सिख धर्म, या सिखी एकेश्वरवादी धर्म है और निराकार की उपासना करता है।
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सिख धर्म में चंडी के ये अर्थ हैं :
आदि शक्ति ही विवेक बुद्धि है, क्योंकि विवेक बुद्धि आदि शक्ति में लीं है। सिख धर्म के अनुसार गुरु नानक साहिब समेत सारे सतगुरु, भक्त जनों ने भगवती का ध्यान किया था।
गुरु गोविन्द सिंह जी ने चार रचनाएँ की जिसमें चंडी के अनेक गुणों का विस्तार किया। चंडी का अर्थ अगर किसी ने समझना है तो गुरु गोबिंद सिंह जी की बानी इसके अर्थों और उल्लेखन की खान है। गुरु साहिब ने चंडी के अनेक नाम लिखे हैं जैसे भगोती, खडग धारा, दुर्गा, तीर, काली, तुपक, अस, भगोती, देवता, खंडा, अदर सुता, पार्वती, जगबीर, जगमात, परा, परभी, बाड बारी, काटी, कटारी पूरनी, हल्बी, ज्वाला, तीर, चंचला, लाल नैना, तेग आदिक जो अपने आप में गहरे अर्थ रखते हैं।
सिख धर्म की अरदास ही यहीं से शुरू होती है "प्रिथम भगौती सिमरि कै गुरु नानक लई धिआइ ॥" अर्थात् मैं पहले भगवती का स्मरण करके उसके बाद गुरु नानक का ध्यान करके...।
अगर गुरु गोबिंद सिंह जी की रचनाओं और शब्दों का मुल्यांकन किया जाए तो यह बात साफ़ प्रतीत होती है कि गुरु गोबिंद सिंह जी ने चंडी को "आदि शक्ति" ही बताया है। अगर हम यह माने की उन्होंने "आदि शक्ति" की मूर्ती/प्रतिमा बनाई या प्रचलित कर्म कांड के अनुसार पूजा अर्चना की या किसी औरत (महादेव की सुपत्नी आदिक) की आराधना की तो गुरु गोबिंद सिंह स्वयम अपनी वाणी में कहते हैं : पवित्री पुनीता पुराणी परेयं ॥ प्रभी पूरणी पारब्रहमी अजेयं ॥ अरूपं अनूपं अनामं अठामं ॥ अभीतं अजीतं महां धरम धामं ॥३२॥२५१॥ (चंडी चरित्र भाग २)
जिसमें साफ़ कथित है कि हे देवी, तेरा कोई रूप नहीं है, तूं अनूप है, तेरा कोई नाम नहीं है। यही नहीं गुरु गोबिंद सिंह ने मूर्ती पूजा की घोर अज्ञानता बताया है और जहां मूर्ती पूजक को पशू कहा है वहीं कर्म कांड को निष्फल बताया है। इन सब बातों को ध्यान में रखें तो यह बात कहीं से भी जाहिर नहीं होती की गुरु साहिब ने किसी चंडी को किसी मूर्ती, इस्त्री या किसी पदार्थ रूप में माना है।
चंडी की सारी जंग विवेक बुद्धी और अविवेक बुद्धी की जंग है। जहाँ विवेक बुद्धी को "चंडी" कहा गया है और अविवेक बुद्धी दैत्य के रूप में बताएं हैं। दैत्य धर्म के विपरीत हैं, देवते कर्म कांड में व्यस्त हैं और चंडी गुरमुख है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने पारसनाथ अवतार रचना में भी इसी तरहां की जंग का खुलासा किया है।
पुरानो के दिग्गज भी यह बात मानते हैं कि चंडी आदि शक्ति ही होती है और अरूप होती है, उसके गुणों को ही मूर्ती में प्रदर्शित किया है लेकिन मूर्ती अपने आप में पूरी नहीं है।
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