ऐतिहासिक उपन्यास उपन्यास साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी भी कालखंड विशेष की प्रख्यात् कथा का चित्रण हो।
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वैसे तो किसी भी कालखंड विशेष का चित्रण ऐतिहासिक उपन्यास हो सकता है। रंगभूमि, बूंद और समुद्र, झूठा सच और उत्तरकथा भी अपने युग का प्रामाणिक चित्रण करने के कारण, ऐतिहासिक उपन्यास हो सकते हैं; किंतु ऐतिहासिक उपन्यास होने के लिए एक अनिवार्य शर्त है - उसकी कथा का प्रख्यात् होना, पाठकों का उससे पूर्व-परिचित होना।
दूसरी ओर हम अपनी पुराकथाओं को भी अपना प्राचीन इतिहास ही मानते हैं; किंतु विद्वानों का एक वर्ग विदेशी सिद्धांतों के अनुसार उसे 'मिथ' अथवा 'मिथ्या' ही मानना चाहता है। अत: वह उसे अपना इतिहास नहीं मानता। परिणामत: पौराणिक उपन्यासों की, ऐतिहासिक उपन्यासों से एक पृथक् श्रेणी बन गई है। पुराकथाओं को अपना इतिहास मानते हुए भी मैं चाहूँगा कि पौराणिक उपन्यासों का वर्ग ऐतिहासिक उपन्यासों से पृथक् ही रहे। कारण ?
पौराणिक उपन्यास केवल एक काल विशेष की घटनाएँ ही नहीं हैं, उनकी अपनी एक मूल्य-व्यवस्था है। वे उपनिषदों के मूल्यों को चरित्रों के माध्यम से उपन्यास के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। जो उपन्यास पौराणिक काल, घटनाओं और चरित्रों पर आधृत तो हैं, किंतु उस मूल्य-व्यवस्था का अनुमोदन नहीं करते, उन्हें पौराणिक उपन्यास कहना उचित नहीं है। उनमें से अधिकांश तो पौराणिक मूल्य-व्यवस्था से अपरिचित अथवा उनके विरोधी लोगों द्वारा उन्हें ध्वस्त करने के लिए ही लिखे गए हैं।
प्रेमचंदपूर्व और प्रेमचंद की ऐतिहासिक और जीवनीपरक कथाएँ समाज को अपना गौरव और शौर्य स्मरण कराने में सफल हुई थीं। किंतु उनका जीवन दीर्घकालीन नहीं हुआ। प्रेमचंद रचित 'हरिसिंह नलवा' आज कितने लोगों को स्मरण है ? उनका बस ऐतिहासिक महत्व ही रह गया है।
वृंदावनलाल वर्मा के अपने वक्तव्यों के अनुसार उनके ऐतिहासिक उपन्यास लिखने के कुछ सामान्य तथा कुछ विशेष कारण हैं। उन्होंने स्वीकार किया है कि सर वाल्टर स्कॉट के अँगरेज़ी उपन्यास पढ़ कर उनके मन में यह बात आई थी कि वे भारत के सम्मान की प्रतिष्ठा के लिए भारत के इतिहास के गौरवपूर्ण पृष्ठों को लेकर वैसे ही उपन्यास लिखेंगे। इस सामान्य कारण के साथ-साथ एक विशेष कारण देते हुए उन्होंने एक घटना की चर्चा की है। बुंदेलखंड में बसे एक पंजाबी परिवार के यहाँ एक विवाह के अवसर पर वर्मा जी भी आमंत्रित थे। वहाँ उस पंजाबी परिवार के अनेक सगे संबंधी और परिचित भी उपस्थित थे। उन लोगों के मध्य होने वाला वार्तालाप वर्मा जी ने भी सुना, जिसमें वे लोग बुंदेलखंड की निर्धनता, पिछड़ेपन तथा अशिक्षा के विषय में अपमानजनक ढंग से चर्चा कर रहे थे; और इस क्षेत्र तथा वहाँ के निवासियों के प्रति अपनी घृणा व्यक्त कर रहे थे। वर्मा जी ने स्वीकार किया है कि यह सब उन्हें अत्यंत अपमानजनक लगा और उन्होंने वहीं संकल्प किया कि वे बुंदेलखंड के गौरव को प्रतिष्ठित करने के लिए उपन्यास लिखेंगे।
उन्होंने अपनी क्षमतानुसार अपने अभीप्सित काल के इतिहास की छानबीन की, अपने कथ्य के लिए प्रमाण जुटाए; और थोड़े बहुत ऐतिहासिक रोमांस की सृष्टि भी की। यद्यपि उनका क्षेत्र केवल बुंदेलखंड तक ही सीमित है; किंतु हम जानते हैं कि अपनी धरती से प्रेम करने वाला लेखक अपनी संस्कृति से भी प्रेम करता है। वस्तुत: इतिहास और भूगोल ही तो संस्कृति का निर्माण करते हैं। उन्होंने 'विराटा की पद्मिनी' और 'गढ़ कुंडार' जैसे ऐतिहासिक रोमांस और 'झाँसी की रानी' जैसा इतिहास-बोझिल उपन्यास भी लिखा; किंतु 'मृगनयनी' जैसे संतुलित उपन्यास भी आए। उनका दृष्टिकोण अत्यंत स्पष्ट है। लेखक अपने समय से मुक्त नहीं होता। वृंदावनललाल वर्मा के पास अपना कथ्य है। वे अपनी लेखनी से एक युद्ध कर रहे हैं। उनका लेखन एक संघर्ष है। वे देश का सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहे हैं; और अपने समाज का मनोबल भी बढ़ा रहे हैं।
आचार्य चतुरसेन शास्त्री के भी अपने लेखन के संबंध में कुछ ऐसे ही वक्तव्य मिल जाते हैं। 'सोमनाथ' के विषय में उन्होंने लिखा है कि कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के उपन्यास 'जय सोमनाथ' को पढ़ कर उनके मन में आकांक्षा जागी कि वे मुंशी के नहले पर अपना दहला मारें; और उन्होंने अपने उपन्यास 'सोमनाथ' की रचना की। 'वयंरक्षाम:' की भूमिका में उन्होंने स्वीकार किया है कि उन्होंने कुछ नवीन तथ्यों की खोज की है, जिन्हें वे पाठक के मुँह पर मार रहे हैं। परिणामत: नहले पर दहला मारने के उग्र प्रयास में 'सोमनाथ' अधिक से अधिक चामत्कारिक तथा रोमानी उपन्यास हो गया है; और अपने ज्ञान के प्रदर्शन तथा अपने खोजे हुए तथ्यों को पाठकों के सम्मुख रखने की उतावली में, उपन्यास विधा की आवश्यकताओं की पूर्ण उपेक्षा कर वे 'वयंरक्षाम:' और 'सोना और ख़ून' में पृष्ठों के पृष्ठ अनावश्यक तथा अतिरेकपूर्ण विवरणों से भरते चले गए हैं। किसी विशिष्ट कथ्य अथवा प्रतिपाद्य के अभाव ने उनकी इस प्रलाप में विशेष सहायता की है। ये कोई ऐसे लक्ष्य नहीं हैं, जो किसी कृति को साहित्यिक महत्व दिला सकें अथवा वह राष्ट्र और समाज की स्मृति में अपने लिए दीर्घकालीन स्थान बना सकें। 'सोना और ख़ून' लिखते हुए चतुरसेन शास्त्री, कदाचित् इतिहास की रौ में ऐसे बह गए कि भूल ही गए कि वे उपन्यास लिख रहे हैं, अत: सैकड़ों पृष्ठ इतिहास ही लिखते चले गए। इससे उपन्यास तत्व की हानि होती है; क्योंकि उपन्यास मात्र इतिहास नहीं है। 'वैशाली की नगरवधू' तथा अन्य अनेक ऐतिहासिक उपन्यास लिखने का लक्ष्य एक विशेष प्रकार के परिवेश का निर्माण करना भी हो सकता है; किंतु इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि अनेक लोग 'वैशाली की नगरवधू' में स्त्री की बाध्यता और पीड़ा देखते हैं। वैसे इतिहास का वह युग, एक ऐसा काल था, जिसमें साहित्यकार को अनेक आकर्षण दिखाई देते हैं। महात्मा बुद्ध, आम्रपाली, सिंह सेनापति तथा अजातशत्रु के आसपास हिंदी साहित्य की अनेक महत्वपूर्ण कृतियों ने जन्म लिया है। उसमें स्त्री की असहायता देखी जाए, या गणतंत्रों के निर्माण और उनके स्वरूप की चर्चा की जाए, वात्सल्य की कथा कही जाए, या फिर मार्क्सवादी दर्शन का सादृश्य ढूँढा जाए - सत्य यह है कि वह परिवेश कई दृष्टियों से असाधारण रूप से रोमानी था।
रांगेय राघव के ऐतिहासिक उपन्यासों की भी एक लंबी सूची है। यहाँ तक कि उन्होंने उस काल पर भी लंबे उपन्यास लिखे हैं, जिसका प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। अत: उसे प्रागैतिहासिक काल कहा जाता है। 'मुर्दों का टीला' में उन्होंने उस युग का काल्पनिक चित्र प्रस्तुत किया है और अपने अनुमान से एक संस्कृति के विलुप्त हो जाने का कारण बताया है। किंतु जिस संस्कृति का विस्तार आज हरियाणा ही नहीं गुजरात तक प्रमाणित हो रहा हो, उसका एक जलप्लावन में समाप्त हो जाना, बहुत सहमत नहीं करता। डूबता एक कस्बा है, नगर डूबता है। कभी-कभी भूकंप से पॉम्पेयी जैसा नगर ध्वस्त हो जाता है। इस प्रकार एक पूरी संस्कृति जलप्लावन में समाप्त नहीं हो जाती। या फिर वह कोई खंड-प्रलय ही था। किंतु जहाँ की यह चर्चा है, वहाँ से जल विलुप्त होने के प्रमाण तो मिले हैं, जलप्लावन के नहीं। फिर भी लेखक की ऐतिहासिक कल्पना की उड़ान का आनन्द तो वैसे उपन्यास देते ही हैं।
हजारीप्रसाद द्विवेदी के सारे ही उपन्यास ऐतिहासिक-पौराणिक उपन्यासों की श्रेणी में आते हैं। उनका परिवेश चित्रण अद्भुत है। वे प्रामाणिक भी हैं और आकर्षक भी। किंतु 'बाणभट्ट की आत्मकथा' की नायिका भट्टिणी ऐतिहासिक चरित्र नहीं है; और उपन्यास की अनेक घटनाएँ ही नहीं, उसका प्रतिपाद्य भी भट्टिणी पर ही निर्भर करता है। अत: वह उपन्यास ऐतिहासिक न रह कर ऐतिहासिक रोमांस हो जाता है; किंतु उपन्यास की दृष्टि से वह दुर्लभ कृति है। 'चारुचंद्रलेख' तथा 'पुनर्नवा' प्राचीन साहित्यिक कृतियों तथा प्रख्यात् लोकथाओं पर आधृत कृतियाँ हैं। 'अनामदास का पोथा', उपनिषद् के पात्र रैक्व मुनि को केन्द्रीय पात्र बना कर लिखा गया है। अत: उसकी गिनती पौराणिक उपन्यासों में ही होती है; किंतु स्पष्टत: लेखक के पास अपना प्रतिपाद्य है। वह अपने समय की समस्याओं को सार्वदेशिक और सार्वकालिक समस्याओं के साथ जोड़ कर उनके शाश्वत समाधान को खोज कर प्रस्तुत कर रहा है।
अमृतलाल नागर ने अनेक युगों से संबंधित अनेक ऐतिहासिक उपन्यास लिखे हैं और उन सब का अपना अपना महत्व है। किंतु उनके तीन उपन्यास 'एकदा नेमिषारण्य' 'मानस का हंस' तथा 'खंजन नयन' कुछ स्पष्टीकरण चाहते हैं। 'एकदा नेमिषारण्य' के केन्द्र में महाभारत-लेखन का विषय है। वह उपन्यास महाभारत कथा से संबंधित नहीं है, अत: वह पौराणिक उपन्यास नहीं है। उसकी समस्या केवल इतनी है कि महाभारत की वर्तमान प्रति, किस काल में और किन लोगों के द्वारा प्रस्तुत की गई। वह काल पूर्णत: ऐतिहासिक है। पात्र चाहे काल्पनिक ही हों। उपन्यास का नायक 'महाभारत का पुनर्लेखन' है।
'मानस का हंस' और 'खंजन नयन' हिंदी के दो महान कवियों को नायक बना कर लिखे गए उपन्यास हैं। यद्यपि 'खंजन नयन' के महत्व से मुझे कोई इंकार नहीं है; किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि अपनी किन्हीं जटिलताओं के कारण वह 'मानस का हंस' के समान न तो चर्चित हुआ और न ही लोकप्रिय ही।
'मानस का हंस'अनेक रूपों में विलक्षण उपन्यास है। नायक गोस्वामी तुलसीदास के समय की दृष्टि से यह ऐतिहासिक उपन्यास है और उनके जीवन, चिंतन, साधना तपस्या, लक्ष्य और उपलब्धि की दृष्टि से वह किसी पौराणिक उपन्यास से भिन्न नहीं लगता। उसका नायक पुराण पुरुष है। ... किंतु पुराण पुरुष को आज के एक साधारण पुरुष से अत्यंत दूर और भिन्न होना चाहिए, जबकि तुलसी एक ऐसे अस्तित्व हैं, जिन्हें हम प्रतिदिन स्मरण करते हैं और अपने बहुत निकट पाते हैं। उनसे तादात्म्य कर सकते हैं।
वह न इंद्र की अमरावती में जन्म लेता है, न किसी ऋषि आश्रम में। एक अभागा बालक है तुलसी, जो उस समय जन्म लेता है, जब देश और ग्राम पर संकट आया हुआ है। युद्ध चल रहा है। सत्ता का हस्तांतरण हो रहा है। माता का देहांत हो जाता है और पिता उसे अभागा मान कर त्याग देते हैं। अंत: और बाह्य साक्ष्यों पर चित्रित किया गया उनका बचपन बताता है कि जो कोई उसे सहारा देने का प्रयत्न करता है, वह संसार के मंच से हट जाता है। उसमें कुछ भी अलौकिक नहीं है, फिर भी ईश्वरीय लीला का प्रवेश हो ही जाता है। जिसका कोई न हो, उसका ईश्वर होता है। तुलसी का भी ईश्वर ही है। वस्तुत: यह भी पुराणों में आई भक्तों की कथा जैसी ही घटना है कि व्यक्ति का अहं पूर्णत: विगलित हो जाता है और वह ईश्वर के सम्मुख पूर्ण आत्मसमर्पण कर देेता है, तो ईश्वर उसका हाथ पकड़ लेते हैं।
किशोर होने तक तुलसी देख लेते हैं कि संसार में कितनी हिंसा है, कितना स्वार्थ है। भूख है, नंगई है। अन्न के लिए स्त्री और पुरुष का शरीर मंडी में बिकता है। सत्ता अत्याचारी है, धन करुणाहीन है, धर्म के केन्द्र भोग में डूबे हैं। ईर्ष्या द्वेष में लिप्त हैं। प्रत्येक भक्त के समान तुलसी भी अपने ईश्वर से पूछते हैं कि यदि यह सृष्टि उसकी है, तो यह संसार इतना नारकीय क्यों है ?
किशोरावस्था में नारीप्रेम है; किंतु तुलसी अधर्म के मार्ग से अपना प्रेम प्राप्त करने का न साहस करते हैं, न प्रयत्न। युवावस्था में दांपत्य है और दांपत्य का संघर्ष। नारी पुरुष का विरोध। मायक़े और ससुराल का पक्ष। पुत्री, पत्नी और नारी का मनोविज्ञान। ... और फिर वैराग्य का आरंभ। अंतहिं तोहि तजेंगे पामर, जो न तजे तू अब ही तें। ... यहाँ से तुलसी एक सामान्य पुरुष से कुछ ऊपर उठते दिखते हैं। यह अस्वाभाविक नहीं है। संवेदनशील मन, वैराग्य का भाव और पत्नी की कठोरता। ऐसे में दो ही विकल्प हैं : या तो वे कामिनी के दास हो जाते, या फिर काम से मुक्त हो जाते। सत्वहीन होते तो जीवन भर को कामिनी के दास हो कर रिरियाते। पर राम का दास काम का दास कैसे हो जाता ?
तुलसी के माध्यम से एक कवि के निर्माण का चित्रण बहुत ही प्रामाणिक रूप से हुआ है। सर्जक मन तो इस प्रकार उनके साथ हो लेता है, जैसे सृजन प्रक्रिया को जानने और समझने के लिए, उनका अनुचर हो गया हो।
ज्योतिषियों और लेखकों की प्रतिस्पर्धाएँ। विद्वानों का एक दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्र। धन और यश के लिए मारामारी। ईर्ष्या द्वेष के बिना तो साहित्य का शायद किसी युग में अस्तित्व रहा ही नहीं है।
साधना के मार्ग में बाधाएँ हैं, प्रलोभन हैं। वे स्त्री के रूप में भी आते हैं और धन-संपत्ति के रूप में भी। किसी भी क्षेत्र का कोई भी साधक जानता है कि वह आगे बढ़ता है, तो उसे रोकने के लिए विघ्न बाधाओं के रूप में छोटी मोटी उपलब्धियाँ ही आती हैं। यदि वह उनमें उलझ जाता है तो आगे नहीं बढ़ता। उन्हें ठुकरा देता है तो बड़ी उपलब्धियों तक जा पहुँचता है।
तुलसी अपनी व्यक्तिगत संबंधों से मुक्त हो कर समग्र समाज के हो जाते हैं। अत: समाज की पीड़ा को देखते और समझते हैं। तभी तो सामाजिक सेवा को वे राम का काम बताते हैं। भूखे प्यासे हत्यारे को जल और भोजन देते हैं। और जाति के नाम पर ललकार कर कहते हैं : धूत कहो, अवधूत कहो, रजपूत कहो, जोल्हा कहो कोई। काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगारि न सोई?।
यहीं से संसार और वैराग्य का संबंध स्पष्ट होता है। संसार और ब्रह्म का समन्वय होता है। संन्यासी और समाज का संबंध प्रकट होता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की 'अनामदास का पोथा' में आई अनेक उक्तियाँ यहाँ स्मरण हो आती हैं। वे कहते हैं कि तपस्या वन में नहीं होती, समाज में रह कर होती है। तुलसी को भी समाज की पीड़ा व्यापती है। वे समाज की सेवा में लग जाते हैं।
कामिनी और कंचन का त्याग ही प्रगति का मार्ग है। धन और यश की कामना को त्यागे बिना मुक्त नहीं हुआ जा सकता। तभी तो तुलसी कहते हैं कि धन की तृष्णा से भी बुरी है यश की लिप्सा। और अंत में रहीम खनख़ाना द्वारा प्रस्तावित अकबर के दरबार की मंसबदारी को ठुकरा देते हैं।
अध्यात्म का वह सिद्धांत कि दुखी की सेवा के समान दूसरा पुण्य नहीं है और 'पर पीड़ा सम नहिं अधमाई'। इसे व्यास ने भी कहा है और तुलसी ने भी पहचाना है। यहीं से स्पष्ट होता है कि संन्यास और वैराग्य का स्वरूप क्या है। स्वार्थ से ऊपर उठ कर, आसक्ति का त्याग कर, देह के संबंधों से मुक्त हो कर ईश्वर की बनाई समग्र सृष्टि से प्रेम; और उसे शिव मान कर उसकी सेवा ही वैराग्य है। ईश्वर निर्भरता ही संन्यास है। इसी से अंतत: साधक को ईश्वर की प्राप्ति होती है।
वस्तुत: अपने इतिहास के उज्ज्वल रूप की पूजा, अपनी संस्कृति की ही पूजा है। तुलसी ने रामचरितमानस में समग्र भारतीय संस्कृति का आसव प्रस्तुत किया था। और तुलसी को कथा नायक बना कर अमृतलाल नागर ने विदेशी आक्रमण की क्रूरता और और विदेशी शासन की कठोरता के मध्य भी अपनी संस्कृति को अपने जीवन में उतारने और उसकी रक्षा के लिए संघर्ष को जीवंत कर दिया है।
स्वामी विवेकानन्द के संबंध में नरेन्द्र कोहली का प्रसिद्ध उपन्यास 'तोड़ो कारा तोड़ो' का पहला खंड 'निर्माण' 1992 ई. में प्रकाशित हुआ था, दूसरा ' साधना' 1993 ई. में, तीसरा 'परिव्राजक' 2003 ई. में और चौथा 'निर्देश' 2004 ई. में।
तो 'तोड़ो कारा तोड़ो' ऐतिहासिक उपन्यास बन जाता है। इतिहास और हमारे अपने युग का अंतराल लगभग समाप्त हो जाता है। उसके नायक का राजनीति से कोई संबंध नहीं है। वह नायक पुराण पुरुष है; किंतु कलकत्ता नगर की सघन आबादी में जन्मा, पला और बढ़ा है। उसने कलकत्ता विश्वविद्यालय में अध्ययन किया है। वह राजकुमारों के समान पला है और अपने पिता के मित्रों के कारण ही दरिद्र हो जाता है। भूखे पेट, फटे और मैले कपड़ों में नंगे पाँव चलते हुए चक्कर खा कर गिर पड़ता है। ऐसे में उसे दिव्य अनुभूति होती है। अध्यात्म इस यथार्थ संसार में ऐसा प्रवेश करता है कि उस सुदर्शन पुरुष का, जिसे देख कर अमरीकी युवतियाँ पागल हो गई थीं, विवाह नहीं हो पाता। उसे एक साधारण-सी पत्नी नहीं मिल पाती। जिसके विषय में डॉ॰ हेनरी जॉन राइट ने लिखा था कि उसकी विद्वता, अमरीका के सारे विद्वान् प्रोफेसरों की सामूहिक विद्वता से भी अधिक थी, उसे कलकत्ता नगर में सौ रुपए की एक नौकरी नहीं मिलती। वह स्वयं स्वीकार करता है कि उसका जन्म इसलिए नहीं हुआ कि वह विवाह कर बच्चे पैदा करे और क्लर्की या मास्टरी कर उनका पालन पोषण करे। वह एक लक्ष्य लेकर संसार में आया था। उसके गुरु ने उसे 'माँ का काम' कहा था।
भारत भर में घूम कर उसने भारत माता की संतानों का कष्ट देखा था। अत: विभिन्न रियासतों में घूम-घूम कर पुरातन ज्ञान को त्यागे बिना नूतन युग के ज्ञान को उससे जोड़ने को कहा था। खेतड़ी नरेश राजा अजितसिंह के प्रासाद के ऊपर भौतिकी की प्रयोगशाला खुलवा दी थी। बडोदरा के गायकवाड़ को कहा था कि अपने यहाँ के बालकों को तकनीकी शिक्षा दें और इंजीनियरिंग कॉलेज खोलें। अमरीका में कहा था, हम तुम्हें धर्म देंगे, तुम हम को उद्योग धंधे दो। एक संन्यासी इस देश के लिए शिक्षा नीति बना रहा था, ताकि देश से निर्धनता और अज्ञान दूर हो सके। अध्यात्म संसार के बहुत निकट आ गया था।
कन्या कुमारी में समाधि में स्वामी विवेकानन्द ने अपने लिए दो मार्ग देखे थे - जगदंबा के दर्शन, समाधि का सुख और अपने लिए मोक्ष। दूसरा था भारत माता की निर्धन और पीड़ित संतान की सेवा। उनके लिए भारतमाता और जगदंबा में कोई अंतर ही नहीं रह गया था। वह संन्यासी विदेशियों द्वारा भारत माता के मुख पर पोती गई कालिमा को धोने के लिए अमरीका गया था और गया था कि वहाँ से स्वयं धन कमा कर लाए और इस देश के असहाय दरिद्रों की सहायता करे; क्योंकि वह जान गया था कि इस देश के धनी स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित हैं तथा निर्धन असमर्थ हैं।
यह ऐतिहासिक उपन्यास ईशावास्योपनिषद की उस घोषणा को दोहराता है कि अध्यात्म की उपेक्षा कर केवल संसार की पूजा कर कोई देश अथवा समाज प्रसन्न नहीं रह सकता; और न ही कोई देश केवल अध्यात्म को अपना कर संसार की पूर्ण उपेक्षा कर अपना विकास कर अपने लिए सुख अर्जित कर सकता है।
स्वामी विवेकानन्द ने परिव्राजक के रूप में भारत का भ्रमण करते हुए, अलवर में अपने शिष्यों से कहा था कि आज तक भारत का इतिहास विदेशियों ने ही लिखा है। भारत का इतिहास अव्यवस्थित है। उसमें कालक्रम परिशुद्ध और यथार्थ नहीं है। अँगरेज़ों तथा अन्य विदेशियों द्वारा लिखा गया इतिहास हमारे मनोबल को तोड़ने के लिए ही है। वह हमें दुर्बल ही बनाएगा। वे हमें हमारे दोष ही बताते हैं। जो विदेशी, हमारे तौर-तरीक़े, रीति-रिवाज, हमारे धर्म और दर्शन को बहुत कम समझते हैं, वे हमारा वास्तविक और पूर्वाग्रहरहित इतिहास कैसे लिख सकते हैं ? इसीलिए उसमें अनेक भ्रांतियाँ घर कर गई हैं। अब यह हमारे लिए है कि हम अपना स्वतंत्र मार्ग खोजें। अपने प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करें, शोध करें; और परिशुद्ध, यथार्थ, सहानुभूतिपूर्ण तथा आत्मा को उद्दीप्त कर देने वाला इतिहास लिखें।
ऐतिहासिक उपन्यास की सार्थकता केवल उस देश और काल के संुदर और आकर्षक चित्रण मात्र में नहीं है। वह अपने युग को असीम और निर्बाध काल के साथ जोड़ता है और उसका अपना एक निश्चित् प्रतिपाद्य भी होता है। उसके अभाव में कोई कृति महत्व प्राप्त नहीं कर सकती।
यशपाल की 'दिव्या' एक सिद्धांत के प्रतिपादन के लिए लिखी गई। किंतु उसमें इतिहास नहीं, मात्र ऐतिहासिक परिवेश है। वहाँ इतिहास का कलात्मक आभास मात्र है, जैसे भगवतीचरण वर्मा की 'चित्रलेखा' है। वे ऐतिहासिक उपन्यास नहीं हैं। वहाँ अपनी बात कहने के लिए इतिहास का कलात्मक भ्रम मात्र उत्पन्न किया गया है।
जीवनी पूर्णत: ऐतिहासिक कृति है; किंतु वह उपन्यास नहीं है। रांगेय राघव ने उपन्यास के बहुत निकट रहते हुए, अनेक पात्रों की ऐतिहासिक जीवनियाँ लिखी हैं।
जीवनी और ऐतिहासिक उपन्यास में क्या अंतर है ? और जीवनियाँ उपलब्ध हों तो क्या उपन्यास उससे कुछ अधिक दे सकता है ?
ऐतिहासिक उपन्यास जीवनी से बहुत अधिक दे सकता है। यदि ऐसा न होता तो स्वामी विवेकानन्द की जीवनियाँ और उनके भाषण इत्यादि पढ़ कर भी पाठक को उपन्यास से ही अधिक तृप्ति क्यों मिलती ? उपन्यास जीवनी से अधिक ऐतिहासिक नहीं होता। नहीं हो सकता। फिर भी पाठकों में उपन्यास की माँग क्यों है ?
उदाहरणार्थ, स्वामी विवेकानंद कोई प्रामाणिक जीवनी नहीं बताती कि पिता के देहांत के पश्चात् उनका परिवार अकस्मात् ही इतना निर्धन क्यों हो गया था। जीवनी बताती है कि उनकी बहनें थीं किंतु पिता के देहांत के पश्चात् पता ही नहीं चलता कि वे कहाँ गईं। जीवनीकार स्वामी जी की जीवनी लिख रहा है, अत: उनकी बहनों के विवाह की चर्चा क्यों करेगा ? स्वामी जी को अल्मोड़ा में अपनी किस बहन की आत्महत्या का समाचार मिला था ? ये तथा इस प्रकार के सैकड़ों प्रश्न जीवनियों में अनुत्तरित ही रह जाते हैं। जीवनीकार कहता है कि स्वामीजी ने अजितसिंह से वेदांत की चर्चा की। हरविलास शारदा और श्यामकृष्ण वर्मा से गंभीर चर्चाएँ कीं। किंतु वह यह नहीं बताता कि वे चर्चाएँ क्या थीं। वह यह नहीं बताता कि उनके साथ शिकागो तक जाने वाले लल्लू भाई कौन थे और वे बोस्टन के पश्चात् कहाँ विलुप्त हो गए।
कुल मिला कर जीवनी में लेखक सब स्थानों पर उपस्थित है और केवल सूचनाएँ दे रहा है। वह भी छान छान कर। उपन्यासकार उस सारे परिवेश को जीवंत बना देता है। वह ईश्वर के समान सारे पात्रों के मन में समा जाता है। वह सब कहीं व्याप्त है, पर दिखाई कहीं नहीं देता। वह परकाया प्रवेश करता है। अपने चरित्रों को दूर से नहीं देखता, उनके साथ तादात्म्य करता है। वही हो जाता है।
भाषा की दृष्टि से भी ये सारे ही उपन्यास बहुत समर्थ और सबल हैं। हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्द तो अपना अर्थ स्वयं उद्घाटित करते चलते हैं। वे कथा सनाते हुए भी शब्द विचार करते चलते हैं। और नागर जी चरित्रों के अनुसार बोली को जिस प्रकार प्रस्तुत करते हैं - वह अद्भुत है। उनके यहाँ ग्रामीण की अवधी, नागर की अवधी, सुशिक्षित पंडित की अवधी और अनपढ़ की अवधी, हिंदू की अवधी और मुसलमान की अवधी का भेद, अपने आप ही आप का ध्यान अपनी ओर खींचने लगता है।
इन उपन्यासों की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इन में इतिहास आजके पाठक को स्वयं से असंपृक्त अथवा बहुत दूर नहीं लगता। इहलोक और अध्यात्म दो विरोधी अवधारणाएँ नहीं रह जातीं। आरण्यक जीवन और नागरिक जीवन एक दूसरे से अपरिचित नहीं रह जाते।
हमारा ऐतिहासिक उपन्यास एक लंबी यात्रा तय कर आया है और कुछ ऐसे निष्कर्षों पर पहुँच रहा है, जो हमारे समाज के लिए सिद्धांत मात्र नहीं हैं। वह उनका दैनन्दिन जीवन है। वह उनको एक समग्र जीवनदर्शन दे रहा है, जो केवल इहलौकिकता का वर्णन करने वाले सामाजिक-सांसारिक उपन्यास नहीं दे सकते। हाँ ! पाठक से वह थोड़ी सात्विक बुद्धि की अपेक्षा भी करता है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि इस देश को अपनी स्वतंत्रता के लिए भी राजनीति की दलदल में धँसने की आवश्यकता नहीं है। यदि हम अपना सात्विक चरित्र प्राप्त कर लेंगे तो हमारी समस्याओं का समाधान अपने आप ही हो जाएगा।
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