सिदी या शीदि भारत और पाकिस्तान का एक मानव समुदाय है जिसका मूल अफ्रीका है। भारत में ये मुख्यतः गुजरात में रहते हैं। कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश में भी इनका अस्तित्व है।
गुलाम के रूप में अफ्रीकी लोगों के बारे में तो शायद सबको जानकारी हो लेकिन भारत में रहने वाले अफ़्रीकी लोगों के बारे में लोगों को कम ही जानकारी है।
भारत के पश्चिमी तट पर जम्बुर (गुजरात का एक गांव) जैसे गाँव में ये लोग अभी भी रह रहे हैं। इनके पूर्वज अफ़्रीकी थे जिन्हें ग़ुलाम के रूप में इस उपमहाद्वीप में लाया गया था। बाक़ी के लोग लड़ाके, व्यापारी और नाविक के रूप में यहाँ आए थे। पूर्वी व दक्षिणी अफ़्रीका और भारत में गुजरात के साथ समुद्री व्यापार दो हज़ार साल पहले स्थापित हुआ था।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि लाखों अफ़्रीकी लोगों ने समुद्र पार कर इधर का रुख़ किया था। अफ़्रीकी-भारतीय लोग सिदी (शीदि) कहलाते हैं।
अधिकतर सिदियों की तरह जम्बुर के लोग सूफ़ी मुसलमान हैं। जो मानते हैं कि भगवान की पूजा संगीत और नृत्य के ज़रिए होती है।
मानवविज्ञानियों का मानना है कि नर्तकों की कला पारंपरिक अफ़्रीकी पूजा और भारतीय सूफ़ी परंपरा का मिश्रण है।
इस समुदाय के पास अपनी जड़ों से जुड़े रहने का एक महत्वपूर्ण साधन है- डमाल या ड्रम. अन्यथा सिदी समुदाय ग्रामीण भारत के अन्य ग़रीब तबके से अलग नहीं है।
इस इलाक़े में आने वाले लोग गाँव के संगीतकारों को पैसा देते हैं। लोगों से मिले पैसे को मुँह में दबाकर ये लोगों को शुक्रिया अदा करते हैं।
सिदी और भारतीय मुसलमान सैकड़ों किलोमीटर दूर से जम्बुर की दरगाह पर आते हैं। कुछ लोग यहाँ आकर चमत्कार की उम्मीद करते हैं। जिन महिलाओं के बच्चे नहीं होते हैं, वे भी यहाँ इस उम्मीद में आती हैं कि उनका बाँझपन दूर हो जाएगा. मानसिक रूप से बीमार बच्चे भी ठीक होने की आस में यहाँ लाए जाते हैं।
जम्बुर के ड्रम बजाने वाले प्रमुख व्यक्ति युसूफ़ बताते हैं कि डमाल अफ़्रीका से आया। युसूफ़ अंधे हैं। वे बताते हैं कि ड्रम बजाने की कला पिता से पुत्र के पास आती है। वे कहते हैं कि यह भगवान की ओर से मिला उपहार है।
प्रत्येक दिन शाम को युसूफ़ जम्बुर के संगीतकारों और नर्तकों के साथ गाँव के बाहर स्थित एक दरगाह पर ले जाते हैं।
जम्बुर में नागारची बाबा की दरगाह है। जिन्हें ड्रम मास्टर भी कहा जाता है। सिदियों का मानना है कि वे एक अरब थे, जिन्होंने 900 वर्ष पहले अफ़्रीका की यात्रा की थी और फिर भारत में रहने लगे।
यहीं एक अन्य सूफ़ी संत बावा गोर की दरगाह भी है। जो नाइजीरिया के मोती के व्यापारी थे।
जम्बुर पिछड़ा हुआ गाँव है। यहाँ के लोग पड़ोस के किसानों के लिए मज़दूरी का काम करते हैं। सरकार भी ग़रीब लोगों की सहायता के लिए लागू कार्यक्रमों के तहत इनकी सहायता करती है।
जम्बुर गाँव की स्थापना सिदी सैनिकों के परिवारों ने की थी, जो इस इलाक़े के पूर्व नवाब के लिए काम करते थे।
भारत के कई राजा-महाराजाओं ने अफ़्रीकी लोगों को अपने निजी अंगरक्षकों, नौकरों और संगीतकारों के रूप में तैनात किया। देश के कई हिस्सों में तो सिदियों ने काफ़ी प्रगति की और सैनिक जनरल और कई बार तो राजा भी बने।
इस गांव के एक रहनुमा हसन भाई का कहना है कि उनके पिता मोज़ाम्बिक से आए थे। उन्हें पुर्तगाली सेना में काम करने के लिए लाया गया था। जो पास के एक बंदरगाह का नियंत्रण करती थी।
हालाँकि ज़्यादातर सिदियों को अपने पूर्वजों के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं पता. हसन कहते हैं कि बच्चे अफ़्रीका के बारे में कुछ नहीं जानते और जो अफ़्रीका के बारे में जानते थे। वे अब दुनिया में नहीं रहे।
(साभार बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम)
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