82°06′E / 19.5°N 82.1°E / 19.5; 82.1 बस्तर भारतीय राज्य छत्तीसगढ़ का एक जिला है। जिले का प्रशासनीक मुख्यालय जगदलपुर है। यहां की कुल आबादी का लगभग 70% भाग जनजातीय है।
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बस्तर | |
— जिला — | |
समय मंडल: आईएसटी (यूटीसी+५:३०) | |
देश | भारत |
राज्य | छत्तीसगढ़ |
जिलाधीश | रजत बंसल |
नगर पालिका अध्यक्ष | |
जनसंख्या • घनत्व | 14,11,644 (2011 के अनुसार [update]) • 130/किमी2 (337/मील2) |
क्षेत्रफल | 10,755.79 कि.मी² |
इसके उत्तर में दुर्ग, उत्तर-पूर्व में रायपुर, पश्चिम में चांदा, पूर्व में कोरापुट तथा दक्षिण में पूर्वी गोदावरी जिले हैं। यह पहले एक देशी रियासत था। इसका अधिकांश भाग कृषि के अयोग्य है। यहाँ जंगल अधिक हैं जिनमें गोंड एवं अन्य आदिवासी जातियाँ निवास करती हैं। जगंलों में टीक तथा साल के पेड़ प्रमुख हैं। यहाँ की स्थानांतरित कृषि में धान तथा कुछ मात्रा में ज्वार, बाजरा पैदा कर लिया जाता है। इंद्रावती यहाँ की प्रमुख नदी है। चित्रकोट आदि कई झरने भी हैं। जगदलपुर, बीजापुर, कांकेर, कोंडागाँव, भानु प्रतापपुर आदि प्रमुख नगर हैं। यहाँ के आदिवासी जंगलों में लकड़ियाँ, लाख, मोम, शहद, चमड़ा साफ करने तथा रँगने के पदार्थ आदि इकट्ठे करते रहते हैं। खनिज पदार्थों में लोहा, अभ्रक महत्वपूर्ण हैं।
१४वीं सदी में इसकी जानकारी अन्नमा देव को मिली जो काकतीय राजा के एक भाई थे। यह कुछ गिने चुने जगहों में से एक है जहाँ अंग्रेज अपना राज स्थापित नहीं कर पाए। स्वतंत्रता के पश्चात यह मध्य प्रदेश राज्य का हिस्सा बना और 1 नवम्बर 2000 को छत्तीसगढ़ के निर्माण के साथ यह छत्तीसगढ़ का एक जिला बन गया।
बस्तर जिले की अर्थव्यवस्था के प्रमुख आधार कृषि और वनोपज संग्रहण है । कृषि में प्रमुख रूप से धान ,मक्का की फसल का और गेहूँ, ज्वार, कोदो, कुटकी , चना , तुअर , उड़द , तिल , राम तिल , सरसों सहायक रूप से उत्पादन किया जाता है । कृषि के अलावा पशुपालन , कुक्कुट पालन, मत्स्य पालन भी सहायक भूमिका निभाते हैं ।
वनोपज संग्रहण यहाँ के ग्रामीणों के जीवन उपार्जन के प्रमुख श्रोतों में से एक है । वनोपज संग्रहण में कोषा (तसर), तेंदू पत्ता , लाख , धुप , साल बीज , इमली , अमचूर , कंद , मूल , औषधियां प्रमुख हैं। पत्थर , गिट्टी , मुरुम , फर्शी पत्थर , रेत का खनन भी अर्थव्यवस्था के सहयोगी तत्त्व हैं ।
बस्तर अपनी परम्परागत कला-कौशल के लिए प्रसिद्ध है। बस्तर के निवासी अपनी इस दुर्लभ कला को पीढ़ी दर पीढ़ी संरक्षित करते आ रहे है, परन्तु प्रचार के आभाव में यह केवल उनके कुटीरों से साप्ताहिक हाट-बाजारों तक ही सीमित है। उनकी यह कला बिना किसी उत्कृष्ट मशीनों के उपयोग के रोजमर्रा के उपयोग में आने वाले उपक्रमों से ही बनाये जाते हैं।
बस्तर के कला कौशल को मुख्या रूप से काष्ठ कला, बाँस कला, मृदा कला, धातु कला में विभाजित किया जा सकता है। काष्ठ कला में मुख्य रूप से लकड़ी के फर्नीचरों में बस्तर की संस्कृति, त्योहारों, जीव-जन्तुओं, देवी-देवताओं की कलाकृति बनाना, देवी देवताओं की मूर्तियाँ, साज सज्जा की कलाकृतियाँ बनायी जाती है। बांस कला में बांस की शीखों से कुर्सियाँ, बैठक, टेबल, टोकरियाँ, चटाई, और घरेलू साज-सज्जा की सामग्रिया बनायीं जाती है। मृदा कला में देवी देवताओं की मूर्तियाँ, सजावटी बर्तन, फूलदान, गमले, और घरेलू साजसज्जा की सामग्री बनायीं जाती है। धातु कला में ताँबे और टिन मिश्रित धातु के ढलाई किये हुए कलाकृतियाँ बनायीं जाती है, जिसमें मुख्य रूप से देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, पूजा पात्र, जनजातीय संस्कृति की मूर्तियाँ, और घरेलू साजसज्जा की सामग्रियां बनायीं जाती है।
बस्तर अंचल के हस्तशिल्प, चाहे वे आदिवासी हस्तशिल्प हों या लोक हस्तशिल्प, दुनिया-भर के कलाप्रेमियों का ध्यान आकृष्ट करने में सक्षम रहे हैं। कारण, इनमे इस आदिवासी बहुल अंचल की आदिम संस्कृति की सोंधी महक बसी रही है। यह शिल्प-परम्परा और उसकी तकनीक बहुत पुरानी है।
चैतराई, आमाखानी, अकती, बीज खुटनी, हरियाली, इतवारी, नवाखाई आदि बस्तर के आदिवासियों के मुख्य त्यौहार हैं। आदिवासी समुदाय एकजुट होकर डोकरीदेव, ठाकुर दाई, रानीमाता, शीतला, रावदेवता, भैंसासुर, मावली, अगारमोती, डोंगर, बगरूम आदि देवी देवताओं को पान फूल, नारियल, चावल, शराब, मुर्गा, बकरा, भेड़, गाय, भैंस, आदि देकर अपने-अपने गांव-परिवार की खुशहाली के लिए मन्नत मांगते है।
कभी बस्तर में ३६ बोलियां थीं, लेकिन अब गोंडी, हल्बी, भतरी, धुरवी, परजी, माड़ी जैसी गिनी-चुनी बोलियां ही बची हैं। बस्तर की कुछ बोलियाँ संकटग्रस्त हैं और इनके संरक्षण व संवर्धन की जरूरत है। बस्तर की दो दर्जन से अधिक बोलियां विलुप्त हो गई हैं।
वर्तमान में बस्तर की कम से कम 20 जनजातियों की अपनी बोली विलुप्त हो चुकी है। वस्तुतः हल्बी और भतरी बोलियों का प्रभुत्व इतना रहा कि दूसरी बोलियां इनमें समाहित हो गईं। अब बस्तर में प्रमुख रूप से तीन बोलियां हैं। गोंडी सबसे बड़े भूभाग की बोली है, जबकि हल्बी बस्तर की जनजातियों की संपर्क भाषा रही है। अबूझमाड़ की गोंडी व दंतेवाड़ा की गोंडी में केवल लहजे का अन्तर है। भतरी, जगदलपुर और सीमावर्ती ओडिशा में बोली जाती है। बस्तर की तीन प्रमुख बोलियों में सबसे समृद्ध साहित्य भतरी का ही है। भतरी नाट व जाली आना जैसे गीतों की आज भी धूम है। हल्बी संपर्क भाषा है और क्षेत्र के अनुसार इसमें दोरली, गोंडी आदि बोलियों का समावेश दिखता है। हल्बी बस्तर राज के जमाने में राजकाज की बोली भी थी। हल्बी में लोकसाहित्य भतरी से भले ही कम हैं, लेकिन इसमें महाकाव्यों की रचना भी हुई है। हरिहर वैष्णव इन महाकाव्यों को लिखित रूप देने में जुटे हैं।
जनजातियों की भाषा तीनों परिवार से निकली हैं। इसमें द्रविण कुल की गोंडी है तो आर्यकुल की हल्बी व भतरी। मुडा का सामान्य भी दोरली, गदबी व धुरवी में दिखता है। गोंडी आज भी सर्वाधिक बोली जाने वाली बोली है।
हल्बी में तीजा जगार, बाली जगार, आठे जगार महाकाव्य हैं। इसमें उच्चकुल का नायक नहीं, बल्कि नायिका प्रमुख हैं। आठे जगार ९३ दिन तक चलता है। यह सब श्रुति परंपरा में ही है और इसे लिपिबद्ध करने की जरूरत है।
मध्यभारत की गोंडी और बस्तर की गोंडी में कोई समानता नहीं है। गोंडवाना की गोंडी भी हालांकि द्रविण कुल की ही बोली है, लेकिन बस्तर की गोंडी से यह एकदम अलग है। गोंडवाना की गोंडी की लिपि है, जबकि बस्तर में अभी इस दिशा में काम किए जाने की काफी जरूरत है।
'बस्तर दशहरा' के नाम से चर्चित यहाँ का दशहरा अपने आप में अनूठा है। इस दशहरे की ख्याति इतनी अधिक है कि देश के अलग-अलग भागों के साथ-साथ विदेशों से भी पर्यटक इसे देखने आते हैं। बस्तर दशहरे का आरम्भ श्रावण (सावन) के महीने में पड़ने वाली हरियाली अमावस्या से होती है। इस दिन रथ बनाने के लिए जंगल से पहली लकड़ी लाई जाती है। इस रस्म को 'पाट जात्रा' कहा जाता है। यह त्योहार दशहरा के बाद तक चलता है और मुरिया दरबार की रस्म के साथ समाप्त होता है। इस रस्म में बस्तर के महाराज दरबार लगाकार जनता की समस्याएं सुनते हैं। यह त्योहार भारत का सबसे ज्यादा दिनों तक मनाया जाने वाला त्योहार है।
बस्तर में एक ऐसी अनोखी परम्परा है जिसमें परिजन के मरने के बाद उसका स्मारक बनाया जाता है जिसे 'मृतक स्तम्भ' के नाम से जाना जाता है। दक्षिण बस्तर में मारिया और मुरिया जनजाति में मृतक स्तम्भ बनाए बनाने की प्रथा अधिक प्रचलित है। स्थानीय भाषा में इन्हें “गुड़ी” कहा जाता है। प्राचीन काल में जनजातियों में पूर्वजों को जहां दफनाया जाता था वहां 6 से 7 फीट ऊंचा एक चौड़ा तथा नुकीला पत्थर रख दिया जाता था। पत्थर दूर पहाड़ी से लाए जाते थे और इन्हें लाने में गांव के अन्य लोग मदद करते थे।
छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों के माड़िया जनजाति में घोटुल को मनाया जाता है। घोटुल गांव के किनारे बनी एक मिट्टी की झोपड़ी होती है। कई बार घोटुल में दीवारों की जगह खुला मण्डप होता है। घोटुल में आने वाले लड़के-लड़कियों को अपना जीवनसाथी चुनने की छूट होती है। घोटुल को सामाजिक स्वीकृति भी मिली हुई है।
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