पंडित लेखराम (१८५८-१८९७), आर्य समाज के प्रमुख कार्यकर्ता एवं प्रचारक थे। उन्होने अपना सारा जीवन आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में लगा दिया। वे अहमदिया मुस्लिम समुदाय के नेता मिर्जा गुलाम अहमद से शास्त्रार्थ एवं उसके दुष्प्रचारों के खण्डन के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। पंडित लेखराम ने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए हिंदुओं को धर्म-परिवर्तन से रोका व शुद्धि अभियान के प्रणेता बने।
स्वामी दयानन्द का जीवनचरित् लिखने के उद्देश्य से उनके जीवन सम्बन्धी घटनाएँ इकट्ठी करने के सिलसिले में उन्हें भारत के अनेकानेक स्थानों का दौरा करना पड़ा। इस कारण उनका नाम 'आर्य मुसाफिर' पड़ गया। पं॰ लेखराम हिंदुओं को मुसलमान होने से बचाते थे। एक कट्टर मुसलमान ने ३ मार्च सन् १८९७ को ईद के दिन, 'शुद्धि' कराने के बहाने, धोखे से लाहौर में उनकी हत्या कर दी।
लेखराम का जन्म ८ चैत्र, संवत् १९१५ (१८५८ ई.) को झेलम जिला के तहसील चकवाल के सैदपुर गाँव (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। उनके पूर्वज महाराजा रणजीत सिंह फौज में थें। उनके पिता का नाम तारा सिंह एवं माता का नाम भाग भरी था।
उन्होंने आरम्भ में उर्दू-फारसी पढ़ी। बचपन से ही स्वाभिमानी और दृढ़ विचारो के थे। एक बार उनको पाठशाला में प्यास लगी, मौलवी से घर जाकर पानी पीने की इजाजत मांगी। मौलवी ने जूठे मटके से पानी पीने को कहाँ। उन्होंने न दोबारा मौलवी से घर जाने की इजाजत मांगी और न ही जूठा पानी पिया। सारा दिन प्यासा ही बिता दिया। पढ़ने का उनको बहुत शौक था। मुंशी कन्हयालाल अलाख्धारी की पुस्तकों से उनको स्वामी दयानंद सरस्वती का पता चला। लेखराम जी ने ऋषि दयानन्द के सभी ग्रंथो का स्वाध्याय आरम्भ कर दिया।
सत्रह वर्ष की उम्र में वे सन् १८७५ ईसवी में पेशावर पुलिस में भरती हुए और उन्नति करके सारजेंट बन गए। इन दिनों इनपर 'गीता' का बड़ा प्रभाव था। दयानंद सरस्वती से प्रभावित होकर उन्होंने संवत् १९३७ विक्रमी में पेशावर में आर्यसमाज की स्थापना की। १७ मई सन् १८८० को उन्होंने अजमेर में स्वामी जी से भेंट की। शंकासमाधान के परिणामस्वरूप वे उनके अनन्य भक्त बन गए। लेखराम जी ने सन् १८८४ में पुलिस की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। अब उनका सारा समय वैदिक धर्मप्रचार में लगने लगा। कादियाँ के अहमदियों ने हिंदू धर्म के विरुद्ध कई पुस्तकें लिखी थीं। लेखराम जी ने उनका जोरदार खण्डन किया।
कोट छुट्टा डेरा गाजी खान (अब पाकिस्तान) में कुछ हिन्दू युवकों को बहकाकर मुस्लिम बनाया जा रहा था। पंडित जी के व्याखान सुनने पर ऐसा रंग चढ़ा की वे वैदिकधर्मी बन गए। इनके नाम थे महाशय चोखानंद, श्री छबीलदास व महाशय खूबचंद।
जम्मू के श्री ठाकुरदास मुस्लमान होने जा रहे थे। पंडित जी उनसे जम्मू जाकर मिले और उन्हें मुसलमान होने से बचा लिया।
१८९१ में सिंध के हैदराबाद के श्रीमन्त सूर्यमल की संतान ने इस्लाम मत स्वीकार करने का मन बना लिया। पंडित पूर्णानन्द जी को लेकर आप हैदराबाद पहुंचे। उस धनी परिवार के लड़के पंडित जी से मिलने के लिए तैयार नहीं थे। पर आप कहाँ मानने वाले थे। चार बार सेठ जी के पुत्र मेवाराम जी से मिलकर यह आग्रह किया की मौल्वियो से उनका शास्त्राथ करवा दे. मौलवी सय्यद मुहम्मद अली शाह को तो प्रथम बार में ही निरुत्तर कर दिया.उसके बाद चार और मौल्वियो से पत्रों से विचार किया। आपने उनके सम्मूख मुस्लमान मौल्वियो को हराकर उनकी धर्म रक्षा की.
वही सिंध में पंडित जी को पता चला की कुछ युवक ईसाई बनने वाले हैं। आप वहा पहुच गए और अपने भाषण से वैदिक धर्म के विषय में प्रकाश डाला। आदम और इव पर एक पुस्तक लिख कर बांटी जिससे कई युवक ईसाई होने से बच गए।
पंडित जी से दीक्षा लेकर कुछ आर्यों ने १८८५ में गंगोह जिला सहारनपुर की आर्यसमाज की स्थापना की थी। कुछ वर्ष पहले तीन अग्रवाल भाई पतित होकर मुस्लमान बन गए थे। आर्य समाज ने १८९४ में उन्हें शुद्ध करके वापिस वैदिक धर्मी बना दिया। आर्य समाज के विरुद्ध गंगोह में तूफान ही आ गया। श्री रेह्तूलाल जी भी आर्यसमाज के सदस्य थे। उनके पिता ने उनके शुद्धि में शामिल होने से मन किया पर वे नहीं माने। पिता ने बिरादरी का साथ दिया। उनकी पुत्र से बातचीत बंद हो गयी। पर रेह्तुलाल जी कहाँ मानने वाले थे? उनका कहना था गृह त्याग कर सकता हूँ, पर आर्यसमाज नहीं छोड़ सकता । इस प्रकार पंडित लेखराम के तप का प्रभाव था की उनके शिष्यों में भी वैदिक सिद्धांत की रक्षा हेतु भावना कूट-कूट कर भरी थी।
घासीपुर जिला मुज्जफरनगर में कुछ चौधरी मुस्लमान बनने जा रहे थे। पंडित जी वह एक तय की गयी तिथि को पहुँच गए। उनकी दाड़ी बढ़ी हुई थी और साथ में मुछे भी थी। एक मौलाना ने उन्हें मुस्लमान समझा और पूछा क्यों जी यह दाढ़ी तो ठीक हैं पर इन मुछो का क्या राज हैं। पंडित जी बोले दाढ़ी तो बकरे की होती हैं मुछे तो शेर की होती हैं। मौलाना समाज गया की यह व्यक्ति मुस्लमान नहीं हैं। तब पंडित जी ने अपना परिचय देकर शास्त्रार्थ के लिए ललकारा. सभी मौलानाओ को परास्त करने के बाद पंडित जी ने वैदिक धर्म पर भाषण देकर सभी चौधरियो को मुस्लमान बन्ने से बचा लिया।
१८९६ की एक घटना पंडित लेखराम के जीवन से हमें सर्वदा प्रेरणा देने वाली बनी रहेगी. पंडित जी प्रचार से वापिस आये तो उन्हें पता चला की उनका पुत्र बीमार हैं। तभी उन्हें पता चला की मुस्तफाबाद में पांच हिन्दू मुस्लमान होने वाले हैं। आप घर जाकर दो घंटे में वापिस आ गए और मुस्तफाबाद के लिए निकल गए। अपने कहाँ की मुझे अपने एक पुत्र से जाति के पांच पुत्र अधिक प्यारे हैं। पीछे से आपका सवा साल का इकलोता पुत्र चल बसा. पंडित जी के पास शोक करने का समय कहाँ था। आप वापिस आकार वेद प्रचार के लिए वजीराबाद चले गए।
पंडित जी की तर्क शक्ति गज़ब थी। आपसे एक बार किसी ने प्रश्न किया की हिन्दू इतनी बड़ी संख्या में मुस्लमान कैसे हो गए। अपने सात कारण बताये-
पंडित जी के काल में कादियान, जिला गुरुदासपुर पंजाब में इस्लाम के एक नए मत की वृद्धि हुई जिसकी स्थापना मिर्जा गुलाम अहमद ने करी थी। इस्लाम के मानने वाले मुहम्मद साहिब को आखिरी पैगम्बर मानते हैं, मिर्जा ने अपने आपको कभी कृष्ण, कभी नानक, कभी ईसा मसीह कभी इस्लाम का आखिरी पैगम्बर घोषित कर दिया तथा अपने नवीन मत को चलने के लिए नई नई भविष्यवानिया और इल्हामो का ढोल पीटने लगा.
एक उदहारण मिर्जा द्वारा लिखित पुस्तक “वही हमारा कृष्ण ” से लेते हैं। इस पुस्तक में लिखा हैं – "उसने (ईश्वर ने) हिन्दुओं की उन्नति और सुधार के लिए निश्कलंकी अवतार को भेज दिया है जो ठीक उस युग में आया है जिस युग की कृष्ण जी ने पाहिले से सूचना दे रखी है। उस निष्कलंक अवतार का नाम मिर्जा गुलाम अहमद हैं जो कादियान जिला गुरुदासपुर में प्रकट हुए हैं। खुदा ने उनके हाथ पर सहस्त्रों निशान दिखाये हैं। जो लोग उन पर इमान लेते हैं उनको खुदा ताला बड़ा नूर बख्शता हैं। उनकी प्रार्थनाए सुनता है और उनकी सिफारिश पर लोगों के कष्ट दूर करता है, प्रतिष्ठा देता है। आपको चाहिए की उनकी शिक्षाओं को पढ़ कर नूर प्राप्त करें। यदि कोई संदेह हो तो परमात्मा से प्रार्थना करें कि हे परमेश्वर! यदि यह व्यक्ति जो तेरी और से होने की घोषणा करता है और अपने आपको निष्कलंक अवतार कहता हैं, अपनी घोषणा में सच्चा हैं तो उसके मानने की हमे शक्ति प्रदान कर और हमारे मन को इस पर इमान लेन को खोल दे। पुन आप देखेंगे की परमात्मा अवश्य आपको परोक्ष निशानों से उसकी सत्यता पर निश्चय दिलवाएगा। तो आप सत्य हृदय से मेरी और प्रेरित हों और अपनी कठिनाइयों के लिए प्रार्थना करावें। अल्लाह ताला आपकी कठिनाइयों को दूर करेगा और मुराद पूरी करेगा। अल्लाह आपके साथ हो। पृष्ठ ६,७.८ वही हमारा कृष्ण। "
पाठकगन स्वयं समझ गए होंगे की किस प्रकार मिर्जा अपनी कुटिल नीतिओं से मासूम हिन्दुओं को बेवकूफ बनाने की चेष्ठा कर रहा था पर पंडित लेखराम जैसे रणवीर के रहते उसकी दाल नहीं गली।
पंडित जी सत्य असत्य का निर्णय करने के लिए मिर्जा के आगे तीन प्रश्न रखे=
पंडित जी ने उससे पत्र लिखना जारी रखा। तंग आकर मिर्जा ने लिखा की यहीं कादियान आकार क्यों नहीं चमत्कार देख लेते। सोचा था की न पंडित जी का कादियान आना होगा और बला भी टल जाएगी। पर पंडित जी अपनी धुन के पक्के थे। मिर्जा गुलाम अहमद की कोठी पर कादियान पहुँच गए। दो मास तक पंडित जी क़दियन में रहे पर मिर्जा गुलाम अहमद कोई भी चमत्कार नहीं दिखा सका।
इस खीज से आर्यसमाज और पंडित लेखराम को अपना कट्टर दुश्मन मानकर मिर्जा ने आर्यसमाज के विरुद्ध दुष्प्रचार आरम्भ कर दिया।
मिर्जा ने ब्राहिने अहमदिया नामक पुस्तक चंदा मांग कर छपवाई. पंडित जी ने उसका उत्तर तकज़ीब ब्राहिने अहमदिया लिखकर दिया।
मिर्जा ने सुरमाये चश्मे आर्या (आर्यों की आंख का सुरमा) लिखा जिसका पंडित जी ने उत्तर नुस्खाये खब्ते अहमदिया (अहमदी खब्त का ईलाज) लिख कर दिया. मिर्जा ने सुरमाये चश्मे आर्या में यह भविष्यवाणी करी की एक वर्ष के भीतर पंडित जी की मौत हो जाएगी. मिर्जा की यह भविष्यवाणी गलत निकली और पंडित इस बात के ११ वर्ष बाद तक जीवित रहे.
पंडित जी की तपस्या से लाखों हिन्दू युवक मुस्लमान होने से बच गए।
पण्डित लेखराम ने ३३ पुस्तकों की रचना की। उनकी सभी कृतियों को एकीकृत रूप में कुलयात-ए-आर्य मुसाफिर नाम से प्रकाशित किया गया है।
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लेखराम जी एक श्रेष्ठ लेखक थे। आर्य प्रतिनिधि सभा ने ऋषि दयानन्द के जीवन पर एक विस्तृत एवं प्रामाणिक ग्रन्थ तैयार करने की योजना बनायी। यह दायित्व उन्हें ही दिया गया। उन्होंने देश भर में भ्रमण कर अनेक भाषाओं में प्रकाशित सामग्री एकत्रित की। इसके बाद वे लाहौर में बैठकर इस ग्रन्थ को लिखना चाहते थे; पर दुर्भाग्यवश यह कार्य पूरा नहीं हो सका।
मार्च १८९७ में एक व्यक्ति लाहौर में पंडित लेखराम के पास आया। उसका कहना था कि वो पहले हिन्दू था बाद में मुस्लमान हो गया, अब फिर से शुद्ध होकर हिन्दू बनना चाहता है। वह पंडित जी के घर में ही रहने लगा और वही भोजन करने लगा। 6 मार्च 1897 को पंडित जी घर में स्वामी दयानन्द के जीवन चरित्र पर कार्य कर रहे थे। तभी उन्होंने एक अंगड़ाई ली कि उस दुष्ट ने पंडित जी को छुरा मर दिया और भाग गया। पंडित जी को हस्पताल लेकर जाया गया जहाँ रात को दो बजे उन्होंने प्राण त्याग दिए। पंडित जी को अपने प्राणों की चिंता नहीं थी उन्हें चिंता थी तो वैदिक धर्म की।
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