परामनोविज्ञान (Parapsychology) एक विधा है जो वैज्ञानिक विधि का उपयोग करते हुए इस बात की जाँच-परख करने का प्रयत्न करती है कि मृत्यु के बाद भी मनोवैज्ञानिक क्षमताओं का अस्तित्व रहता है या नहीं। परामनोविज्ञान का संबंध मनुष्य की उन अधिसामान्य शक्तियों से है, जिनकी व्याख्या अब तक के प्रचलित सामान्य मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों से नहीं हो पाती। इन प्राकृतेतर तथा विलक्षण प्रतीत होनेवाली अधिसामन्य घटनाओं या प्रक्रियाओं की व्याख्या में ज्ञात भौतिक प्रत्ययों से भी सहायता नहीं मिलती।
परचित्तज्ञान, विचारसंक्रमण, दूरानुभूति, पूर्वांभास, अतींद्रियाज्ञान, मनोजनित गति या "साइकोकाइनेसिस" आदि कुछ ऐसी प्रक्रियाएँ हैं जो एक भिन्न कोटि की मानवीय शक्ति तथा अनुभूति की ओर संकेत करती हैं। इन घटनाओं की वैज्ञानिक स्तर पर घोर उपेक्षा की गई है और इन्हें बहुधा जादू-टोने से जोड़कर, गुह्यविद्या का नाम देकर विज्ञान से अलग समझा गया है। किंतु ये विलक्षण प्रतीत होनेवाली घटनाएँ घटित होती हैं। वैज्ञानिक उनकी उपेक्षा कर सकते हैं, पर घटनाओं को घटित होने से नहीं रोक सकते। घटनाएँ वैज्ञानिक ढाँचे में बैठती नहीं दीखतीं - वे आधुनिक विज्ञान की प्रकृति की एकरूपता या नियमितता को धारणा को भंग करने की चुनौती देती प्रतीत होती हैं इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आज भी परामनोविज्ञान को वैज्ञानिक संदेह तथा उपेक्षा की दृष्टि से देखता है। किंतु वास्तव में परामनोविज्ञान न जादू टोना है, न वह गुह्यविद्या, प्रेतविद्या या तंत्रमंत्र जैसा कोई विषय। इन तथाकथित प्राकृतेतर, पराभौतिक एवं परामानसकीय, विलक्षण प्रतीत होनेवाली अधिसामान्य घटनाओं या प्रक्रियाओं का विधिवत् तथा क्रमबद्ध अध्ययन ही परामनोविज्ञान का मुख्य उद्देश्य है। इन्हें प्रयोगात्मक पद्धति की परिधि में बाँधने का प्रयत्न, इसकी मुख्य समस्या है। परामानसिकय अनुसंधान या "साइकिकल रिसर्च" इन्हीं पराभौतिक विलक्षण घटनाओं के अध्ययन का अपेक्षाकृत पुराना नाम है" जिसके अंतर्गत विविध प्रकार की उपांत घटनाएँ भी सम्मिलित हैं जो और भी विलक्षण प्रतीत होती हैं तथा वैज्ञानिक धरातल से और अधिक दूर हैं - उदाहरणार्थ प्रेतात्माओं, या मृतात्माओं से संपर्क, पाल्टरजीस्ट या ध्वनिप्रेत, स्वचालित लेखन या भाषण आदि। परामनोविज्ञान अपेक्षाकृत सीमित है - यह परामानसिकीय अनुसंधान का प्रयोगात्मक पक्ष है - इसका वैज्ञानिक अनुशासन और कड़ा है।
मानव का अदृश्य जगत् से इंद्रियेतर संपर्क में विश्वास बहुत पुराना है। लोककथाएँ, प्राचीन साहित्य, दर्शन तथा धर्मग्रंथ पराभौतिक घटनाओं तथा अद्भुत मानवीय शक्तियों के उदाहरणों से भरे पड़े हैं। परामनोविद्या का इतिहास बहुत पुराना है - विशेष रूप से भारत में। किंतु वैज्ञानिक स्तर पर इन तथाकथित पराभौतिक विलक्षण घटनाओं का अध्ययन उन्नीसवीं शताब्दी की देन है। इससे पूर्व इन तथाकथित रहस्यमय क्रियाव्यापारों को समझने की दिशा में कोई संगठित वैज्ञानिक प्रयत्न नहीं हुआ। आधुनिक परामनोविज्ञान का प्रारंभ सन् 1882 से ही मानना चाहिए जिस वर्ष लंदन में परामनसिकीय अनुसंधान के लिए "सोसाइटी फॉर साइकिकल रिसर्च" (एस. पी. आर.) की स्थापना हुई। यद्यपि इससे पहले भी कैंब्रिजमें "घोस्ट सोसाइटी", तथा ऑक्सफोर्ड में "फैस्मेटोलाजिकल सोसाइटी" जैसे संस्थान रह चुके थे, तथापि एक संगठित वैज्ञानिक प्रयत्न का आरंभ "एस. पी. आर." की स्थापना से ही हुआ जिसकी पहली बैठक 17 जुलाई 1882 ई. में प्रसिद्ध दार्शनिक हेनरी सिजविक, की अध्यक्षता में हुई। इसके संस्थापकों में हेनरी सिजविक, उनक पत्नी ई. एम. सिजविक, आर्थर तथा गेराल्ड बाल्फोर, लार्ड रेले, एफ. डब्ल्यू. एच. मायर्स तथा भौतिक शास्त्री सर विलियम बैरेट थे।
संस्थान का उद्देश्य इन तथाकथित रहस्यमय प्रतीत होनेवाली घटनाओं को वैज्ञानिक ढंग से समझना, विचारसंक्रमण, दूरज्ञान, पूर्वाभास, प्रेतछाया, सम्मोहन आदि के दावों की वैज्ञानिक तथा निष्पक्ष जाँच करना था। संस्था की "प्रोसीडिंग्स" तथा शोधपत्रिकाएँ, जिनकी संख्या अब सौ से भी अधिक पहुँच चुकी है, अनेक प्रयोगात्मक अध्ययनों से भरी हुई हैं। संस्थान से सर ओलिवर लाज, हेनरी वर्गसाँ, गिल्बर्ट मरे, विलियम मैक्डूगल, प्रोफेसर सी. डी. ब्राड, प्रो॰ एच. एच. प्राइस, तथा प्रो॰ एफ. सी. एस. शिलर जैसे विख्यात मनोवैज्ञानिक संबंधित हैं। बाद में इसी प्रकार के कुछ अन्य अनुसंधानकेंद्र दूसरे देशों में भी खुले। "अमरीकन सोसाइटी फॉर साइकिकल रिसर्च" की स्थापना सन् 1884 ई. में हुई और उसके संस्थापक सदस्य विलियम जेम्स इस संस्था से जीवनपर्यत संबंधित रहे। अमरीका में इस दिशा में कदम उठानेवाले लोगों में रिचार्ड हाउसन, एस. न्युकोंब, स्टेनले हॉल, मार्टन प्रिंस, तथा डब्ल्यू. एफ. प्रिंस प्रमुख हैं। वास्टन, पेरिस, हालैंड, डेनमार्क, नार्वे, पोलैंड आदि में भी परामानसिकीय अनुसंधानकेंद्र स्थापित हुए हैं। ग्रोनिजन विश्वविद्यालय, हालैंड, हारवर्ड वि. वि., ड्यूक वि. वि. तथा नार्थ कैरोलिना वि. वि. में भी इस दिशा में प्राथमिक एवं महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं। एक अंतरराष्ट्रीय संस्थान "इंटरनेशनल कांग्रेस ऑव साइकिकल रिसर्च" की भी स्थापना हुई है। इसके वार्षिक अधिवेशनों में परामनोविज्ञान में रुचि रखनेवाले मनोवैज्ञानिक भाग लेते हैं। आधुनिक परामनोवैज्ञानिकों में जे. बी. राइन, प्रैट, गार्डनर मर्फी, जी. एन. एम. टिरेल कैरिंगटन, एम. जी. सोल, के. एम. गोल्डने के नाम उल्लेखनीय हैं।
एफ. डब्ल्यू. एच. मायर्स का दिया हुआ शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है "दूरानुभूति"। "ज्ञानवाहन के ज्ञात माध्यमों से स्वतंत्र एक मस्तिष्क से दूसरे मस्तिष्क में किसी प्रकार का भाव या विचारसंक्रमण" टेलीपैथी कहलाता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक "दूसरे व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं के बारे में अतींद्रिय ज्ञान" को ही दूरानुभूति की संज्ञा देते हैं।
इसका शाब्दिक अर्थ है "स्पष्ट दृष्टि"। इसका प्रयोग "द्रष्टा से दूर या परोक्ष में घटित होनेवाली घटनाओं या दृश्यों को देखने की शक्ति" के लिए किया जाता है, जब द्रष्टा और दृश्य के बीच कोई भौतिक या ऐंद्रिक संबंध नहीं स्थापित हो पाता। वस्तुओं या वस्तुनिष्ठ घटनाओं का अतींद्रिय प्रत्यक्ष" क्लेयरवाएंस तथा मानसिक घटनाओं का अतींद्रिय प्रत्यक्ष टेलीपैथी कहलाता है।
किसी भी प्रकार के तार्किक अनुमान के अभाव में भी भविष्य में घटित होनेवाली घटना की पहले से ही जानकारी प्राप्त कर लेना या उसका संकेत पा जाना पूर्वाभास कहलाता है।
बिना भौतिक संपर्क या किसी ज्ञात माध्यम के प्रभाव के निकट या दूर की किसी वस्तु में गति उत्पन्न करना मनोजनित गति कहलाता है। "पाल्टरजीस्ट" या ध्वनिप्रेतप्रभाव, किसी प्रकार के भौतिक या अन्य तथाकथित प्रेतात्मा के प्रभाव से तीव्र ध्वनि होना, घर के बर्तनों या सामानों का हिलना डुलना या टूटना, के प्रभाव भी मनोजनित गति के अंदर आते हैं।
अनेक प्रयोगात्मक अध्ययनों से उपर्युक्त क्रियाव्यापारों की पुष्टि भी हो चुकी है। कुछ अन्य घटनाएँ भी हैं जिन पर उपयुक्त प्रयोगात्मक अध्ययन अभी नहीं हो पाए है, किंतु वर्णनात्मक स्तर पर उनके प्रमाण मिले हैं, जैसे स्वचालित लेखन या भाषण, किसी अनजान एवं अनुपस्थित व्यक्ति का कोई सामान देखकर उसके बारे में बतलाना, प्रेतावास आदि।
प्रसिद्ध अमरीकन परामनोवैज्ञानिक जे. बी. राइन ने इन अजनबी एवं अनियमित प्रतीत होती घटनाओं को प्रयोगात्मक पद्धति की परिधि में बाँधने का प्रयत्न किया और उन्हें काफी सीमा तक सफलता भी प्राप्त हुई। उन्होंने 1934 में ड्यूक वि. वि. में परामनोविज्ञान की प्रयोगशाला की स्थापना की तथा अतींद्रिय ज्ञान (ई. एस. पी.) पर अनेक प्रयोगात्मक अध्ययन किए। "इ. एस. पी." शब्द 1930 के लगभग प्रो॰ राइन के कारण ही सामान्य प्रचलन में आया। इसका अर्थ है "सांवेदनिक या ऐंद्रिक ज्ञान के अभाव में भी किसी बाह्य घटना या प्रभाव का आभास, बोध या उसके प्रति प्रतिक्रिया।" यह शब्द सभी प्रकार के अतींद्रिय ज्ञान के लिए प्रयुक्त किया जाता है। (आधुनिक मनोवैज्ञानिक आजकल इ. एस. पी. के स्थान पर "साई" का प्रयोग करने लगे हैं क्योंकि अतींद्रिय ज्ञान अपने अर्थ में ही किसी विशिष्ट सिद्धांतबद्धता की ओर संकेत करता है।)
प्रो॰ राइन ने "जेनर कार्ड्स" का उपयोग किया जिनमें पाँच ताशों का एक सेट होता है। इन ताशों में अलग-अलग संकेत बने हैं, जैसे गुणा, गोला, तारक, टेढ़ी रेखाएँ तथा चतुर्भुज। प्रयोगकर्ता उसी कमरे में या दूसरे कमरे में "जेनर" ताश की गड्डी फेट लेता है और उसे उल्टा रखता है। प्रयोज्य कार्ड के चिह्न का अनुमान लगाता है। परिणाम निकालने में सामान्य संभावना सांख्यिकी का उपयोग किया जाता है जिसके अनुसार अनुमानों की सफलता की संभावना यहाँ 1/5 है, अर्थात् पचीस अनुमानों में पाँच। तर्क यह है कि यदि प्रयोज्य संभावित प्रत्याशी से अधिक सही अनुमान लगा लेता है तो निश्चित रूप से यह किसी अतींद्रिय प्रत्यक्ष की शक्ति की ओर संकेत करता हैं, यदि प्रयोग की दशाओं का नियंत्रण इस बात का संदेह न उत्पन्न होने दे कि प्रयोज्य को कोई ऐंद्रिक संकेत मिल गया होगा।
राइन ने इन जेनर कार्डों की सहायता से संभावना की सांख्यिकी को आधार मानकर अनेक प्रयोगात्मक दशाओं में अतींद्रिय प्रत्यक्ष, दूरानुभूति, परभावानुभूति तथा पूर्वाभास आदि पर अनेक अध्ययन किए।
आलोचकों ने संभावित त्रुटियों की ओर भी ध्यान दिलाया है जो निम्नलिखित हैं-
अधिक नियंत्रित प्रयोगात्मक दशाओं में तथा उपयुक्त प्रयोगात्मक प्रारूपों की सहायता से इन त्रुटियों को कम या समाप्त किया जा सकता है। अन्य अनेक अध्ययनों में दूरानुभूति तथा अतींद्रिय प्रत्यक्ष के प्रमाण मिले। जी. एन. एम. टिरेल ने एक प्रतिभासंपन्न प्रयोज्य के साथ परिमाणात्मक अनुसंधान किया। कैरिंगटन ने दूरानुभूति तथा पूर्वाभास के लिए "जेनर" चिह्नों के स्थान पर स्वतंत्र चिह्नों का प्रयोग किया। डाक्टर एस. जी. सोल ने अधिक नियंतित्र दशाओं में अतींद्रिय प्रक्रियाओं का अध्ययन किया तथा जैनर से भिन्न चिह्नोंवाले कार्डों का उपयोग किया।
अन्य अंग्रेज मनोवैज्ञानिकों तथा दार्शनिकों में कैंब्रिज विश्वविद्यालय के सी. डी. ब्राड, एच. एच. प्राइस तथा आर. एच. थूले अमरीका के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डाक्टर गार्डनर मरफी तथा श्मीडलर, उडस्फ, सी. बी. नाश, करलिस ओसिस, दार्शनिक डुकाश, मनोचिकित्सक मीरलू स्टीवेंसन तथा उल्मैन के नाम उल्लेखनीय हैं।
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