न्यायपालिका किसी भी जनतंत्र के तीन प्रमुख अंगों में से एक है। अन्य दो अंग हैं - कार्यपालिका और विधायिका। न्यायपालिका, संप्रभुतासम्पन्न राज्य की तरफ से कानून का सही अर्थ निकालती है एवं कानून के अनुसार न चलने वालों पर दण्ड निर्धारित करती है। इस प्रकार न्यायपालिका विवादों को सुलझाने एवं अपराध कम करने का काम करती है जो अप्रत्यक्ष रूप से समाज के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त के अनुरूप न्यायपालिका स्वयं कोई नियम नहीं बनाती और न ही यह कानून का क्रियान्यवन कराती है।
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सबको समान न्याय सुनिश्चित करना न्यायपालिका का असली काम है। न्यायपालिका के अन्तर्गत कोई एक सर्वोच्च न्यायालय होता है एवं उसके अधीन विभिन्न न्यायालय (कोर्ट) होते हैं।
भारत में जूरी मुकदमों का इतिहास यूरोपीय उपनिवेशवाद की अवधि का है। 1665 में, मद्रास में बारह अंग्रेजी और पुर्तगाली जूरी सदस्यों की एक पेटिट जूरी ने श्रीमती एसेंशिया डावेस को बरी कर दिया, जो अपने दास दास की हत्या के मुकदमे में थीं। भारत में कंपनी के शासन की अवधि के दौरान, ईस्ट इंडिया कंपनी (ईआईसी) नियंत्रण के तहत भारतीय क्षेत्रों में दोहरे न्यायालय प्रणाली क्षेत्रों के भीतर जूरी परीक्षण लागू किए गए थे। प्रेसीडेंसी कस्बों (जैसे कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास) में, क्राउन कोर्ट ने आपराधिक मामलों में यूरोपीय और भारतीय प्रतिवादियों का न्याय करने के लिए जूरी नियुक्त की। प्रेसीडेंसी नगरों के बाहर, कंपनी न्यायालयों में ईआईसी अधिकारियों के कर्मचारी जूरी के उपयोग के बिना आपराधिक और दीवानी दोनों मामलों का न्याय करते थे।
1860 में, ब्रिटिश क्राउन द्वारा भारत में EIC की संपत्ति पर नियंत्रण ग्रहण करने के बाद, भारतीय दंड संहिता को अपनाया गया था। एक साल बाद, दंड प्रक्रिया संहिता को अपनाया गया। इन नए नियमों ने निर्धारित किया कि केवल प्रेसीडेंसी कस्बों के उच्च न्यायालयों में आपराधिक जूरी अनिवार्य थी; ब्रिटिश भारत के अन्य सभी हिस्सों में, वे वैकल्पिक थे और शायद ही कभी उपयोग किए जाते थे। ऐसे मामलों में जहां प्रतिवादी या तो यूरोपीय या अमेरिकी थे, जूरी के कम से कम आधे को यूरोपीय या अमेरिकी पुरुष होने की आवश्यकता थी, इस औचित्य के साथ कि इन मामलों में जूरी को "[प्रतिवादी की] भावनाओं और स्वभाव से परिचित होना था।"
20वीं शताब्दी के दौरान, ब्रिटिश भारत में जूरी प्रणाली की औपनिवेशिक अधिकारियों और स्वतंत्रता कार्यकर्ताओं दोनों की आलोचना हुई। इस प्रणाली को 1950 के भारतीय संविधान में कोई उल्लेख नहीं मिला और 1947 में स्वतंत्रता के बाद कई भारतीय कानूनी अधिकार क्षेत्र में अक्सर इसे लागू नहीं किया गया। 1958 में, भारत के विधि आयोग ने भारत सरकार को आयोग द्वारा प्रस्तुत चौदहवीं रिपोर्ट में इसके उन्मूलन की सिफारिश की। 1960 के दशक के दौरान भारत में जूरी परीक्षणों को धीरे-धीरे समाप्त कर दिया गया, 1973 की आपराधिक प्रक्रिया संहिता के साथ परिणति हुई, जो 21वीं सदी में प्रभावी बनी हुई है।
भारत की स्वतंत्र न्यायपालिका का शीर्ष सर्वोच्च न्यायालय है, जिसका प्रधान प्रधान न्यायाधीश होता है। सर्वोच्च न्यायालय को अपने नये मामलों तथा उच्च न्यायालयों के विवादों, दोनो को देखने का अधिकार है। भारत में 25 उच्च न्यायालय हैं, जिनके अधिकार और उत्तरदायित्व सर्वोच्च न्यायालय की अपेक्षा सीमित हैं। न्यायपालिका और व्यवस्थापिका के परस्पर मतभेद या विवाद का सुलह राष्ट्रपति करता है।
राज्य न्यायपालिका में तीन प्रकार की पीठें होती हैं-
एकल जिसके निर्णय को उच्च न्यायालय की डिवीजनल/खंडपीठ/सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है
खंड पीठ 2 या 3 जजों के मेल से बनी होती है जिसके निर्णय केवल उच्चतम न्यायालय में चुनौती पा सकते हैं
संवैधानिक/फुल बेंच सभी संवैधानिक व्याख्या से संबधित वाद इस प्रकार की पीठ सुनती है इसमे कम से कम पाँच जज होते हैं
इस स्तर पर सिविल आपराधिक मामलों की सुनवाई अलग अलग होती है इस स्तर पर सिविल तथा सेशन कोर्ट अलग अलग होते है इस स्तर के जज सामान्य भर्ती परीक्षा के आधार पर भर्ती होते है उनकी नियुक्ति राज्यपाल राज्य मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर करता है।
ये अतिरिक्त सत्र न्यायालय है इनका
गठन दीर्घावधि से लंबित अपराध तथा अंडर ट्रायल वादों के तीव्रता से निपटारे हेतु किया गया है।
इसके पीछे कारण यह था कि वाद लम्बा चलने से न्याय की क्षति होती है तथा न्याय की निरोधक शक्ति कम पड जाती है जेल में भीड बढ जाती है 10 वे वित्त आयोग की सलाह पर केद्र सरकार ने राज्य सरकारों को 1 अप्रैल 2001 से 1734 फास्ट ट्रेक कोर्ट गठित करने का आदेश दिया अतिरिक्त सेशन जज याँ उंचे पद से सेवानिवृत जज इस प्रकार के कोर्टो में जज होता है इस प्रकार के कोर्टो में वाद लंबित करना संभव नहीं होता है हर वाद को निर्धारित स्मय में निपटाना होता है।
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