तारेक्ष या तारक्षवेधयंत्र का पर्यायवाची अंग्रेजी शब्द ऐस्ट्रोलैब (Astrolabe) तथा संस्कृत शब्द 'यंत्रराज' है। यह एक प्राचीन वेधयंत्र है, जिससे यह नक्षत्रों के उन्नतांश ज्ञात करके समय तथा अक्षांश जाने जाते थे। संभवत: इसका आविष्कार परगा के यूनानी ज्योतिषी ऐपोलोनियस (ई.
पू. 240) अथवा हिपार्कस (ई. पू. 150) ने किया था। अरब के ज्योतिषियों ने इस यंत्र में बहुत सुधार किए। यूरोप में ईसा की 15वीं शताब्दी के अंत से लेकर 18वीं शताब्दी के मध्य तक समुद्र यात्रियों में यह यंत्र बहुत प्रचलित था। भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषी राजा जयसिंह को यह यंत्र बहुत प्रिय था। जयपुर में दो तारेक्ष यंत्र विद्यमान हैं, जिनके अंक तथा अक्षर नागरी लिपि के हैं।
यह प्राय: धातु की बनी हुई एक गोल तस्तरी के आकार का यंत्र है, जिसे टाँगने के लिए ऊपर की ओर एक छल्ला लगा रहता है। इसका एक पृष्ठ समतल होता है, जिसके छोर पर 360 डिग्री अंकित रहते हैं तथा केंद्र में लक्ष्य वेध के उपकरण से युक्त़ चारों ओर घूम सकने वाली एक पटरी लगी रहती है। यह भाग ग्रह नक्षत्रों के उन्ऩतांश नापने के प्रयोग में आता है। इसके दूसरी ओर के पृष्ठ के किनारे उभरे रहते हैं तथा बीच में खोखला होता है। इस खोखले में मुख्य तारामंडलों तथा राशिचक्र के तारामंडलों की नक्काशी की हुई धातु की तश्र्तरी बैठाने का स्थान होता है। यह चारों ओर घुमाई जा सकती है। इसके अतिरिक्त़ इस खोखल में उन्ऩतांशसूचक तथा समयसूचक आदि तश्र्तिरयाँ एक-दूसरे के भीतर बैठाई जा सकती हैं। यंत्र का यह पृष्ठ गणना के कार्य के लिए प्रयुक्त़ होता है।
पहले सूर्य के उन्नतांश जान लिए जाते हैं, फिर राशिचक्रांकित तश्र्तरी में सूर्य के उस दिन के स्थान को चिन्हित करके उसे प्राप्त उन्ऩतांशों की सीध में लाया जाता है। इस बिंदु को केंद्र से मिलाती हुई रेखा को किनारों पर बने समयबोधक वृत्त तक बढ़ा दिया जाता है। फिर समयसूचक वृत्त से समय पढ़ लिया जाता है।
यंत्रराज नामक संस्कृत ग्रंथ के रचयिता महेन्द्र सुरि थे। यह १३७० में रचित तारेक्ष से सम्बन्धित ग्रन्थ है। यह संस्कृत का पहला ग्रन्थ है जो पूर्णतः इंस्ट्रुमेन्टेशन से सम्बन्धित है। बाद में इस पर कई टीकाएँ प्रकाशित हुईं जो नीचे दी गई हैं-
वर्ष | रचनाकार (स्थान) | यंत्र |
---|---|---|
1370 | महेन्द्र सुरि (दिल्ली) | यंत्रराज, तारेक्ष |
1400 | पद्मनाभ | यंत्रकिरणावली, तारेक्ष, ध्रुवभ्रमणयंत्र |
1428 | रामचन्द्र (सीतापुर, उप्र) | यंत्रप्रकाश |
१५वीं शताब्दी | हेम (गुजरात) | काशयंत्र, बेलनाकार सूर्यघड़ी |
1507 | गणेश दैवज्ञ | प्रतोदयंत्र, शुद्धिरंजनयंत्र, बेलनाकार सूर्यघड़ी |
1550-1650 | चन्द्रधर (गोदावरी) | यंत्रचिन्तामणि, क्वाड्रैण्ट |
1572 | भूधर (कम्पिल्य) | तूरिययंत्रप्रकाश, क्वाड्रैण्ट |
1580-1640 | जम्बुसर विश्राम (गुजरात) | यंत्रशिरोमणि |
1720 | दादाभाई भट्ट | तूरीययंत्रोपत्ति |
1688-1743 | जयसिंह सवाई (जयपुर) | यंत्रप्रकर, यंत्रराजरचना |
1690-1750 | जगन्नाथ (जयपुर) | सम्राटसिद्धान्त (1732) |
1700-1760 | लक्ष्मीपति | ध्रुवभ्रमणयंत्र, सम्राटयंत्र |
1700 | नयनसुख उपाध्याय | यंत्रराजविचारविंशाध्याय |
1750-1810 | नन्दराम मिश्र (कम्यकवन, राजस्थान) | यंत्रसार |
1750-1810 | मथुरानाथ शुक्ल (वाराणसी) | यंत्रराजघटना |
1736-1811 | चिन्तामणि दिक्षित | गोलानन्द (१८००) |
Astrolabe से संबंधित मीडिया विकिमीडिया कॉमंस पर उपलब्ध है। |
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