांच दिन एवं अंतिम चार दिनों में देखने को मिलता है रोजाना लाखों की संख्या में दूरदराज के पदयात्री लम्बे-लम्बे ध्वज लेकर लांगुरिया गीत गाते हुए आते है। मन्दिर के समीप स्थित कालीसिल नदी में स्नान का भी विशेष महत्व है। मेले में करौली जिला प्रशासन द्वारा मंदिर ट्रस्ट के सहयोग से तथा आमजन द्वारा भी सभी स्थानों पर यात्रियों के लिए विशेष इंतजामात किए जाते है। अनुमानतः प्रतिवर्ष लगभग 30 से 40 लाख यात्री मां के दरबार में अपनी हाजिरी लगाते है।
परम्पराओं का निर्वहन
मेले के दौरान महिला यात्री सुहाग के प्रतीक के रूप में हरे रंग की चुडियां एवं सिंन्दूर की खरीदरी करना नहीं भूलती है वहीं नव दम्पत्तियों द्वारा एक साथ दर्शन करना, बच्चों का मुंडन संस्कार की परम्परा भी यहां देखने को मिलती है। मंदिर परिसर में ढोल-नगाडों की धुन पर अनायास ही पुरूष दर्शनार्थी लांगुरिया गीत गाने लगते है तो महिला दर्शकों के कदम थिरके बिना नहीं रह सकते।
चरणबद्द आते है यात्री
कैलादेवी चैत्रामास के लक्खी मेले में प्रदेशों की मान्यता अनुसार यात्राी चरणबद्व रूप से आते है। चैत्रा कृष्ण बारह से पडवा तक मेले में पांच दिन तक पद यात्रियों का रेलम-पेल रहता है इस चरण में वाहनों से यात्री कम आते है एवं अधिकतर उत्तरप्रदेश के यात्री होते है। द्वितीय चरण में नवरात्रा स्थापना से तृतीया तक दिल्ली, हरियाणा के यात्रियों का जमावडा रहता है। इस दौरान गाडियों से यात्रियों के आने की शुरूआत हो जाती है। तीसरे चरण में चतुर्थी से छटवीं तक मध्यप्रदेश एवं धौलपुर क्षेत्रा के यात्री आते है। इस दौरान ट्रक्टर ट्रोलियों का उपयोग अधिक देखने को मिलता है।
चौथा चरण सप्तमी से नवमीं तक होता है इसमें गुजरात, मुम्बई व दक्षिण भारतीय राज्यों के यात्री अधिक आते है। अन्तिम चरण में राजस्थान भर के यात्राी एवं स्थानीय लोग लांगुरिया गाते हुए आते है। यह दसमीं से पूर्णिमा तक चलता है।
मां के अवतरण की गाथा
धर्म ग्रंथों के अनुसार सती के अंग जहां-जहां गिरे वहीं एक शक्तिपीठ का उदगम हुआ। उन्हीं शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ कैलादेवी है। कहा जाता है कि बाबा केदागिरी ने तपस्या के बाद माता के श्रीमुख की स्थापना इस शक्तिपीठ के रूप में की। ऐतिहासिक साक्ष्यों एवं किवदन्तियों के अनुसार प्राचीनकाल में कालीसिन्ध नदी के तट पर बाबा केदागिरी तपस्या किए करते थे यहां के सघन जंगल में स्थित गिरी -कन्दराओं में एक दानव निवास करता था जिसके कारण संयासी एवं आमजन परेशान थे। बाबा ने इन दैत्यों से क्षेत्रा को मुक्त कराने के लिए हिमलाज पर्वत पर आकर घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर माता प्रकट हो गई। बाबा ने देवी मां से दैत्यों से अभय पाने के लिए वर मांगा। बाबा केदारगिरी त्रिकूट पर्वत पर आकर रहने लगे। कुछ समय पश्चात देवी मां कैला ग्राम में प्रकट हुई और उस दानव का कालीसिन्ध नदी के तट पर वध किया। जहां एक बडे पाषाण पर आज भी दानव के पैरों के चिन्ह देखने को मिलते है। इस स्थान का नाम आज भी दानवदह के नाम से जाना जाता है।
एक अन्य किवदन्ती के अनुसार त्रिकूट पर्वत पर बहूरा नामक चरवाहा अपने पशुओं को चराने ले जाता था एक दिन उसने देखा की उसकी बकरियां एक स्थान विशेष पर दुग्ध सृवित कर रही है इस चमत्कार ने उसे आश्चर्य मेें डाल दिया। उसने इस स्थल की खुदाई की तो देवी मां की प्रतिमा निकली। चरवाहे ने भक्तिपूर्वक पूजन कर ज्योति जगाई धीरे-धीरे प्रतिमा की ख्याति क्षेत्रा में फैल गई। आज भी बहूरा भगत का मंदिर कैलादेवी मुख्य मंदिर प्रांगण में स्थित है।
कैसे पहुंचे
कैलादेवी कस्बा सडक मार्ग से सीधा जुडा हुआ है। जयपुर -आगरा राष्ट्रीय राजमार्ग पर महुवा से कैलादेवी की दूरी 95 किमी है। महुवा से हिण्डौन, करौली तक राज्यमार्ग 22 जाता है, उससे कैलादेवी सीधा सडक मार्ग से जुडा हुआ है इसके अलावा पश्चिमी मध्य रेलवे के दिल्ली- मुंबई रेलमार्ग पर हिण्डौन सिटी स्टेशन से 55 किमी एवं गंगापुर सिटी स्टेशन से 48 किमी की दूरी है जहां से राज्य पथ परिवहन की बस सेवा एवं निजी टैक्सी गाडियां हमेशा तैयार मिलती है। हवाई यात्रा से आने वाले तीर्थ यात्रियों के लिए नजदीकी हवाई अड्डा जयपुर है जहां से सडक मार्ग द्वारा महवा हिण्डौन होकर करौली से कैलादेवी पहुंच सकते है। कैलादेवी की जयपुर से दूरी 195 किमी है।
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