इतिहास में महामंदी या भीषण मन्दी (द ग्रेट डिप्रेशन) (1928-1934) के नाम से जानी जाने वाली यह घटना एक विश्वव्यापी आर्थिक मंदी थी। यह सन १९२९ के लगभग शुरू हुई और १९३९-४० तक जारी रही। विश्व के आधुनिक इतिहास में यह सबसे बड़ी और सर्वाधिक महत्व की मंदी थी। इस घटना ने पूरी दुनिया में ऐसा कहर मचाया था कि उससे उबरने में कई साल लग गए। उसके बड़े व्यापक आर्थिक व राजनीतिक प्रभाव हुए। इससे फासीवाद बढ़ा और अंतत: द्वितीय विश्वयुद्ध की नौबत आई। हालांकि यही युद्ध दुनिया को महामंदी से निकालने का माध्यम भी बना। इसी दौर ने साहित्यकारों और फिल्मकारों को भी आकर्षित किया और इस विषय पर कई किताबें लिखी गईं। अनेक फिल्में भी बनीं और खूब लोकप्रिय भी हुईं।
आरम्भ
29 अक्टूबर 1929 को अमेरिका में शेयर बाजार में गिरावट से।
1930 से 1933 के बीच यह दुनिया के सभी प्रमुख देशों में फैल गई।
1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने के साथ ही यह काबू में आने लगी।
1930 के दशक की महामंदी को दुनिया की अब तक की सर्वाधिक विध्वंसक आर्थिक त्रासदी माना जाता है जिसने लाखों लोगों की जिंदगी नरक बना दी। इसकी शुरुआत 29 अक्टूबर 1929 को अमेरिका में शेयर मार्केट के गिरने से हुई थी। इस दिन मंगलवार था। इसलिए इसे काला मंगलवार (ब्लैक टच्यूसडे) भी कहा जाता है। इसके बाद अगले एक दशक तक दुनिया के अधिकांश देशों में आर्थिक गतिविधियां ठप्प रहीं। अंतरराष्ट्रीय व्यापार खत्म हो गया।
मांग में भारी कमी हो गई और औद्योगिक विकास के पहिये जाम हो गए। लाखों लोगों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा। कृषि उत्पादन में भी 60 फीसदी तक की कमी हो गई। एक दशक तक हाहाकार मचाने के बाद द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत के साथ ही इसका असर कम होने लगा।
अमेरिकी शेयर बाजार में गिरावट का इतना मनोवैज्ञानिक असर पड़ा कि वहां के लोगों ने अपने खर्चो में दस फीसदी तक की कमी कर दी जिससे मांग प्रभावित हुई।
लोगों ने बैंकों के कर्ज पटाने बंद कर दिए जिससे बैंकिंग ढांचा चरमरा गया। कर्ज मिलने बंद हो गए, लोगों ने बैंकों में जमा पैसा निकालना शुरू कर दिया। इससे कई बैंक दिवालिया होकर बंद हो गए।
1930 की शुरुआत मे अमेरिका में पड़े सूखे की वजह से कृषि बर्बाद हो गई जिससे कृषि अर्थव्यवस्था चरमरा गई। इसने ‘नीम पर करेले’ का काम किया।
अमेरिका की इस मंदी ने बाद में अन्य देशों को भी चपेट में ले लिया और देखते ही देखते यह महामंदी में तब्दील हो गई।
साम्यवादी राष्ट्र होने के नाते सोवियत संघ ने खुद को पूंजीवादी व्यवस्था से काटकर रखा था। पूंजीवादी देश भी उसके साथ संबंध नहीं रखना चाहते थे। लेकिन इससे सोवियत संघ को फायदा ही हुआ और वह उस महामंदी से बच निकला जिसने पूंजीवादी देशों की कमर तोड़कर रख दी थी। इस दौरान सोवियत संघ में औद्योगिक विस्तार हुआ।
इससे मार्क्सवाद को प्रतिष्ठा मिली और उसे पूंजीवाद के विकल्प के तौर पर देखा जाने लगा। यही कारण था कि कई प्रभावित देशों मंे इससे प्रेरित होकर सामाजिक व साम्यवादी प्रदर्शन व आंदोलन हुए।
कई विशेषज्ञों का मानना है कि फासीवाद को बढ़ावा देने में इस महामंदी का भी हाथ रहा। फासीवादी नेताओं ने संबंधित देशों में इस बात का प्रचार शुरू कर दिया कि लोगों की खराब स्थिति के लिए उनके पूंजीवादी नेता ही जिम्मेदार है जिनसे फासीवाद ही बचा सकता है। जर्मनी में हिटलर ने इसी महामंदी के बहाने अपनी पकड़ मजबूत बनाई। जापान में हिदेकी तोजो ने चीन में घुसपैठ कर मंचुरिया में इस आधार पर खदानों का विकास किया कि इससे महामंदी से राहत मिलेगी। लेकिन इसका एक ही नतीजा निकला-द्वितीय विश्वयुद्ध।
इस महामंदी का सबसे बड़ा नतीजा यह हुआ कि अमेरिका जैसे देशों को अपनी अर्थव्यवस्था मजबूत करने के लिए एक बड़ा फंडा हाथ लग गया। अमेरिका सहित विभिन्न देशों में सैन्य प्रसार-प्रचार से न केवल नौकरियों के द्वार खुले, बल्कि हथियारों के उत्पादन से अर्थव्यवस्थाओं में भी जान आ गई। इससे 1930 के दशक के उत्तरार्ध में महामंदी से निकलने में सहायता मिली। बाद में अमेरिका सहित पश्चिमी देशों ने इसे ही अपना खेवनहार बना लिया। आज हथियारों की बिक्री से इन देशों को भारी मुनाफा होता है।
महामंदी के दौर में पूंजीवाद से मोहभ्रम की स्थिति को समझते हुए अमेरिका ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पश्चिमी देशों को मजबूत बनाने की योजना क्रियान्वित की। ‘मार्शल प्लान’ नामक इस योजना का कागजों पर उद्देश्य तो विश्व युद्ध से पीड़ित देशों के पुनर्निर्माण में मदद करना था, लेकिन असली मकसद साम्यवाद के संभावित विस्तार को रोकना था। इसके तहत यूरोपीय देशों को 17 अरब डॉलर की वित्तीय व प्रौद्योगिकी सहायता दी गई। हालांकि इसके बावजूद सोवियत संघ की बढ़ती ताकत नहीं रोकी जा सकी।
आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप जर्मनी में बेरोजगारी अत्यधिक बढ़ी। 1932 ई. तक 60 लाख लोग बेरोजगार हो गये। इससे जर्मनी में बाह्य गणतंत्र की स्थिति दुर्बल हुईं हिटलर इसका फायदा उठाकर सत्ता में आ गया। इस प्रकार आर्थिक मंदी में जर्मनी ने नाजीवाद का शासन स्थापित किया।
1931 ई. में आर्थिक मंदी के कारण ब्रिटेन को स्वर्णमान का परित्याग करना पड़ा। सरकार ने सोने का निर्यात बंद कर दिया। सरकार ने आर्थिक स्थिरीकरण की नीति अपनाई। इससे आर्थिक मंदी से उबरने में ब्रिटेन को मदद मिली। व्यापार में संरक्षण की नीति अपनाने से भी व्यापार संतुलन ब्रिटेन के पक्ष में हो गया। ब्रिटिश सरकार ने सस्ती मुद्रा दर को अपनाया जिससे बैंक दर में कमी आयी। इससे विभिन्न उद्योगों को बढ़ावा मिला।
जर्मनी से अत्यधिक क्षतिपूर्ति प्राप्त करने के कारण फ्रांस की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी, अतः आर्थिक मंदी का उस पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ा। फ्रांस की मुद्रा फ्रेंक अपनी साख बचाये रखने में सफल रही।
रूस में स्टालिन की आर्थिक नीतियों एवं पंचवर्षीय योजनाओं से आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी। अतः वह भी आर्थिक मंदी से प्रभावित नहीं हुआ। इससे विश्व के समक्ष साम्यवादी व्यवस्था की मजबूती एवं पूँजीवादी व्यवस्था का खोखलापन उजागर हुआ।
अमेरिका में बेरोजगारी 15 लाख से बढ़कर 1 करोड़ 30 लाख हो गई। यूरोप में आर्थिक मंदी के कारण अमेरिका का यूरोपीय ऋण डूबने की स्थिति में आ गया। 1932 ई. के चुनाव में आर्थिक संकट के कारण रिपब्लिक पार्टी का हूवर पराजित हुआ। डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार रूसवेल्ट ने आर्थिक सुधार कार्यक्रम की घोषणा के बल पर ही चुनाव जीता।
आर्थिक मंदी से उबरने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ने न्यू डील की घोषणा की। न्यू डील के उद्देश्यों का सार उन्होंने इन शब्दों में बताया,
रूजवेल्ट की न्यू डील से अमेरिकी अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी सुधार के चिह्न दृष्टिगोचर होने लगे। औद्योगिक एवं कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई निम्नतम मजदूरी दर और अधिकतम काम के घंटे नियत किये गये। इस प्रकार धीरे-धीरे आर्थिक मंदी से उबरने की ओर अमेरिका अग्रसर हुआ। अतः फ्रेंकलिन रूजवेल्ट की न्यू डील सफल साबित हुई।
महामंदी पर कई किताबें लिखी गईं। इनमें सबसे प्रसिद्ध हुई जॉन स्टीनबेक लिखित ‘द ग्रेप्स ऑफ राथ’ जो 1939 में प्रकाशित हुई थी। इसे साहित्य का नोबेल पुरस्कार भी मिला। उसी दौर में आईं पुस्तकें द ग्रेट डिप्रेशन (एलॉन बर्शेडर), ऑफ माइस एंड मैन (जॉन स्टीनबेक), टु किल ए मॉकिंगबर्ड (हार्पर ली) भी महामंदी की तस्वीर को अलग-अलग रूपों में प्रस्तुत करती हैं। इसी विषय पर मार्ग्रेट एटवुड के उपन्यास ‘द ब्लाइंड असेसिन’ को 2000 में बुकर पुरस्कार मिला। दो साल पहले डेविड पॉट्स ने ‘द मिथ ऑफ द ग्रेट डिप्रेशन’ किताब लिखी।
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