वर्नर हाइजनबर्ग (जर्मन: Werner Heisenberg), जन्म: ५ दिसम्बर १९०१, देहांत: १ फ़रवरी १९७६) एक जर्मन सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी थे, जो क्वांटम यांत्रिकी में अपने मूलभूत योगदान के लिए जाने जाते हैं। उनके दिए गए अनिश्चितता सिद्धान्त को अब क्वांटम यांत्रिकी की एक आधारशिला माना जाता है।
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वर्नर हाइजनबर्ग | |
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जन्म | वर्नर कार्ल हाइजनबर्ग 05 दिसम्बर 1901 वुर्जबर्ग, बायर्न, जर्मनी |
मृत्यु | 1 फ़रवरी 1976 म्यूनिख, बायर्न, पश्चिम जर्मनी | (उम्र 74)
राष्ट्रीयता | जर्मन |
क्षेत्र | सैद्धांतिक भौतिकी |
संस्थान | ग्यॉटिंगन विश्वविद्यालय कोपनहेगन विश्वविद्यालय लिपजिग विश्वविद्यालय बर्लिन विश्वविद्यालय म्यूनिख विश्वविद्यालय |
शिक्षा | म्यूनिख विश्वविद्यालय |
डॉक्टरी सलाहकार | अर्नाल्ड सोम्मेरफेल्ड |
अन्य अकादमी सलाहकार | नील्स बोर माक्स बोर्न |
डॉक्टरी शिष्य | फीलिक्स ब्लाख एडवर्ड टेलर रुडोल्फ पीयर्ल्स रेइनहार्ड ओहेम फ्राइडवर्द्त विंटरबर्ग पीटर मित्टेलस्तेद्त सेर्बन तितेइचा ईवान सुपेक ईरिच बग्गे हर्मन आर्थर जॉन राज़ुद्दीन सिद्दिकी हेमियो ड्लोच हंस हेन्रीच आयलर इडविन गोरा बेरहर्ड कोखेल अर्नोल्ड सैगर्ट वंग फो-सान कर्ल ओट |
अनु उल्लेखनीय शिष्य | विलियम वेर्मिल्लियन हॉस्टन गुइडो बक उगो फनो |
प्रसिद्धि | अनिश्चितता सिद्धान्त हाइजनबर्ग सूक्ष्मदर्शी मैट्रिक्स यांत्रिकी क्रमेर्स-हाइजनबर्ग सूत्र हाइजनबर्ग समूह Isospin आयलर-हाइजनबर्ग लाग्रांजियन |
प्रभावित | रॉबर्ट डोपल कार्ल फ्रेडरिख वान वाइज्सकर |
उल्लेखनीय सम्मान | भौतिकी में नोबेल पुरस्कार (1932) मैक्स प्लांक पदक (1933) |
टिप्पणी वह तंत्रिकाविज्ञानी (न्यूरोसाइंटिस्ट) मार्टिन हाइजनबर्ग के पिता और अगस्त हाइजनबर्ग के पुत्र हैं। |
गणित में बेहद रूचि रखने वाले वर्नर हाइजेनबर्ग (Werner Heisenberg) भौतिकी की ओर अपने स्कूल के अंतिम दिनों में आकृष्ट हुए और फिर ऐसा कर गये जिसने प्रचलित भौतिकी की चूलें हिला दीं। वे कितने प्रतिभाशाली रहे होंगे और उनके कार्य का स्तर क्या रहा होगा, इसका अंदाज इस बात से लगता है कि जिस क्वांटम यांत्रिकी को उन्होंने मात्र 23 की उम्र में गढ़ा, उसके लिये उन्हें मात्र 31 वर्ष की उम्र में ही नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
अपने मौलिक चिंतन से हाइजेनबर्ग ने ने अनिश्चितता का सिद्धांत(Uncertainty principle) प्र्स्तुत किया।इस सिद्धांत को उन्होंने इस प्रकार बताया:
यह पता कैसे चलेगा कि कोई कण (पार्टिकल) कहाँ है? उसे देखने के लिए हमें उसपर प्रकाश फेंकना पड़ेगा अर्थात हमें उसपर फ़ोटॉन डालने होंगे। जब फ़ोटॉन उस पार्टिकल से टकरायेंगे तब उस टक्कर के परिणामस्वरूप कण(पार्टिकल) की स्थिति परिवर्तित हो जायेगी। इस तरह हम उसकी स्तिथि को नहीं जान पाएंगे क्योंकि स्थिति को जानने के क्रम में हमने स्तिथि में परिवर्तन कर दिया।
वर्नर हाइजेनबर्ग का जन्म 5 दिसम्बर 1901 को वुर्ज़बर्ग (Würzburg) में हुआ था। वारेन ने अपनी पढ़ाई की शुरुआत वुर्ज़बर्ग के स्कूल मेक्सीमिलियन जिम्नेशियम (Maximilians Gymnasium, Munich) से की। जब वे पैदा हुए थे तब उनके पिता आगस्ट हाइजेनबर्ग (August Heisenberg) क्लासिकल लेंग्वेज के शिक्षक थे, जो आगे चलकर सन् 1909 में वे म्युनिक विश्वविद्यालय में ग्रीक भाषा के प्रोफेसर बने। कुछ महिनों के बाद वर्नर भी परिवार के साथ वुर्ज़बर्ग से म्यूनिक आ गये।
सन् 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया जो सन् 1919 तक चला। सन् 1918 में जर्मनी में क्रांति हुई। इस कारण म्यूनिक में भी बहुत आपदाएं आईं। वर्नर ने इस क्रांति में भाग लिया। रात को ड्यूटी रहती लेकिन जब सुबह-सुबह काम नहीं रहता तब उनका पुस्तकें पढ़ने का शौक पूरा होता। एक बार महान दार्शनिक प्लेटो की ग्रीक भाषा में लिखी प्रसिद्ध पुस्तक ‘थिमेअस’ (Timaeus) उनके हाथ लग गई। चूँकि ग्रीक भाषा का अध्ययन वर्नर के पाठ्यक्रम का हिस्सा था, अतः यह पुस्तक उनके लिये उपयोगी थी। इस पुस्तक में प्राचीन यूनान के परमाणु संबंधी सिद्धांत का वर्णन था। अतः इस पुस्तक को पढ़ते समय उनके मन में परमाणु के रहस्यों को गहराई से जानने की इच्छा पैदा हो गई। अब उनका मन गणित के साथ ही भौतिकी के अध्ययन की ओर भी होने लगा। आगे चलकर उन्होंने सन् 1932 में परमाणु के नाभिक के लिये ‘न्यूट्रॉन-प्रोटॉन मॉडल’ प्रस्तुत किया। उनका ग्रीक प्रेम आगे भी नजर आया जब युकावा ने सशक्त नाभिकीय बल के सिद्धांत को विकसित करने के लिये जिस कण को ‘मिसॉट्रॉन’ के नाम से प्रतिपादित किया था, उसे हाइजेनबर्ग के सुझाव पर ‘मिसॉन(Meson)’ के रूप में मान्य किया गया।
जर्मनी में क्रांति के दिनों में, जब जर्मनी के हालत बिगड़ने लगे और उनके परिवार के पास खाने तक का संकट था, तब वर्नर को कुछ दिनों के लिये स्कूल छोड़कर कुछ महीनों के लिये म्यूनिक से करीब 50 मील दूर स्थित खेत पर मजदूरी के लिये जाना पड़ा। खेत पर उन्हें अक्सर साढ़े तीन बजे सुबह उठना पड़ता और फिर रात को करीब दस बजे तक काम करना होता था। कई बार उन्हें दिन में घास काटने जैसा थका देने वाला परिश्रम भी करना पड़ता। लेकिन वर्नर ने इस काम को मजबूरी में करने की बजाय ‘शिक्षा देने वाले काम’ के रूप में लिया। बाद में उन्होंने महसूस किया कि इस दौरान उन्हें वह शिक्षा मिली जो स्कूलों में रहकर कभी नहीं मिल सकती थी।
धीरे-धीरे जर्मनी के हालात सुधरे और फिर वर्नर अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद सन् 1920 में सोमेरफेल्ड के मार्गदर्शन में भौतिकी पढ़ने के लिये म्यूनिक विश्वविद्यालय में आ गये। यहाँ वीन, प्रिंगशेम और रोजेंथल जैसे प्रतिष्ठित भौतिकविद् भी थे। म्यूनिक में उनकी मुलाकात सोमरफेल्ड के तीक्ष्ण बुद्धि वाले और बहुत सशक्त व्यक्तित्व के धनी छात्र वुल्फगैंग पॉली (जो आगे चलकर 1945 के भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुए) से हुई। हाइजेनबर्ग उनसे बहुत गहराई तक प्रभावित हुए। पॉली शोध करने और इस दौरान प्रस्तुत किये जाने वाले सिद्धांतों में गलतियों को खोजने में माहिर थे।
सोमरफेल्ड अपने विद्यार्थियों से बहुत प्यार करते थे। उन्हें पता चल चुका था कि वर्नर हाइजेनबर्ग को ‘परमाणु के चितेरे’ नोबेल पुरस्कार से सम्मानित नील्स बोहर के परमाणु भौतिकी के काम में बहुत रूचि है। इसीलिये एक बार जब गोटिंजन में ‘बोहर फेस्टिवल’ का आयोजन हुआ तो वे हाइजेनबर्ग को भी अपने साथ ले गये। इस फेस्टिवल में बोहर के व्याख्यानों की एक शृंखला आयोजित थी। यहीं वे पहली बार बोहर से मिले और उनके गहरे प्रभाव में आ गये।
सन् 1922-23 के शीतकालीन अवकाश के दौरान हाइजेनबर्ग मैक्स बॉर्न, जेम्स फ्रेंक और डेविड हिलबर्ट के पास अपनी पीएचड़ी के लिये एक परियोजना पर कार्य करने के लिये गॉटिंगन गये। पी.एचडी. प्राप्त करने के बाद उन्हें गॉटिंगन विश्वविद्यालय में मैक्स बॉर्न के सहायक के रूप में कार्य करने का अवसर मिल गया। उन दिनों गॉटिंगन विश्वविद्यालय मैक्स बॉर्न के नैतृत्व में भौतिकी के बहुत बड़े केंद्र के रूप में विश्व में अपनी विशिष्ट पहचान रखता था। मैक्स बॉर्न को उनके क्वांटम यांत्रिकी की सांख्यिकीय व्याख्या के लिये 1954 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला।
इसके पश्चात 17 सितम्बर 1924 से 1 मई 1925 के बीच वे ‘रॉकफेलर ग्रांट’ प्राप्त कर कोपनहेगन विश्वविद्यालय में नील्स बोहर के साथ काम करने के लिये गये। उस समय क्वांटम दुनिया से उठ रही समस्याएं वैज्ञानिकों के सम्मुख चुनौतियाँ प्रस्तुत कर रही थीं। बोहर इस क्षेत्र के अग्रणी वैज्ञानिक थे। उन्हें परमाणविक संरचना की खोज के लिये सन् 1922 का नोबेल पुरस्कार मिल चुका था। कोपनहेगन के चैतन्य और प्रेरक वातावरण से निकल कर जब वे लौटे तो क्वांटम जगत से उठ रही समस्याओं से निपटने के लिये उनके मस्तिष्क में सर्वथा नये विचार घुमड़ने लगे और उन्होंने सर्वथा नये तरीके से सोचना आरंभ किया।
वे बोहर मॉडल को लेकर सोचने लगे कि हम नहीं जानते कि इलेक्ट्रॉन परमाणु में कब, कहाँ हैं। हम अवशोषण या उत्सर्जन से इतना जान सकते हैं कि इलेक्ट्रॉन ने अवस्था परिवर्तन(State change) किया है। लेकिन इसने किस कक्षा से किस कक्षा में जाने के लिये किस रास्ते को तय किया है, यह कभी नहीं जाना जा सकता है। कक्षाओं के अस्तित्व को किसी भी तरीके से सत्यापित नहीं किया जा सकता है। अतः हम कैसे मान सकते हैं कि बोहर के ये आर्बिट वास्तविक आर्बिट हैं। अगर ये वास्तविक नहीं हैं तो फिर क्यों नहीं इनको छोड़कर आगे बढ़ने के लिये कोई अन्य वैकल्पिक रास्ता निकाला जाना चाहिये। वे सोचने लगे कि किसी भी सिद्धांत को ‘यथार्थ’ पर आधारित होना चाहिये न कि कल्पनाओं पर आधारित मॉडल्स पर। चूँकि हम संक्रमण (transition) के माध्यम से परमाणु को एक अवस्था से दूसरी में जाते हुए देखते हैं, अतः ‘संक्रमण’ को आधार बनाकर आगे बढ़ना उन्हें श्रेयस्कर लगा।
आर्डर आफ़ मेरीअ ओफ़ बेवेरिआ(Order of Merit of Bavaria) रोमानो गार्डीनी पुरस्कार(Romano Guardini Prize) ग्रेंड क्रास फ़ार फ़ेडरल सर्वीस विथ स्टार(Grand Cross for Federal Service with Star) नाईट आफ़ आर्डर आफ़ मेरीट (नागरी श्रेणी) Knight of the Order of Merit (Civil Class) चयनीत रायल सोसायटी के सदस्य(Elected a Foreign Member of the Royal Society (ForMemRS) in 1955) 1932– भौतिकी नोबेल पुरस्कार 1933–मैक्स प्लैंक मेडल
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