देवबन्दी (देवबंदी) (उर्दू: دیو بندی, अंग्रेज़ी: Deobandi) हनफ़ी पन्थ की एक प्रमुख विचारधारा है जिसमें कुरआन व शरियत का कड़ाई से पालन करने पर ज़ोर है। यह भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित दारुल उलूम देवबन्द से प्रचारित हुई है जो विश्व में इस्लामी शिक्षा का दूसरा बड़ा केन्द्र है। इसके अनुयायी इसे एक शुद्ध इस्लामी विचारधारा मानते हैं। ये इस्लाम के उस तरीके पर अमल करते हैं, जो अल्लाह के नबी हजरत मुहम्मद स० ले कर आये थे, तथा जिसे ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन (अबु बकर अस-सिद्दीक़, उमर इब्न अल-ख़त्ताब, उस्मान इब्न अफ़्फ़ान और अली इब्न अबू तालिब), सहाबा-ए-कराम, ताबेईन ने अपनाया तथा प्रचार-प्रसार किया।
देवबंदी सुन्नी इस्लाम (मुख्य रूप से हनफी) के भीतर एक पुनरुद्धारवादी आंदोलन है। यह भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में केंद्रित है, जो यूनाइटेड किंगडम में फैल गया है, और दक्षिण अफ्रीका में इसकी उपस्थिति है। यह नाम देवबंद , भारत से निकला है, जहां स्कूल दारुल उलूम देवबंद स्थित है। आंदोलन विद्वान शाह वलीलुल्लाह मुहद्दिस देहलवी (1703-1762), से प्रेरित था और एक दशक पहले उत्तरी भारत में असफल सिपाही विद्रोह के चलते 1867 में इसकी स्थापना हुई थी। इस्लामी दुनिया में दारुल उलूम देवबन्द का एक विशेष स्थान है जिसने पूरे क्षेत्र को ही नहीं, पूरी दुनिया के मुसलमानों को प्रभावित किया है। दारुल उलूम देवबन्द केवल इस्लामी विश्वविद्यालय ही नहीं एक विचारधारा है,इस्लाम को अपने मूल और शुद्ध रूप में प्रसारित करता है। इसलिए मुसलमानों में इस विचाधारा से प्रभावित मुसलमानों को ”देवबन्दी“ कहा जाता है।
देवबन्द उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण नगरों में गिना जाता है जो आबादी के लिहाज़ से तो एक लाख से कुछ ज़्यादा आबादी का एक छोटा सा नगर है। लेकिन दारुल उलूम ने इस नगर को बड़े-बड़े नगरों से भारी व मशहूर बना दिया है, जो न केवल अपने गर्भ में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रखता है,
आज देवबन्द इस्लामी शिक्षा व दर्शन के प्रचार के व प्रसार के लिए संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध है।इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति में जो एकता हिन्दुस्तान में देखने को मिलती है उसका सीधा-साधा श्रेय देवबन्द दारुल उलूम को जाता है। यह मदरसा मुख्य रूप से उच्च अरबी व इस्लामी शिक्षा का केंद्र बिन्दु है। दारुल उलूम ने न केवल इस्लामिक शोध व सहित्य के संबंध में विशेष भूमिका निभाई है, बल्कि भारतीय समाज व पर्यावरण में इस्लामिक सोच व संस्कृति को नवीनतम सोच प्रदान किए ।
दारुल उलूम देवबन्द की आधारशिला 30 मई 1866 में हाजी आबिद हुसैन व मौलाना क़ासिम नानौतवी द्वारा रखी गयी थी। वह समय भारत के इतिहास में राजनैतिक उथल-पुथल व तनाव का समय था, उस समय अंग्रेज़ों के विरूद्ध लड़े गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857 ई.) की असफलता के बादल छंट भी न पाये थे और अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति दमनचक्र तेज़ कर दिया गया था, चारों ओर हा-हा-कार मची थी। अंग्रेजों ने अपनी संपूर्ण शक्ति से स्वतंत्रता आंदोलन (1857) को कुचल कर रख दिया था। अधिकांश आंदोलनकारी शहीद कर दिये गये थे, (देवबन्द जैसी छोटी बस्ती में 44 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था) और शेष को गिरफ्तार कर लिया गया था, ऐसे सुलगते माहौल में देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानियों पर निराशाओं के प्रहार होने लगे थे। चारो ओर खलबली मची हुई थी। एक प्रश्न चिन्ह सामने था कि किस प्रकार भारत के बिखरे हुए समुदायों को एकजुट किया जाये, किस प्रकार भारतीय संस्कृति और शिक्षा जो टूटती और बिखरती जा रही थी, की सुरक्षा की जाये। उस समय के नेतृत्व में यह अहसास जागा कि भारतीय जीर्ण व खंडित समाज उस समय तक विशाल एवं ज़ालिम ब्रिटिश साम्राज्य के मुक़ाबले नहीं टिक सकता, जब तक सभी वर्गों, धर्मों व समुदायों के लोगों को देश प्रेम और देश भक्त के जल में स्नान कराकर एक सूत्र में न पिरो दिया जाये। इस कार्य के लिए न केवल कुशल व देशभक्त नेतृत्व की आवश्यकता थी, बल्कि उन लोगों व संस्थाओं की आवश्यकता थी जो धर्म व जाति से ऊपर उठकर देश के लिए बलिदान कर सकें।
इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जिन महान स्वतंत्रता सेनानियों व संस्थानों ने धर्मनिरपेक्षता व देशभक्ति का पाठ पढ़ाया उनमें दारुल उलूम देवबन्द की कामयाबी को भुलाया नहीं जा सकता। स्वर्गीये मौलाना महमूद हसन (विख्यात अध्यापक व संरक्षक दारुल उलूम देवबन्द) उन में से एक थे जिनके क़लम,विभाजक सोच, आचार व व्यवहार से एक बड़ा समुदाय प्रभावित था, उन्होंने न केवल भारत में वरन विदेशों (अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, तुर्की, सऊदी अरब व मिश्र) में जाकर अंग्रेज़ों की भत्र्सना की और भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों का जी खोलकर अंग्रेज़ी विरोध किया। उदाहरणतयः यह कि उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान व इरान को इस बात पर राज़ी कर लिया कि यदि तुर्की की सेना भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध लड़ने पर तैयार हो तो ज़मीन के रास्ते तुर्की की सेना को आक्रमण के लिए आने देंगे और भारत को आज़ाद करा देंगे।
शेखुल हिन्द ने अपने सुप्रिम शिष्यों व प्रभावित व्यक्तियों के मध्यम से angrezon ke विरूद्ध प्रचार आरंभ किया और हजारों मुस्लिम आंदोलनकारियों को ब्रिटिश साम्राज्य केविरोध में चल रहे राष्ट्रविरोध में शामिल कर दिया। इनके प्रमुख शिष्य मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उबैदुल्ला सिंधी थे जो जीवन पर्यन्त अपने गुरू की शिक्षाआंे पर चलते रहे और अपने देशप्रेमी भावनाओं व नीतियों के कारण ही भारत के मुसलमान स्वतंत्रता सेनानियों व आंदोलनकारियों में एक बड़े आंदोलकारी के रूप में जाने जाते हैं।
सन 1914 ई. में मौलाना उबैदुल्ला सिंधी ने अफ़गानिस्तान जाकर angrezon के विरूद्ध अभियान चलाया और काबुल में रहते हुए भारत की स्र्वप्रथम आज़ाद सरकार स्थापित की। यहीं पर रहकर उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस की एक शाख क़ायम की जो बाद में (1922 ई. में) मूल कांग्रेस संगठन इंडियन नेशनल कांग्रेस में विलय कर दी गयी। शेखुल हिन्द 1915 ई. में हिजाज़ (सऊदी अरब का पहला नाम था) चले गये, उन्होने वहां रहते हुए अपने साथियों द्वारा तुर्की से संपर्क बना कर सैनिक सहायता की मांग की।
सन 1916 ई. में इसी संबंध में शेखुल हिन्द इस्तमबूल जाना चहते थे। मदीने में उस समय तुर्की का गवर्नर ग़ालिब पाशा तैनात था उसने शेखुल हिन्द को इस्तमबूल के बजाये तुर्की जाने की लिए कहा परन्तु उसी समय तुर्की के युद्धमंत्री अनवर पाशा हिजाज़ पहुंच गये। शेखुल हिन्द ने उनसे मुलाक़ात की और अपने आंदोलन के बारे में बताया। अनवर पाशा ने इनके प्रति सहानुभूति प्रकट की और angrezon के विरूद्ध युद्ध करने की एक गुप्त योजना तैयार की। हिजाज़ से यह गुप्त योजना, गुप्त रूप से शेखुल हिन्द ने अपने शिष्य मौलाना उबैदुल्ला सिंधी को अफगानिस्तान भेजा, मौलाना सिंधी ने इसका उत्तर एक रेशमी रूमाल पर लिखकर भेजा, इसी प्रकार रूमालों पर पत्र व्यवहार चलता रहा। यह गुप्त सिलसिला ”तहरीक ए रेशमी रूमाल“ के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। इसके सम्बंध में सर रोलेट ने लिखा है कि “ब्रिटिश सरकार इन गतिविधियों पर हक्का बक्का थी“।
सन 1916 ई. में अंग्रेज़ों ने किसी प्रकार शेखुल हिन्द को मदीने में गिरफ्तार कर लिया। हिजाज़ से उन्हें मिश्र लाया गया और फिर रोम सागर के एक टापू मालटा में उनके साथयों मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उज़ैर गुल हकीम नुसरत, मौलाना वहीद अहमद सहित जेल में डाल दिया था। इन सबको चार वर्ष की बामुशक्कत सजा दी गयी। सन 1920 में इन आंदोलनकारियों की रिहाई हुई।
शेखुल हिन्द की -रेशमी रूमाल, मौलाना मदनी की सन 1936 से सन 1945 तक जेल यात्रा, मौलाना उजै़रगुल, हकीम नुसरत, मौलाना वहीद अहमद का मालटा जेल की पीड़ा झेलना, मौलाना सिंधी की सेवायें इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण हैं कि दारुल उलूम ने स्वतंत्रता संग्राम में मुख्य भूमिका निभाई है। इस संस्था ने ऐसेे स्वतंत्रता सेनानी पैदा किये जिन्होंने अपनेे देश के लिए अपने प्राणों को दांव पर लगा दिया। ए. डब्ल्यू मायर सियर पुलिस अधीक्षक (सीआई़डी राजनैतिक) पंजाब ने अपनी रिपोर्ट नं. 122 में लिखा था जो आज भी इंडिया आफिस लंदन में सुरक्षित है कि ”मौलाना महमूद हसन (शेखुल हिन्द) जिन्हें रेशमी रूमाल पर पत्र लिखे गये, सन 1915 ई. को हिजरत करके हिजाज़ चले गये थे, रेशमी ख़तूत की साजिश में जो मौलवी सम्मिलित हैं, वह लगभग सभी देवबन्द स्कूल से संबंधित हैं।
गुलाम रसूल मेहर ने अपनी पुस्तक ”सरगुज़स्त ए मुजाहिदीन“ (उर्दू) के पृष्ठ नं. 552 पर लिखा है कि ”मेरे अध्ययन और विचार का सारांश यह है कि हज़रत शेखुल हिन्द अपनी जि़न्दगी के प्रारंभ में एक रणनीति का ख़ाका तैयार कर चुके थे और इसे कार्यान्वित करने की कोशिश उन्होंने उस समय आरंभ कर दी थी जब हिन्दुस्तान के अंदर राजनीतिक गतिविधियां केवल नाममात्र थी“।
उड़ीसा के गवर्नर श्री बिशम्भर नाथ पाण्डे ने एक लेख में लिखा है कि दारुल उलूम देवबन्द, दिल्ली, दीनापुर, अमरोत, कराची, खेडा और चकवाल में स्थापित थी। भारत के बाहर उत्तर पशिमी सीमा पर छोटी सी स्वतंत्र रियासत ”यागि़स्तान“ भारत के इस्लाम का केंद्र था, यह आंदोलन केवल मुसलमानों का न था बल्कि पंजाब व बंगाल की इंकलाबी पार्टी के सदस्यों को भी इसमें शामिल किया था।
इसी प्रकार असंख्यक तथ्य ऐसे हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि दारुल उलूम देवबन्द स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात भी देशप्रेम पाठ पढ़ाता रहा है जैसे सन 1947 ई. में भारत को आज़ादी तो मिली, परन्तु साथ-साथ नफरतें आबादियों का स्थानांतरण व बंटवारा जैसे कटु अनुभव का समय भी आया, परन्तु दारुल उलूम की विचारधारा टस से मस न हुई। इसने डट कर इन सबका विरोध किया और इंडियन नेशनल कांग्रेस के संविधान में अपना समर्थन व्यक्त कर पाकिस्तान का विरोध किया तथा अपने देशप्रेम व सेकुलरता का उदाहरण दिया। आज भी दारुल उलूम अपने देेेेेेेशप्रेम की विचार धारा के लिए संपूर्ण भारत में मशहूर है।
दारुल उलूम देवबन्द में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा, भोजन, आवास व पुस्तकों की सुविधा दी जाती है। दारुल उलूम देवबन्द ने अपनी स्थापना से आज (हिजरी 1283 से 1424) सन 2002 तक लगभग 95 हजार महान शिक्षक, लेखक आदि पैदा किये हैं। दारुल उलूम में इस्लामियात, अरबी, फारसी, उर्दू की शिक्षा के साथ साथ किताबत (हाथ से लिखने की कला) दर्जी का कार्य व किताबों पर जिल्दबन्दी, उर्दू, अरबी, अंग्रेज़ी, हिन्दी में कम्प्यूटर तथा उर्दू पत्रकारिता का कोर्स भी कराया जाता है। दारुल उलूम में प्रवेश के लिए लिखित परीक्षा व साक्षात्कार से गुज़रना पड़ता है। प्रवेश के बाद शिक्षा मुफ्त दी जाती है। दारुल उलूम देवबन्द ने अपने दार्शन व विचारधारा से मुसलमानों में एक नई उम्मीद पैदा की है जिस कारण देवबन्द स्कूल का प्रभाव भारतीय महादीप पर गहरा है।
देवबंदी आंदोलन ब्रिटिश उपनिवेशवाद की प्रतिक्रिया के रूप में विकसित हुआ जिसे भारतीय विद्वानों के एक समूह ने देखा - जिसमें रशीद अहमद गंगोही , मुहम्मद याकूब नानाउतावी , शाह रफी अल-दीन, सय्यद मुहम्मद अबीद, जुल्फिकार अली, फधल अल-रहमान उस्मानी और मुहम्मद कासिम नानोत्वी -। इस समूह ने एक इस्लामी पाठशाला की स्थापना की जिसे दारुल उलूम देवबंद कहा जाता है, जहां इस्लामी और देवबंदी की साम्राज्यवाद विरोधी विचारधारा विकसित हुई। समय के साथ, अल-अजहर विश्वविद्यालय, काहिरा के बाद दारुल उलूम देवबंद इस्लामिक शिक्षण और शोध का दूसरा सबसे बड़ा केंद्र बिंदु बन गया। जमीयत उलेमा-ए-हिन्द और तबलीगी जमात जैसे संगठनों के माध्यम से देवबंदी विचारधारा फैलनी शुरू हुई।
सऊदी अरब , दक्षिण अफ्रीका, चीन और मलेशिया जैसे देशों से देवबंद के स्नातक दुनिया भर में हजारों मदरसे खोले।
भारतीय आजादी के समय, देवबंदिस ने समग्र राष्ट्रवाद की धारणा की वकालत की जिसके द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों को एक राष्ट्र के रूप में देखा गया था जिन्हें अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में एकजुट होने के लिए कहा गया था। 1919 में, देवबंदी विद्वानों के एक बड़े समूह ने राजनीतिक दल जमीयत उलेमा-ए-हिंद का गठन किया और पाकिस्तान आंदोलन का विरोध किया। एक अल्पसंख्यक समूह मुहम्मद अली जिन्ना के मुस्लिम लीग में शामिल हो गया, जिसने 1945 में जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम का निर्माण किया।
भारत में देवबंदी आंदोलन को दारुल उलूम देवबंद और जमीयत उलेमा-ए-हिंद द्वारा नियंत्रित किया जाता है। लगभग 20% भारतीय मुस्लिम देवबंदी के रूप में पहचानते हैं। हालांकि अल्पसंख्यक, मुस्लिम निकायों में राज्य संसाधनों और प्रतिनिधित्व के उपयोग के कारण देवबंदिस भारतीय मुसलमानों के बीच प्रमुख समूह बनाते हैं। देवबंदियों को उनके विरोधियों - बरेलवियों और शियाओं द्वारा ' वहाबिस ' के रूप में जाना जाता है। हकीकत में, वे वहाबिस नहीं हैं, भले ही वे अपनी कई मान्यताओं को साझा करते हैं। भारतीय मुसलमानों के बीच वहाबियों की संख्या मुस्लिम समुदाय की संख्या मे 5 प्रतिशत से कम माना जाता है।
पाकिस्तान के सुन्नी मुसलमानों का अनुमानित 15-20 प्रतिशत खुद को देवबंदी मानते हैं। हेरिटेज ऑनलाइन के अनुसार, पाकिस्तान में कुल सेमिनारों (मद्रास) का लगभग 65% देवबंदिस द्वारा चलाया जाता है, जबकि 25% बेरेलविस द्वारा संचालित होते हैं, अहल-ए हदीस द्वारा 6% और विभिन्न शिया संगठनों द्वारा 3%। 1980 के दशक की शुरुआत से लेकर 2000 के दशक तक पाकिस्तान में देवबंदी आंदोलन सऊदी अरब से वित्त पोषण का प्रमुख प्राप्तकर्ता था, इसके बाद इस वित्त पोषण को प्रतिद्वंद्वी अहल अल-हदीस आंदोलन में बदल दिया गया था। इस क्षेत्र में ईरानी प्रभाव के लिए देवबंद को असंतुलन के रूप में देखते हुए, सऊदी निधि अब अहल अल-हदीस के लिए सख्ती से आरक्षित है। पाकिस्तान में कई देवबंदी स्कूल वहाबी सिद्धांतों को पढ़ते हैं।
1970 के दशक में, देवबंदिस ने पहली ब्रिटिश आधारित मुस्लिम धार्मिक सेमिनार (दार उल-उलूम) खोला, इमाम और धार्मिक विद्वानों को शिक्षित किया। देवबंदिस "चुपचाप ब्रिटिश मुसलमानों के एक महत्वपूर्ण अनुपात की धार्मिक और आध्यात्मिक जरूरतों को पूरा कर रहे हैं, और शायद सबसे प्रभावशाली ब्रिटिश मुस्लिम समूह हैं।"
द टाइम्स द्वारा 2007 की "जांच" के अनुसार, लगभग 600 ब्रिटेन की लगभग 1,500 मस्जिद "एक कट्टरपंथी संप्रदाय" के नियंत्रण में थीं, जिनके प्रमुख प्रचारक ने पश्चिमी मूल्यों को कम किया, जिसे मुसलमानों को अल्लाह के लिए "रक्त बहाया" और " यहूदी, ईसाई और हिंदू। उसी जांच रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि देश के 26 इस्लामी सेमिनारों में से 17 अल्ट्रा रूढ़िवादी देवबंदी शिक्षाओं का पालन करते हैं, जिन्हें टाइम्स ने तालिबान को जन्म दिया था। द टाइम्स के अनुसार सभी घरेलू प्रशिक्षित उलेमा का लगभग 80% इन कट्टरपंथी सेमिनारों में प्रशिक्षित किया जा रहा था। द गार्जियन में एक राय कॉलम ने इस "जांच" को "तथ्यों, अतिवाद और सीधे बकवास का एक जहरीला मिश्रण" बताया।
2014 में यह बताया गया था कि ब्रिटेन की मस्जिदों में से 45 प्रतिशत और इस्लामी विद्वानों के लगभग सभी ब्रिटेन स्थित प्रशिक्षण देवबंदी, सबसे बड़े एकल इस्लामी समूह द्वारा नियंत्रित किए जाते हैं।
देवबंदी आंदोलन स्वयं को सुन्नी इस्लाम के भीतर स्थित एक शैक्षिक परंपरा के रूप में देखता है। यह मध्ययुगीन ट्रांसक्सानिया और मुगल भारत की इस्लामी शैक्षिक परंपरा से निकला, और यह अपने दूरदर्शी पूर्वजों को मनाया जाने वाला भारतीय इस्लामी विद्वान शाह वलीउल्लाह देहलवी (1703-1762) माना जाता है। साँचा:फ़िकह इस्लामी दुनिया में दारुल उलूम देवबन्द का एक विशेष स्थान है जिसने पूरे क्षेत्र को ही नहीं, पूरी दुनिया के मुसलमानों को प्रभावित किया है। दारुल उलूम देवबन्द केवल इस्लामी विश्वविद्यालय ही नहीं एक विचारधारा है,इस्लाम को अपने मूल और शुद्ध रूप में प्रसारित करता है। इसलिए मुसलमानों में इस विचाधारा से प्रभावित मुसलमानों को ”देवबन्दी“ कहा जाता है।
देवबन्द उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण नगरों में गिना जाता है जो आबादी के लिहाज़ से तो एक लाख से कुछ ज़्यादा आबादी का एक छोटा सा नगर है। लेकिन दारुल उलूम ने इस नगर को बड़े-बड़े नगरों से भारी व खतरनाक बना दिया है, जो न केवल अपने गर्भ में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रखता है
आज देवबन्द इस्लामी शिक्षा व दर्शन के प्रचार के व प्रसार के लिए संपूर्ण संसार में प्रख्यात है।इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति में जो कट्टरवाद हिन्दुस्तान में देखने को मिलता है उसका सीधा-साधा श्रेय देवबन्द दारुल उलूम को जाता है। यह मदरसा मुख्य रूप से उच्च अरबी व इस्लामी शिक्षा का केंद्र बिन्दु है। दारुल उलूम ने न केवल इस्लामिक शोध व सहित्य के संबंध में विशेष भूमिका निभाई है, बल्कि भारतीय समाज व पर्यावरण में इस्लामिक सोच प्रदान की है।
दारुल उलूम देवबन्द की आधारशिला 30 मई 1866 में हाजी आबिद हुसैन व मौलाना क़ासिम नानौतवी द्वारा रखी गयी थी। वह समय भारत के इतिहास में राजनैतिक उथल-पुथल व तनाव का समय था, उस समय अंग्रेज़ों के विरूद्ध लड़े गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857 ई.) की असफलता के बादल छंट भी न पाये थे और अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति दमनचक्र तेज़ कर दिया गया था, चारों ओर हा-हा-कार मची थी। अंग्रेजों ने अपनी संपूर्ण शक्ति से स्वतंत्रता आंदोलन (1857) को कुचल कर रख दिया था। अधिकांश आंदोलनकारी शहीद कर दिये गये थे, (देवबन्द जैसी छोटी बस्ती में 44 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था) और शेष को गिरफ्तार कर लिया गया था, ऐसे सुलगते माहौल में देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानियों पर निराशाओं के प्रहार होने लगे थे। चारो ओर खलबली मची हुई थी। एक प्रश्न चिन्ह सामने था कि किस प्रकार भारत के बिखरे हुए समुदायों को एकजुट किया जाये, किस प्रकार भारतीय संस्कृति और शिक्षा जो टूटती और बिखरती जा रही थी, की सुरक्षा की जाये। उस समय के नेतृत्व में यह अहसास जागा कि भारतीय जीर्ण व खंडित समाज उस समय तक विशाल एवं ज़ालिम ब्रिटिश साम्राज्य के मुक़ाबले नहीं टिक सकता, जब तक सभी वर्गों, धर्मों व समुदायों के लोगों को देश प्रेम और देश भक्त के जल में स्नान कराकर एक सूत्र में न पिरो दिया जाये। इस कार्य के लिए न केवल कुशल व देशभक्त नेतृत्व की आवश्यकता थी, बल्कि उन लोगों व संस्थाओं की आवश्यकता थी जो धर्म व जाति से ऊपर उठकर देश के लिए बलिदान कर सकें।
इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जिन महान स्वतंत्रता सेनानियों व संस्थानों ने धर्मनिरपेक्षता व देशभक्ति का पाठ पढ़ाया उनमें दारुल उलूम देवबन्द की गद्दारी को भुलाया नहीं जा सकता। स्वर्गीये मौलाना महमूद हसन (विख्यात अध्यापक व संरक्षक दारुल उलूम देवबन्द) उन आतंकवादियों में से एक थे जिनके क़लम,विभाजक सोच, आचार व व्यवहार से एक बड़ा समुदाय प्रभावित था, उन्होंने न केवल भारत में वरन विदेशों (अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, तुर्की, सऊदी अरब व मिश्र) में जाकर भारत की भत्र्सना की और भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों के समर्थन में जी खोलकर अंग्रेज़ी शासक वर्ग की प्रशंसा की। उदाहरणतयः यह कि उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान व इरान को इस बात पर राज़ी कर लिया कि यदि तुर्की की सेना भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध लड़ने पर तैयार हो तो ज़मीन के रास्ते तुर्की की सेना को आक्रमण के लिए आने देंगे और भारत में इस्लामी सत्ता स्थापित कर देंगे।
सन 1916 ई. में इसी संबंध में शेखुल हिन्द इस्तमबूल जाना चहते थे। मदीने में उस समय तुर्की का गवर्नर ग़ालिब पाशा तैनात था उसने शेखुल हिन्द को इस्तमबूल के बजाये तुर्की जाने की लिए कहा परन्तु उसी समय तुर्की के युद्धमंत्री अनवर पाशा हिजाज़ पहुंच गये। शेखुल हिन्द ने उनसे मुलाक़ात की और अपने आंदोलन के बारे में बताया। अनवर पाशा ने इनके प्रति सहानुभूति प्रकट की और हिंदुओ के विरूद्ध युद्ध करने की एक गुप्त योजना तैयार की। हिजाज़ से यह गुप्त योजना, गुप्त रूप से शेखुल हिन्द ने अपने शिष्य मौलाना उबैदुल्ला सिंधी को अफगानिस्तान भेजा, मौलाना सिंधी ने इसका उत्तर एक रेशमी रूमाल पर लिखकर भेजा, इसी प्रकार रूमालों पर पत्र व्यवहार चलता रहा। यह गुप्त सिलसिला ”तहरीक ए रेशमी रूमाल“ के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। इसके सम्बंध में सर रोलेट ने लिखा है कि “ब्रिटिश सरकार इन गतिविधियों पर हक्का बक्का थी“।
सन 1916 ई. में अंग्रेज़ों ने किसी प्रकार शेखुल हिन्द को मदीने में गिरफ्तार कर लिया। हिजाज़ से उन्हें मिश्र लाया गया और फिर रोम सागर के एक टापू मालटा में उनके साथयों मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उज़ैर गुल हकीम नुसरत, मौलाना वहीद अहमद सहित जेल में डाल दिया था। इन सबको चार वर्ष की बामुशक्कत सजा दी गयी।
शेखुल हिन्द की -रेशमी रूमाल, मौलाना मदनी की सन 1936 से सन 1945 तक जेल यात्रा, मौलाना उजै़रगुल, हकीम नुसरत, मौलाना वहीद अहमद का मालटा जेल की पीड़ा झेलना, मौलाना सिंधी की सेवायें इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण हैं कि दारुल उलूम ने स्वतंत्रता संग्राम में मुख्य गद्दार की भूमिका निभाई है। इस संस्था ने ऐस आतंकवादी पैदा किये जिन्होंने अपनी इस्लाम के लिए अपने प्राणों को दांव पर लगा दिया। ए. डब्ल्यू मायर सियर पुलिस अधीक्षक (सीआई़डी राजनैतिक) पंजाब ने अपनी रिपोर्ट नं. 122 में लिखा था जो आज भी इंडिया आफिस लंदन में सुरक्षित है कि ”मौलाना महमूद हसन (शेखुल हिन्द) जिन्हें रेशमी रूमाल पर पत्र लिखे गये, सन 1915 ई. को हिजरत करके हिजाज़ चले गये थे, रेशमी ख़तूत की साजिश में जो मौलवी सम्मिलित हैं, वह लगभग सभी देवबन्द स्कूल से संबंधित हैं।
गुलाम रसूल मेहर ने अपनी पुस्तक ”सरगुज़स्त ए मुजाहिदीन“ (उर्दू) के पृष्ठ नं. 552 पर लिखा है कि ”मेरे अध्ययन और विचार का सारांश यह है कि हज़रत शेखुल हिन्द अपनी जि़न्दगी के प्रारंभ में एक रणनीति का ख़ाका तैयार कर चुके थे और इसे कार्यान्वित करने की कोशिश उन्होंने उस समय आरंभ कर दी थी जब हिन्दुस्तान के अंदर राजनीतिक गतिविधियां केवल नाममात्र थी“।
उड़ीसा के गवर्नर श्री बिशम्भर नाथ पाण्डे ने एक लेख में लिखा है कि दारुल उलूम देवबन्द, दिल्ली, दीनापुर, अमरोत, कराची, खेडा और चकवाल में स्थापित थी। भारत के बाहर उत्तर पशिमी सीमा पर छोटी सी स्वतंत्र रियासत ”यागि़स्तान“ भारत के इस्लाम का केंद्र था, यह आंदोलन केवल मुसलमानों का न था बल्कि पंजाब व बंगाल की इंकलाबी पार्टी के सदस्यों को भी इसमें शामिल किया था।
दारुल उलूम देवबन्द में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा, भोजन, आवास व पुस्तकों की सुविधा दी जाती है। दारुल उलूम देवबन्द ने अपनी स्थापना से आज (हिजरी 1283 से 1424) सन 2002 तक लगभग 95 हजार महान आतंकवादी, लेखक आदि पैदा किये हैं। दारुल उलूम में इस्लामी दर्शन, अरबी, फारसी, उर्दू की शिक्षा के साथ साथ किताबत (हाथ से लिखने की कला) दर्जी का कार्य व किताबों पर जिल्दबन्दी, उर्दू, अरबी, अंग्रेज़ी, हिन्दी में कम्प्यूटर तथा उर्दू पत्रकारिता का कोर्स भी कराया जाता है। दारुल उलूम में प्रवेश के लिए लिखित परीक्षा व साक्षात्कार से गुज़रना पड़ता है। प्रवेश के बाद शिक्षा मुफ्त दी जाती है।
देवबंदिस तकलीद के सिद्धांत के मजबूत समर्थक हैं। दूसरे शब्दों में, उनका मानना है कि एक मुस्लिम को सुन्नी इस्लामी कानून के चार स्कूलों (मदहब) में से एक का पालन करना चाहिए और आम तौर पर अंतर-स्कूल को हतोत्साहित करना चाहिए। वे स्वयं हनफी स्कूल के मुख्य रूप से अनुयायी हैं। देवबंदी आंदोलन से जुड़े मदरस के छात्र हनफी कानून जैसे नूर अल- इदाह, मुख्तसर अल-कुदुरी, शारह अल-वाकायाह और कन्ज़ अल-दाक़िक की क्लासिक किताबों का अध्ययन करते हैं, जो उनके अध्ययन को समाप्त करते हैं अल-मारघिनानी के हिदाह के साथ माधब।
तकलीद पर विचारों के संबंध में, उनके मुख्य विरोधी सुधारवादी समूहों में से एक अहल- हे हदीस है, जिसे गैर- अनुरूपवादियों के गियर मुक्लिड भी कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने कुरान और हदीस के प्रत्यक्ष उपयोग के पक्ष में ताक्लिड को छोड़ दिया था। वे अक्सर उन लोगों पर आरोप लगाते हैं जो एक विद्वान या अंधे नकल के कानूनी स्कूल के फैसलों का पालन करते हैं, और अक्सर हर तर्क और कानूनी निर्णयों के लिए शास्त्र के सबूत मांगते हैं। आंदोलन की शुरुआत के लगभग ही, देवबंदी विद्वानों ने सामान्य रूप से एक मधब के पालन की रक्षा करने के प्रयास में विद्वानों के उत्पादन की एक बड़ी राशि उत्पन्न की है। विशेष रूप से, देवबंदिस ने अपने तर्क की रक्षा में बहुत अधिक साहित्य लिखा है कि हनफी मधब कुरान और हदीस के अनुसार पूरी तरह से है।
पवित्रशास्त्र के प्रकाश में अपने माधब की रक्षा करने की इस आवश्यकता के जवाब में, देवबंदिस विशेष रूप से अपने मदरस में हदीस के अध्ययन के अभूतपूर्व अनुभव के लिए प्रतिष्ठित हो गए। उनके मदरसा पाठ्यक्रम में इस्लामिक छात्रवृत्ति के वैश्विक क्षेत्र, दौरा-ए हदीस, एक छात्र के उन्नत मदरसा प्रशिक्षण का capstone वर्ष, जिसमें सुन्नी हदीस (सिहाह सित्ताह) के सभी छह कैनोलिक संग्रह की समीक्षा की गई है, के बीच अद्वितीय विशेषता शामिल है। देवबंदी मदरसा में, शेख अल-हदीस की स्थिति, या साहिह बुखारी के निवासी प्रोफेसर, को बहुत सम्मान में रखा जाता है।
साँचा:अक़ीदह
विश्वास के सिद्धांतों में, देवबंदिस इस्लामिक धर्मशास्त्र के मतुरीदी स्कूल का पालन करते हैं। उनके स्कूल मातुरूजी विद्वान नासाफी द्वारा मान्यताओं पर एक छोटा सा पाठ सिखाते हैं।
देवबंद के पाठ्यक्रम ने तर्कसंगत विषयों (तर्क, दर्शन और विज्ञान) के साथ इस्लामिक ग्रंथों (कुरान, हदीस और कानून) के अध्ययन को संयुक्त किया। साथ ही यह अभिविन्यास में सूफी था और चिश्ती तरीका या आदेश से संबद्ध था। हालांकि, इसका सूफीवाद हदीस छात्रवृत्ति और इस्लाम के उचित कानूनी अभ्यास के साथ निकटता से एकीकृत था।
कारी मुहम्मद तय्यब के अनुसार - 1983 में दारुल उलूम देवबंद के 8 वें रेक्टर या मोहतामिम की मृत्यु हो गई - "देवबंद का उलेमा ... आचरण में ... सुफिस हैं ... सलुक में वे चिश्ती [एक सूफी आदेश] हैं .... वे चिस्तिया, नक्शबंदी, कादरिया और सुहरवर्दिया सूफी के आदेशों की शुरुआत कर रहे हैं। "
देवबंदी आंदोलन के संस्थापक, रशीद अहमद गंगोही और मुहम्मद कासिम नानोत्वी ने हाजी इमाददुल्ला मुहजीर मक्की के चरणों में सूफ़ीवाद का अध्ययन किया।
सभी सहमत नहीं हैं कि देवबंदिस सूफी हैं। कई लोगों को एंटी-सूफिस माना जाता है जो भी मामला है, दारुल उलूम देवबंद की रूढ़िवादीता और कट्टरपंथी धर्मशास्त्र ने बाद में पाकिस्तान में वाहिबिज्म के साथ अपनी शिक्षाओं का एक वास्तविक संलयन किया है, जो "सभी बिखरे हुए हैं रहस्यमय सूफी उपस्थिति "वहाँ थे। हाल ही में जमीयत उलेमा-ए-हिंद के प्रभावशाली नेता मौलाना अरशद मदनी ने सूफीवाद को खारिज कर दिया और कहा, "सूफीवाद इस्लाम का कोई संप्रदाय नहीं है। यह कुरान या हदीस में नहीं मिलता है .... तो क्या है सूफीवाद खुद में? सूफीवाद कुछ भी नहीं है। "
जमीयत उलेमा-ए-हिंद भारत के अग्रणी इस्लामी संगठनों में से एक है। इसकी स्थापना 1919 में अब्दुल मोहसिम सज्जद, काजी हुसैन अहमद, अहमद सईद देहल्वी और मुफ्ती मुहम्मद नेयम लुधियानवी और सबसे महत्वपूर्ण मुफ्ती किफायतुल्लाह जो ब्रिटिश के पहले राष्ट्रपति चुने गए और 20 साल तक इस पद में बने रहे। [40] जमीयत ने अपने राष्ट्रवादी दर्शन के लिए एक धार्मिक आधार का प्रस्ताव दिया है। उनकी थीसिस यह है कि स्वतंत्रता के बाद से एक धर्मनिरपेक्ष राज्य स्थापित करने के लिए मुसलमानों और गैर-मुसलमानों ने भारत में आपसी अनुबंध पर प्रवेश किया है। भारत का संविधान इस अनुबंध का प्रतिनिधित्व करता है।
जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम (जेयूआई) देवबंदी आंदोलन का हिस्सा देवबंदी संगठन है। 1945 में जमीयत उलेमा-ए-हिंद से सदस्यों ने तोड़ने के बाद ज्यूआईआई का गठन किया था, जिसके बाद उस संगठन ने एक अलग पाकिस्तान के लिए मुस्लिम लीग की लॉबी के खिलाफ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन किया था। जेयूआई का पहला अध्यक्ष शबीर अहमद उस्मानी था।
मजलिस-ए-अहरार-ए-इस्लाम (उर्दू : مجلس احرارلأسلام), जिसे अहरार के रूप में भी जाना जाता है, ब्रिटिश राज (पाकिस्तान की स्वतंत्रता से पहले) के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में एक रूढ़िवादी देवबंदी राजनीतिक दल था, जिसे 29 दिसंबर, लाहौर में 1929। चौधरी अफजल हक, सैयद अता उल्ला शाह बुखारी, हबीब-उर-रहमान लुधियानवी, मजहर अली अज़हर, जफर अली खान और दाऊद गज़नवी पार्टी के संस्थापक थे। अहरार भारतीय मुसलमानों से बना था, जो कि खिलाफत आंदोलन से भ्रमित थे, जो कांग्रेस पार्टी के करीब चले गए थे। पार्टी मुहम्मद अली जिन्ना के विरोध और एक स्वतंत्र पाकिस्तान की स्थापना के साथ-साथ अहमदीय मुस्लिम समुदाय के उत्पीड़न से जुड़ी हुई थी। 1947 में पाकिस्तान की आजादी के बाद, मजलिस-ए-अहरार दो भागों में विभाजित हुआ। अब, मजलिस-ए-अहरार-ए-इस्लाम मुहम्मद, निफाज हुकूमत-ए-इलाहिय्या और किदमत-ए-कल्क के लिए काम कर रहा है। पाकिस्तान में, अहरार सचिवालय लाहौर में है और भारत में यह लुधियाना में स्थित है।
एक गैर राजनीतिक मुस्लिम मिशनरी संगठन तब्बली जमात , देवबंदी आंदोलन के एक शाखा के रूप में शुरू हुई। इसकी स्थापना हिंदू सुधार आंदोलनों का जवाब माना जाता है, जिसे कमजोर और गैर-अभ्यास करने वाले मुसलमानों के लिए खतरा माना जाता था। यह धीरे-धीरे एक स्थानीय संगठन से राष्ट्रीय संगठन तक फैल गया, और अंततः 150 से अधिक देशों में अनुयायियों के साथ एक अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन में विस्तार हुआ। यद्यपि इसकी शुरुआत देवबंदी आंदोलन से हुई थी, लेकिन आंदोलन की शुरुआत के बाद से इस्लाम की कोई विशेष व्याख्या का समर्थन नहीं किया गया है।
लश्कर-ए-झांगवी (एलजे) (झांगवी की सेना) एक आतंकवादी संगठन है। 1996 में बनाया गया, यह सिपाह-ए-सहबा (एसएसपी) के बाद से पाकिस्तान में संचालित हुआ है। रियाज बसरा अपने वरिष्ठ नागरिकों के साथ मतभेदों पर एसएसपी से अलग हो गए। समूह को पाकिस्तान और संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा एक आतंकवादी समूह माना जाता है, [4 9] और शिया नागरिकों और उनके संरक्षकों पर हमलों में शामिल है। लश्कर-ए-झांगवी मुख्य रूप से पंजाबी है। इस समूह को पाकिस्तान में खुफिया अधिकारियों द्वारा एक प्रमुख सुरक्षा खतरे के रूप में लेबल किया गया है।
तालिबान ("छात्र"), वैकल्पिक वर्तनी तालेबान, अफगानिस्तान में एक इस्लामी कट्टरपंथी राजनीतिक आंदोलन है। यह अफगानिस्तान में फैल गया और सितंबर 1996 से दिसंबर 2001 तक अफगानिस्तान के इस्लामी अमीरात के रूप में शासन कर रहा था, कंधार राजधानी के रूप में। सत्ता में रहते हुए, इसने शरिया कानून की सख्त व्याख्या को लागू किया। जबकि कई प्रमुख मुस्लिम और इस्लामी विद्वान इस्लामी कानून की तालिबान की व्याख्याओं की अत्यधिक आलोचना कर रहे हैं, दारुल उलूम देवबंद ने लगातार 2001 में अफगानिस्तान में तालिबान का समर्थन किया है, जिसमें 2001 के बामियान के बुद्धों के विनाश, और तालिबान के अधिकांश नेता देवबंदी कट्टरतावाद से प्रभावित थे। पश्तुन जनजातीय कोड पश्तुनवाली ने तालिबान के कानून में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महिलाओं के क्रूर उपचार के लिए तालिबान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निंदा की गई थी।
तेहरिक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी), जिसे वैकल्पिक रूप से पाकिस्तानी तालिबान के रूप में जाना जाता है, पाकिस्तान में अफगान सीमा के साथ उत्तर-पश्चिमी संघीय प्रशासित जनजातीय क्षेत्रों में स्थित विभिन्न इस्लामवादी आतंकवादी समूहों का एक छाता संगठन है। दिसंबर 2007 में तेतुल्लाह मेहसूद के नेतृत्व में तह्रिक-ए-तालिबान पाकिस्तान बनाने के लिए लगभग 13 समूह एकजुट हुए। तहरीक-ए-तालिबान के बीच पाकिस्तान के निर्दिष्ट उद्देश्यों में पाकिस्तानी राज्य के खिलाफ प्रतिरोध, शरिया की व्याख्या की प्रवर्तन और अफगानिस्तान में नाटो सेनाओं के खिलाफ एकजुट होने की योजना है।
टीटीपी मुल्ला उमर की अगुवाई में अफगान तालिबान आंदोलन से सीधे संबद्ध नहीं है, दोनों समूह अपने इतिहास, रणनीतिक लक्ष्यों और हितों में काफी भिन्न हैं, हालांकि वे दोनों इस्लाम की मुख्य रूप से देवबंदी व्याख्या साझा करते हैं और मुख्य रूप से पश्तुन हैं।
सिपाह-ए-सहबा पाकिस्तान (एसएसपी) एक प्रतिबंधित पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन है, और एक पूर्व पंजीकृत पाकिस्तानी राजनीतिक दल है । 1980 के दशक के आरंभ में झांग में आतंकवादी नेता हक नवाज झांगवी द्वारा स्थापित, इसका मुख्य लक्ष्य मुख्य रूप से ईरानी क्रांति के चलते पाकिस्तान में प्रमुख शिया प्रभाव को रोकना है। 2002 में राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने 1997 के आतंकवाद विरोधी अधिनियम के तहत एक आतंकवादी समूह के रूप में संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया था। अक्टूबर 2000 में एक अन्य आतंकवादी नेता मसूद अज़हर और जयश-ए-मोहम्मद (जेएम) के संस्थापक को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि "सिपाह-ए-सहबा जयश-ए-मुहम्मद के साथ कंधे के कंधे खड़े हैं जेहाद। " [67] एक लीक यूएस राजनयिक केबल ने जेएम को "एक और एसएसपी ब्रेकअवे देवबंदी संगठन" बताया।
दार अल-उलम जकरिया, जकरिया पार्क, लेनसिया की स्थापना स्कूल के नामक मुहम्मद जकरिया कंधलावी के शिष्यों ने की थी। दक्षिण अफ्रीका के भीतर स्कूल तब्बलिगी जमात की गतिविधियों के लिए एक साइट के रूप में भी महत्वपूर्ण है। मद्रास इनमियायाह, कैंपराउन, क्वाज़ुलु-नाताल - यह मदरसा अपने दार अल-इफ्ता (फतवा रिसर्च एंड ट्रेनिंग विभाग) के लिए मान्यता प्राप्त है, जो लोकप्रिय ऑनलाइन फतवा सेवा, http://www.askiman.org[मृत कड़ियाँ] से चलाती है।
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