सनातन धर्म में सद्गृहस्थ की, परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक परिपक्वता आ जाने पर युवक-युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह कोई शारीरिक या सामाजिक अनुबन्ध मात्र नहीं हैं, यहाँ दाम्पत्य को एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का भी रूप दिया गया है। इसलिए कहा गया है 'धन्यो गृहस्थाश्रमः'। सद्गृहस्थ ही समाज को अनुकूल व्यवस्था एवं विकास में सहायक होने के साथ श्रेष्ठ नई पीढ़ी बनाने का भी कार्य करते हैं। वहीं अपने संसाधनों से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रमों के साधकों को वांछित सहयोग देते रहते हैं। ऐसे सद्गृहस्थ बनाने के लिए विवाह को रूढ़ियों-कुरीतियों से मुक्त कराकर श्रेष्ठ संस्कार के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करना आवश्यक है। युग निर्माण के अन्तर्गत विवाह संस्कार के पारिवारिक एवं सामूहिक प्रयोग सफल और उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
इस लेख को विकिफ़ाइ करने की आवश्यकता हो सकती है ताकि यह विकिपीडिया के गुणवत्ता मानकों पर खरा उतर सके। कृपया प्रासंगिक आन्तरिक कड़ियाँ जोड़कर, या लेख का लेआउट सुधार कर सहायता प्रदान करें। (फ़रवरी 2016) अधिक जानकारी के लिये दाहिनी ओर [दिखाएँ] पर क्लिक करें।
|
इस लेख में सत्यापन हेतु अतिरिक्त संदर्भ अथवा स्रोतों की आवश्यकता है। कृपया विश्वसनीय स्रोत जोड़कर इस लेख में सुधार करें। स्रोतहीन सामग्री को चुनौती दी जा सकती है और हटाया भी जा सकता है। स्रोत खोजें: "विवाह संस्कार" – समाचार · अखबार पुरालेख · किताबें · विद्वान · जेस्टोर (JSTOR) |
विवाह दो आत्माओं का पवित्र बन्धन है। दो प्राणी अपने अलग-अलग अस्तित्वों को समाप्त कर एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं। स्त्री और पुरुष दोनों में परमात्मा ने कुछ विशेषताएँ और कुछ अपूणर्ताएँ दे रखी हैं। विवाह सम्मिलन से एक-दूसरे की अपूर्णताओं को अपनी विशेषताओं से पूर्ण करते हैं, इससे समग्र व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इसलिए विवाह को सामान्यतया मानव जीवन की एक आवश्यकता माना गया है। एक-दूसरे को अपनी योग्यताओं और भावनाओं का लाभ पहुँचाते हुए गाड़ी में लगे हुए दो पहियों की तरह प्रगति-पथ पर अग्रसर होते जाना विवाह का उद्देश्य है। वासना का दाम्पत्य-जीवन में अत्यन्त तुच्छ और गौण स्थान है, प्रधानतः दो आत्माओं के मिलने से उत्पन्न होने वाली उस महती शक्ति का निर्माण करना है, जो दोनों के लौकिक एवं आध्यात्मिक जीवन के विकास में सहायक सिद्ध हो सके।
आज विवाह वासना-प्रधान बनते चले जा रहे हैं। रंग, रूप एवं वेष-विन्यास के आकर्षण को पति-पत्नि के चुनाव में प्रधानता दी जाने लगी है, यह प्रवृत्ति बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। यदि लोग इसी तरह सोचते रहे, तो दाम्पत्य-जीवन शरीर प्रधान रहने से एक प्रकार के वैध-व्यभिचार का ही रूप धारण कर लेगा। पाश्चात्य जैसी स्थिति भारत में भी आ जायेगी। शारीरिक आकर्षण की न्यूनाधिकता का अवसर सामने आने पर विवाह जल्दी-जल्दी टूटते-बनते रहेंगे। अभी पत्नी का चुनाव शारीरिक आकर्षण का ध्यान में रखकर किये जाने की प्रथा चली है, थोड़े ही दिनों में इसकी प्रतिक्रिया पति के चुनाव में भी सामने आयेगी। तब असुन्दर पतियों को कोई पत्नी पसन्द न करेगी और उन्हें दाम्पत्य सुख से वंचित ही रहना पड़ेगा।
समय रहते इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोका जाना चाहिए और शारीरिक आकर्षण की उपेक्षा कर सद्गुणों तथा सद्भावनाओं को ही विवाह का आधार पूवर्काल की तरह बने रहने देना चाहिए। शरीर का नहीं आत्मा का सौन्दयर् देखा जाए और साथी में जो कमी है, उसे प्रेम, सहिष्णुता, आत्मीयता एवं विश्वास की छाया में जितना सम्भव हो सके, सुधारना चाहिए, जो सुधार न हो सके, उसे बिना असन्तोष लाये सहन करना चाहिए। इस रीति-नीति पर दाम्पत्य जीवन की सफलता निर्भर है। अतएव पति-पतनी को एक-दूसरे से आकर्षण लाभ मिलने की बात न सोचकर एक-दूसरे के प्रति आत्म-समपर्ण करने और सम्मिलित शक्ति उत्पन्न करने, उसके जीवन विकास की सम्भावनाएँ उत्पन्न करने की बात सोचनी चाहिए। चुनाव करते समय तक साथी को पसन्द करने न करने की छूट है। जो कुछ देखना, ढूँढ़ना, परखना हो, वह कार्य विवाह से पूर्व ही समाप्त कर लेना चाहिए। जब विवाह हो गया, तो फिर यह कहने की गुंजाइश नहीं रहती कि भूल हो गई, इसलिए साथी की उपेक्षा की जाए। जिस प्रकार के भी गुण-दोष युक्त साथी के साथ विवाह बन्धन में बँधें, उसे अपनी ओर से कर्त्तव्यपालन समझकर पूरा करना ही एक मात्र मार्ग रह जाता है। इसी के लिए विवाह संस्कार का आयोजन किया जाता है। समाज के सम्भ्रान्त व्यक्तियों की, गुरुजनों की, कुटुम्बी-सम्बन्धियों की, देवताओं की उपस्थिति इसीलिए इस धर्मानुष्ठान के अवसर पर आवश्यक मानी जाती है कि दोनों में से कोई इस कर्तव्य-बन्धन की उपेक्षा करे, तो उसे रोकें और प्रताड़ित करें।
पति-पत्नी इन सम्भ्रान्त व्यक्तियों के सम्मुख अपने निश्चय की, प्रतिज्ञा-बन्धन की घोषणा करते हैं। यह प्रतिज्ञा समारोह ही विवाह संस्कार है। इस अवसर पर दोनों की ही यह भावनाएँ गहराई तक अपने मन में जमानी चाहिए कि वे पृथक् व्यक्तियों की सत्ता समाप्त कर एकीकरण की आत्मीयता में विकसित होते हैं। कोई किसी पर न तो हुकूमत जमायेगा और न अपने अधीन-वशवर्ती रखकर अपने लाभ या अहंकार की पूर्ति करना चाहेगा। वरन् वह करेगा, जिससे साथी को सुविधा मिलती हो। दोनों अपनी इच्छा आवश्यकता को गौण और साथी की आवश्यकता को मुख्य मानकर सेवा और सहायता का भाव रखेंगे, उदारता एवं सहिष्णुता बरतेंगे, तभी गृहस्थी का रथ ठीक तरह आगे बढ़ेगा। इस तथ्य को दोनों भली प्रकार हृदयंगम कर लें और इसी रीति-नीति को आजीवन अपनाये रहने का व्रत धारण करें, इसी प्रयोजन के लिए यह पुण्य-संस्कार आयोजित किया जाता है। इस बात को दोनों भली प्रकार समझ लें और सच्चे मन से स्वीकार कर लें, तो ही विवाह-बन्धन में बँधें। विवाह संस्कार आरम्भ करने से पूर्व या विवाह वेदी पर बिठाकर दोनों को यह तथ्य भली प्रकार समझा दिया जाए और उनकी सहमति माँगी जाए। यदि दोनों इन आदर्शों को अपनाये रहने की हार्दिक सहमति-स्वीकृति दें, तो ही विवाह संस्कार आगे बढ़ाया जाए।
विवाह संस्कार में देव पूजन, यज्ञ आदि से सम्बन्धित सभी व्यवस्थाएँ पहले से बनाकर रखनी चाहिए। सामूहिक विवाह हो, तो प्रत्येक जोड़े के हिसाब से प्रत्येक वेदी पर आवश्यक सामग्री रहनी चाहिए, कर्मकाण्ड ठीक से होते चलें, इसके लिए प्रत्येक वेदी पर एक-एक जानकार व्यक्ति भी नियुक्त करना चाहिए। एक ही विवाह है, तो आचार्य स्वयं ही देख-रेख रख सकते हैं। सामान्य व्यवस्था के साथ जिन वस्तुओं की जरूरत विशेष कर्मकाण्ड में पड़ती है, उन पर प्रारम्भ में दृष्टि डाल लेनी चाहिए। उसके सूत्र इस प्रकार हैं।
वर सत्कार के लिए सामग्री के साथ एक थाली रहे, ताकि हाथ, पैर धोने की क्रिया में जल फैले नहीं। मधुपर्क पान के बाद हाथ धुलाकर उसे हटा दिया जाए। यज्ञोपवीत के लिए पीला रंगा हुआ यज्ञोपवीत एक जोड़ा रखा जाए, यज्ञोपवित जनेऊ कभी भी वस्त्र के ऊपर नहीं पहनाए, अत्यंत अशुभ होता है और वार को जनेऊके लघुशंका, दीर्घशंका के बाद उपयोग करनेकान पर तीन बार लपेटकर उपयोग और बाद में जनेऊ उतारने से पहले हाथ धोना, तीन बारकुल्ला और पैर धोना दोनों बताया जाए। विवाह घोषणा के लिए वर-वधू पक्ष की पूरी जानकारी पहले से ही नोट कर ली जाए। वस्त्रोपहार तथा पुष्पोपहार के वस्त्र एवं मालाएँ तैयार रहें। कन्यादान में हाथ पीले करने की हल्दी, गुप्तदान के लिए गुँथा हुआ आटा (लगभग एक पाव) रखें। ग्रन्थिबन्धन के लिए हल्दी, पुष्प, अक्षत, दुर्वा और द्रव्य हों। शिलारोहण के लिए पत्थर की शिला या समतल पत्थर का एक टुकड़ा रखा जाए। हवन सामग्री के अतिरिक्त लाजा (धान की खीलें) रखनी चाहिए। वर-वधू के पद प्रक्षालन के लिए परात या थाली रखे जाए। पहले से वातावरण ऐसा बनाना चाहिए कि संस्कार के समय वर और कन्या पक्ष के अधिक से अधिक परिजन, स्नेही उपस्थित रहें। सबके भाव संयोग से कमर्काण्ड के उद्देश्य में रचनात्मक सहयोग मिलता है। इसके लिए व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों ही ढंग से आग्रह किए जा सकते हैं। विवाह के पूर्व यज्ञोपवीत संस्कार हो चुकता है। अविवाहितों को एक यज्ञोपवीत तथा विवाहितों को जोड़ा पहनाने का नियम है। यदि यज्ञोपवीत न हुआ हो, तो नया यज्ञोपवीत और हो गया हो, तो एक के स्थान पर जोड़ा पहनाने का संस्कार विधिवत् किया जाना चाहिए। अच्छा हो कि जिस शुभ दिन को विवाह-संस्कार होना है, उस दिन प्रातःकाल यज्ञोपवीत धारण का क्रम व्यवस्थित ढंग से करा दिया जाए। विवाह-संस्कार के लिए सजे हुए वर के वस्त्र आदि उतरवाकर यज्ञोपवीत पहनाना अटपटा-सा लगता है। इसलिए उसको पहले ही पूरा कर लिया जाए। यदि वह सम्भव न हो, तो स्वागत के बाद यज्ञोपवीत धारण करा दिया जाता है। उसे वस्त्रों पर ही पहना देना चाहिए, जो संस्कार के बाद अन्दर कर लिया जाता है। जहाँ पारिवारिक स्तर के परम्परागत विवाह आयोजनों में मुख्य संस्कार से पूर्व द्वाराचार (द्वार पूजा) की रस्म होती है, वहाँ यदि हो-हल्ला के वातावरण को संस्कार के उपयुक्त बनाना चाहिए, तो स्वागत तथा वस्त्र एवं पुष्पोपहार वाले प्रकरण उस समय भी पूरे कराये जा सकते हैं विशेष आसन पर बिठाकर वर का सत्कार किया जाए। फिर कन्या को बुलाकर परस्पर वस्त्र और पुष्पोपहार सम्पन्न कराये जाएँ। परम्परागत ढंग से दिये जाने वाले अभिनन्दन-पत्र आदि भी उसी अवसर पर दिये जा सकते हैं। इसके कमर्काण्ड का संकेत आगे किया गया है। पारिवारिक स्तर पर सम्पन्न किये जाने वाले विवाह संस्कारों के समय कई बार वर-कन्या पक्ष वाले किन्हीं लौकिक रीतियों के लिए आग्रह करते हैं। यदि ऐसा आग्रह है, तो पहले से नोट कर लेना-समझ लेना चाहिए। पारिवारिक स्तर पर विवाह-प्रकरणों में वरेच्छा या बरीक्क्षा, तिलक (शादी पक्की करना), लगुन जिसमें दोनों पक्ष की लगन पत्रिका कुंडली और तीन पीढ़ी के कुल मुखिया का नाम लिया जाता है। लगुन में शास्त्र अनुसार पिता यथाशक्ति स्वेच्छा से कन्या के नए जीवन के परिवार के लिए भेंट अर्पित करता है। फिर हल्दी से शरीर के विभिन्न अंगों की शुद्धि रस्म होती है। कन्या हरिद्रा लेपन (हल्दी चढ़ाना) तथा द्वारपूजन होता हैं। मंडप बसोर समाज बांस से आम की पतली शाखाओं पत्तों से बनाता है। दामाद या बहनोई से मंडप के मध्य खंब लगाने पात्र में, पहले से पीपल के पास की निकाली गई शुद्ध मिट्टी भरवाए जाती और सम्मान नेग दिया जाता है। पारिवारिक नाई विवाह की रस्मे पंडितजी के साथ पूरी करवाता है। अन्य सामाजिक विधानों का भी निर्वाह किया जाता है।
विवाह से पूर्व 'तिलक' का संक्षिप्त विधान इस प्रकार है-
वर पूर्वाभिमुख तथा तिलक करने वाले (पिता, भाई आदि) पश्चिमाभिमुख बैठकर निम्नकृत्य सम्पन्न करें- मंगलाचरण, षट्कर्म, तिलक, कलावा, कलशपूजन, गुरुवन्दना, गौरी-गणेश पूजन, सर्वदेव नमस्कार, स्वस्तिवाचन आदि इसके बाद कन्यादाता वर का यथोचित स्वागत-सत्कार (पैर धुलाना, आचमन कराना तथा हल्दी से तिलक करके अक्षत लगाना) करें। तदुपरान्त 'वर' को प्रदान की जाने वाली समस्त सामग्री (थाल-थान, फल-फूल, द्रव्य-वस्त्रादि) कन्यादाता हाथ में लेकर संकल्प मन्त्र बोलते हुए वर को प्रदान कर दें-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य, अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये पर्राधे श्रीश्वेतवाराहकल्पे, वैवस्वतमन्वन्तरे, भूर्लोके, जम्बूद्वीपे, भारतर्वषे, भरतखण्डे, आर्यावर्त्तैकदेशान्तर्गते, .......... क्षेत्रे, .......... विक्रमाब्दे .......... संवत्सरे .......... मासानां मासोत्तमेमासे .......... मासे .......... पक्षे .......... तिथौ .......... वासरे .......... गोत्रोत्पन्नः ............(कन्यादाता) नामाऽहं ...............(कन्या-नाम) नाम्न्या कन्यायाः (भगिन्याः) करिष्यमाण उद्वाहकमर्णि एभिवर्रणद्रव्यैः ...............(वर का गोत्र) गोत्रोत्पन्नं ...............(वर का नाम) नामानं वरं कन्यादानार्थं वरपूजनपूर्वकं त्वामहं वृणे, तन्निमित्तकं यथाशक्ति भाण्डानि, वस्त्राणि, फलमिष्टान्नानि द्रव्याणि च...............(वर का नाम) वराय समपर्ये।
तत्पश्चात् क्षमा प्राथर्ना, नमस्कार, विसजर्न तथा शान्ति पाठ करते हुए कार्यक्रम समाप्त करें।
विवाह से पूर्व वर-कन्या के प्रायः हल्दी चढ़ाने का प्रचलन है, उसका संक्षिप्त विधान इस प्रकार है- सवर्प्रथम षट्कर्म, तिलक, कलावा, कलशपूजन, गुरुवन्दना, गौरी-गणेश पूजन, सर्वदेवनमस्कार, स्वस्तिवाचन करें। तत्पश्चात् निम्न मंत्र बोलते हुए वर/कन्या की हथेली- अंग-अवयवों में (लोकरीति के अनुसार) हरिद्रालेपन करें-
ॐ काण्डात् काण्डात्प्ररोहन्ती, परुषः परुषस्परि। एवा नो दूवेर् प्र तनु, सहस्त्रेण शतेन च॥ -१३.२०
इसके बाद वर के दाहिने हाथ में तथा कन्या के बायें हाथ में रक्षा सूत्रकंकण (पीले वस्त्र में कौड़ी, लोहे की अँगूठी, पीली सरसों, पीला अक्षत आदि बाँधकर बनाया गया।) निम्नलिखित मन्त्र से पहनाएँ-
ॐ यदाबध्नन्दाक्षायणा, हिरण्य शतानीकाय, सुमनस्यमानाः। तन्मऽआबध्नामि शतशारदाय, आयुष्मांजरदष्टियर्थासम्॥ -३४.५२
तत्पश्चात् क्षमा प्राथर्ना, नमस्कार, विसजर्न, शान्तिपाठ के साथ कायर्क्रम पूर्ण करें।
विवाह हेतु बारात जब द्वार पर आती है, तो सर्वप्रथम 'वर' का स्वागत-सत्कार किया जाता है, जिसका क्रम इस प्रकार है- 'वर' के द्वार पर आते ही आरती की प्रथा हो, तो कन्या की माता आरती कर लें। तत्पश्चात् 'वर' और कन्यादाता परस्पर अभिमुख बैठकर षट्कर्म, कलावा, तिलक, कलशपूजन, गुरुवन्दना, गौरी-गणेश पूजन, सर्वदेवनमस्कार, स्वस्तिवाचन करें। इसके बाद कन्यादाता वर सत्कार के सभी कृत्य आसन, अर्घ्य, पाद्य, आचमन, मधुपर्क आदि (विवाह संस्कार से) सम्पन्न कराएँ। तत्पश्चात्
ॐ गन्धद्वारां दुराधर्षां........... (पृ० .....) से तिलक लगाएँ तथा
ॐ अक्षन्नमीमदन्त ...... (पृ० ....) से अक्षत लगाएँ।
माल्यार्पण एवं कुछ द्रव्य 'वर' को प्रदान करना हो, तो निम्नस्थ मन्त्रों से सम्पन्न करा दें-
माल्यापर्ण मन्त्र-
ॐ मंगलं भगवान विष्णुः ............ (पृ०...)
द्रव्यदान मन्त्र -
ॐ हिरण्यगर्भः समवत्तर्ताग्रे ......... (पृ०...)
तत्पश्चात् क्षमाप्रार्थना, नमस्कार, देवविसर्जन एवं शान्तिपाठ करें।
विवाह वेदी पर वर और कन्या दोनों को बुलाया जाए, प्रवेश के साथ मंगलाचरण 'भद्रं कणेर्भिः.......' मन्त्र बोलते हुए उन पर पुष्पाक्षत डाले जाएँ। कन्या दायीं ओर तथा वर बायीं ओर बैठे। कन्यादान करने वाले प्रतिनिधि कन्या के पिता, भाई जो भी हों, उन्हें पत्नी सहित कन्या की ओर बिठाया जाए। पत्नी दाहिने और पति बायीं ओर बैठें। सभी के सामने आचमनी, पंचपात्र आदि उपकरण हों। पवित्रीकरण, आचमन, शिखा-वन्दन, प्राणायाम, न्यास, पृथ्वी-पूजन आदि षट्कर्म सम्पन्न करा लिये जाएँ। वर-सत्कार- (अलग से द्वार पूजा में वर सत्कार कृत्य हो चुका हो, तो दुबारा करने की आवश्यकता नहीं है।) अतिथि रूप में आये हुए वर का सत्कार किया जाए। (१) आसन (२) पाद्य (३) अर्ध्य (४) आचमन, टीका माल्यार्पण (५) नैवेद्य पान आदि निर्धारित मन्त्रों से समपिर्त किए जाएँ। कलश पूजन खंब में 33 कोटि अर्थात 33 प्रकार के
दिशा और प्रेरणा वर का अतिथि के नाते सत्कार किया जाता है। गृहस्थाश्रम में गृहलक्ष्मी का महत्त्व सवोर्परि होता है। उसे लेने वर एवं उसके हितैषी परिजन कन्या के पिता के पास चल कर आते हैं। श्रेष्ठ उद्देश्य से सद्भावनापूर्वक आये अतिथियों का स्वागत करना कन्या पक्ष का कर्तव्य हो जाता है। दोनों पक्षों को अपने-अपने इन सद्भावों को जाग्रत् रखना चाहिए।
निम्न मन्त्र बोलें- ॐ साधु भवान् आस्ताम्। अचर्यिष्यामो भवन्तम्। -पार०गृ० १.३1४
वर दाहिने हाथ में अक्षत स्वीकार करते हुए भावना करें कि स्वागतकत्तार् की श्रद्धा पाते रहने के योग्य व्यक्तित्व बनाये रखने का उत्तरदायित्व स्वीकार कर रहे हैं। बोलें- 'ॐ अचर्य।' आसन- स्वागतकत्तार् आसन या उसका प्रतीक (कुश या पुष्प आदि) हाथ में लेकर निम्न मन्त्र बोलें। भावना करें कि कन्या स्वीकार करने वाले वर को श्रेष्ठता का आधार-स्तर प्राप्त हो। हमारे स्नेह में उसका स्थान बने। ॐ विष्टरो, विष्टरो, विष्टरः प्रतिगृह्यताम्। -पार०गृ०सू० १.३.६ वर, कन्या के पिता के हाथ से विष्टर (कुश या पुष्प आदि) लेकर कहें- ॐ प्रतिगृह्णामि। - पार०गृ०सू० १.३.७ उसे बिछाकर बैठ जाए, इस क्रिया के साथ निम्न मन्त्र बोला जाए- ॐ वष्मोर्ऽस्मि समानानामुद्यतामिव सूयर्ः। इमन्तमभितिष्ठामि, यो मा कश्चाभिदासति॥ - पार०गृ०सू० १.३.८ पाद्य- स्वागतकत्तार् पैर धोने के लिए छोटे पात्र में जल लें। भावना करें कि ऋषियों के आदर्शों के अनुरूप सद्गृहस्थ बनने की दिशा में बढ़ने वाले पैर पूजनीय हैं। कन्यादाता कहें- ॐ पाद्यं, पाद्यं, पाद्यं, प्रतिगृह्यताम्। - पार०गृ०सू०१.३.६ वर कहें- ॐ प्रतिगृह्णामि। - पार०गृ०सू०१.३.७ भावना करें कि आदर्शों की दिशा में चरण बढ़ाने की उमंग इष्टदेव बनाये रखें। पद प्रक्षालन की क्रिया के साथ यह मन्त्र बोला जाए। ॐ विराजो दोहोऽसि, विराजो दोहमशीय मयि, पाद्यायै विराजो दोहः। - पार०गृ०सू० १.३.१२
अर्घ्य- स्वागतकत्तार् चन्दन युक्त सुगन्धित जल पात्र में लेकर भावना करे कि सत्पुरुषाथर् में लगने का संस्कार वर के हाथों में जाग्रत् करने हेतु अघ्यर् दे रहे हैं। कन्यादाता कहे- ॐ अर्घो, अर्घो, अर्घः प्रतिगृह्यताम्। - पार०गृ०सू०१.३.६
जल पात्र स्वीकार करते हुए वर कहे- ॐ प्रतिगृह्णामि। - पार०गृ०सू०१.३.७ भावना करें कि सुगन्धित जल सत्पुरुषार्थ के संस्कार दे रहा है। जल से हाथ धोएँ। क्रिया के साथ निम्न मन्त्र बोला जाए।
ॐ आपःस्थ युष्माभिः, सवार्न्कामानवाप्नवानि। ॐ समुद्रं वः प्रहिणोमि, स्वां योनिमभिगच्छत। अरिष्टाअस्माकं वीरा, मा परासेचि मत्पयः। - पार०गृ०सू० १.३.१३-१४
आचमन- स्वागतकत्तार् आचमन के लिए जल पात्र प्रस्तुत करें। भावना करें कि वर-श्रेष्ठ अतिथि का मुख उज्ज्वल रहे, उसकी वाणी उसका व्यक्तित्व तदनुरूप बने। कन्यादाता कहे- ॐ आचमनीयम्, आचमीयनम्, आचमीनयम्, प्रतिगृह्यताम्॥ ॐ प्रतिगृह्णामि। (वर कहे) -पार०गृ०सू० १.३.६ भावना करें कि मन, बुद्धि और अन्तःकरण तक यह भाव बिठाने का प्रयास कर रहे हैं। तीन बार आचमन करें। यह मन्त्र बोला जाए। ॐ आमागन् यशसा, स सृज वचर्सा। तं मा कुरु प्रियं प्रजानामधिपतिं, पशूनामरिष्टिं तनूनाम्। - पार०गृ०सू० १.३.१५
नैवेद्य- एक पात्र में दूध, दही, शकर्रा (मधु) और तुलसीदल डाल कर रखें। स्वागतकर्त्ता वह पात्र हाथ में लें। भावना करें कि वर की श्रेष्ठता बनाये रखने योग्य सात्विक, सुसंस्कारी और स्वास्थ्यवर्धक आहार उन्हें सतत प्राप्त होता रहे। कन्यादाता कहे- ॐ मधुपकोर्, मधुपकोर्, मधुपर्कः प्रतिगृह्यताम्। - पार०गृ०सू० १.३.६ वर पात्र स्वीकार करते हुए कहे- ॐ प्रतिगृह्णामि। वर मधुपर्क का पान करे। भावना करें कि अभक्ष्य के कुसंस्कारों से बचने, सत्पदार्थों से सुसंस्कार अर्जित करते रहने का उत्तरदायित्व स्वीकार रहे हैं। पान करते समय यह मन्त्र बोला जाए। ॐ यन्मधुनो मधव्यं परम रूपमन्नाद्यम्। तेनाहं मधुनो मधव्येन परमेण, रूपेणान्नाद्येन परमो मधव्योऽन्नादोऽसानि।- पार०गृ०सू० १.३.२०
तत्पश्चात् जल से वर हाथ-मुख धोए। स्वच्छ होकर अगले क्रम के लिए बैठे। इसके बाद चन्दन धारण कराएँ। यदि यज्ञोपवीत धारण पहले नहीं कराया गया है, तो यज्ञोपवीत प्रकरण के आधार पर संक्षेप में उसे सम्पन्न कराया जाए। इसके बाद क्रमशः कलशपूजन, नमस्कार, षोडशोपचार पूजन, स्वस्तिवाचन, रक्षाविधान आदि सामान्य क्रम करा लिए जाएँ। रक्षा-विधान के बाद संस्कार का विशेष प्रकरण चालू किया जाए।
विवाह घोषणा की एक छोटी-सी संस्कृत भाषा की शब्दावली है, जिसमें वर-कन्या के गोत्र पिता-पितामह आदि का उल्लेख और घोषणा है कि यह दोनों अब विवाह सम्बन्ध में आबद्ध होते हैं। इनका साहचर्य धर्म-संगत जन साधारण की जानकारी में घोषित किया हुआ माना जाए। बिना घोषणा के गुपचुप चलने वाले दाम्पत्य स्तर के प्रेम सम्बन्ध, नैतिक, धार्मिक एवं कानूनी दृष्टि से अवांछनीय माने गये हैं। जिनके बीच दाम्पत्य सम्बन्ध हो, उसकी घोषणा सर्वसाधारण के समक्ष की जानी चाहिए। समाज की जानकारी से जो छिपाया जा रहा हो, वही व्यभिचार है। घोषणापूर्वक विवाह सम्बन्ध में आबद्ध होकर वर-कन्या धर्म परम्परा का पालन करते हैं।
स्वस्ति श्रीमन्नन्दनन्दन चरणकमल भक्ति सद् विद्या विनीतनिजकुलकमलकलिकाप्रकाशनैकभास्कार सदाचार सच्चरित्र सत्कुल सत्प्रतिष्ठा गरिष्ठस्य .........गोत्रस्य ........ महोदयस्य प्रपौत्रः .......... महोदयस्य पौत्र.......... महोदयस्य पुत्रः॥ ....... महोदयस्य प्रपौत्री, ........ महोदयस्य पौत्री .........महोदयस्य पुत्री प्रयतपाणिः शरणं प्रपद्ये। स्वस्ति संवादेषूभयोवृर्द्धिवर्रकन्ययोश्चिरंजीविनौ भूयास्ताम्।
विवाह घोषणा के बाद, सस्वर मंगलाष्टक मन्त्र बोलें जाएँ। इन मन्त्रों में सभी श्रेष्ठ शक्तियों से मंगलमय वातावरण, मंगलमय भविष्य के निर्माण की प्रार्थना की जाती है। पाठ के समय सभी लोग भावनापूर्वक वर-वधू के लिए मंगल कामना करते रहें। एक स्वयं सेवक उनके ऊपर पुष्पों की वर्षा करता रहे।
ॐमत्पंकजविष्टरो हरिहरौ, वायुमर्हेन्द्रोऽनलः। चन्द्रो भास्कर वित्तपाल वरुण, प्रताधिपादिग्रहाः। प्रद्यम्नो नलकूबरौ सुरगजः, चिन्तामणिः कौस्तुभः, स्वामी शक्तिधरश्च लांगलधरः, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥१॥
गंगा गोमतिगोपतिगर्णपतिः, गोविन्दगोवधर्नौ, गीता गोमयगोरजौ गिरिसुता, गंगाधरो गौतमः। गायत्री गरुडो गदाधरगया, गम्भीरगोदावरी, गन्धवर्ग्रहगोपगोकुलधराः, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥२॥
नेत्राणां त्रितयं महत्पशुपतेः अग्नेस्तु पादत्रयं, तत्तद्विष्णुपदत्रयं त्रिभुवने, ख्यातं च रामत्रयम्। गंगावाहपथत्रयं सुविमलं, वेदत्रयं ब्राह्मणम्, संध्यानां त्रितयं द्विजैरभिमतं, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥३॥
बाल्मीकिः सनकः सनन्दनमुनिः, व्यासोवसिष्ठो भृगुः, जाबालिजर्मदग्निरत्रिजनकौ, गर्गोऽ गिरा गौतमः। मान्धाता भरतो नृपश्च सगरो, धन्यो दिलीपो नलः, पुण्यो धमर्सुतो ययातिनहुषौ, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥४॥
गौरी श्रीकुलदेवता च सुभगा, कद्रूसुपणार्शिवाः, सावित्री च सरस्वती च सुरभिः, सत्यव्रतारुन्धती। स्वाहा जाम्बवती च रुक्मभगिनी, दुःस्वप्नविध्वंसिनी, वेला चाम्बुनिधेः समीनमकरा, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥५॥
गंगा सिन्धु सरस्वती च यमुना, गोदावरी नमर्दा, कावेरी सरयू महेन्द्रतनया, चमर्ण्वती वेदिका। शिप्रा वेत्रवती महासुरनदी, ख्याता च या गण्डकी, पूर्णाः पुण्यजलैः समुद्रसहिताः, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥६॥
लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुरा, धन्वन्तरिश्चन्द्रमा, गावः कामदुघाः सुरेश्वरगजो, रम्भादिदेवांगनाः। अश्वः सप्तमुखः सुधा हरिधनुः, शंखो विषं चाम्बुधे, रतनानीति चतुदर्श प्रतिदिनं, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥७॥
ब्रह्मा वेदपतिः शिवः पशुपतिः, सूयोर् ग्रहाणां पतिः, शुक्रो देवपतिनर्लो नरपतिः, स्कन्दश्च सेनापतिः। विष्णुयर्ज्ञपतियर्मः पितृपतिः, तारापतिश्चन्द्रमा, इत्येते पतयस्सुपणर्सहिताः, कुवर्न्तु वो मंगलम्॥८॥
वर पक्ष की ओर से कन्या को और कन्या पक्ष की ओर से वर का वस्त्र-आभूषण भेंट किये जाने की परम्परा है। यह कार्य श्रद्धानुरूप पहले ही हो जाता है। वर-वधू उन्हें पहनाकर ही संस्कार में बैठते हैं। यहाँ प्रतीक रूप से पीले दुपट्टे एक-दूसरे को भेंट किये जाएँ। यही ग्रन्थि बन्धन के भी काम आ जाते हैं। आभूषण पहनाना हो, तो अँगूठी या मंगलसूत्र जैसे शुभ-चिह्नों तक ही सीमित रहना चाहिए। दोनों पक्ष भावना करें कि एक-दूसरे का सम्मान बढ़ाने, उन्हें अलंकृत करने का उत्तरदायित्व समझने और निभाने के लिए संकल्पित हो रहे हैं। नीचे लिखे मन्त्र के साथ परस्पर उपहार दिये जाएँ।
ॐ परिधास्यै यशोधास्यै, दीघार्युत्वाय जरदष्टिरस्मि। शतं च जीवामि शरदः, पुरूचीरायस्पोषमभि संव्ययिष्ये। - पार०गृ०सू० २.६.२०
पुष्पोहार (माल्यार्पण) वर-वधू एक-दूसरे को अपने अनुरूप स्वीकार करते हुए, पुष्प मालाएँ अर्पित करते हैं। हृदय से वरण करते हैं। भावना करें कि देव शक्तियों और सत्पुरुषों के आशीर्वाद से वे परस्पर एक दूसरे के गले के हार बनकर रहेंगे। मन्त्रोच्चार के साथ पहले कन्या वर को फिर वर-कन्या को माला पहनाएँ।
ॐ यशसा माद्यावापृथिवी, यशसेन्द्रा बृहस्पती। यशो भगश्च मा विदद्, यशो मा प्रतिपद्यताम्। - पार०गृ०सू० २.६.२१, मा०गृ०सू० १.९.२७
कन्यादान करने वाले कन्या के हाथों में हल्दी लगाते हैं। हरिद्रा मंगलसूचक है। अब तक बालिका के रूप में यह लड़की रही। अब यह गृहलक्ष्मी का उत्तरदायित्व वहन करेगी, इसलिए उसके हाथों को पीतवर्ण-मंगलमय बनाया जाता है। उसके माता-पिता ने लाड़-प्यार से पाला, उसके हाथों में कोई कठोर कर्तव्य नहीं सौंपा। अब उसे अपने हाथों को नव-निमार्ण के अनेक उत्तरदायित्व सँभालने को तैयार करना है, अतएव उन्हें पीतवर्ण मांगलिक-लक्ष्मी का प्रतीक-सृजनात्मक होना चाहिए। पीले हाथ करते हुए कन्या परिवार के लोग उस बालिका को यही मौन शिक्षण देते हैं कि उसे आगे सृजन शक्ति के रूप में प्रकट होना है और इसके लिए इन कोमल हाथों को अधिक उत्तरदायी, मजबूत और मांगलिक बनाना है।
कन्या दोनों हथेलियाँ सामने कर दे। कन्यादाता गीली हल्दी उस पर मन्त्र के साथ मलें। भावना करें कि देव सान्निध्य में इन हाथों को स्वार्थपरता के कुसंस्कारों से मुक्त कराते हुए त्याग परमार्थ के संस्कार जाग्रत् किये जा रहे हैं।
ॐ अहिरिव भोगैः पयेर्ति बाहंु, ज्याया हेतिं परिबाधमानः। हस्तघ्नो विश्वा वयुनानि विद्वान्, पुमान् पुमा सं परिपातु विश्वतः। -२९.५१
कन्यादान का अर्थ है, अभिभावकों के उत्तरदायित्वों का वर के ऊपर, ससुराल वालों के ऊपर स्थानान्तरण होना। अब तक माता-पिता कन्या के भरण-पोषण, विकास, सुरक्षा, सुख-शान्ति, आनन्द-उल्लास आदि का प्रबंध करते थे, अब वह प्रबन्ध वर और उसके कुटुम्बियों को करना होगा। कन्या नये घर में जाकर वीरानेपन का अनुभव न करने पाये, उसे स्नेह, सहयोग, सद्भाव की कमी अनुभव न हो, इसका पूरा ध्यान रखना होगा। कन्यादान स्वीकार करते समय-पाणिग्रहण की जिम्मेदारी स्वीकार करते समय, वर तथा उसके अभिभावकों को यह बात भली प्रकार अनुभव कर लेनी चाहिए कि उन्हें उस उत्तरदायित्व को पूरी जिम्मेदारी के साथ निबाहना है। कन्यादान का अर्थ यह नहीं कि जिस प्रकार कोई सम्पत्ति, किसी को बेची या दान कर दी जाती है, उसी प्रकार लड़की को भी एक सम्पत्ति समझकर किसी न किसी को चाहे जो उपयोग करने के लिए दे दिया है। हर मनुष्य की एक स्वतन्त्र सत्ता एवं स्थिति है। कोई मनुष्य किसी मनुष्य को बेच या दान नहीं कर सकता। फिर चाहे वह पिता ही क्यों न हो। व्यक्ति के स्वतन्त्र अस्तित्व एवं अधिकार से इनकार नहीं किया जा सकता, न उसे चुनौती दी जा सकती है। लड़की हो या लड़का अभिभावकों को यह अधिकार नहीं कि वे उन्हें बेचें या दान करें। ऐसा करना तो बच्चे के स्वतन्त्र व्यक्तित्व के तथ्य को ही झुठलाना हो जाएगा।
विवाह उभयपक्षीय समझौता है, जिसे वर और वधू दोनों ही पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ निर्वाह कर सफल बनाते हैं। यदि कोई किसी को खरीदी या बेची सम्पत्ति के रूप में देखें और उस पर पशुओं जैसा स्वामित्व अनुभव करें या व्यवहार करें, तो यह मानवता के मूलभूत अधिकारों का हनन करना ही होगा। कन्यादान का यह तात्पर्य कदापि नहीं, उसका प्रयोजन इतना ही है कि कन्या के अभिभावक बालिका के जीवन को सुव्यवस्थित, सुविकसित एवं सुख-शान्तिमय बनाने की जिम्मेदारी को वर तथा उसके अभिभावकों पर छोड़ते हैं, जिसे उन्हें मनोयोगपूर्वक निबाहना चाहिए। पराये घर में पहुँचने पर कच्ची उम्र की अनुभवहीन भावुक बालिका को अखरने वाली मनोदशा में होकर गुजरना पड़ता है। इसलिए इस आरम्भिक सन्धिबेला में तो विशेष रूप से वर पक्ष वालों को यह प्रयास करना चाहिए कि हर दृष्टि से वधू को अधिक स्नेह, सहयोग मिलता रहे। कन्या पक्ष वालों को भी यह नहीं सोच लेना चाहिए कि लड़की के पीले हाथ कर दिये, कन्यादान हो गया, अब तो उन्हें कुछ भी करना या सोचना नहीं है। उन्हें भी लड़की के भविष्य को उज्ज्वल बनाने में योगदान देते रहना है। क्रिया और भावना- कन्या के हाथ हल्दी से पीले करके माता-पिता अपने हाथ में कन्या के हाथ, गुप्तदान का धन और पुष्प रखकर संकल्प बोलते हैं और उन हाथों को वर के हाथों में सौंप देते हैं। वह इन हाथों को गंभीरता और जिम्मेदारी के साथ अपने हाथों को पकड़कर स्वीकार-शिरोधार्य करता है। भावना करें कि कन्या वर को सौंपते हुए उसके अभिभावक अपने समग्र अधिकार को सौंपते हैं। कन्या के कुल गोत्र अब पितृ परम्परा से नहीं, पति परम्परा के अनुसार होंगे। कन्या को यह भावनात्मक पुरुषार्थ करने तथा पति को उसे स्वीकार करने या निभाने की शक्ति देवशक्तियाँ प्रदान कर रही हैं। इस भावना के साथ कन्यादान का संकल्प बोला जाए। संकल्प पूरा होने पर संकल्पकर्ता कन्या के हाथ वर के हाथ में सौंप दें।
अद्येति.........नामाहं.........नाम्नीम् इमां कन्यां/भगिनीं सुस्नातां यथाशक्ति अलंकृतां, गन्धादि - अचिर्तां, वस्रयुगच्छन्नां, प्रजापति दैवत्यां, शतगुणीकृत, ज्योतिष्टोम-अतिरात्र-शतफल-प्राप्तिकामोऽहं ......... नाम्ने, विष्णुरूपिणे वराय, भरण-पोषण-आच्छादन-पालनादीनां, स्वकीय उत्तरदायित्व-भारम्, अखिलं अद्य तव पतनीत्वेन, तुभ्यं अहं सम्प्रददे। वर उन्हें स्वीकार करते हुए कहें- ॐ स्वस्ति।
कन्यादान के समय कुछ अंशदान देने की प्रथा है। आटे की लोई में छिपाकर कुछ धन कन्यादान के समय दिया जाता है। दहेज का यही स्वरूप है। बच्ची के घर से विदा होते समय उसके अभिभावक किसी आवश्यकता के समय काम आने के लिए उपहार स्वरूप कुछ धन देते हैं, पर होता वह गुप्त ही है। अभिभावक और कन्या के बीच का यह निजी उपहार है। दूसरों को इसके सम्बन्ध में जानने या पूछने की कोई आवश्यकता नहीं। दहेज के रूप में क्या दिया जाना चाहिए, इस सम्बन्ध में ससुराल वालों को कहने या पूछने का कोई अधिकार नहीं। न उसके प्रदर्शन की आवश्यकता है, क्यों कि गरीब-अमीर अपनी स्थिति के अनुसार जो दे, वह चर्चा का विषय नहीं बनना चाहिए, उसके साथ निन्दा-प्रशंसा नहीं जुड़नी चाहिए। एक-दूसरे का अनुकरण करने लगें, प्रतिस्पर्द्धा पर उतर आएँ, तो इससे अनर्थ ही होगा। कन्या-पक्ष पर अनुचित दबाव पड़ेगा और वर-पक्ष अधिक न मिलने पर अप्रसन्न होने की धृष्टता करने लगेगा। इसलिए कन्यादान के साथ कुछ धनदान का विधान तो है, पर दूरर्दशी ऋषियों ने लोगों की स्वार्थपरता एवं दुष्टता की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए यह नियम बना दिया है कि जो कुछ भी दहेज दिया जाए, वह सर्वथा गुप्त हो, उस पर किसी को चर्चा करने का अधिकार न हो।
आटे में साधारणतया एक रुपया इस दहेज प्रतीक के लिए पर्याप्त है। यह धातु का लिया जाए और आटे के गोले के भीतर छिपाकर रखा जाए।
गौ पवित्रता और परमार्थ परायणता की प्रतीक है। कन्या पक्ष वर को ऐसा दान दें, जो उन्हें पवित्रता और परमार्थ की प्रेरणा देने वाला हो। सम्भव हो, तो कन्यादान के अवसर पर गाय दान में दी जा सकती है। वह कन्या के व उसके परिवार के लोगों के स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयुक्त भी है। आज की स्थिति में यदि गौ देना या लेना असुविधाजनक हो, तो उसके लिए कुछ धन देकर गोदान की परिपाटी को जीवित रखा जा सकता है। क्रिया और भावना- कन्यादान करने वाले हाथ में सामग्री लें। भावना करें कि वर-कन्या के भावी जीवन को सुखी समुन्नत बनाने के लिए श्रद्धापूर्वक श्रेष्ठ दान कर रहे हैं। मन्त्रोच्चार के साथ सामग्री वर के हाथ में दें।
ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां, स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः। प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा, गामनागामदितिं वधिष्ट॥ -ऋ०८.१०.१.१५, पार०गृ०सू० १.३.२७
कन्यादान-गोदान के बाद कन्यादाता वर से सत्पुरुषों और देव शक्तियों की साक्षी में मर्यादा की विनम्र अपील करता है। वर उसे स्वीकार करता है। कन्या का उत्तरदायित्व वर को सौंपा गया है। ऋषियों द्वारा निर्धारित अनुशासन विशेष लक्ष्य के लिए हैं। अधिकार पाकर उस मर्यादा को भूलकर मनमाना आचरण न किया जाए। धर्म, अर्थ और काम की दिशा में ऋषि प्रणीत मर्यादा का उल्लंघन अधिकार के नशे में न किया जाए। यह निवेदन किया जाता है, जिसे वर प्रसन्नतापूवर्क स्वीकार करता है।
कन्यादान करने वाले अपने हाथ में जल, पुष्प, अक्षत लें। भावना करें कि वर को मर्यादा सौंप रहे हैं। वर मर्यादा स्वीकार करें, उसके पालन के लिए देव शक्तियों के सहयोग की कामना करें।
ॐ गौरीं कन्यामिमां पूज्य! यथाशक्तिविभूषिताम्। गोत्राय शमर्णे तुभ्यं, दत्तां देव समाश्रय॥ धमर्स्याचरणं सम्यक्, क्रियतामनया सह। धमेर् चाथेर् च कामे च, यत्त्वं नातिचरेविर्भो॥ वर कहें- नातिचरामि।
वर द्वारा मर्यादा स्वीकारोक्ति के बाद कन्या अपना हाथ वर के हाथ में सौंपे और वर अपना हाथ कन्या के हाथ में सौंप दे। इस प्रकार दोनों एक दूसरे का पाणिग्रहण करते हैं। यह क्रिया हाथ से हाथ मिलाने जैसी होती है। मानो एक दूसरे को पकड़कर सहारा दे रहे हों। कन्यादान की तरह यह वर-दान की क्रिया तो नहीं होती, फिर भी उस अवसर पर वर की भावना भी ठीक वैसी होनी चाहिए, जैसी कि कन्या को अपना हाथ सौंपते समय होती है। वर भी यह अनुभव करें कि उसने अपने व्यक्तित्व का अपनी इच्छा, आकांक्षा एवं गतिविधियों के संचालन का केन्द्र इस वधू को बना दिया और अपना हाथ भी सौंप दिया। दोनों एक दूसरे को आगे बढ़ाने के लिए एक दूसरे का हाथ जब भावनापूर्वक समाज के सम्मुख पकड़ लें, तो समझना चाहिए कि विवाह का प्रयोजन पूरा हो गया।
नीचे लिखे मन्त्र के साथ कन्या अपना हाथ वर की ओर बढ़ाये, वर उसे अँगूठा सहित (समग्र रूप से) पकड़ ले। भावना करें कि दिव्य वातावरण में परस्पर मित्रता के भाव सहित एक-दूसरे के उत्तरदायित्व स्वीकार कर रहे हैं।
ॐे यदैषि मनसा दूरं, दिशोऽ नुपवमानो वा। हिरण्यपणोर् वै कणर्ः, स त्वा मन्मनसां करोतु असौ॥ - पार०गृ०सू० १.४.१५
वर-वधू द्वारा पाणिग्रहण एकीकरण के बाद समाज द्वारा दोनों को एक गाँठ में बाँध दिया जाता है। दुपट्टे के छोर बाँधने का अर्थ है-दोनों के शरीर और मन से एक संयुक्त इकाई के रूप में एक नई सत्ता का आविर्भाव होना। अब दोनों एक-दूसरे के साथ पूरी तरह बँधे हुए हैं। ग्रन्थिबन्धन में धन, पुष्प, दूर्वा, हरिद्रा और अक्षत यह पाँच चीजें भी बाँधते हैं। पैसा इसलिए रखा जाता है कि धन पर किसी एक का अधिकार नहीं रहेगा। जो कमाई या सम्पत्ति होगी, उस पर दोनों की सहमति से योजना एवं व्यवस्था बनेगी। दूर्वा का अर्थ है- कभी निर्जीव न होने वाली प्रेम भावना। दूर्वा का जीवन तत्त्व नष्ट नहीं होता, सूख जाने पर भी वह पानी डालने पर हरी हो जाती है। इसी प्रकार दोनों के मन में एक-दूसरे के लिए अजस्र प्रेम और आत्मीयता बनी रहे। चन्द्र-चकोर की तरह एक-दूसरे पर अपने को न्यौछावर करते रहें। अपना कष्ट कम और साथी का कष्ट बढ़कर मानें, अपने सुख की अपेक्षा साथी के सुख का अधिक ध्यान रखें। अपना आन्तरिक प्रेम एक-दूसरे पर उड़ेलते रहें। हरिद्रा का अर्थ है- आरोग्य, एक-दूसरे के शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य को सुविकसित करने का प्रयत्न करें। ऐसा व्यवहार न करें, जिससे साथी का स्वास्थ्य खराब होता हो या मानसिक उद्वेग पैदा होता हो। अक्षत, सामूहिक-सामाजिक विविध-विध उत्तरदायित्वों का स्मरण कराता है। कुटुम्ब में कितने ही व्यक्ति होते हैं। उन सबका समुचित ध्यान रखना, सभी को सँभालना संयुक्त पति-पत्नी का परम पावन कर्तव्य है। ऐसा न हो कि एक-दूसरे को तो प्रेम करें, पर परिवार के लोगों की उपेक्षा करने लगें। इसी प्रकार परिवार से बाहर भी जन मानस के सेवा की जिम्मेदारी हर भावनाशील मनुष्य पर रहती है। ऐसा न हो कि दो में से कोई किसी को अपने व्यक्तिगत स्वार्थ सहयोग तक ही सीमित कर ले, उसे समाज सेवा की सुविधा न दे। इस दिशा में लगने वाले समय व धन का विरोध करे। अक्षत इसी का संकेत करता है कि आप दोनों एक-दूसरे के लिए ही नहीं बने हैं, वरन् समाजसेवा का व्रत एवं उत्तरदायित्व भी आप लोगों के ग्रन्थिबन्धन में एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य के रूप में विद्यमान है। पुष्प का अर्थ है, हँसते-खिलते रहना। एक-दूसरे को सुगन्धित बनाने के लिए यश फैलाने और प्रशंसा करने के लिए तत्पर रहें। कोई किसी का दूसरे के आगे न तो अपमान करे और न तिरस्कार। इस प्रकार दूर्वा, पुष्प, हरिद्रा, अक्षत और पैसा इन पाँचों को रखकर दोनों का ग्रन्थिबन्धन किया जाता है और यह आशा की जाती है कि वे जिन लक्ष्यों के साथ आपस में बँधे हैं, उन्हें आजीवन निरन्तर स्मरण रखे रहेंगे।
ग्रन्थिबन्धन, आचार्य या प्रतिनिधि या कोई मान्य व्यक्ति करें। दुपट्टे के छोर एक साथ करके उसमें मंगल-द्रव्य रखकर गाँठ बाँध दी जाए। भावना की जाए कि मंगल द्रव्यों के मंगल संस्कार सहित देवशक्तियों के समर्थन तथा स्नेहियों की सद्भावना के संयुक्त प्रभाव से दोनों इस प्रकार जुड़ रहे हैं, जो सदा जुड़े रहकर एक-दूसरे की जीवन लक्ष्य यात्रा में पूरक बनकर चलेंगे-
ॐ समंजन्तु विश्वेदेवाः, समापो हृदयानि नौ। सं मातरिश्वा सं धाता, समुदेष्ट्री दधातु नौ॥ - ऋ०१०.८५.४७, पार०गृ०सू० १.४.१४
किसी भी महत्त्वपूर्ण पद ग्रहण के साथ शपथ ग्रहण समारोह भी अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है। कन्यादान, पाणिग्रहण एवं ग्रन्थि-बन्धन हो जाने के साथ वर-वधू द्वारा और समाज द्वारा दाम्पत्य सूत्र में बँधने की स्वीकारोक्ति हो जाती है। इसके बाद अग्नि एवं देव-शक्तियों की साक्षी में दोनों को एक संयुक्त इकाई के रूप में ढालने का क्रम चलता है। इस बीच उन्हें अपने कर्त्तव्य धर्म का महत्त्व भली प्रकार समझना और उसके पालन का संकल्प लेना चाहिए। इस दिशा में पहली जिम्मेदारी वर की होती है। अस्तु, पहले वर तथा बाद में वधू को प्रतिज्ञाएँ कराई जाती हैं।
वर-वधू स्वयं प्रतिज्ञाएँ पढ़ें, यदि सम्भव न हो, तो आचार्य एक-एक करके प्रतिज्ञाएँ व्याख्या सहित समझाएँ।
धमर्पत्नीं मिलित्वैव, ह्येकं जीवनामावयोः। अद्यारम्भ यतो में त्वम्, अर्द्धांगिनीति घोषिता ॥१॥ आज से धमर्पत्नी को अर्द्धांगिनी घोषित करते हुए, उसके साथ अपने व्यक्तित्व को मिलाकर एक नये जीवन की सृष्टि करता हूँ। अपने शरीर के अंगों की तरह धमर्पतनी का ध्यान रखूँगा।
स्वीकरोमि सुखेन त्वां, गृहलक्ष्मीमहन्ततः। मन्त्रयित्वा विधास्यामि, सुकायार्णि त्वया सह॥२॥ प्रसन्नतापूर्वक गृहलक्ष्मी का महान अधिकार सौंपता हूँ और जीवन के निर्धारण में उनके परामर्श को महत्त्व दूँगा।
रूप-स्वास्थ्य-स्वभावान्तु, गुणदोषादीन् सवर्तः। रोगाज्ञान-विकारांश्च, तव विस्मृत्य चेतसः॥३॥ रूप, स्वास्थ्य, स्वभावगत गुण दोष एवं अज्ञानजनित विकारों को चित्त में नहीं रखूँगा, उनके कारण असन्तोष व्यक्त नहीं करूँगा। स्नेहपूर्वक सुधारने या सहन करते हुए आत्मीयता बनाये रखूँगा।
सहचरो भविष्यामि, पूणर्स्नेहः प्रदास्यते। सत्यता मम निष्ठा च, यस्याधारं भविष्यति॥४॥ पत्नी का मित्र बनकर रहूँगा और पूरा-पूरा स्नेह देता रहूँगा। इस वचन का पालन पूरी निष्ठा और सत्य के आधार पर करूँगा।
यथा पवित्रचित्तेन, पातिव्रत्य त्वया धृतम्। तथैव पालयिष्यामि, पतनीव्रतमहं ध्रुवम्॥५॥ पत्नी के लिए जिस प्रकार पतिव्रत की मर्यादा कही गयी है, उसी दृढ़ता से स्वयं पत्नीव्रत धर्म का पालन करूँगा। चिन्तन और आचरण दोनों से ही पर नारी से वासनात्मक सम्बन्ध नहीं जोडूँगा।
गृहस्याथर्व्यवस्थायां, मन्त्रयित्वा त्वया सह। संचालनं करिष्यामि, गृहस्थोचित-जीवनम्॥६॥ गृह व्यवस्था में धर्म-पत्नी को प्रधानता दूँगा। आमदनी और खर्च का क्रम उसकी सहमति से करने की गृहस्थोचित जीवनचर्या अपनाऊँगा।
समृद्धि-सुख-शान्तीनां, रक्षणाय तथा तव। व्यवस्थां वै करिष्यामि, स्वशक्तिवैभवादिभि॥७॥ धमर्पत्नी की सुख-शान्ति तथा प्रगति-सुरक्षा की व्यवस्था करने में अपनी शक्ति और साधन आदि को पूरी ईमानदारी से लगाता रहूँगा।
यतनशीलो भविष्यामि, सन्मागर्ंसेवितुं सदा। आवयोः मतभेदांश्च, दोषान्संशोध्य शान्तितः॥८॥ अपनी ओर से मधुर भाषण और श्रेष्ठ व्यवहार बनाये रखने का पूरा-पूरा प्रयत्न करूँगा। मतभेदों और भूलों का सुधार शान्ति के साथ करूँगा। किसी के सामने पत्नी को लांछित-तिरस्कृत नहीं करूँगा।
भवत्यामसमथार्यां, विमुखायांच कमर्णि। विश्वासं सहयोगंच, मम प्राप्स्यसि त्वं सदा॥९॥ पत्नी के असमर्थ या अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाने पर भी अपने सहयोग और कर्त्तव्य पालन में रत्ती भर भी कमी न रखूँगा।
स्वजीवनं मेलयित्वा, भवतः खलु जीवने। भूत्वा चाधार्ंगिनी नित्यं, निवत्स्यामि गृहे सदा॥१॥ अपने जीवन को पति के साथ संयुक्त करके नये जीवन की सृष्टि करूँगी। इस प्रकार घर में हमेशा सच्चे अर्थों में अर्द्धांगिनी बनकर रहूँगी।
शिष्टतापूवर्कं सवैर्ः, परिवारजनैः सह। औदायेर्ण विधास्यामि, व्यवहारं च कोमलम्॥२॥ पति के परिवार के परिजनों को एक ही शरीर के अंग मानकर सभी के साथ शिष्टता बरतूँगी, उदारतापूर्वक सेवा करूँगी, मधुर व्यवहार करूँगी।
त्यक्त्वालस्यं करिष्यामि, गृहकायेर् परिश्रमम्। भतुर्हर्षर्ं हि ज्ञास्यामि, स्वीयामेव प्रसन्नताम्॥३॥ आलस्य को छोड़कर परिश्रमपूर्वक गृह कार्य करूँगी। इस प्रकार पति की प्रगति और जीवन विकास में समुचित योगदान करूँगी।
श्रद्धया पालयिष्यामि, धमर्ं पातिव्रतं परम्। सवर्दैवानुकूल्येन, पत्युरादेशपालिका॥४॥ पतिव्रत धर्म का पालन करूँगी, पति के प्रति श्रद्धा-भाव बनाये रखकर सदैव उनके अनुकूल रहूँगी। कपट-दुराव न करूँगी, निर्देशों के अविलम्ब पालन का अभ्यास करूँगी।
सुश्रूषणपरा स्वच्छा, मधुर-प्रियभाषिणी। प्रतिजाने भविष्यामि, सततं सुखदायिनी॥५॥ सेवा, स्वच्छता तथा प्रियभाषण का अभ्यास बनाये रखूँगी। ईर्ष्या, कुढ़न आदि दोषों से बचूँगी और सदा प्रसन्नता देने वाली बनकर रहूँगी।
मितव्ययेन गाहर्स्थ्य-संचालने हि नित्यदा। प्रयतिष्ये च सोत्साहं, तवाहमनुगामिनी॥६॥ मितव्ययी बनकर फिजूलखर्ची से बचूँगी। पति के असमर्थ हो जाने पर भी गृहस्थ के अनुशासन का पालन करूँगी।
देवस्वरूपो नारीणां, भत्तार् भवति मानवः। मत्वेति त्वां भजिष्यामि, नियता जीवनावधिम्॥७॥ नारी के लिए पति, देव स्वरूप होता है- यह मानकर मतभेद भुलाकर, सेवा करते हुए जीवन भर सक्रिय रहूँगी, कभी भी पति का अपमान न करूँगी।
पूज्यास्तव पितरो ये, श्रद्धया परमा हि मे। सेवया तोषयिष्यामि, तान्सदा विनयेन च॥८॥ जो पति के पूज्य और श्रद्धा पात्र हैं, उन्हें सेवा द्वारा और विनय द्वारा सदैव सन्तुष्ट रखूँगी।
विकासाय सुसंस्कारैः, सूत्रैः सद्भाववद्धिर्भिः। परिवारसदस्यानां, कौशलं विकसाम्यहम्॥९॥ परिवार के सदस्यों में सुसंस्कारों के विकास तथा उन्हें सद्भावना के सूत्रों में बाँधे रहने का कौशल अपने अन्दर विकसित करूँगी।
गायत्री मन्त्र की आहुति के पश्चात् पाँच आहुतियाँ प्रायश्चित होम की अतिरिक्त रूप से दी जाती है। वर और कन्या दोनों के हाथ में हवन सामग्री दी जाती है। प्रायश्चित होम की आहुतियाँ देते समय यह भावना दोनों के मन में आनी चाहिए कि दाम्पत्य जीवन में बाधक जो भी कुसंस्कार अब तक मन में रहे हों, उन सब को स्वाहा किया जा रहा है। किसी से गृहस्थ के आदर्शों के उल्लंघन करने की कोई भूल हुई हो, तो उसे अब एक स्वप्न जैसी बात समझकर विस्मरण कर दिया जाए। इस प्रकार की भूल के कारण कोई किसी को न तो दोष दे, न सन्देह की दृष्टि से देखे। इसी प्रकार कोई अन्य नशेबाजी जैसा दुर्व्यसन रहा हो या स्वभाव में कठोरता, स्वार्थपरता, अहंकार जैसी कोई त्रुटि रही हो, तो उसका त्याग कर दिया जाए। साथ ही, उन भूलों का प्रायश्चित करते हुए भविष्य में कोई ऐसी भूल न करने का संकल्प भी करना है, जो दाम्पत्य जीवन की प्रगति में बाधा उत्पन्न करे।
वर-वधू हवन सामग्री से आहुति करें। भावना करें कि प्रायश्चित आहुति के साथ पूर्व दुष्कृत्यों की धुलाई हो रही है। स्वाहा के साथ आहुति डालें, इदं न मम के साथ हाथ जोड़कर नमस्कार करें
ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्, देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो, विश्वा द्वेषा सि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा। इदमग्नीवरुणाभ्यां इदं न मम॥ -२१.३ ॐ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती, नेदिष्ठो अस्या ऽ उषसो व्युष्टौ। अव यक्ष्व नो वरुण रराणो, वीहि मृडीक सुहवो न ऽ एधि स्वाहा। इदमग्नीवरुणाभ्यां इदं न मम॥ -२१.४ ॐ अयाश्चाग्नेऽस्य, नभिशस्तिपाश्च, सत्यमित्वमयाऽ असि। अया नो यज्ञं वहास्यया, नो धेहि भेषज स्वाहा। इदमग्नये अयसे इदं न मम। -का०श्रौ०सू० २५.१.११ ॐ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं, यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः, तेभिनोर्ऽअद्य सवितोत विष्णुः, विश्वे मुंचन्तु मरुतः स्वकार्ः स्वाहा। इदं वरुणायसवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वकेर्भ्यश्च इदं न मम। -का०श्रौ० सू० २५.१.११ ॐ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं, विमध्यम श्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो, अदितये स्याम स्वाहा। इदं वरुणायादित्यायादितये च इदं न मम। -१२.१२
शिलारोहण के द्वारा पत्थर पर पैर रखते हुए प्रतिज्ञा करते हैं कि जिस प्रकार अंगद ने अपना पैर जमा दिया था, उसी तरह हम पत्थर की लकीर की तरह अपना पैर उत्तरदायित्वों को निबाहने के लिए जमाते हैं। यह धर्मकृत्य खेल-खिलौने की तरह नहीं किया जा रहा, जिसे एक मखौल समझकर तोड़ा जाता रहे, वरन् यह प्रतिज्ञाएँ पत्थर की लकीर की तरह अमिट बनी रहेंगी, ये चट्टान की तरह अटूट एवं चिरस्थायी रखी जायेंगी।
मन्त्र बोलने के साथ वर-वधू अपने दाहिने पैर को शिला पर रखें, भावना करें कि उत्तरदायित्वों के निर्वाह करने तथा बाधाओं को पार करने की शक्ति हमारे संकल्प और देव अनुग्रह से मिल रही है। ॐ आरोहेममश्मानम् अश्मेव त्वं स्थिरा भव। अभितिष्ठ पृतन्यतोऽ, वबाधस्व पृतनायतः॥ पार०गृ०सू० १.७.१
प्रायश्चित आहुति के बाद लाजाहोम और यज्ञाग्नि की परिक्रमा (भाँवर) का मिला-जुला क्रम चलता है। लाजाहोम के लिए कन्या का भाई एक थाली में खील (भुना हुआ धान) लेकर पीछे खड़ा हो। एक मुट्ठी खील अपनी बहिन को दे। कन्या उसे वर को सौंप दे। वर उसे आहुति मन्त्र के साथ हवन कर दे। इस प्रकार तीन बार किया जाए। कन्या तीनों बार भाई के द्वारा दिये हुए खील को अपने पति को दे, वह तीनों बार हवन में अपर्ण कर दे। लाजाहोम में भाई के घर से अन्न (खील के रूप में) बहिन को मिलता है, उसे वह अपने पति को सौंप देती है। कहती है बेशक मेरे व्यक्तिगत उपयोग के लिए पिता के घर से मुझे कुछ मिला है, पर उसे मैं छिपाकर अलग से नहीं रखती, आपको सौंपती हूँ।अलगाव या छिपाव का भाव कोई मन में न आए, इसलिए जिस प्रकार पति कुछ कमाई करता है, तो पत्नी को सौंपता है, उसी प्रकार पत्नी भी अपनी उपलब्धियों को पति के हाथ में सौंपती है। पति सोचता है, हम लोग हाथ-पैर से जो कमायेंगे, उसी से अपना काम चलायेंगे, किसी के उदारतापूर्वक दिये हुए अनुदान को बिना श्रम किये खाकर क्यों हम किसी के ऋणी बनें। इसलिए पति उस लाजा को अपने खाने के लिए नहीं रख लेता, वरन् यज्ञ में होम देता है। जन कल्याण के लिए उस पदार्थ को वायुभूत बनाकर संसार के वायुमण्डल में बिखेर देता है। इस क्रिया में यहाँ महान मानवीय आदर्श सन्निहित है कि मुफ्त का माल या तो स्वीकार ही न किया जाय या मिले भी तो उसे लोकहित में खर्च कर दिया जाए। लोग अपनी-अपनी निज की पसीने की कमाई पर ही गुजर-बसर करें। मृतक भोज के पीछे भी यही आदर्शवादिता थी कि पिता के द्वारा उत्तराधिकार में मिले हुए धन को लड़के अपने काम में नहीं लेते थे, वरन् समाजसेवी ब्राह्मणों के निर्वाह में या अन्य पुण्यकार्यों में खर्च कर डालते थे। यही दहेज के सम्बन्ध में भी ठीक है। पिता के गृह से उदारतापूवर्क मिला, सो उनकी भावना सराहनीय है, पर आपकी भी तो कुछ भावना होनी चाहिए। मुफ्त का माल खाते हुए किसी कमाऊ मनुष्य का गैरत आना स्वाभाविक है। उसका यह सोचना ठीक ही है कि बिना परिश्रम का धन, वह भी दान की उदार भावना से दिया हुआ उसे पचेगा नहीं, इसलिए उपहार को जन मंगल के कार्य में, परमार्थ यज्ञ में आहुति कर देना ही उचित है। इसी उद्देश्य से पत्नी के भाई के द्वारा दिये गये लाजा को वह यज्ञ कार्य में लगा देता है। दहेज का ठीक उपयोग यही है, प्रथा भी है कि विवाह के अवसर पर वर पक्ष की ओर से बहुत सा दान-पुण्य किया जाता है। अच्छा हो जो कुछ मिले, वह सबको ही दान कर दे। विवाह के समय ही नहीं, अन्य अवसरों पर भी यदि कभी किसी से कुछ ऐसा ही बिना परिश्रम का उपहार मिले, तो उसके सम्बन्ध में एक नीति रहनी चाहिए कि मुफ्त का माल खाकर हम परलोक के ऋणी न बनेंगे, वरन् ऐसे अनुदान को परमार्थ में लगाकर उस उदार परम्परा को अपने में न रोककर आगे जन कल्याण के लिए बढ़ा देंगे। कहाँ भारतीय संस्कृति की उदार भावना और कहाँ आज के धन लोलुपों द्वारा कन्या पक्ष की आँतें नोच डालने वाली दहेज की पैशाचिक माँगें, दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। जिसने अपने हृदय का, आत्मा का टुकड़ा कन्या दे दी, उनके प्रति वर पक्ष का रोम-रोम कृतज्ञ होना चाहिए और यह सोचना चाहिए कि इस अलौकिक उपहार के बदले में किस प्रकार अपनी श्रद्धा-सद्भावना व्यक्त करें। यह न होकर उल्टे जब कन्या पक्ष को दबा हुआ समझ कर उसे तरह-तरह से सताने और चूसने की योजना बनाई जाती है, तो यही समझना चाहिए कि भारतीय परम्पराएँ बिल्कुल उल्टी हो गयीं। धर्म के स्थान पर अधर्म, देवत्व के स्थान पर असुरता का साम्राज्य छा गया। लाजाहोम वर्तमान काल की क्षुद्र मान्यताओं को धिक्कारता है और दहेज के सम्बन्ध में सही दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा देता है।
अग्नि की पति-पतनी परिक्रमा करें। बायें से दायें की ओर चलें। पहली चार परिक्रमाओं में कन्या आगे रहे और वर पीछे। चार परिक्रमा हो जाने पर लड़का आगे हो जाए और लड़की पीछे। परिक्रमा के समय परिक्रमा मन्त्र बोला जाए तथा हर परिक्रमा पूरी होने पर एक-एक आहुति वर-वधू गायत्री मन्त्र से करते चलें, इसका तात्पर्य है- घर-परिवार के कार्यों में लड़की का नेतृत्व रहेगा, उसके परामर्श को महत्त्व दिया जाएगा, वर उसका अनुसरण करेगा, क्योंकि उन कामों का नारी को अनुभव अधिक होता है। बाहर के कार्यों में वर नेतृत्व करता है और नारी उसका अनुसरण करती है, क्योंकि व्यावसायिक क्षेत्रों में वर का अनुभव अधिक होता है। जिसमें जिस दिशा की जानकारी कम हो, दूसरे में उसकी जानकारी बढ़ाकर अपने समतुल्य बनाने में प्रयत्नशील रहें। भावना क्षेत्र में नारी आगे हैं, कर्म क्षेत्र में पुरुष। दोनों पक्ष अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं। कुल मिलाकर नारी का वर्चस्व, पद, गौरव एवं वजन बड़ा बैठता है। इसलिए उसे चार परिक्रमा करने और नर को तीन परिक्रमा करने का अवसर दिया जाता है। गौरव के चुनाव के ४ वोट कन्या को और ३ वोट वर को मिलते हैं। इसलिए सदा नर से पहला स्थान नारी को मिला है। सीताराम, राधेश्याम, लक्ष्मीनारायण, उमामहेश आदि युग्मों में पहले नारी का नाम है, पीछे नर का।
लाजा होम और परिक्रमा का मिला-जुला क्रम चलता है। शिलारोहण के बाद वर-वधू खड़े-खड़े गायत्री मन्त्र से एक आहुति समर्पित करें। अब मन्त्र के साथ परिक्रमा करें। वधू आगे, वर पीछे चलें। एक परिक्रमा पूरी होने पर लाजाहोम की एक आहुति करें। आहुति करके दूसरी परिक्रमा पहले की तरह मन्त्र बोलते हुए करें। इसी प्रकार लाजाहोम की दूसरी आहुति करके तीसरी परिक्रमा तथा तीसरी आहुति करके चौथी परिक्रमा करें। इसके बाद गायत्री मन्त्र की आहुति देते हुए तीन परिक्रमाएँ वर को आगे करके परिक्रमा मन्त्र बोलते हुए कराई जाएँ। आहुति के साथ भावना करें कि बाहर यज्ञीय ऊर्जा तथा अंतःकरण में यज्ञीय भावना तीव्रतर हो रही है। परिक्रमा के साथ भावना करें कि यज्ञीय अनुशासन को केन्द्र मानकर, यज्ञाग्नि को साक्षी करके आदर्श दाम्पत्य के निर्वाह का संकल्प कर रहे हैं।
ॐ अयर्मणं देवं कन्या अग्निमयक्षत। स नोऽअयर्मा देवः प्रेतो मुंचतु, मा पतेः स्वाहा। इदम् अयर्म्णे अग्नये इदं न मम॥ ॐ इयं नायुर्पब्रूते लाजा नावपन्तिका। आयुष्मानस्तु में पतिरेधन्तां, ज्ञातयो मम स्वाहा। इदम् अग्नये इदं न मम॥ ॐ इमाँल्लाजानावपाम्यग्नौ, समृद्धिकरणं तव। मम तुभ्यं च संवननं, तदग्निरनुमन्यतामिय स्वाहा। इदं अग्नये इदं न मम॥ -पार०गृ०सू० १.६.२ ॥ परिक्रमा मन्त्र॥ ॐ तुभ्यमग्ने पयर्वहन्त्सूयार्ं वहतु ना सह। पुनः पतिभ्यो जायां दा, अग्ने प्रजया सह॥ -ऋ०१०.८५.३८, पार०गृ०सू० १.७.३
दिशा और प्रेरणा भाँवरें फिर लेने के उपरान्त सप्तपदी की जाती है। सात बार वर-वधू साथ-साथ कदम से कदम मिलाकर फौजी सैनिकों की तरह आगे बढ़ते हैं। सात चावल की ढेरी या कलावा बँधे हुए सकोरे रख दिये जाते हैं, इन लक्ष्य-चिह्नों को पैर लगाते हुए दोनों एक-एक कदम आगे बढ़ते हैं, रुक जाते हैं और फिर अगला कदम बढ़ाते हैं। इस प्रकार सात कदम बढ़ाये जाते हैं। प्रत्येक कदम के साथ एक-एक मन्त्र बोला जाता है।
पहला कदम अन्न के लिए, दूसरा बल के लिए, तीसरा धन के लिए, चौथा सुख के लिए, पाँचवाँ परिवार के लिए, छठवाँ ऋतुचर्या के लिए और सातवाँ मित्रता के लिए उठाया जाता है। विवाह होने के उपरान्त पति-पतनी को मिलकर सात कायर्क्रम अपनाने पड़ते हैं। उनमें दोनों का उचित और न्याय संगत योगदान रहे, इसकी रूपरेखा सप्तपदी में निर्धारित की गयी है।
प्रथम कदम अन्न वृद्धि के लिए है। आहार स्वास्थ्यवर्धक हो, घर में चटोरेपन को कोई स्थान न मिले। रसोई में जो बने, वह ऐसा हो कि स्वास्थ्य रक्षा का प्रयोजन पूरा करे, भले ही वह स्वादिष्ट न हो। अन्न का उत्पादन, अन्न की रक्षा, अन्न का सदुपयोग जो कर सकता है, वही सफल गृहस्थ है। अधिक पका लेना, जूठन छोड़ना, बरतन खुले रखकर अन्न की चूहों से बर्बादी कराना, मिर्च-मसालों की भरमार उसे तमोगुणी बना देना, स्वच्छता का ध्यान न रखना, आदि बातों से आहार पर बहुत खर्च करते हुए भी स्वास्थ्य नष्ट होता है, इसलिए दाम्पत्य जीवन का उत्तरदायित्व यह है कि आहार की सात्त्विकता का समुचित ध्यान रखा जाए।
दूसरा कदम शारीरिक और मानसिक बल की वृद्धि के लिए है। व्यायाम, परिश्रम, उचित एवं नियमित आहार-विहार से शरीर का बल स्थिर रहता है। अध्ययन एवं विचार-विमर्श से मनोबल बढ़ता है। जिन प्रयत्नों से दोनों प्रकार के बल बढें, दोनों अधिक समर्थ, स्वस्थ एवं सशक्त बनें-उसका उपाय सोचते रहना चाहिए।
तीसरा कदम धन की वृद्धि के लिए है। अर्थ व्यवस्था बजट बनाकर चलाई जाए। अपव्यय में कानी कौड़ी भी नष्ट न होने पाए। उचित कार्यों में कंजूसी न की जाए- फैशन, व्यसन, शेखीखोरी आदि के लिए पैसा खर्च न करके उसे पारिवारिक उन्नति के लिए सँभालकर, बचाकर रखा जाए। उपार्जन के लिए पति-पत्नी दोनों ही प्रयत्न करें। पुरुष बाहर जाकर कृषि, व्यवसाय, नौकरी आदि करते हैं, तो स्त्रियाँ सिलाई, धुलाई, सफाई आदि करके इस तरह की कमाई करती हैं। उपार्जन पर जितना ध्यान रखा जाता है, खर्च की मर्यादाओं का भी वैसा ही ध्यान रखते हुए घर की अर्थव्यवस्था सँभाले रहना दाम्पत्य जीवन का अनिवार्य कर्तव्य है।
चौथा कदम सुख की वृद्धि के लिए है। विश्राम, मनोरंजन, विनोद, हास-परिहास का ऐसा वातावरण रखा जाए कि गरीबी में भी अमीरी का आनन्द मिले। दोनों प्रसन्नचित्त रहें। मुस्कराने की आदत डालें, हँसते-हँसाते जिन्दगी काटें। चित्त को हलका रखें, 'सन्तोषी सदा सुखी' की नीति अपनाएँ।
पाँचवाँ कदम परिवार पालन का है। छोटे बड़े सभी के साथ समुचित व्यवहार रखा जाए। आश्रित पशुओं एवं नौकरों को भी परिवार माना जाए, इस सभी आश्रितों की समुचित देखभाल, सुरक्षा, उन्नति एवं सुख-शान्ति के लिए सदा सोचने और करने में लापरवाही न बरती जाए।
छठा कदम ऋतुचर्या का है। सन्तानोत्पादन एक स्वाभाविक वृत्ति है, इसलिए दाम्पत्य जीवन में उसका भी एक स्थान है, पर उस सम्बन्ध में मर्यादाओं का पूरी कठोरता एवं सतर्कता से पालन किया जाए, क्योंकि असंयम के कारण दोनों के स्वास्थ्य का सर्वनाश होने की आशंका रहती है, गृहस्थ में रहकर भी ब्रह्मचर्य का समुचित पालन किया जाए। दोनों एक दूसरे का भी सहयोगी मित्र की दृष्टि से देखें, कामुकता के सर्वनाशी प्रसंगों को जितना सम्भव हो, दूर रखा जाए। सन्तान उत्पन्न करने से पूर्व हजार बार विचार करें कि अपनी स्थिति सन्तान को सुसंस्कृत बनाने योग्य है या नहीं। उस मर्यादा में सन्तान उत्पन्न करने की जिम्मेदारी वहन करें।
सातवाँ कदम मित्रता को स्थिर रखने एवं बढ़ाने के लिए है। दोनों इस बात पर बारीकी से विचार करते रहें कि उनकी ओर से कोई त्रुटि तो नहीं बरती जा रही है, जिसके कारण साथी को रुष्ट या असंतुष्ट होने का अवसर आए। दूसरा पक्ष कुछ भूल भी कर रहा हो, तो उसका उत्तर कठोरता, कर्कशता से नहीं, वरन् सज्जनता, सहृदयता के साथ दिया जाना चाहिए, ताकि उस महानता से दबकर साथी को स्वतः ही सुधरने की अन्तःप्रेरणा मिले। बाहर के लोगों के साथ, दुष्टों के साथ दुष्टता की नीति किसी हद तक अपनाई जा सकती है, पर आत्मीयजनों का हृदय जीतने के लिए उदारता, सेवा, सौजन्य, क्षमा जैसे शस्त्र की काम में लाये जाने चाहिए।
सप्तपदी में सात कदम बढ़ाते हुए इन सात सूत्रों को हृदयंगम करना पड़ता है। इन आदर्शों और सिद्धान्तों को यदि पति-पत्नी द्वारा अपना लिया जाए और उसी मार्ग पर चलने के लिए कदम से कदम बढ़ाते हुए अग्रसर होने की ठान ली जाए, तो दाम्पत्य जीवन की सफलता में कोई सन्देह ही नहीं रह जाता।
क्रिया और भावना वर-वधू खड़े हों। प्रत्येक कदम बढ़ाने से पहले देव शक्तियों की साक्षी का मन्त्र बोला जाता है, उस समय वर-वधू हाथ जोड़कर ध्यान करें। उसके बाद चरण बढ़ाने का मन्त्र बोलने पर पहले दायाँ कदम बढ़ाएँ। इसी प्रकार एक-एक करके सात कदम बढ़ाये जाएँ। भावना की जाए कि योजनाबद्ध-प्रगतिशील जीवन के लिए देव साक्षी में संकल्पित हो रहे हैं, संकल्प और देव अनुग्रह का संयुक्त लाभ जीवन भर मिलता रहेगा।
(१) अन्न वृद्धि के लिए पहली साक्षी- ॐ एको विष्णुजर्गत्सवर्ं, व्याप्तं येन चराचरम्। हृदये यस्ततो यस्य, तस्य साक्षी प्रदीयताम्॥ पहला चरण- ॐ इष एकपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥१॥
(२) बल वृद्धि के लिए दूसरी साक्षी- ॐ जीवात्मा परमात्मा च, पृथ्वी आकाशमेव च। सूयर्चन्द्रद्वयोमर्ध्ये, तस्य साक्षी प्रदीयताम्॥२॥ दूसरी चरण- ॐ ऊजेर् द्विपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥२॥
(३) धन वृद्धि के लिए तीसरी साक्षी- ॐ त्रिगुणाश्च त्रिदेवाश्च, त्रिशक्तिः सत्परायणाः। लोकत्रये त्रिसन्ध्यायाः, तस्य साक्षी प्रदीयताम्। तीसरा चरण- ॐ रायस्पोषाय त्रिपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥३॥
(४) सुख वृद्धि के लिए चौथी साक्षी- ॐ चतुमर्ुखस्ततो ब्रह्मा, चत्वारो वेदसंभवाः। चतुयुर्गाः प्रवतर्न्ते, तेषां साक्षी प्रदीयताम्। चौथा चरण- ॐ मायो भवाय चतुष्पदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥४॥
(५) प्रजा पालन के लिए पाँचवी साक्षी- ॐ पंचमे पंचभूतानां, पंचप्राणैः परायणाः। तत्र दशर्नपुण्यानां, साक्षिणः प्राणपंचधाः॥ पाँचवाँ चरण- ॐ प्रजाभ्यां पंचपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥५॥
(६) ऋतु व्यवहार के लिए छठवीं साक्षी- ॐ षष्ठे तु षड्ऋतूणां च, षण्मुखः स्वामिकातिर्कः। षड्रसा यत्र जायन्ते, कातिर्केयाश्च साक्षिणः॥ छठवाँ चरण- ॐ ऋतुभ्यः षट्ष्पदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥६॥
(७) मित्रता वृद्धि के लिए सातवीं साक्षी- ॐ सप्तमे सागराश्चैव, सप्तद्वीपाः सपवर्ताः। येषां सप्तषिर्पतनीनां, तेषामादशर्साक्षिणः॥ सातवाँ चरण- ॐ सखे सप्तपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥७॥ -पार०गृ०सू० १.८.१-२, आ०गृ०सू० १.७.१९
सप्तपदी के पश्चात् आसन परिवर्तन करते हैं। तब तक वधू दाहिनी ओर थी अर्थात् बाहरी व्यक्ति जैसी स्थिति में थी। अब सप्तपदी होने तक की प्रतिज्ञाओं में आबद्ध हो जाने के उपरान्त वह घर वाली अपनी आत्मीय बन जाती है, इसलिए उसे बायीं ओर बैठाया जाता है। बायें से दायें लिखने का क्रम है। बायाँ प्रथम और दाहिना द्वितीय माना जाता है। सप्तपदी के बाद अब पत्नी को प्रमुखता प्राप्त हो गयी। लक्ष्मी-नारायण्, उमा-महेश, सीता-राम, राधे-श्याम आदि नामों में पत्नी को प्रथम, पति को द्वितीय स्थान प्राप्त है। दाहिनी ओर से वधू का बायीं ओर आना, अधिकार हस्तांतरण है। बायीं ओर के बाद पत्नी गृहस्थ जीवन की प्रमुख सूत्रधार बनती है। ॐ इह गावो निषीदन्तु, इहाश्वा इह पूरुषाः। इहो सहस्रदक्षिणो यज्ञ, इह पूषा निषीदतु॥ -पा०गृ०सू० १.८.१०
आसन परिवर्तन के बाद गृहस्थाश्रम के साधक के रूप में वर-वधू का सम्मान पाद प्रक्षालन करके किया जाता है। कन्या पक्ष की ओर प्रतिनिधि स्वरूप कोई दम्पति या अकेले व्यक्ति पाद प्रक्षालन करे। पाद प्रक्षालीन करने वालों का पवित्रीकरण-सिंचन किया जाए। हाथ में हल्दी, दूवार्, थाली में जल लेकर प्रक्षालन करें। प्रथम मन्त्र के साथ तीन बार वर-वधू के पैर पखारें, फिर दूसरे मन्त्र के साथ यथा श्रद्धा भेंट दें। ॐ या ते पतिघ्नी प्रजाध्नी पशुघ्नी, गृहघ्नी यशोघ्नी निन्दिता, तनूजार्रघ्नीं ततऽएनांकरोमि, सा जीयर् त्वां मया सह॥ -पार०गृ०सू० १.११ ॐ ब्रह्मणा शालां निमितां, कविभिनिर्मितां मिताम्। इन्द्राग्नी रक्षतां शालाममृतौ सोम्यं सदः॥ -अथवर्० ९.३.१९
ध्रुव स्थिर तारा है। अन्य सब तारागण गतिशील रहते हैं, पर ध्रुव अपने निश्चित स्थान पर ही स्थिर रहता है। अन्य तारे उसकी परिक्रमा करते हैं। ध्रुव दर्शन का अर्थ है- दोनों अपने-अपने परम पवित्र कर्त्तव्यों पर उसी तरह दृढ़ रहेंगे, जैसे कि ध्रुव तारा स्थिर है। कुछ कारण उत्पन्न होने पर भी इस आदर्श से विचलित न होने की प्रतिज्ञा को निभाया जाए, व्रत को पाला जाए और संकल्प को पूरा किया जाए। ध्रुव स्थिर चित्त रहने की ओर, अपने कर्त्तव्यों पर दृढ़ रहने की प्रेरणा देता है। इसी प्रकार सूर्य की अपनी प्रखरता, तेजस्विता, महत्ता सदा स्थिर रहती है। वह अपने निर्धारित पथ पर ही चलता है, यही हमें करना चाहिए। यही भावना पति-पत्नी करें।
ॐ तच्चक्षुदेर्वहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं, जीवेम शरदः शतं, शृणुयाम शरदः शतं, प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः, स्याम शरदः शतं, भूयश्च शरदः शतात्। -३६.२४
ध्रुव ध्यान (रात में) ॐ ध्रुवमसि ध्रुवं त्वा पश्यामि, ध्रुवैधि पोष्ये मयि। मह्यं त्वादात् बृहस्पतिमर्यापत्या, प्रजावती संजीव शरदः शतम्। -पार०गृ०सू० १.८.१९
पति-पत्नी एक दूसरे के सिर पर हाथ रखकर समाज के सामने शपथ लेते हैं, एक आश्वासन देकर अन्तिम प्रतिज्ञा करते हैं कि वे निस्संदेह निश्चित रूप से एक-दूसरे को आजीवन ईमानदार, निष्ठावान् और वफादार रहने का विश्वास दिलाते हैं। पिछले दिनों पुरुषों का व्यवहार स्त्रियों के साथ छली-कपटी और विश्वासघातियों जैसा रहा है। रूप, यौवन के लोभ में कुछ दिन मीठी बातें करते हैं, पीछे क्रूरता एवं दुष्टता पर उतर आते हैं। पग-पग पर उन्हें सताते और तिरस्कृत करते हैं। प्रतिज्ञाओं को तोड़कर आर्थिक एवं चारित्रिक उच्छृंखलता बरतते हैं और पत्नी की इच्छा की परवाह नहीं करते। समाज में ऐसी घटनाएँ कम घटित नहीं होतीं। ऐसी दशा में ये प्रतिज्ञाएँ औपचारिकता मात्र रह जाने की आशंका हो सकती है। सन्तान न होने पर लड़कियाँ होने पर लोग दूसरा विवाह करने पर उतारू हो जाते हैं। पति सिर पर हाथ रखकर कसम खाता है कि दूसरे दुरात्माओं की श्रेणी में उसे न गिना जाए। इस प्रकार पत्नी भी अपनी निष्ठा के बारे में पति को इस शपथ-प्रतिज्ञा द्वारा विश्वास दिलाती है।
ॐ मम व्रते ते हृदयं दधामि, मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु। मम वाचमेकमना जुषस्व, प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्। - पार०गृ०सू०१.८.८ ॥ सुमंगली-सिन्दूरदान॥ मन्त्र के साथ वर अँगूठी से वधू की माँग में सिन्दूर तीन बार लगाए। भावना करें कि मैं वधू के सौभाग्य को बढ़ाने वाला सिद्ध होऊँ- ॐ सुमंगलीरियं वधूरिमा समेत पश्यत। सौभाग्यमस्यै दत्त्वा याथास्तं विपरेतन। सुभगा स्त्री सावित्र्याास्तव सौभाग्यं भवतु। -पार०गृ०सू० १.८.९
वधू वर को मंगल तिलक करे। भावना करे कि पति का सम्मान करते हुए गौरव को बढ़ाने वाली सिद्ध होऊ ॐ स्वस्तये वायुमुपब्रवामहै, सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः। बृहस्पतिं सवर्गणं स्वस्तये, स्वस्तयऽ आदित्यासो भवन्तु नः॥ -ऋ० ५.५१.१२
इसके पश्चात् स्विष्टकृत होम, पूणार्हुति, वसोधार्रा, आरती, घृत-अवघ्राण, भस्म धारण, क्षमा प्रार्थना आदि कृत्य सम्पन्न करें।
अभिषेक सिंचन वर-कन्या को बिठाकर कलश का जल लेकर उनका सिंचन किया जाए। भावना की जाए कि जो सुसंस्कार बोये गये हैं, उन्हें दिव्यजल से सिंचित किया जा रहा है। सबके सद्भाव से उनका विकास होगा और सफलता-कुशलता के कल्याणप्रद सुफल उनमें लगेंगे। पुष्प वर्षा के रूप में सभी अपनी शुभकामनाएँ-आश्शीवार्द प्रदान करें- गणपतिः गिरिजा वृषभध्वजः, षण्मुखो नन्दीमुखडिमडिमा। मनुज-माल-त्रिशूल-मृगत्वचः, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥१॥ रविशशी-कुज इन्द्र-जगत्पतिः, भृगुज-भानुज-सिन्धुज-केतवः। उडुगणा-तिथि-योग च राशयः, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥२॥ वरुण-इन्द्र कुबेर-हुताशनाः, यम-समीरण-वारण-कंुजराः। सुरगणाः सुराश्च महीधराः, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥३॥ सुरसरी-रविनन्दिनि-गोमती, सरयुतामपि सागर-घघर्रा। कनकयामयि-गण्डकि-नमर्दा, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥४॥ हरिपुरी-मथुरा च त्रिवेणिका, बदरि-विष्णु-बटेश्वर-कौशला। मय-गयामपि-ददर्र-द्वारका, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥५॥ भृगुमुनिश्च पुलस्ति च अंगिरा, कपिलवस्तु-अगस्त्य च नारदः। गुरुवस्ाष्ठ-सनातन-जैमिनी, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥६॥ ऋग्वेदोऽथ यजुवेर्दः, सामवेदो ह्यथवर्णः। रक्षन्तु चतुरो वेदा, यावच्चन्द्रदिवाकरौ॥
इसके बाद विसजर्न और आशीवचर्न के पुष्प प्रदान कर कृत्य समाप्त किया जाए।
दोनों पक्ष की सहमति से समान वर्ग के सुयोज्ञ वर से कन्या का विवाह निश्चित कर देना 'ब्रह्म विवाह' कहलाता है। सामान्यतः इस विवाह के बाद कन्या को आभूषणयुक्त करके विदा किया जाता है। आज का "व्यवस्था विवाह" 'ब्रह्म विवाह' का ही रूप है।
किसी सेवा कार्य (विशेषतः धार्मिक अनुष्ठान) के मूल्य के रूप अपनी कन्या को दान में दे देना 'दैव विवाह' कहलाता है।
कन्या-पक्ष वालों को कन्या का मूल्य दे कर (सामान्यतः गोदान करके) कन्या से विवाह कर लेना 'आर्य विवाह' कहलाता है।
कन्या की सहमति के बिना उसका विवाह अभिजात्य वर्ग के वर से कर देना 'प्रजापत्य विवाह' कहलाता है।
परिवार वालों की सहमति के बिना वर और कन्या का बिना किसी रीति-रिवाज के आपस में विवाह कर लेना 'गंधर्व विवाह' कहलाता है। दुष्यंत ने शकुन्तला से 'गंधर्व विवाह' किया था। उनके पुत्र भरत के नाम से ही हमारे देश का नाम "भारतवर्ष" बना।
कन्या को खरीद कर (आर्थिक रूप से) विवाह कर लेना 'असुर विवाह' कहलाता है।
कन्या की सहमति के बिना उसका अपहरण करके जबरदस्ती विवाह कर लेना 'राक्षस विवाह' कहलाता है।
कन्या की मदहोशी (गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता आदि) का लाभ उठा कर उससे शारीरिक सम्बंध बना लेना और उससे विवाह करना 'पैशाच विवाह' कहलाता है।
This article uses material from the Wikipedia हिन्दी article विवाह संस्कार, which is released under the Creative Commons Attribution-ShareAlike 3.0 license ("CC BY-SA 3.0"); additional terms may apply (view authors). उपलब्ध सामग्री CC BY-SA 4.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। Images, videos and audio are available under their respective licenses.
®Wikipedia is a registered trademark of the Wiki Foundation, Inc. Wiki हिन्दी (DUHOCTRUNGQUOC.VN) is an independent company and has no affiliation with Wiki Foundation.