छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विशेषता का सौंदर्य यहां के आभूषणों में निहित है। उम्र-वर्ग, सामाजिक दरजे और भौगोलिक कारक से वर्गीकृत होता आभूषणों का भेद, इसे व्यापक और समृद्ध कर देता है। आभूषणों के रूप में सौंदर्य की कलात्मक चेतना का एक आयाम हजारों साल से जीवन्त है और आज भी सुनहरे-रुपहले पन्नों की तरह प्रकट है।
प्राकृतिक एवं अचल श्रृंगार ‘गोदना’ से इसका प्रारंभिक सिरा खुलता है। टोने-टोटके, भूत-प्रेतादि से बचाव के लिए गोदना को जनजातीय कुटुम्बों में रक्षा कवच की तरह अनिवार्य माना जाता रहा है। अधिकतर स्त्रियां, पवित्रता की भावना एवं सौंदर्य के लिये गोदना गोदवाती हैं। फूल-पत्ती, कांच-कौड़ी से होती रुपाकार के आकर्षण की यह यात्रा निरंतर प्रयोग की पांत पर सवार है। गुफावासी आदि मानव के शैलचित्रों, हड़प्पाकालीन प्रतिमाओं, प्राचीन मृण्मूर्तियों से लेकर युगयुगीन कलावेशेषों में विभिन्न आकार-प्रकार के आभूषणों की ऐतिहासिकता दिखाई पड़ती है।
मानव के श्रृंगार में यहां सोना, चांदी, लोहा, अष्टधातु, कांसा, पीतल, गिलट, जरमन और कुसकुट (मिश्र धातु) मिट्टी, काष्ठ, बांस, लाख के गहने प्रचलित हैं। सोलह श्रृंगारों में ‘गहना’ ग्रहण करने के अर्थ में है और ‘आभूषण’ का अर्थ अलंकरण है। जनजातीय आभूषणों पर गोत्र चिन्ह अंकित करने की प्रथा है। आभूषण-धार्मिक विश्वास, दार्शनिक चिंतन, सौंदर्य बोध और सामाजिक संगठन का भी परिचायक होता है।
शिशु जन्म, विवाह जैसे मांगलिक और संस्कार अवसरों पर आभूषण लेन-देन तथा धारण करने की प्रथा विशेष रूप से है। आभूषणों को श्रृंगार के अलावा ग्रह-नक्षत्र, ज्योतिष प्रयोजन और एक्यूप्रेशर-एक्यूपंचर से भी जोड़ा जाता है, स्त्री-धन तो यह है ही। छत्तीसगढ़ में प्रचलित सुवा ददरिया गीतों में आभूषणों का उल्लेख रोचक ढंग से हुआ है। एक लोकगीत में बेटी सुवा नाचने जाने के लिए अपनी मां से उसके विभिन्न आभूषण मांगती है- ‘दे तो दाई तोर गोड़ के पैरी, सुवा नाचे बर जाबोन’ और इसी क्रम में हाथ के बहुंटा, घेंच के सूंता, माथ के टिकली, कान के खूंटी, हाथ के ककनी आदि वर्णित है।
शरीर के विभिन्न हिस्सों में से सिर के परंपरागत आभूषण बाल, जूड़े व चोटी में धारण किए जाते है, जिसमें जंगली फूल, पंख, कौड़ियां, सिंगी, ककई-कंघी, मांगमोती, पटिया, बेंदी प्रमुख हैं। चेहरे पर टिकुली के साथ के साथ कान में ढार, तरकी, खिनवां, अयरिंग, बारी, फूलसंकरी, लुरकी, लवंग फूल, खूंटी, तितरी धारण की जाती है तथा नाक में फुल्ली, नथ, नथनी, लवंग, बुलाक धारण करने का प्रचलन है।
सूंता, पुतरी, कलदार, सुंर्रा, संकरी, तिलरी, हमेल, हंसली जैसे आभूषण गले में शोभित होते है। बाजू, कलाई और उंगलियों में चूरी, बहुंटा, कड़ा, हरैया, बनुरिया, ककनी, नांमोरी, पटा, पहुंची, ऐंठी, मुंदरी (छपाही, देवराही, भंवराही) पहना जाता है। कमर में भारी और चौड़े कमरबंद-करधन पहनने की परंपरा है और पैरों में तोड़ा, सांटी, कटहर, चुरवा, चुटकी, बिछिया (कोतरी) पहना जाता है। बघनखा, ठुमड़ा, मठुला, मुंगुवा, ताबीज आदि बच्चों के आभूषण हैं, तो पुरुषों में चुरुवा, कान की बारी, गले में कंठी पहनने का चलन है।
छत्तीसगढ़ की संस्कृति में आभूषणों की पृथक पहचान व बानगी है। आदिम युग से ही प्राकृतिक और वानस्पतिक उत्पादन से लेकर सामाजिक विकास कम में बहुमूल्य धातु और रत्नों का प्रयोग होता रहा है। लकऱी, बांस, फूल, पत्ती, पंख, कांच, कौड़ी और पत्थर जैसे अपेक्षाकृत स्वाभाविक और आकर्षक लगने वाले मोलरहित पदार्थो को सौंदर्य-बोध से अपनाकर उनसे सजा संवरा गौरव, वस्तुतः आंतरिक सौंदर्य के फलस्वरुप है, वहीं बहुमूल्य धातुओं और रत्नों के विविध प्रयोग से छत्तीसगढ़ के आभूषण, राज्य की सास्कृतिक और कलात्मक गौरव गाथा के समक्ष प्रतीक हैं
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