वृहद् आकार की तथा किसी महान कार्य का वर्णन करने वाली काव्यरचना को महाकाव्य (epic) कहते हैं।
महाकाव्य विश्व के प्रत्येक प्राचीन देश की सभ्यता-संस्कृति की अभिव्यक्ति का प्रबल माध्यम रहा है। भारत के 'रामायण’ और 'महाभारत' और उधर यूनानी कवि होमर के ‘इलियड’ और ‘ओडिसी’ इसके उज्ज्वल प्रमाण हैं। इन महाकाव्यों के कथानक अपने-अपने देश के राष्ट्रीय इतिहास पर आधृत अवश्य हैं किन्तु उनमें जातीय मिथकों का अन्तर्गुंफन आरंभ से अंत तक मिलता है। ‘इलियड’ और ‘ओडिसी’ में यूनान की मिथक कथाएँ अनुस्यूत हैं और रामायण-महाभारत में भारतीय मिथकों-मुख्यतः वैदिक मिथकों का ताना-बाना आरंभ से अंत तक बना हुआ है। रचना का रूप-आकार धारणा करने से पहले लौकिक-अलौकिक तत्त्वों से गुंफित ये कथाएं मौखिक परंपरा के रूप में प्रचलित रही थीं। अतः इन महाकाव्यों की रचना सार्वजनिक प्रस्तुति के उद्देश्य से वाचक-शैली में की गई है। रामायण में तो इस तथ्य का स्पष्ट रूप में उल्लेख ही कर दिया गया है कि लव और कुश ने जनसमाज तथा राजसभा में इसका वाचक किया था।
मौखिक परंपरा से संबद्ध रहने के कारण इन महाकाव्यों के कलेवर का निरंतर विकास होता रहा है। इसलिए मूलतः एक कवि के कृतित्व से मुद्रांकित होने पर भी ये अपने मूल रूप की रक्षा नहीं कर सके हैं। इसी दृष्टि से उन्हें विकसनशील महाकाव्य कहा गया है। मध्यकाल में रचित ‘बियोवुल्फ' (Beowulf) और हिन्दी में ‘पृथ्वीराज रासो’ इसी कोटि के महाकाव्य हैं। मूलतः वाल्मीकि और व्यास ऋषियों की रचना होने के कारण भारत में ये आर्ष महाकाव्य के नाम से प्रसिद्ध रहे हैं। इन रचनाओं में महाकाव्य विधा के विकास का पहला रूप मिलता है।
ललित काव्य की एक विधा का रूप धारण कर महाकाव्य साहित्यशास्त्र का विषय बन गया और आचार्यों ने साहित्य की अन्य विधाओं की भाँति उसे भी लक्षणवद्ध कर दिया। यूरोप में अरस्तू, इतालवी भाषा के कतिपय आचार्यों, बाद में डॉ॰ जॉन्सन आदि और आधुनिक युग में अनेक काव्य-मर्मज्ञों ने महाकाव्य का स्वरूप-विवेचन किया है। भारत में प्राचीनों में भामह, दंडी, रुद्रट और विश्वनाथ आदि ने विस्तार के साथ महाकाव्य के लक्षण प्रस्तुत किए हैं और आधुनिक साहित्य-मर्मज्ञों ने भी भारतीय तथा पाश्चात्य काव्य-चिंतन के आलोक में उसके स्वरूप का तात्विक विवेचन किया है।
उपर्युक्त तत्त्व-विवेचन का सार-संक्षेप सामान्यः इस प्रकार है-
संक्षेप में महाकाव्य के लक्षण इस प्रकार हैं-
1. ये महाकाव्य अपने देश की जातीय और युगीन सभ्यता-संस्कृति के वाहक होते हैं।
2. इनमें ऐतिहासिक घटनाओं के साथ मिथकों का अंतर्गुफन रहता है।
3. इन महाकाव्यों के केन्द्र में युद्ध रहता है जो व्यक्तिगत तथा वंशगत सीमाओं से ऊपर उठकर जातीय युद्ध का रूप धारण कर लेता है। भारतीय महाकाव्यों में ये 'धर्मयुद्ध' के रूप में लड़े गए हैं। इलियड और ओडिसी में ये युद्ध मूलतः जातीय युद्ध हैं- धर्मयुद्ध नहीं। इसका कारण यह है कि यूनानी चिंतक भाग्यवादी रहा है किन्तु यहाँ भी धर्म की पराजय और अधर्म की विजय को मान्यता नहीं दी गई।
4. रचनाबद्ध होने से पहले इनकी मूलवर्ती घटनाएं मौखिक परंपरा के रूप में रहती हैं।
5. इसलिए सार्वजनिक प्रस्तुति के साथ किसी-न-किसी रूप में इनका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्क्ष संबंध रहता है। अतः इनकी शैली पर वाचन-शैली का प्रभाव अनिवार्यतः लक्षित होता है।
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