राल्फ वाल्डो इमर्सन (1803-1882) प्रसिद्ध निबंधकार, वक्ता तथा कवि थे। उन्हें अमरीकी नवजागरण का प्रवर्तक माना जाता है। आपने मेलविन, ह्विटमैन तथा हाथार्न जैसे अनेक लेखकों ओर विचारकों को प्रभावित किया। आप लोकोत्तरवाद के नेता थे जो एक सहृदय, धार्मिक, दार्शनिक एचं नैतिक आंदोलन था। आप व्यक्ति की अनंतता, अर्थात् दैवी कृपा के जाग्रत उसकी आध्यात्मिक व्यापकता के पक्ष के पोषक थे। आपकी दार्शनिकता के मुख्य आधार पहले प्लैटो, प्लोटाइनस, बर्कले फिर वर्डस्वर्थ, कोलरिज, गेटे, कार्लाइल, हर्डर, स्वेडनबोर्ग और अंत में चीन, ईरान ओर भारत के लेखक थे।
इमर्सन के बाद के कार्य, जैसे द कंडक्ट ऑफ लाइफ (1860), व्यक्तिगत गैर-अनुरूपता और व्यापक सामाजिक चिंताओं के बीच एक अधिक उदारवादी संतुलन के पक्षधर थे। उन्होंने गुलामी के उन्मूलन की वकालत की और पूरे देश में 1860 के दशक में व्याख्यान देना जारी रखा। 1870 के दशक तक उम्र बढ़ने के इमर्सन को "कॉनकॉर्ड के ऋषि" के रूप में जाना जाता था। अपने असफल स्वास्थ्य के बावजूद, उन्होंने 1870 में सोसाइटी और सॉलिट्यूड लिखना और 1874 में पर्नासस नामक कविता संग्रह लिखना जारी रखा। एमर्सन की मृत्यु 27 अप्रैल, 1882 को कॉनकॉर्ड में हुई थी। उनके विश्वास और उनके आदर्शवाद उनके नायक हेनरी डेविड थोरो और उनके समकालीन वाल्ट व्हिटमैन के कार्यों पर और साथ ही कई अन्य लोगों पर मजबूत प्रभाव थे। उनके लेखन को 19 वीं शताब्दी के अमेरिकी साहित्य, धर्म और विचार के प्रमुख दस्तावेज माना जाता है।[उद्धरण चाहिए]
राल्फ वाल्डो इमर्सन सन् 1826 में बोस्टन में पादरी नियुक्त हुए जहाँ उन्होने ऐसे धर्मोपदेश दिए जिनसे निबंधकार के आपके भावी जीवन का पूर्वाभास मिलता है। 1832 में आपने इस कार्य से त्यागपत्र दे दिया, कुछ तो इस कारण कि आप बहुसंख्यक जनता तक अपने विचार पहुँचाना चाहते थे और कुछ इसलिए कि उस गिरजे में कुछ ऐसी पूजाविधियाँ प्रचलित थीं जिन्हें आप प्रगतिवादी, उदार ईसाइयत के विरुद्ध समझते थे। इसके उपरांत वर्ड्स्वर्थ, क़ोलरिज तथा कार्लाइल के मिलने ओर लंदन देखने की इच्छा से आपने यूरोप की यात्रा की। वापस आकर बहुत दिनों तक आपने सार्वजानिक वक्ता का जीवन व्यतीत किया।
1834 में आप कंकार्ड में बस गए जो आपके कारण साहित्यप्रेमियों के लिए तीर्थस्थान बन गया है। अपनी पहली पुस्तक "नेचर" (1836) में आपने थोथी ईसाइयत तथा अमरीकी भौतिकवाद की कड़ी आलोचना की। इसमें उन सभी विचारों के अंकुर वर्तमान हैं जिनका विकास आगे चलकर आपके निबंधों और व्याख्यानों में हुआ। पुस्तक के अंतिम अध्याय में आपने मानव के उस उज्वल भविष्य की ओर इंगित किया है जब उसकी अंतर्हित महत्ता धरती को स्वर्ग बना देगी। 1837 में आपने हार्वर्ड विश्वविद्यालय की "फ़ाई-बीटा-काप्पा" सोसाइटीके समक्ष "अमेरिकन स्कॉलर" नामक व्याख्यान दिया जिसमें आपने साहित्य में अनुकरण की प्रवृत्ति का विरोध किया और इंग्लैंड की साहित्यिक दासता के विरुद्ध अमरीकी साहित्य के स्वतंत्र अस्तित्व की घोषणा की। आपने बताया कि साहित्यिक व्यक्ति का प्रशिक्षण मूलत: प्रकृति के अध्ययन पर आधारित होना चाहिए तथा उसके उपरांत जीवनसंघर्ष में भाग लेकर अनुभव द्वारा उसे परिपक्व बनाना चाहिए। 1838 में दिए गए "डिविनिटी स्कूल ऐड्रेस" के नवीन धार्मिक दृष्टिकोण ने हार्वर्ड में एक आंदोलन खड़ा कर दिया। इस व्याख्यान में आपने निर्भीकतापूर्वक रूढ़िवादी ईसाई धर्म तथा उसमें प्रतिपादित ईसा के ईश्वरत्व की कड़ी आलोचना की। इसमें आपने अपने उस अध्यात्मदर्शन का सार भी प्रस्तुत किया जिसकी विस्तृत व्याख्या "नेचर" में पहले ही हो चुकी थी।
यद्यपि कुछ कट्टपंथियों ने आपका विरोध किया, फिर भी आपके श्रोताओं की संख्या निरंतर बढ़ती रही और शीघ्र ही आप कुशल व्याख्याता के रूप में प्रसिद्ध हो गए। लागातार 30 वर्ष तक कंकार्ड ही आपके कार्य का प्रधान केंद्र रहा। वहीं आपका परिचय हाथार्न और थोरो से हुआ। कुछ काल तक आपने वहाँ की प्रगतिवादी पत्रिका "द डायल" का संपादन भी किया। इसके उपरांत आपकी निम्नलिखित पुस्तकें प्रकाशित हुई:
"एसेज़, फर्स्ट सीरीज़" (1841), "एसेज़, सेकंड सीरीज़" (1844), "पोएम्स" (1847), "नेचर, ऐड्रसेज़ ऐंड लेक्चर्ज़" (1849), "रिप्रेज़ेटेटिव मेन" (1850), इंग्लिश ट्रेट्स" (1856), "दि कांडक्ट ऑव लाइफ़" (1860), "सोसाइटी ऐंड सोलिटयूड" (1870) तथा अंग्रेजी ओर अमरीकी कविताओं का संग्रह "पर्नासस" (1874)। "लेटर्स ऐंड सोशल एम्स" के संपादन में आपने जेम्स इलियट केबट की सहायता ली। आपकी मृत्यु के उपरांत "लेक्चर्स ऐंड बायोग्रैफ़िकल स्केचेज़", मिसलेनीज़" और "नैचुरल हिस्ट्री ऑव द इंटलेक्ट" का प्रकाशन भी केबट की देखरेख में ही हुआ।
1857 में प्रकाशित आपकी "ब्रह्म" नामक कविता भारतीय पाठकों के लिए विशेष महत्व रखती है। इसमें तथा अन्य रचनाओं में आपके गीता, उपनिषद् एवं पूर्वी देशों के अन्य धर्मग्रंथों के अध्ययन की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। परंतु आपका जीवनदर्शन श्रृंखलित नहीं है, वरन् वह आत्मानुभूत सत्यों का एक वैयक्तिक स्वप्न सा है जिसे पूर्व के श्रेष्ठतम ज्ञान के और भी दृढ़ कर दिया है। इमर्सन के विचारों का केंद्रबिंदु तथा आधार उन्हीं का गढ़ा हुआ शब्द "ओवरसोल" है। "ओवरसोल" विश्वव्यापी तथ्य है और केवल "एक" है, यह सारा संसार उसी "एक" का अंशमात्र है। इसी को आगे चलकर आपने "चराचर की आत्मा", मौन चेतना" तथा ऐसा "विश्वसौंदर्य" बताया है जिससे जगत् का प्रत्येक अणु परमाणु समान रूप से संबंधित है। वह विश्वात्मा न केवल आत्मनिर्भर तथा पूर्ण है, अपितु स्वयं ही चाक्षुष कृत्य, दृश्य तथा दृश्यमान है। इन विचारों का गीता तथा उपनिषदों के विचारों के साथ सादृश्य स्पष्ट ही हैं।
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