किडनी स्टोन या गुर्दे की पथरी (वृक्कीय कैल्कली, रीनल कॅल्क्युली, नेफरोलिथियासिस) (अंग्रेज़ी:Kidney stones) गुर्दे एवं मूत्रनलिका की बीमारी है जिसमें, वृक्क (गुर्दे) के अन्दर छोटे-छोटे या बड़े पत्थर का निर्माण होता है। गुर्दें में एक समय में एक या अधिक पथरी हो सकती है। सामान्यत: ये पथरियाँ अगर छोटी हो तो बिना किसी तकलीफ मूत्रमार्ग से शरीर से बाहर निकाल दी जाती हैं, किन्तु यदि ये पर्याप्त रूप से बड़ी हो जाएं (२-३ मिमी आकार के) तो ये मूत्रवाहिनी में अवरोध उत्पन्न कर सकती हैं। इस स्थिति में मूत्रांगो एवं कमर और पेट के आसपास असहनीय पीड़ा होती है जिसे रीनल कोलिक कहा जाता है।
यह स्थिति आमतौर से 30 से 60 वर्ष के आयु के व्यक्तियों में पाई जाती है और स्त्रियों की अपेक्षा पुरूषों में चार गुना अधिक पाई जाती है। बच्चों और वृद्धों में मूत्राशय की पथरी ज्यादा बनती है, जबकि वयस्को में अधिकतर गुर्दो और मूत्रवाहक नली में पथरी बन जाती है। आज भारत के प्रत्येक सौ परिवारों में से दस परिवार इस पीड़ादायक स्थिति से पीड़ित है, लेकिन सबसे दु:खद बात यह है कि इनमें से कुछ प्रतिशत रोगी ही इसका इलाज करवाते हैं और लोग इस असहनीय पीड़ा से गुज़रते है एवम् अश्मरी से पीड़ित रोगी को काफ़ी मात्रा में पानी पीना चाहिए।
जिन मरीजों को मधुमेह की बीमारी है उन्हें गुर्दे की बीमारी होने की काफी संभावनाएं रहती हैं। अगर किसी मरीज को रक्तचाप की बीमारी है तो उसे नियमित दवा से रक्तचाप को नियंत्रण करने पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि अगर रक्तचाप बढ़ता है, तो भी गुर्दे खराब हो सकते हैं।
किसी पदार्थ के कारण जब मूत्र सान्द्र (गाढ़ा) हो जाता है तो पथरी निर्मित होने लगती है। इस पदार्थ में छोटे छोटे दाने बनते हैं जो बाद में पथरी में तब्दील हो जाते है। इसके लक्षण जब तक दिखाई नहीं देते तब तक ये मूत्रमार्ग में बढ़ने लगते है और दर्द होने लगता है। इसमें काफी तेज दर्द होता है जो बाजू से शुरु होकर उरू मूल तक बढ़ता है।
पीठ के निचले हिस्से में अथवा पेट के निचले भाग में अचानक तेज दर्द, जो पेट व जांघ के संधि क्षेत्र तक जाता है। दर्द फैल सकता है या बाजू, श्रोणि, उरू मूल, गुप्तांगो तक बढ़ सकता है, यह दर्द कुछ मिनटो या घंटो तक बना रहता है तथा बीच-बीच में आराम मिलता है। दर्दो के साथ जी मिचलाने तथा उल्टी होने की शिकायत भीहो सकती है। यदि मूत्र संबंधी प्रणाली के किसी भाग में संक्रमण है तो इसके लक्षणों में बुखार, कंपकंपी, पसीना आना, पेशाब आने के साथ-साथ दर्द होना आदि भी शामिल हो सकते हैं ; बार बार और एकदम से पेशाब आना, रुक रुक कर पेशाब आना, रात में अधिक पेशाब आना, मूत्र में रक्त भी आ सकता है। अंडकोशों में दर्द, पेशाब का रंग असामान्य होना।
गुर्दे की पथरी के ज्यादातर रोगी पीठ से पेट की तरफ आते भयंकर दर्द की शिकायत करते हैं। यह दर्द रह-रह कर उठता है और कुछ मिनटो से कई घंटो तक बना रहता है इसे ”रीलन क्रोनिन” कहते हैं। यह रोग का प्रमुख लक्षण है, इसमें मूत्रवाहक नली की पथरी में दर्दो पीठ के निचले हिस्से से उठकर जांघों की ओर जाता है।
गुर्दे की पथरी के निदान के लिए सबसे पहले संपूर्ण जांच ज़रूरी है। जाँच के कई रेडियोलोजी टेस्ट्स उपलब्ध है। अल्ट्रासाउंड जांच सबसे पहले करते है जो काफी जानकारी प्रदान कराती है। अगर अल्ट्रासाउंड पर पथरी दिखती है या फिर गुर्दे में सूजन मिलती है तो फिर XRAY या रंगीन XRAY किआ जाता है जिसे IVP बोलते है। रंगीन दवा या कंट्रास्ट देने से पहले किडनी का फंक्शन जांचना जरुरी है। आजकल CT स्कैन ने अल्ट्रासाउंड और IVP की जगह ले ली है।
जांचे पूर्ण होने पर पथरी के कई तरह के इलाज संभव है:
वृक्क अश्मरी की समस्या गाय , भैंस , बकरी, भेड़, श्वान, बिल्ली आदि में हो सकता है। यह रोग नर पशु और मादा पशु दोनों में ही हो सकता है परन्तु चूंकि नर में मूत्र मार्ग का व्यास कम होता है एवं उसकी लंबाई अधिक होती है , अतः उनमें इस रोग का खतरा ज्यादा होता है।
पथरी सामान्यतः वृक्क की श्रोणि में, वृक्क, मूत्रवाहिनी तथा मूत्राशय के जीवितक में, मूत्राशय की गर्दन में तथा मूत्र मार्ग में पाई जा सकती है। सांड में पथरी मूत्र मार्ग में इस्चियल चक्र पर और अवग्रहांत्र वक्र के समीपस्थ अंत पर प्रमुखत: पाई जाती है।
पीएच बदलना, मूत्राशय का संक्रमण , क्रिस्टलाइड का कोलाइड से अधिक मात्रा में हो जाना, शरीर में पानी की कमी, कठोर जल का सेवन , कैल्शियम और विटामिन डी की अधिकता , विटामिन ए की अल्पता , एस्ट्रोजन की अधिकता, एंटीबायोटिक जैसे कि सल्फोनामाइड का अधिक सेवन, मूत्र ठहराव इत्यादि इस रोग के प्रमुख संभावित कारण हैं।
पेशाब करने में दिक्कत , पेशाब में जलन , दर्द, रक्त का आना,पेशाब में अनियमितता, बैचेनी, भूख कम लगना ,मूत्रमार्ग का फटना,पशु का पेट की ओर लात मारना, पेट के निचले हिस्से में द्रव का भर जाना, गंभीर स्थिति में पेशाब का न आना , मूत्राशय का फटना इत्यादि लक्षण मिल सकते हैं। ऐसे पशु वृक्कगोणिकाविस्फार तथा वृक्कगोणिका शोथ के लिए अति संवेदनशील होते हैं।
इस रोग का निदान लक्षणों के आधार पर , पेशाब की जांच, सीरम में यूरिया तथा क्रिएटिन के स्तर की जांच , क्षरश्मि – चित्रण, पराश्रव्य चित्रण आदि के द्वारा किया जा सकता है।
क ) पशुओं को पीने के लिए कठोर जल न दें।
ख ) पशुओं के भोजन में विटामिन ए अवश्य दें।
ग ) कैल्शियम तथा विटामिन डी पशुओं को उचित मात्रा में ही दें।
घ ) पशुओं के लिए पर्याप्त मात्रा में पीने के लिए स्वच्छ जल उपलब्ध कराएं।
शुरुआत में इस रोग में उचित एंटीबायोटिक दी जा सकती हैं। साथ ही पशु को उचित द्रव दें। रक्त में यूरिया का स्तर नियंत्रण करने के लिए दवाई दे सकते हैं तथा पीएच बदलने के लिए अम्लीय दवाएं दी जा सकती हैं। दर्द निवारक दवाएं भी देवें। गंभीर स्थिति में शल्य चिकित्सा जैसे कि मूत्राशय छेदन, मूत्रमार्ग छेदन या यूरेथ्रोस्टॉमी की जा सकती है।
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